हेरत हेरत हे सखी , रहा कबीर हेराय ।
समद समाना बूँद में ते कत हेरी जाए।
जीवन यात्रा को कुछ पन्नों में समेटना इतना आसान नहीं ,,,क्योंकि जब बात करते हैं यात्रा कि तो जितना बाहर धटित होता है ,,जितने सालों का इतिहास बाहर की दुनिया से सम्बन्धित होता है उससे अधिक कहीं भीतर की दुनिया में धटित होता है।
सबको शब्द देना वैसे भी जटिल है और बात अनुभूतियों और अहसासों की हो, खोने और पाने की हो , तो और भी जटिल ।
एक कोशिश अवश्य कर रही हूँ ।
मैं एक आम साधारण डील डौल वाली बालिका अपने परिवार के साथ मौज मस्ती करते नवमी कक्षा में पहुँची और सभी कलाओं के प्रति आकर्षित, बडी बहन चन्दा प्रहलादका, छोटे भाई अजीत और सभी भाई बहनों ने संगीत के साथ नाता जोडा, पिता श्री राम कैलाश सरावगी , धर्म भाई डाॅ. अमरनाथ ‘अमर’ के सानिध्य ने कब, कैसे साहित्य के करीब जा बैठी ,पता नहीं। धीरे-धीरे धार्मिक माहौल और माँ गीता देवी के संस्कारों ने धर्म और दर्शन के करीब पहुँचा दिया। सहज रूप से अपने स्कूल की लाइब्रेरी ने परिचित करवाया धर्मवीर भारती से , प्रेमचन्द, बंकिम चन्द्र और ढेर सारे उपन्यासकारों से और घर की लाइब्रेरी ने परिचित करवाया आचार्य रजनीश , राहुल सांकृत्यायन, मेक्सिम गोर्की, जवाहरलाल नेहरू, दिनकर , चारों वेद, भागवत गीता, उपनिषद, चन्दा मामा , सरिता , मुक्ता जैसी पत्रिकाओं और सोवियत संध की पत्रिकाओं आदि से ।
वो बालमन ही था जो इन पुस्तकों के शब्दों में ही उलझा रहा । अर्थ की बात करूँ, तब तो यही लगता था कि बहुत कुछ जान गई हूँ । आज अपनी उस नादानी पर हँसी आती है ।
पर ये तय हो गया था कि मेरी रुचि साहित्य और दर्शन में भी है अन्य कलाओं के साथ । चित्र कारिता बहुत भाती थी,,,कुछ भी नया सीखने का शौक बना रहता था ,,जो आज भी है ।
हाँ एक बात और जो बचपन से आजतक कायम है वो है लोगों के चेहरों की शिकन मिटाकर उनपर एक प्यारी-सी मुस्कुराहट खिलाने की एक अथक कोशिश ,,,फिर वो नुक्कड पर बैठा हुआ भिखारी हो ,,या हवाई सफर में रोता हुआ अबोध बालक ।
बहाने बनाने तो आते थे, पर “ना” बोलना शायद इसीलिए नहीं सीख पाई, दूसरों को खुश रखने के लिए न चाहते हुए भी उनके मन मुताबिक काम कर लेती थी और आज भी कर लेती हूँ।
पर एक बात अवश्य थी मैंने गलत के सामने कभी सिर नहीं झुकाया । बल्कि उसका प्रतिरोध तब भी करती रही और आज भी कोशिश अवश्य करती हूँ । यह और बात है कि इसका हर्जाना भी भुगतना पडता है ।
कालेज पहुँची तबतक थोडी गम्भीरता आ गई थी। गुरू और बडों का सम्मान और जरूरतमंदों पर सहानुभूति तो माँ ने धुट्टी में ही पिलाया था। उसके साथ प्रसाद, पंत, निराला , बर्डस्वर्थ, कीट् आदि को पढते-पढते अज्ञेय और निराला प्रिय कवि बन गए। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर के संस्मरणों ने अच्छी आदतों का समावेश किया , देवदास से ज्यादा गुनाहों का देवता भाने लगी और ओशो में मन रमने लगा। कामायनी की प्रज्ञा कब समाहित हो गई मन में पता ही नही चला, प्रेमचन्द की निर्मला अपने समाधान ढूँढती नजर आई । रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि के अर्थ ढूँढ़ने लगा मन और गाँधी के सत्य के प्रयोग जीवन में उतरने लगे साथ ही उतरने लगे महावीर की मेरी भावना के छन्द और देव शास्त्र और गुरू की पूजा के भाव जीवन में और सामयिक पाठ होठों से मन तक की यात्रा पर ,,, और रमने लगी मैं श्वेत ध्यान में और आनंद का अतिरेक,,।
बस तभी रोता मन जब किसी के दुःख का निदान नहीं समझ आता ,,,।
