परिचर्चाः काशी तब और अब-शैल अग्रवाल

सुना था कि एक बार आँखों से दूर तो मन से भी दूर…परन्तु हर चीज के साथ ऐसा नही होता। कुछ चीजें भूलाए नहीं भूलतीं, हम चाहें तो भी नहीं। दूर रहना चाहे तो भी नहीं रह पाता इन्सान प्रिय से। बनारस भी ऐसा ही शहर है मेरे लिए। ५५ साल हो गए दूर रहते हुए पर मिट्टी तक खींचती और पुकारती है यहाँ की। हवा की नमी, वनस्पति सब आज भी अपनी और जानी पहचानी है। स्फूर्ति दायक है, अपने न रहे तब भी। वहाँ गुज़रे पलों ने हर गली, हर मोड़ को सदा के लिए परिचित और अपना बना दिया हैं। कहा जाता है कि अनुपस्थिति या दूरी हो तो, ये यादें ही तो मिलने की इच्छा को भड़काने लगती हैं और बनारस तो आज भी मेरा अपना शहर है, जहाँ मैंने आँखें खोलीं और संपूर्ण शिक्षा पाई, जीना सीखा। आरंभ या नींव के बीस वर्ष निकाले । मेरे पास सघन और सर्वाधिक यादें इसी शहर की हैं। आज भी जीवित और साथ, कई-कई वर्ष गुजर जाने के बाद भी। बल्कि अब तो और भी अधिक स्पष्टता और तीव्रता के साथ कौंधती हैं ये यादें। एक घर या चन्द कमरों तक सीमित नहीं अब ये। अब तो पूरा शहर ही घर सा लगने लगा है मुझे, जैसे मंदिर में खड़ी भगवान की मूर्ति, परिचित या अपरिचित का भेद ही नही कहीं ।

घाट किनारे बैठकर गंगा की लहरों से बतियाना अब और अधिक तसल्ली देता है , इन्हीं लहरों में तो तिरोहित हैं मेरे अपने। घाट से मिलकर ही अतीत हो चुके अतीत की उपस्थिति का अहसास हो जाता है। लगना कि मिल ली उनसे, कहीं और संभव ही नहीं यह आत्मीय अहसास। हाँ, अब कभी-कभी यह अवश्य लगता है कि वह एकांत छिन चुका है गंगा किनारों से भी। वह शांति नहीं रही। विदेशी समुद्रों के किनारों पर चल रहे राग-रंग का अहसास होने लगता है कभी-कभी देहाती मेले से शोर को पूरी फूहड़ता से समेटे हुए।

बनारस का यह आधुनिक वातावरण विस्मित तो करता है, परन्तु कई बार जिस बनारस की यादें मन में बसी पड़ी हैं , उससे नहीं मिलवा पाता मुझे। सुना है अब तो गंगा -आरती को भी शादी जैसी इवेन्ट्स में मैनेज करने की कोशिश की जा रही है। अगर वाकई में ऐसा हुआ तो इससे मुद्रा-लाभ तो अवश्य होगा, परन्तु गंगा की गरिमा एक पांच-तारा होटल के स्विमिंग पूल से अधिक नहीं रह जाएगी। घाट पर मर्यादा और शालीनता का ध्यान रखना अति आवश्यक है। भंग करते तेज़ और भड़काऊ संगीत और युवाओं द्वारा अभद्र व मर्यादा-रहित व्यवहार पर प्रतिबंध अति आवश्यक है। शादी, मुंडन के साथ जन जीवन -मृ्यु और जीवन के दोनों छोरों से सदा ही जुड़ी रही है मां गंगा की धार बनारसियों के मन में। गंगा पर नव विवाहिता का जोड़े के साथ पियरी चढ़ाने आना, वह भी तुरही और नगाड़े के साथ और घाट पर बैठकर मुंडन व केश विसर्जन जाने कब से चली आ रही है ये दोनों रस्में। गंगा से सदा सुहागिन रहने का आशीर्वाद लेने की और चिरंजीवी का आशीष लेने की प्रथा पुरानी और आस्था से भरी है और आज भी उतनी ही प्रचलित। छोटे बच्चों का शीतला घाट पर मुंडन एक तरफ़ और वहीं बग़ल में किसी दिवंगत का तर्पण सब कुछ सा-साथ चलता है। जीवन और मृत्यु का उत्सव साथ और बग़ल-बगल में । न भय न अतिरेक उत्साह , बस समर्पण , शांति और भक्ति। परन्तु यदि शादी के साथ भौंडे नाच गाने और शराब की शोर भरी दावतें भी गंगा किनारे शुरु हो जाती हैं, तो फिर कौन वहाँ नत-मस्तक हो पाएगा, श्रद्धा में हाथ जोड़ पाएगा।

