कहानी समकालीनः हवा का झोंका थी वो-अनिता रश्मि


मीनवा नाम था उसका। यूँ तो मीना नाम रखा गया होगा, पर मीना से मीनवा का सफर तय करते कितनी देर लगी होगी उस नाचीज़ को।
उसकी याद जब भी आती, हवा के ताजे झोंके-सी ही आती। ऐसी बात नहीं कि वह खूबसूरती की बेमिसाल तस्वीर थी। बल्कि उसे बदसूरतों की श्रेणी में रखना ही सही है। काली-काली जु़ल्फ़ों के बीच वही काला चेहरा, गुदनों से भरा चेहरा। नाक पकौड़े सी फूली, जिसके दोनों ओर बड़ी सी गिलट की लौंग। कानों में अनगिनत तिनके डाल मोटे छेद को और भी मोटा करने की साजिश। एक साधारण अनगढ़ जूड़ा। उसमें खुंसे उड़हुल के फूल की चमक। गले की काली धारियों में काले-काले गुदने के नेकलेश । माथे पर गुदने की बिंदी। हाथ में गुदने का कंगन, पाँवों में गुदने की ही मोटी सी पाजेब। इन सबसे सजी मीनवा में कुछ भी तो असाधारण नहीं था। एकदम प्राकृतिक।
फिर भी वह जब याद आती, हवा के ताजे झोंके-सी ही याद आती ।
बिना थके अनवरत काम करती। जब सफाई से गोल-गोल घुमाते हुए पूरे कमरे में पोंछा लगाती, सोफे पर बैठे हम उसकी सफाई पर चकित रह जाते। अक्सर वह जब उमंग से लबालब भरी होती, अपने गाँव की कहानी कहा करती। बताती कि कैसे पति को छोड़ देने और नया घर बसाने में वह तनिक नहीं हिचकती थी। उसने दो-दो पतियों का घर-संसार त्यागा था। मैं जानकर चौंकी थी।
– हाँ! छोइड़ देलि दीदी, का तरि रहतली।
– क्यों? क्या हुआ था?
जवाब में उसने बताया था कि पहले पति का साथ उसने अखरा में चुना था। ब्याह किया था शौक से सोलह बरस की मीनवा से। फिर दूसरे के घर जाने लगा था… रात-बिरात। कई बार तो रात-रात भर वहीं रहता। तब एक ही झटके में मीनवा ने उसे त्याग, दूसरे का दामन थाम लिया था।
दूसरा क्रूर था। मीनवा भूल नहीं पाती।
– आपन छऊआ के कसाई लेखि मारत रहे, दीदी। बोल का लखे नय छोड़ते? हाथ-गोड़ जला देता था।
वह मुझसे ही प्रश्न करने लगती। मैं हतप्रभ। मनचाहा कर लेना कितना आसान है इसके लिए। ज़िंदगी की सारी ज़िल्लत झेलते हुए भी उस समय आभिजात्य वर्ग की स्त्रियांँ दामन छुड़ा नहीं पाती थी। उनकी जिजीविषा उनकी छटपटाहट बनकर रह जाती। लेकिन छुटकारे का उपाय आसान नहीं होता।
तिक्त-रिक्त संबंधजनित तड़फड़ाहट उनकी नसों को लाख तड़पाती रहे, बँधे रहने की स्थिति झेलते हुए वे बस घुटा करतीं थीं….अंदर ही अंदर सुलगती हुई। फल होता था, मानसिक-शारीरिक विकारों का प्रकोप।
मीनवा अब अपने मनचीता पति के साथ थी। वह झारखण्ड आंदोलन का क्षेत्रीय स्तर का नेता था। मीनवा को उस पर बड़ा अभिमान था।
मैं छेड़ती थी – क्या मीनवा, तेरा पति नेता है, इसीलिए तू सबसे उलझती रहती है?
वह फिक् से हँस पड़ती थी। धवल दंतपंक्तियाँ दिखाती मीनवा का काला रंग और गहरा उठता।
– फिर क्यों घमंड है उस पर?
घमंड नहीं होगा! – वह हिंदी बोलने की कोशिश करती, फिर अपनी भाषा पर उतर आती थी- ऊ कतइक बड़का -बड़का बात करेला। उकर इजाइत कतइक आहे।
– वह अलग राज्य की मांग करता है, क्या यह उचित है?
– कैसेन उचित नखे। उ कहेला, झारखण्ड अलग होई , तो हमन सोउबे के आपन हक मिली। हमीन सोउब खुसी से रहेक परोब। हिंया के एतेक संपदा बहरे नीं जाइ।
मैं जानती हूँ, अपने पति को जुलूस में सबसे आगे देख वह मन में बहुत संतोष का अनुभव करती थी। जुलूस में वह भी शामिल रहती थी। उसके हाथ में परंपरागत तीर-धनुष , होंठों पर नारा-झारखण्ड अलग करो।…. अलग करो।
माथे पर पसीने की चुहचुहाहट, मन में संतोष की लहर।
आगे-आगे नारा लगाते हुए चलते परसु की गरिमामय चाल को सगर्व निहारती मीनवा का रोम-रोम पुलक उठता था।
पीठ में बेंतरा बाँध, जब वह अपने नन्हें, गदबदे बच्चे को कंगारू के पेट में छिपाए बच्चे -सा छिपा लेती, मैं मन्त्रमुग्ध रह जाती। पीठ के बेंतरा में बच्चे को रख संपूर्णता के साथ झटपट निपटाए जाते सारे कार्य…यथा-बर्त्तन धोना, कपड़े धोना, मसाला पीसना आदि दंग करने के लिए काफी थे।
नींद की खुमारी में डूबा बच्चा, काम में वह।
कभी-कभार उसका बच्चा गमछा बिछाकर नीचे लिटा दिया जाता, तब मैं सर्द मौसम में उसे उस तरह नंग-धड़ंग सोते देख दाँतों तले उँगली भी दबाती, अपने बेटे से तुलना भी करने लगती थी। गर्म कपड़ों में छुपा मेरा लाल मात्र टोपी नहीं रहने से सर्दी का शिकार हो जाता है, उसे खाँसी -बुखार हो जाता। और मीनवा का बेटा एक पतले बुसर्ट में जमीन पर लेटा रहता। दो शर्ट और दो स्वेटर खरीद दिया मैंने लेकिन वह उसे कम कपड़ों में ही धूप में लिटा देती थी।

