गांधी जी की विचारधारा में निहित नैतिक मूल्यों की वर्तमान में प्रासंगिकता
सचमुच संत पुरुष उस पीयूष वर्षी मेघ के समान हैं जो अपनी अमृतमयी रसधार से सम्पूर्ण समाज को आप्लावित कर निरंतर उसकी कल्याण कामना में निरत रहते हैं , और इस संदर्भ में बात जब युग द्रष्टा महात्मा गांधी की हो तो एक गर्वबोध होना स्वाभाविक है कि एक देशभक्त ,समाज उन्नायक, अहिंसा व्रतधारी , नैतिक मूल्यों और आदर्शों के मसीहा के रूप में उन्होंने जो कुछ भी समाज को दिया , उसने..दिशाहीन भ्रमित देश के जन मानस को एक नई राह दिखलाई उसके लिए हम उनके सदैव ऋणी रहेंगे ,,तभी तो राष्ट्रकवि दिनकर जी ने लिखा था*
*ग्रीवा तक हाथ न जा सकते,,
उंगलियां न छू सकती ललाट
तुम हो विराट, तुम हो विराट!
मेरे मत से गांधी एक व्यक्ति नहीं अपितु एक विचारधारा है, आदर्शों और मानवीयता, नैतिकता की बहती हुई मंदाकिनी है जिसमें अवगाहन कर उनकी विश्व बंधुत्व की भावना परवान चढती है,,देश की अस्मिता अक्षुण्ण रहती है,,इसी कारण उनकी कार्यशैली, उनके विचारों को गांधीवाद के नाम से जाना जाता है,महात्मा गाँधी उस उस व्यक्ति का नाम हैं, जो असत्य को सत्य से, हिंसा को अहिंसा से, घृणा को प्रेम से तथा अविश्वास को विश्वास से जीतने में विश्वास करते थे. भले ही आज गांधीजी नही हैं, लेकिन उनके विचारों, आदर्शों तथा सिद्धांतों के रूप में वे जिन्दा हैं. गाँधी के विचार क्रियात्मक योगदान में जितने उस समय प्रासंगिक थे, आज के समय में भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं.
**महात्मा गाँधी इस महान बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े और कर्मशील नेताओं में से एक थे, वह पूरी दुनिया में शांति, प्रेम, अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, के नेतृत्व कर्ता के रूप में याद किए जाते हैं। जिसके बल पर ही उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ पूरे देश को एकजुट किया और देश को आजाद कराया,जिनके एक आह्वान पर पूरा देश उनके पीछे पीछे चल पड़ा, कोई अस्त्र शस्त्र नहीं, कोई बलप्रयोग नहीं,,केवल मन की पवित्रता और दृढ़ संकल्पों के नैतिक बल से,, अहिंसा के हथियार से देश को दासता से मुक्त कराया,**#चल पड़े जिधर दो डग मग में,
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,,
पड गई जिधर भी एक दृष्टि,,
गड गये कोटि दृग उसी ओर,, **
जिस कारण आज भी गाँधी जी न केवल भारत बल्कि दुनिया भर के विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मीडिया, नीति निर्माताओं और स्वप्नदर्शियों का ध्यान लगातार अपनी ओर आकर्षित करते हैं। संपूर्णता में गाँधी जी को आप वैश्विक चेतना की अभिव्यक्ति भी कह सकते हैं।
.पर जहाँ मानवता और दीन सेवा पर सर्वस्व न्योछावर कर त्याग ,सेवा सत्य और कर्तव्य निष्ठांपर निस्वार्थभाव से आत्म समर्पण की बात हो ,वहां गांधी कबीर सै प्रभावित जान पड़ते हैं, ,और मानवीय प्रेम तथा संवेदना के धरातल पर साथ खड़े दिखाई देते हैं ,तब उनकी तुलना अवश्यम्भावी हो जाती है . मैं गांधी जी की विचारधारा में कबीर के प्रभाव को मानती हूं,,कबीर ईश्वर को परम ब्रह्म के रूप में मानते थे ,क्योंकि उनका विश्वास अवतार वाद में नहीं था ,बल्कि वे
मानते थे कि मनुष्य भी ईश्वर का ही एक अंश है —
”पाणी ही ते हिम भया ,हिम ही गया बिलाई ”
”जो कुछ था सोई भया ,अब कुछ कहा न जाई ”यहाँ