एक विदेश से मायके लौटती बेटी की दृष्टि से देखूँ तो , बनारस की साफ-सुथरी चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े मौल आल्हादित करते हैं, मल्टिपल सिनेमा स्क्रीन, डिजाइनर और अंतर्राष्ट्रीय सामान की उपलब्धि ने जहाँ एक तरफ बनारस को बड़े शहर कलकत्ता दिल्ली जैसा मेकओवर दे दिया है , वहीं हर तरह के सामान की उपलब्धता और सुविधा भी। अब बाँ-बात पर दिल्ली और कलकत्ता भागने की ज़रूरत नहीं। जबकि हमारे बचपन में मैदागिन से गदौलिया तक चौक से सीधी जाती सड़क ही बनारस का राजमार्ग हुआ करता था। हर तरह का व्यापार और विशेष बनारसी ख्याति रखने वाली दुकानों का जमावड़ा इसी सड़क से जुड़ती गलियों में ही था। चाहे पुराने ग्रंथ लेने हों, बर्तन, या फिर बनारसी साड़ी या ठंढाई और मिठाई । आज के इस अति आधुनिक विस्तार के साथ ध्यान रखना होगा कि व्यापार पर नजर रखना तो उचित है पर जिन चीजों के लिए बनारस प्रसिद्ध है, या था, वही न नष्ट हो जाएँ !

बनारस का आध्यात्म , घाटों की शांति और गरिमा, शहर का अपना अनूठा चरित्र, जिसमें ज्योतिष शास्त्र और प्राचीन ग्रंथों की सुलभ उपलब्धि भी थी, सब वैसा ही बना रहे, साथ-साथ संरक्षण और विकास भी हो, जैसा कि बनारस के ललित कला म्यूज़ियम में काशी के सम्मानित नागरिक श्री रायकृष्ण दास जी ने किया था कभी।

बनारस न सिर्फ़ पान के लिए , अपने निःस्वार्थ लगन और सेवा करने वाले सपूतों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। बात चाहे राजा हरिश्चन्द्र की हो या आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की। ठुमरी और कजरी ही नहीं, अप्रतिम साहित्य भी दिया है इस धरती ने । कबीर, तुलसी, प्रसाद से लेकर मालवीय जी और बिस्मिला ख़ान जैसे रतन उगले हैं। लाल बहादुर शास्त्री जैसे अपने-अपने क्षेत्र के महानायकों दिए हैं देश को। आज भी राजन और साजन मिश्रा जैसे गायक बनारस का नाम उज्ज्वल किए हुए हैं। हाल ही में बनारस के तबला वादक संजू सहाय को सुना था मैंने और बरबस ही सरोद के साथ जुगलबन्दी करते हुए अपने समय के मशहूर तबला वादक किसन महाराज की याद आ गई थी।

अकूत प्रतिभा का ख़ज़ाना रहा है बनारस। संगीत और नृत्य जैसी कलाओं में तो बनारसी घराना सदा से ही एक प्रतिष्ठित नाम है। आने वाली पीढ़ियों को ध्यान रखना है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में बनारस अपने ये गुण खो न दे, जहाँ हर मोहल्ले के चौराहों पर कलाकार खड़े मिल जाया करते थे और जहाँ हर मोहल्ले की अपनी एक विशिष्ट पहचान हुआ करती थी। जैसे, विश्वनाथ गली, कुंजगली, नरियल बाजार, ठठेरी बाजार, राजा दरवाजा, कबीर चौरा, सोनार पुरा, लंका , गदौलिया, कमच्छा, राजघाट आदि।