एक दिन मीनवा ने आग्रह किया था – दीदी, हमर घर चलउ नीं। आइज करमा आहे। सब मन हड़िया पी के नचबंय। बड़ा मजा लगी। चलो ना दीदी, चलो ना।
मैं उसके अचल आग्रह को टाल नहीं सकी थी। उसके उस अनुरोध ने मेरे आभिजात्य संस्कार को लगभग ठेलकर उसके घर के बाहर ला खड़ा किया था।
वहाँ पीने-पिलाने के दौर के बाद नाच-गाने का माहौल गर्म था। बस रोटी से रोटी तक के सफर में लीन रहनेवाले इन मेहनतकशों की ज़िंदगी में यह अद्भुत उल्लास। इतना उछाह… लगता नहीं था कि इनको मात्र भरपेट भोजन की चाह है। तब तक मैंने इन मशक्कत में लीन रहनेवालों को मात्र रोटी-भात के लिए लड़ते-झगड़ते देखा था।
उसका नेता परसु भी तो दो जून की रोटी जुटाने के लिए कहीं मजदूरी ही करता था। दोनों के लगातार काम से उनका परिवार चलता था। बूढ़े माँ-बाप, एक विकलांग बहन भी तो साथ थी।
करमा के दिन अपनी पड़ोसिनों की लाल-पीली या लाल किनारी की सफेद साड़ियों के बीच वह नारंगी साड़ी में अलग नज़र आ रही थी। मेरी दी हुई साड़ी उसने पहन रखी थी। मांदर पर थाप पड़ी, तो आमने-सामने झुंड बना, हाथों में हाथ डाल वे सब झूमर खेलने लगे थे। मांदर की मदमाती थाप पर एक लय में झूमते स्त्री-पुरुषों का कतारबद्ध झुंड। गीतों की मादकता साथ बह रही थी।
करमा पर्व की तरह ही सरहुल का त्यौहार उनके अनगिन उल्लासमय पर्वों में से एक। मैंने मीनवा से प्रकृति पर्व सरहुल का जुलूस भी देखने की इच्छा ज़ाहिर की थी और उस समय करमा के उनके आन्नद में डूब गई थी। हँसी-ठठ्ठे का बाजार गर्म था। मैं उनकी लयात्मकता में खो सी गई थी।
मुझे गौर से देखता देख वेय दूने उत्साह से भर गए। उनकी गति और मदमस्त हो उठी। साथ में गीतों के बोल… एक के बाद एक गीतों के बोल बहते जा रहे थे।
गीत-संगीत, नृत्य से भरे इस वातावरण में अचानक मेरी नज़र खाट की जगह -जगह से टूटी रस्सियों पर गई । इनके घरों के बाहरी छप्परों से लटके फूटे घड़ों ने ध्यान खींचा और हड़िया के नशे में चूर वहीं पड़ी खाली डेगची, कटोरों-गिलासों ने भी। घड़ों से कबूतर गुटर गूँ कर रहे थे। किसी-किसी घर के बाहरी बरामदे में नगाड़े पड़े थे।
इन सब पर नज़र डालती मैं लड़कियों के नवीनतम आडंबरों को भी परख रही थी। बालों में लंबे-लंबे फूलदार पौधे तिरछे जूड़े की शोभा बढ़ा रहे थे। हड़िया पीकर नाचते -झूमते शरीर एवं कमर की लोच में खोंसा गया आँचल घुटनों तक बँधी साड़ी को देह से चिपका रहा था। पाँवों में गिलट या चाँदी की पाजेब, कान में चांदी के बड़े-बड़े टाॅप्स या झुमके, गले में तगड़ी हँसुली। गुदने का स्थाई श्रृंगार तो था ही।
हाथों में हाथ डाले उनकी देह और मन के साथ मर्दों को भी झूमते देखा था। पैरों तक बँधी धोती, कमीज, सर पर लाल डोरिया गमछा। माथे के बीचोंबीच तिलक की लाली, गले में मांदर या ढोल की रस्सी। मांदर, ढोल या विशाल नगाड़ों पर मचलते-लरजते हाथ। कभी जनी झूमर, कभी मर्दाना झूमर! कहीं-कहीं दोनों का साझा झूमर।
मैंने मीनवा का घर चारों ओर से घूमकर देखा था। इतनी खूबसूरती से मिट्टी से लीप, गेरू से सजाया गया था कि उसकी कला पर आश्चर्य होता था।
– मीनवा, यह डिजाइन तुमने बनाया है?
– दीदी हाँ! ई मोर, झंडा, बाँस, शेर सब हम बनाए हैं।
– और इतना गोल-गोल सुंदर ढंग से लीपना कहाँ से सीखा?
– हिंया तो सब वैसने नीपते हैं दीदी। बेस लगलक?
कुछ दिनों से वह कुछ-कुछ हिंदी बोलने लगी थी।
मैं उस अनुपम सौंदर्य के देहातीपन के बावजूद अभिभूत थी- हाँ! बेहद! विचित्र और कल्पनातीत!
– का? वह समझ नहीं सकी।
मैंने बस्ती के अन्य घरों को भी देखा। सब घर वैसे ही कलात्मक ऊष्मा से भरपूर। सब के घर के बाहर एक छोटी सी बारी , बाड़ से घिरी। उसी बाड़ पर झिंगी, कद्दू, भतुआ की बेलें चढ़ीं थीं। सभी की बारी भी गोबर से लीपा गया था ।
प्रकृति के लोगों के प्राकृतिक सौंदर्य से भरी कला थी वह।
घर के अंदर ले गई वह मुझे। साफ बिछी चादरवाली चौकी पर बिठाया। छोटा सा एक कमरा, जिसके एक तरफ रसोई की व्यवस्था। सामने ही ताखे पर मिट्टी तेल (किरासन तेल) की एक ढिबरी और माचिस रखी थी।
उस ताखे के चारों ओर भी गेरू से बाँस, कमल फूल आदि का चित्र बना था।
मैं बाहर आई, तब तक सब नाच-गाने में लीन थे। उसका बड़ा बेटा भी सौतेले पिता के साथ नृत्य में तल्लीन।
काशी बेलौंजन के पौधों से घिरा था करम गोसाईं। और उनके अधरों से शहर के लोगों के द्वारा गाया जानेवाला गीत झर रहा था,

