मृदुल मेधावी और सौम्य बच्चा था। पढ़ने-लिखने में तेज और खेलकूद में भी उतना ही अच्छा। सभी का ध्यान रखने वाला और सभी को प्यार करने वाला। माता-पिता शिक्षक सभी प्यार करते थे उससे। अनुशासन प्रिय और कलात्मक तो इतना कि हर काम खूबसूरती और सलीके से ही करता। अच्छा लगता था उसे सुंदर-सुंदर चीजों को देखना और सहेजना । करीने से सजाकर अपने कमरे और किताबों की अलमारी को रखना।
उदाहरण देते थे अन्य अभिवावक अपने-अपने बच्चों को उसका नाम ले-लेकर।
डाक टिकटों का तो उसके पास सबसे सुंदर संग्रह था। कुछ सिक्के भी थे जो उसके सैलानी चाचा ने अपनी विदेश-यात्राओं के दौरान जमा किए थे और दिए थे उसे।
चिड़ियों के रंगीन पंखों का कलेक्शन भी था उसके पास, जो अपने पालतू मोर के झरते पंखों से हाल ही में शुरु किया था उसने । धीरे-धीरे तरह-तरह के अन्य चिड़ियों के पंख , जैसे कबूतर , नीलकंठ और तोते वगैरह के भी शामिल होते चले गये थे उसके इस संकलन में। शुतुरमुर्ग का पंख तो इतना बड़ा और सुंदर था कि उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि इसे कैसे और कहाँ सहेजे! पिता जी के संग चिड़ियाघर घूमने गया था तो वहाँ से ले आया था वह इसे। जैसे कि समुद्र के किनारे से लाएहुए कई छोटे-छोटे सीप और शंख वगैरह भी थे उसके पास। कुछ न कुछ आए दिन मिल ही जाता था उसे अपने बगीचे में, इधर-उधर, जो उसकी आंखों को सुंदर लगता, उसकी कल्पना को कुछ नया करने को उकसाता और वह उन्हें सहेजकर अपने साथ ले आता।
परन्तु यह पंख खास था और इसके साथ शुरु हुआ उसका एक और नया शौक… सूखी टहनियों , और रंग बिरंगी फूलों की पंखुरियों आदि को कागज पर चिपका-चिपका कर उनसे तस्बीर बनाने का।
बीचोबीच में तिरछा करके वह शुतुरमुर्ग का पंख लगा दिया था उसने और इधर-उधर अपनी पसंद के सारे रंग बिखेर दिए। खुद ही फ्रेम में मढ़कर जब उसने वह तस्बीर अपनी दीवार पर लगाई तो सभी ने बहुत तारीफ की उसकी। तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती, फिर तो उसकी कल्पना और भी नई-नई उड़ानें लेने लगी।
रंग और प्रकृति के समिश्रण से जाने क्या-क्या नया रचने लगा वह नित ही। खूब आनंद आता उसे इसमें। पूरा शनिवार इतवार यूँ ही निकलता उसका। एक दिन ऐसे ही एक इतवार की शाम को जब वह बगीचे में बैठा होमवर्क कर रहा था तो एक बेहद खूबसूरत तितली आई और सामने गुलाबों की महकती क्यारी पर मंडराने लगी। उसके पंखों पर नीले,पीले और गुलाबी व काले चार रंगों की अद्भुत और बेहद खूबसूरत डिजाइन थी। जब धूप की किरण उसपर पड़ती तो वे रंग तो चमकते ही , एक सुनहरा रंग भी चमकने लगता पंखों के बीच से।
मृदुल अपलक देखता रहा। जब न रहा गया तो दबे पैर जाकर तितली को पकड़ लिया उसने। तितली फड़फड़ाती रही और वह उन सुंदर पंखों के रंगों से विस्मित होता रहा। भूल गया कि तितली दर्द में थी और उड़ना चाहती थी। अचानक दोनों पंख उसकी उंगलियों में थे और मृत तितली हथेली पर।
मृदुल का मन चीत्कार उठा। खुद उसकी अपनी आँखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे- यह उसने क्या कर दिया?
सुंदर चीजें तो बहुत हैं इस दुनिया में। फूल पूल पर तरह-तरह की रंग-बिरंगी तितलियाँ हैं और डाल-डाल पर तरह-तरह के सुंदर फूल। परन्तु हर सुंदर चीज को तो हम एकत्र नहीं कर सकते। अपने पास नहीं रख सकते। प्रकृति और यह संसार, सांस लेता, जीता-जागता संसार है, जहाँ हरेक की अपनी-अपनी जरूरतें और इच्छायें हैं, जीवन है। एक ऐसी खूबसूरत और बहुरंगी किताब है यह, जिसे हम पढ़ तो सकते हैं परन्तु सदा के लिए सहेज नहीं। वह अब जान और समझ चुका था कि कुछ चीजें तो इतनी नाजुक होती हैं कि उन्हें हाथ लगाना भी सही नहीं…चीजें तो उसकी पतंग की तरह ही खुली हवा मे और आजाद उड़ती ही अच्छी लगती हैं, जैसे कि वह फूल-फूल पर इतराती तितली, जो अब एक उसकी गलती की वजह से उड़ना तो दूर, जान से भी हाथ धो चुकी है।
मृदुल की मौत से यह पहली मुलाकात थी। उसने तितली के मृत शरीर को प्रणाम किया और वहीं गुलाब की क्यारी में दफना दिया , जैसे कि उस फिल्म में मृत आदमी को दफनाया गया था, हाथ जोड़कर और उसकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते हुए।
अब वह खुद भी शांत था और सबक ले चुका था कि लालच में नहीं, जो जरूरी हो, बस वही सहेजो। …
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खुश खुश रहना
लालच की है मार बुरी
घर को तोड़े, देश को तोड़े
जिन्दा को मुर्दा बनाकर ये झोड़े
लालच की मार से सदा तुम बचना
जो है उसी में संतुष्टि करना
और सदा ही खुश खुश रहना
खुद जीना औरों को जीने देना…
शैल अग्रवाल