पर गाँधी जी भी कबीर से सहमत दिखाई देते हैं दोनों का यह मानना था की ईश्वर एक है ,चाहे उसे राम कहो या रहीम ,नानक या ईशा ,किसी नाम से पुकारो सब प्रेम व् भक्ति की पराकाष्ठ है ,,जहाँ वर्ग ,जाति व् सम्प्रदाय के नाम पर कोई विभाजन नहीं होता –”ईश्वर अल्ला तेरो नाम ,सबको सन्मति दे भगवान ”दोनों का विश्वास केवल सत्य व् मानव प्रेम में था ,कबीर की भांति गाँधी जी भी युग पुरुष के रूप में समाज में सम्मानित थे ..कबीर जहाँ युग द्रष्टाके रूप में समाज की सम्पूर्ण गतिविधियों पर अपनी नजर रखते थे ..अपने आस पास घटती घटनाओं ,दलितों पर अत्याचार, पाखंड का बढ़ता प्रभाव ,मुल्ला ,मौलवियों ,पंडितों का समाज पर कायम वर्चस्व ..इन सबसे वह अछूते नहीं रह सके थे —-
अथवा ”कर का मनका डार दै मन का मनका फेर ”..मुस्लिम समाज की कट्टरता उन्हें पसंद नहीं थी —
वहीँ गाँधी जी भी आधुनिक युग के संत व् भविष्य द्रष्टा थे .गाँधी जी की माँ कबीरपंथी थीं ,अतः उनकी शिक्षा व् संस्कारों का भी उनके मन और जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा था .गाँधी जी की सबसे बड़ी विशेषता जो उन्हें कबीर के समकक्ष ला खड़ा करती है ,वह है उनकी आध्यात्मिक प्रेरणा ”..कबीर की तरह गाँधी जी भी सत्य को परमात्मा का ही एक रूप मानते हैं ,और उनके सभी कार्यों का एक ही मानदंड था –”सत्य और प्रेम ”गाँधी जी अपने जीवन को सत्य का प्रयोग कहा करते थे .,गाँधी जी ने सत्य का पहला पाठ अपने जीवन से ही सीखा था जब पहली बार पिता से छिपा कर मांस भक्षण किया और परीक्षा के समय अध्यापक के चोरी छुपे नकल कर लेने पर आत्मग्लानि वश क्षमा मांगी ,पश्चात्ताप किया था क्योंकि वे असत्य भाषण नहीं कर सके थे ,..उन्होंने सिद्ध किया कि सत्य व्रत का पालन ही उनके जीवन का ध्येय है .सचमुच सत्य व्रत का पालन किसी तप से कम नहीं होता ,गाँधी व् कबीर दोनों ने अपने आराध्य के रूप में राम को अपनाया गाँधी जी के अभिन्न मित्र और सहयोगी महादेव देसाई कहते हैं –”प्रार्थना में गाँधी जी का ध्यान निराकार सर्वव्यापी प्रभु की ओर रहता था ,राम जिनको वे पूजते हैं ,उनकी कल्पना का है न कि तुलसी रामायण या वाल्मीकि रामायण का ”,गांधी जी ने उद्पाघोष किया,*पाप से घृणा करो,पापी से नहीं ”सदैव सत्य का आचरण करो ” गाँधी का वैष्णव या साधू पुरुष भी समाज कल्याण के लिए समर्पित है —वैष्णव जन तो तेने कहिये जे ,पीर पराई जाने रे
#* गाँधी जी विरोध के सम्मुख भी संसार को कंपा देने वाली धमकी के सामने भी घुटने टेक देते हैं ..उनकी सत्य और अहिंसा ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी, यह बात आप ,हम सब जानते हैं .. .यदि हम गांधी जी के धर्म की बात करें तो उन को धर्म का सरल रूप प्रिय था ,और वे धर्म के मूल सत्य ,प्रेम, व् कर्म को ग्रहण करने सदैव तत्पर रहे हैं क्योंकि कथनी और करनी में पूर्ण साम्यता के पक्षधर होने के कारन उन्होंने ही समाज के पद दलित ,दीन हीनो के लिए संघर्ष किया .और छुआछूत ,पाखंड और बाहरी आडम्बरों का विरोध करते हुए दलितों को ”हरिजन” कह कर गले लगाया .दलितों का मन्दिर प्रवेश कराना ,तत्कालीन समाज में एक बड़ी क्रांति थी, पर गाँधी मत से पूर्णतः प्रभावित थे .—
”जाति पांत पूछहिं नहीं कोई ”
हरि को भजे सो हरि को होई ”महादेव देसाई ने भी गाँधी जी की जीवनी के आधार पर कहा है कि –वह कबीर का एक पद अक्सर गुनगुनाया करते थे और उसे अपनी दैनिक प्रार्थना में भी शामिल कर लिया था —
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मै तो तेरे पास में
न मै मन्दिर ना मै मस्जिद ना काबे कैलाश में ”