दूसरों के शारीरिक कष्टों को दूर करने के लिए डाक्टर बनने की ख्वाहिश पैदा हुई । पर अपनी संवेदनाओं के अतिरेक ने रोक दिया ।
तर्क करना सीख गई थी शायद और समाज की समस्याओं से लडने के लिए युवा मन वकील बनना चाहता था । पर परिवार ने रोक दिया ।
संन्यास लेना चाहा मन ने पर कच्ची थी उम्र,,,तब शिक्षिका बनने की बात अच्छी लगी ।
पर पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता । हो गई शादी और अपने परिवार के प्रति पूर्ण समर्पण जो माँ की सबसे बडी शिक्षा थी ,,भूल गई सारे सपने पर पढने-लिखने का शौक जो नवमीं कक्षा से था ,,,वो नहीं छूटा ,,।
बेंगलोर की धरती और एकाकी जीवन ,,,दो नन्हें फूल समय के अन्तराल में और उनकी खिलन से खिलता मन ,,,आसपास के बच्चों को भी कुछ पढाने का दौर निःस्वार्थ भाव से ,,एक छोटी सी संस्था, सहयोग जरूरत मंदों को , गरीब बीमार और अनाथ के लिए एक छोटा सा प्रयास।
पर जब बच्चे बडे हो गए तो फिर से एक शून्य,,जिसे भरने के प्रयास में डायरिया भरती चली गई,,कैनवास रंगती गई, और एक नन्ही कोशिश अपने आसपास को कुछ हँसी, कुछ खुशी और कुछ शिक्षा का प्रकाश देने की।
पुस्तकें, कलम,डायरियाँ, रंग और सूई-धागे, ये थे चिर साथी।
शादी के बीस बसंत ,फिर से मुडी विश्व विधालय की ओर ,,,
और फिरसे जिया वो जीवन ,जो मुझे ले गया मेरे बचपन और जवानी की दहलीज पर एक बार फिर ,,आनन्द जिसका कोई मोल नहीं ,,खुशनसीबी मेरी। और तब शिष्या बनकर वो आनन्द पाया जो शिक्षिका बनकर नही मिला।
फिर की पी एच डी । उन पाँच वर्षों ने फिर से उन सारे प्रयोगों को साकार कर दिया जो कभी किऐ थे मैने, सारे दर्शनों को खंगाला मन ने और उनकी एकरूपता का साक्षी बनता , जैन दर्शन और सिद्धांतों में ऐसा रमा, कि हो उठा तादात्म्य प्रकृति से और चमत्कार लगने वाली बातें जीवन का हिस्सा बनने लगी साथ थे सिस्टर शिवानी के प्रयोग भी। बदलने लगा जीवन ,,,एक नया जीवन ,,,जहाँ निश्चय की रोशनी में व्यवहार पलने लगा अपनी सम्पूर्ण खिलन के साथ ।
पर फिर एक अन्तराल ,,
थोडी उम्र और खिसकी,,,जिम्मेदारियों से मुक्त होने का वक्त। बच्चों का विवाह ,,,और घर में दो परियाँ , बच्चों की जीवनसंगिनी ।
अब ,,,
अब चलना था एक नई दिशा की ओर ,,,परिवार से समाज की ओर , सृष्टि संगम, अग्रवाल महिला मंडल, आश्रय सेवा ट्रस्ट, एफ टी एस,,और अनेकों संस्थान,,।
वानप्रस्थ की उम्र,,,देना था जो पाया जीवन से ,,,बस उसी कोशिश में प्रेरणा मंच , काव्य रंगोली , आल लेडिज लीग, शब्द साहित्यक संस्था और फिर अब अभ्युदय अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक सफर ,,,,भाषाओं और कला का सफर ,,,अब कवि के साथ काफी भी ,,,।
मंच पर एक मार्गदर्शक उद्धोषक की भूमिका ,,जीवन के अनुभवों को बाँटने की एक कोशिश ।
साझा संकलनों द्वारा कवि और साहित्यकारों को पहचान दिलाने की कोशिश ।
भारतीय भाषाओं को मंच पर सजाने की कोशिश ।
हिन्दी और उसके साहित्य की समृद्धि से अवगत कराने की कोशिश ।
और हर चेहरे पर मुस्कान और दिल में सुकून होने की कोशिश ।
अपने मानव होने की कोशिश ,,,,और एक अनवरत सफर मानवता का ।
जाना मैंने कि अब तक कुछ नहीं जाना ,,,ज्ञान के सागर की एक बूंद भर ,,,जिसमें क्षमताऐ अपरिमित ,,,बस एक प्रयास उस सागर में विलय होने का ,,,जिसके लिए कबीर ने कहा था –
हेरत हेरत हे सखि रहा कबीर हेराय ।
बूंद समाना समद में ते कत हेरी जाए ।
बस इतना ही ।
डॉ इन्दु झुनझुनवाला
संस्थापिका अभ्युदय अंतर्राष्ट्रीय समूह
( एक साहित्यिक व सामाजिक आंदोलन)
बैंगलुरु, भारत
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