गीत और ग़ज़लः जोत उजास


नए आसमां की तलाश में मैं सभी मंजिलों से गुजर गया
तू चिराग था मेरी राह का मुझे ये बता तू किधर गया।

तेरी रौशनी ने लिखे हैं यूं मेरी राहतों के सभी वरक
मुझे सोचती है नजर-नजर मेरा दर्द सब में उतर गया।

ज़रा सोच कैसा यकीन था, वो जो तुझसे मुझसे हसीन था
क्यूं उसी चलन की वज्म में, मेरा ख्बाव तक बिखर गया।

कल वस्ल में न ढूँढे तू हँसी आरजू की लिखावटें
जहाँ आहटें भी लापता मैं वहाँ वहाँ से गुजर गया।

मुझे आंसुओँ से है दोस्ती, जहाँ चांदनी की हँसी नहीं
उसे क्या खबर मैं गया जिधर मेरे साथ मेरा भंवर गया।

तू जो साथ था तो धनक रंगों के ये कहकशां मेरे सामने
गमे यार ने जो छुआ मुझे नई रौशनी से मैं डर गया।

मुझे देखते हैं घड़ी-घड़ी बड़ी हैरतों से ये आइने
कभी मरते-मरते मैं जी उठा, कभी जीते जीते मैं मर गया।

मेरे आंसुओं की बहार हो जाने किस सदी के नसीब में
यही सोचकर तो मन मेरा सभी पतझरों में संवर गया।

तेरा जिस्म कोई किताब था मेरा प्यार जैसे गुलाब
वो जो चंद लम्हों का ख्बाव था, वहीं वक्त था जैसे ठहर गया।

-आचार्य सारथी ‘ रूमी’

मै जो देखू तुम्हे मुसकराया करो
यूं अंधेरे मे दीपक जलाया करो

रूठना तो अदा है तुम्हारी प्रिये
पर मनाऊँ तो फ़िर मान जाया करो

लौटने की कभी बात करना नही
जिस घड़ी तुम मेरे पास आया करो

हर कली तेरे आने से खिल जाएगी
फूल तुम इस अदा से खिलाया करो

गीत जीवन का हरदम ये सुर में रहे
तुम इसे संग मेरे ही गाया करो

हाथ केवल उठे तो दुआ के लिए
तुम किसी पर इसे न उठाया करो

दिल किसी का कभी मत दुखाया करो
पुन्य को पुन्य कर के कमाया करो

दिल में रहता है ईश्वर इसे जान लो
अपने दिल में सभी को बिठाया करो

-गिरीश पंकज

नहीं साँच को आँच

जहाँ राम, रावण वहाँ, जहाँ कृष्ण तहं कंस।
साथ-साथ दोनों पलें, पुण्य-पाप के वंश।।

पहले थे, हैं आज भी, रावण कौरव कंस।
अपने कर्मों से सभी, स्वयं हुए निर्वंश।।

जब-जब धर्म-अधर्म ने, की पासों से प्रीत।
हार युधिष्ठिर की हुई, शकुनि की हुई जीत।।

कदम-कदम हमको मिले, कितने कौरव कंस।
सहना पड़ा तभी हमें, दुराचार का दंश।।

मिलते जन में देवता, देवों में शैतान।
रूप कभी होता नहीं, चरित्र की पहचान।।

कितना सशक्त झूठ हो, कितनी के अनीत।
लेकिन आखिर में सखे, होती सच की जीत।।

विधना के आलेख को, कौन सका है बांच।
लेकिन इतना सत्य है, नहीं सांच को आंच।।

सबल, विवेकी, धीर जन, रचते हैं इतिहास।
मूर्ख दोहराते मगर, बार-बार इतिहास।।

जीवन के दो पक्ष हैं, सखे हार औ जीत।
गाये जाते हैं मग, सिर्फ जीत के गीत।।

जब-जब भी जिसने लिया, असफलता का कैच।
औषित वह तब तब हुआ, मैन ऑफ द मैच।।

कठिन बजानी बांसुरी, सरल बजाना ढोल।
बजता वह उतना अधिक, जिसमें जितनी पोल।।

जिसने भी लांघी यहां, मर्यादा की लीक।
सीता सम उसको सदा, सहनी पड़ी फटीक।।

राम निवास ‘मानव’

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