इस प्रकार गाँधी और कबीर की समानता ,जो सर्वश्रेष्ठ है ..वह उनके जीवन दर्शन में दिखाई पड़ती है .जहाँ सम्प्रदायवाद ,वर्ग भेद ,जाति प्रथा और पाखंड का विरोध भी शामिल है,कबीर ऐसे ही विरोधाभासों के बीच पुकार बन कर सामने आये जहाँ वे यदि हिन्दुओं का विरोध करते तो मुसलमान उन्हें अपने पैगम्बर की तरह सम्मान देते और मुसलमानों की निंदा पर हिन्दू खुश हो जाते .पर कबीर ने निस्पृह भाव से हिन्दू मुसलमान दोनों को समझाया .गाँधी जी ने भी बंगाल के दंगों के समय मुसलमानों के प्रति अन्याय का विरोध करते हुए अनशन किया था .एक सच्चे वैष्णव के समान हीअपने प्रण पर टिके रह कर सत्य की राह नहीं छोड़ी थी . उनकी दृष्टि में जाति महत्त्व नहीं रखती थी ,बल्कि मानव सेवा व् अहंकार का त्याग करने वाला ही सच्चा मानव है —-”**पर दुखे उपकार करे सोई मन अभिमान न आणे रे **”यहाँ पर गाँधी अहंकार विरोधी थे .अपने व्यक्तिगत जीवन में भी गाँधी जी ने सादगी ,मितव्ययिता ,व् गरीबी को अपनाया . , और चरखे पर सूत कात कर वही वस्त्र पहने और स्वदेशी प्रेम को अपनाया .क्योंकि देश की जनता भूखी नंगी थी . गांधी जी अहिंसा को साधन बनाने वाले पहले व्यक्ति नहीं थे, लेकिन इसको आंदोलन का रूप देने वाले पहले व्यक्ति अवश्य थे क्योंकि उन्होंने हिंसा में अंतर्निहित जीवन मूल्यों और उसके मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझ लिया था, वे मानते थे कि** युद्ध किसी देश को मजबूत नहीं बनाता बल्कि कमजोर करता है क्योंकि उसमें मनुष्यों की बलि चढ़ती है** बीसवीं शताब्दी में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, आंग सांग सू की आदि जैसे लोगों ने गाँधी जी के विचारधारा अहिंसा का प्रयोग करते हुए अपने देश या क्षेत्र में परिवर्तन लाने में सफल हुए है,,,,,यही गांधीवाद की सफलता है,उसका उत्कर्ष है,,
गांधी जी के विचारों पर जिन विचारधाराओं, और व्यक्तियों, और मान्यताओं का गहरा प्रभाव पड़ा था, उन्होंने उसे नए रूप में, संतुलित समन्वित और लोकहित कारी सिद्धांतों में ढाला, जिससे आधुनिक युग के लोग भी उसे समझ सके और उसका प्रयोग कर सकें, इसकी झलक उनके सपनों के भारत की जो कल्पना है, उसमें प्रदर्शित होती है । गाँधी जी के सपनों का भारत गाँवों में बसता है और इसके लिए उन्होंने ग्राम स्वराज, पंचायती राज, ग्रामोद्योग, महिला शिक्षा, महिलाओं की भागीदारी, दहेज प्रथा का विरोध, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन, गाँव की स्वच्छता, गाँव का आरोग्य, पंचायती राज का समर्थन, और समग्र ग्राम विकास आदि पर बल दिया। गाँधी जी ने उपरोक्त जिन बातों की ओर संकेत किया था, वह उस दौर की अपेक्षा वर्तमान में कहीं अधिक प्रासंगिक है।
गाँधीवाद अहिंसा और सत्याग्रह पर टिका है, जो चार उप-सिद्धांत सत्य, प्रेम, न्याय और अनुशासन पर आधारित है। जिसकी उपादेयता एवं प्रासंगिकता वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में और बढ़ जाती है। इसे इस बात से और अधिक समर्थन प्राप्त होता है कि गांधी जी के जन्म दिवस ‘2 अक्टूबर’ को संयुक्त राष्ट्र ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाता है ।
आज दुनिया के किसी भी देश में शांति मार्च का निकलना हो अथवा अत्याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो, ऐसे सभी अवसरों पर लोगों को गाँधी जी की याद आती है और हमेशा आती रहेगी। अतः यह कहने में कोई हर्ज नहीं की गाँधी, उनके विचार, उनके दर्शन तथा उनके सिद्धांत कल भी प्रासंगिक थे, आज भी है तथा भविष्य में भी इसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी,
**पीताम्बर दत्त बडथ्खवाल लिखते हैं —
”भारत के अहिसात्मक,लोककल्याणकारी लोकतंत्र का सूर्य ही आधुनिक युग में गाँधी बने.और युग द्रष्टा , समाज उन्नायक , और सच्चे देशभक्त साधक हर रूप में प्रासंगिक रहे हैं .हमें आज भी उनकी आवश्यकता है —-
”विचलित है न्याय ,सत्य आज भी पराजित है ,
पीड़ित मानवता के शूल चुभे पांवों को ,
आज भी एक गाँधी की पीर की जरूरत है ,
कर्म और नीति में प्रेम का समन्वय कर ,
कौन पन्थ दिखलाए ?
जन जन का दर्द फिर पुकारता है बार बार ,
आओ फिर एक बार ,आओ फिर एक बार ”
—-पद्मामिश्रा जमशेदपुर
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