कोई साज श्रंगार तो कोई बनारसी साड़ियों के लिए तो कोई ठेठ बनारसी स्वाद के लिए मशहूर थी। हर बनारसी को पता था कि कहाँ पर क्या उपलब्ध है, किस चीज से पटा पड़ा है कहाँ का बाजार…भैरोनाथ की गली और कचौड़ी गली की क्या विशेषताएँ हैं। और यही गलियाँ काशी की विशेषता रही हैं जैसे कि घाट आज भी इसका धड़कता हुआ दिल। बनारस के बारे में कभी कहा जाता था -कि रांड, सांड , सीढ़ी, सन्यासी , इन चारों से बचे तो सेवै काशी। तो इन चारो पर प्रतिबंध या देख-भाल ने तो निश्चय ही काशी की सुगमता और आकर्षण को बढ़ाया है परन्तु चौड़ी सड़कों के नाम पर उन गलियों को नष्ट करना मानो बनारस की आत्मा को ही नष्ट करना ही होगा। घाट के किनारे अर्ध-चंद्राकार रूप में गलियों में बसा यह पुराना शहर ही तो असली पहचान है बनारस की। भाँति-भांति के स्वाद और गंगाजल की मिलीजुली महक है बनारस की। इस शहर का प्राचीन और सनातन सौंदर्य भी ये गलियाँ ही है और इसकी अनगिनत कलाओं को छुपाए हुए भी यही है। वरना तो सभी शहर एक-से ही दिखते हैं और वहाँ उपलब्ध सामान भी।

इन गलियों पर ध्यान देना, बनारस के कुटीर उद्योगों को मदद करना है, उन्हें जीवित रखना है।, जिसमें मिठाई, ठंडाई और अचार-पापड़ से लेकर जुलाहे-बुनकर सभी कुटीर उद्योग आ जाते हैं। इनकी सहायता यानी परंपरागत कला और विशेष नुस्ख़ों का ही संरक्षण है।

विकसित और आधुनिक बनारस, शहर को इसकी बाहरी परिधि पर निर्मित करना ही अधिक उचित होगा, बनारस के सोंदर्य और आत्मा को नष्ट करके नहीं। इससे आसपास के ग्रामीण क्षेत्र भी विकसित होंगे और ग़रीबी नष्ट होगी। रोज़गार में वृद्धि भी। बनारस आज भी एक शहर है जो अभी तक गाँवों की सारी संस्कृति व सौंदर्य लिए हुए है। और यही इसकी विशेषता है…अक्खड़ बेबाकपन है, पुरातन होते हुए भी नित नवीन बनारस बिल्कुल इसकी अनूठी बनारसी साड़ियों की तरह ही जिसकी जरी भले ही अपना रूप बदल ले पर न तो बूटे बदलते हैं और ना ही उनका आकर्षण ही।

विश्वनाथ मंदिर निश्चय ही पहले से अधिक भव्य लगता है अब। और कुछ-कुछ हाल ही में देखे सोमनाथ मंदिर की भी याद दिलाने लगा है। पर ध्यान यह रखना है कि मंदिर की अपनी पहचान अक्षुण्ण रहे। वहाँ तक पहुँचना इतना दुरूह न हो जाए कि लोग दर्शन से ही घबराने लगें। अपनी पुरानी भव्यता और शांति को खो चुके संकट-मोचन के मंदिर को देखकर तो दुख होता है। सारनाथ का विकास और सौंदर्यीकरण अवश्य ही प्रशंसनीय है। एयर पोर्ट और स्टेशन की सुविधा और विकास के लिए तो योगी जी और मोदी जी दोनों ही बधाई के पात्र हैं।

