गीत और ग़ज़लः सूर्य भानु गुप्त


जिन के अंदर चराग़ जलते हैं ,
घर से बाहर वही निकलते हैं ।

बर्फ़ गिरती है जिन इलाक़ों में,
धूप के कारोबार चलते हैं ।

ऐसी काई है अब मकानों पर,
धूप के पाँव भी फिसलते हैं ।

बस्तियों का शिकार होता है ,
पेड़ जब कुर्सियों में ढलते हैं ।

ख़ुद-रसी उम्र भर भटकती है,
लोग इतने पते बदलते हैं ।

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,
मूड होता है तब निकलते हैं ।

आँखों में पड़े छाले, छालों से बहा पानी,
इस दौर के सहरा में, ढूँढ़े न मिला पानी।

दुनिया ने कसौटी पर, ता उम्र कसा पानी,
बनवास से लौटा तो शोलों पे चला पानी।

पर्वत के ज़ुबाँ फूटी, इक शोर उठा, पानी,
मन्ज़र पे बना मन्ज़र, पानी पे गिरा पानी।

लोगों ने कभी ऐसा, देखा न सुना पानी,
पानी में बही बस्ती, बस्ती में बहा पानी।

दरिया की जगह घेरी पत्थर के मकानों ने,
बारिश में नहीं अपने आपे में रहा पानी।

सैलाब ने हर घर की सूरत ही बदल डाली,
रुकने को किसी घर में, पल भर न रुका पानी।

बन्दे से ख़ुदा बनते, देखा है उन्हें हमने,
जो लोग कराते हैं, पानी से जुदा पानी।

मन्दिर हो कि मस्जिद हो, गिरिजा हो कि गुरुद्वारा,
आजाद़ रहे जब तक, लगता है भला पानी।

फूलों से लगी लेने, अब काम बमों का भी,
इस दर्जा सियासत की, आँखों का मरा पानी।

दरिया से जुदा होकर बाज़ार में आ पहुँचा.
बादल न जो बन पाया बोतल में बिका पानी ।

बेआब न थे इतने हम दौरे-ग़ुलामी में,
बतलाए कोई जोशी, किस देश गया पानी।

देखा है जिन आँखों ने, इक जलते हुए वन को,
रहता है उन आँखों में, हर वक्त़ हरा पानी।

हर सिम्त मुक़ाबिल थीं, बस धूप की तलवारें,
पर आख़िरी क़तरे तक, सहरा में लड़ा पानी।

जब प्यास अँधेरों के घर बैठ गई जा कर,
जलते हैं दिये जैसे, सहरा में जला पानी।

उस पार हर इक युग में, महीवाल का डेरा था,
कच्चा था घड़ा जिसका, काटे न कटा पानी।

वीरान हम इतने थे, जंगल न कोई होगा,
इक शाम पहनने को, यादों ने बुना पानी।

हर लफ़्ज़ का मानी से, रिश्ता है बहुत गहरा,
हमने तो लिखा बादल और उसने पढ़ा पानी।

तन भी न बचा कोरा, मन भी न बचा कोरा,
इस बार के सावन में, क्या जम के गिरा पानी।

हम जब भी मिले उससे, हर बार हुए ताज़ा,
बहते हुए दरिया का, हर पल है नया पानी।

घर छोड़के निकलें तो संसार के काम आएँ,
कब धूप को पहने बिन बनता है घटा पानी।

इक मोम के चोले में, धागे का सफ़र दुनिया,
अपने ही गले लग कर, रोने की सज़ा पानी।

जन्नत थी मगर हमको, झुक कर न उठानी थी,
काँधों पे रहा चेहरा, चेहरे पे रहा पानी ।

हर एक सिकन्दर का, अन्जाम यही देखा,
मिट्टी में मिली मिट्टी, पानी में मिला पानी।

सूर्यभानु गुप्त
जन्मः 22 सितंबर 1940
उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के नाथूखेड़ा (बुन्दकी) में। बचपन से ही मुम्बई में निवास। १२ वर्ष की आयु से ही कवितालेखन का अरम्भ कर दिया था। विभिन्न विधाओं में उनकी ६०० से अधिक रचनाओं के अतिरिक्त २०० बालोपयोगी कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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