बरसै बदरिया सावन की सावन की मन भावन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा भनक सुनी हरि आवन की।।
उमड घुमड चहुं दिससे आयो, दामण दमके झर लावन की।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै, सीतल पवन सोहावन की।।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, आनन्द मंगल गावन की।।
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे।।
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे।।
माई री! मै तो लियो गोविन्दो मोल।
कोई कहे चान, कोई कहे चौड़े, लियो री बजता ढोल।।
कोई कहै मुन्हंगो, कोई कहे सुहंगो, लियो री तराजू रे तोल।
कोई कहे कारो, कोई कहे गोरो, लियो री आख्या खोल।।
याही कुं सब जग जानत हैं, रियो री अमोलक मोल।
मीराँ कुं प्रभु दरसन दीज्यो, पूरब जन्म का कोल।।
राह तके मेरे नैन
अब तो दरस देदो कुञ्ज बिहारी
मनवा हैं बैचेन
नेह की डोरी तुम संग जोरी
हमसे तो नहीं जावेगी तोड़ी
हे मुरली धर कृष्ण मुरारी
तनिक ना आवे चैन
राह तके मेरे नैन ……..
तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे
तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे, नागर नंद कुमार।
मुरली तेरी मन हर्यो, बिसर्यो घर-व्यौहार॥
जब तें सवननि धुनि परि, घर आँगण न सुहाइ।
पारधि ज्यूँ चूकै नहीं, मृगी बेधी दइ आइ॥
पानी पीर न जानई ज्यों मीन तड़फि मरि जाइ।
रसिक मधुप के मरम को नहिं समुझत कमल सुभाइ॥
दीपक को जो दया नहिं, उड़ि-उड़ि मरत पतंग।
‘मीरा’ प्रभु गिरिधर मिले, जैसे पाणी मिलि गयो रंग॥
श्याम मोसूँ ऐंडो डोलै हो
श्याम मोसूँ ऐंडो डोलै हो।
औरन सूँ खेलै धमार, म्हासूँ मुखहुँ न बोले हो॥
म्हारी गलियाँ ना फिरे, वाके आँगन डोलै हो।
म्हारी अँगुली ना छुए, वाकी बहियाँ मरोरै हो॥
म्हारो अँचरा ना छुए, वाको घूँघटा खोलै हो।
‘मीरा’ को प्रभु साँवरो, रंग रसिया डोलै हो॥
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो। पायो जी मैंने…
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने…
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने…
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। पायो जी मैंने…
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो। पायो जी मैंने…
मन रे परसी हरी के चरण
सुभाग शीतल कमल कोमल
त्रिविध ज्वालाहरण
जिन चरण ध्रुव अटल किन्ही रख अपनी शरण
जिन चरण ब्रह्माण भेद्यो नख शिखा सिर धरण
जिन चरण प्रभु परसी लीन्हे करी गौतम करण
जिन चरण फनी नाग नाथ्यो गोप लीला करण
जिन चरण गोबर्धन धर्यो गर्व माधव हरण
दासी मीरा लाल गिरीधर आगम तारण तारण
जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहूँ न पायों चैन।।
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपे मीठे-मीठे बैन।
बिरह कथा कांसुं कहूँ सजनी, बह गईं करवत ऐन।।
कल परत पल हरि मग जोंवत भई छमासी रेण।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, दुःख मेटण सुख देण।।
हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखी, तुरंत बढायो चीर॥
भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥
बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर।
दासि ‘मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥
पपइया रे पिव की वाणी न बोल।
सुणि पावेली विरहणी रे, थारी रालेली पांख मरोड़।।
चोंच कटाउँ पपइया रे, ऊपर कालोर लूण।
पिव मोरा मैं पिव की रे, तू पिव कहै स कूण।।
थारा सबद सुहावणा रे, जो पिव मेला आज।
चोंच मढाऊँ थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज।।
प्रीतम कूं पतियां लिखूं रे , कागा तू ले जाय।
जाइ प्रीतम जांसु यूं कहै रे, थांरि बिरहन धान न खाय।।
मीरा दासी व्याकुल रे, पिव पिव करत बिहाय।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी, तुम बिन रह्यो न जाय।।
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥।
छाँड़ि दी कुल की कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिंग बैठि-बैठि लोक लाज खोई॥
चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।
मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥
अँसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई॥
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछा पिये कोई॥
भगत देख राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी “मीरा” लाल गिरिधर तारो अब मोही॥
– मीराबाई
(1498 -1546 )
जन्मः कुडकी , राजस्थान,
मृत्यु द्वारिका, गुजरात।
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