न तो वक़्त की माँग को ही रोका जा सकता है और ना ही प्रगति के प्रवाह को ही। और ज़रूरत भी नहीं। गंगा की लहरों सा बहता है बनारस और ख़ुद अपनी राह और दिशा को चुनना जानता है। अस्सी घाट पर चल रहे योगाभ्यास और शुबहे बनारस जैसी सांस्कृतिक शुरुआत एक अच्छी पहल है आधुनिक बनारस की। लंका के आसपास स्थानीय कलाकारों द्वारा रचित भित्ति चित्रों को देखकर भी बहुत अच्छा लगा।

याद आ रहा है कि कैसे मेरे एक यूरोपियन मित्र ने मेरे इसी शहर को घूमने के बाद खुला शौचालय तक कह दिया था। मेरे शहर वासियों को साफ़ सफ़ाई के लिए अपनी आदतों को भी बदलना होगा और कहीं भी पेशाब और पीक से बचना होगा। सही है कि बनारस को समझने के लिए, इसे महसूस करना ज़रूरी है क्योंकि वरुणा और असि नदी के मध्य में बसी वाराणसी आम नगरी नहीं, आध्यात्मिक और धार्मिक है, परन्तु मंदिर को गंदा रखकर तो पूजा ध्यान नहीं किया जा सकता?

इस शहर में छह हजार से अधिक मंदिर हैं और सात सौ से ज्यादा मस्जिद, ईदगाह, मजार। सौ से भी अधिक चचॆ, बुद्ध, जैन मंदिर। सभी सह अस्तित्व में जीते हुए जिंदगी की दुआ देते रहते हैं काशी को। एक बात और जो काशी को विशिष्ट बनाती है- यहां गंगा उत्तर-वाहिनी बहती है। स्वाभाविक धारा के विपरीत, अपने श्रोत को निहारती हुई बहती है। अतीत से ऊर्जा लेती हुई । सिखाती हुई कि – आत्मावलोकन की प्रक्रिया.अंतर्मुखी होना कितना आवश्यक है। आज की भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में यह भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि आगे बढ़ने की अभिलाषा। इसी से तो हम अपनी और पथ की सुगमता और दुरुहता का, कठिनाइयों का नाप तोल और पता तय कर पाते हैं, अपनी शक्ति और सामर्थ का सही अंदाज भी कि क्या हमारे बस में है, संभव भी है या नहीं, जान पाते हैं। और देखा जाए तो यही तो बनारस का असली आध्यात्म है-मन चंगा तो कठौती में गंगा…आडंबरों के बीच भी आडंबर हीन, औघड़ अवधूत-सी जैसी है वैसी, निश्चल और निश्छल काशी। और शिव की भंग का रंग भी तो यही है…मस्त और तृप्त करता, जीना सीखो पहले ख़ुद के साथ, सारी कठिनाइयों और कमियों के बावजूद भी, तभी तुम किसी लायक़ बन सकते हो, बन पाओगे, अपना ही नहीं, पर हित भी कर पाओगे।

ख़ुद में ही जीती काशी आज भी समस्त उत्तर भारत की लोकधारा को स्वयं में संजोए हुए है. शायद इसी वजह से सम्पूणॆ उत्तर भारतीय लोक संगीत, लोक नाटक व लोक धारा से सम्बंधित अन्य विधाएं इसी नगरी में जन्मीं, विकसित और पल्लवित हुईं। कहीं यह लोकधारा के तो कहीं शास्त्रीयता के समानांतर चली है। तो कहीं एक दूसरे में समाविष्ट करके एक विशिष्ट बनारसी घराने या कला का भी प्रादुर्भाव हुआ है यहाँ।

काशी वेदव्यास, सुश्रुत, चरक, धनवंतरि और पातंजलि जैसे विद्वानों की साधना स्थली रही है। बुद्ध, महावीर, चारवाक, कबीर, तुलसी, रामानुजाचायॆ जैसे असंख्य विचारक और दार्शनिक की कमॆ भूमि रही है। आज भी शहर का बच्चा-बच्चा बचपन से ही मृत्यु से भय रहित हो जाता है यहाँ पर। इतने शव देख लेता है वह कि उसकी चेतना एक अघोरी साधक जैसी ही हो जाती है जिसके लिए मृत्यु डरावनी नही।

मृत्यु को केंद्र में रख कर जीवन का यह अद्भुत और निरंतर का न्यास आज भी संपूर्ण विश्व को आकषिंत करता है।

यह काशी की मस्ती ही तो है कि यहां – जब जागो तभी सबेरा हो जाता है। रात के ढलने का सुबह को इंतजार नहीं. और कभी-कभी तो लगता है कि काशी सोती ही नहीं। घाट किनारे तो नहीं ही और फिर आसपास की गलियों में भी नहीं। महाशमशान है काशी। गंगा के बीचोंबीच नाव में बैठकर किनारे पर जलती चिता के साथ-साथ उगते सूरज को देखना बनारसियों का प्रिय शग़ल।

पिछले छह हजार साल से भी अधिक वर्षों से यह जीवन रेखा नहीं टूटी इसकी क्योंकि यह अटूट काशी चिर प्राचीन होते हुए भी नित नूतन है। विश्व की यह प्राचीनतम नगरी , सोचिए कितने बदलावों से गुजरी होगी यह अपने इस सदियों के लम्बे जीवन काल में। फिर इधर तो जब से मोदी जी बनारस के सांसद बने हैं, शहर में साफ-सफाई से लेकर घाटों का जीर्वणोद्धार तक, कई प्रत्यक्ष सुधार हुए हैं। शहर सज़ा-संवरा और निखरा है, सुविधाओं में भी और वैभव में भी।

भव्य विकास हुआ है काशी में जबसे आदरणीय मोदी जी ने इसकी बागडोर सँभाली है, योगी जी ने उत्तर प्रदेश का मंत्री पद। बिना पुराने को हटाए बदलाव संभव नहीं, परन्तु यह बदलाव कहीं-कहीं खटकता भी है, जैसे कि चिरपरिचित विश्वनाथ गली का आकार में आधा रह जाना और बाबा विश्वनाथ का जन साधारण से कई-कई मील लम्बी लाइन दूर हो जाना।

पर कितना भी बदले यह… मेरी ख्वाइशों की सूरत, बनारस के प्रति लगाव नहीं बदलता। ठेठ बनारसी होने पर आज भी मुझे उतना ही गर्व है। अफ़सोस यही है कि साल में एक बार आकर बीमारी की सही नब्ज पकड़ पाना , निदान के लिए सही सुझाव दे पाना न आसान है और ना ही संभव ही। फिर भी जो महसूस किया बदलते बनारस के बारे में, बिना किसी लाग-लगाव के आपके साथ साझा कर लिया है…बिल्कुल असली और खरे-खरे बनारसी अंदाज में। कुछ अनुचित लगा हो तो सभी बनारसियों से विनम्र भाव से क्षमा-प्रार्थी हूँ। अपने ही शहर और अपनों के बारे में सोचकर, लिखकर भावुक भी हूँ और कुछ निराश व कई गुना गौरवान्वित भी। पुनः पुनः प्रणाम तुम्हें काशी की रज…किसने कहा कि ठगों की नगरी है यह, मेरी नज़र में तो खाँटी खरी है काशी।
अपनी कविता की दो पंक्तियों के साथ सारी बात समेटती हूँ,

बना रहे बनारस
जहाँ कोने-कोने गूंज रहीं
आज भी हज़ार यादें
चलती-फिरती हैं कितनी परछाइयाँ
अपनों की, सुहाने बचपन की
जहाँ गूंज रहे कहकहे मित्रों के
आँखों की नेहिल चमक पुकारती मुझे
पूछते लोग अब कब आओगी अगली बार
यह अपनत्व और मिठास, प्यार और दुलार
बताओ और कहाँ मिलेगा
बना रहे मेरा बनारस सदा …

शैल अग्रवाल

संपर्कः shaiagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net

error: Content is protected !!