घोड़वा चढ़ि आवै
भईया, सभे भईया
हे भईया
काशी बेलौंजन हे!

मैं इस मंज़र को बहुत दिनों तक भूल नहीं पाई थी।

एक बार मैंने मीनवा को ब्लाॅउज दिया था, उतारा हुआ। वह लेते हुए कहने लगी,
– जानीस ला दीदी, हामर गाँव में सोउब वइसने रहेना। केउ नीं पींधत रहैं।
– शर्म नहीं लगता है?
– अब सोउब पींधो। आपन नजइर में तो नय, देखेकवाला केर नजइर में खोट आय गेलक।
ठीक कह रही थी वह, देखनेवालों की नज़र खराब थी।
इस बात के साथ सरकती हुई मैं उसके गाँव चली गई थी, जहाँ मेले-ठेले में लड़का-लड़की एक -दूसरे को पसंद करने के बाद ही ब्याह की ओर कदम बढ़ाते थे। वे साथ घूमते-फिरते, परखते, तब अपनी पसंद की बात परिवारवालों को बता देते थे। परिवार को उनकी बातों को तरज़ीह देनी पड़ती।
वह अक्सर अपने गाँव की बात बताती रहती। तब भी गाँव उसके अंदर बसता था। वह गाँव से परे शायद कभी जाने की सोच भी नहीं पाती। लेकिन वही दो जून की रोटी का मसला।

मीनवा की यादों के सहारे प्रायः मैं उस घटना तक जा पहुँचती, जब मैं बस से गुमला से आ रही थी। रास्ते में कुछ आदिवासी औरतें भी बस पर चढ़ीं। हाथ में थैला, थैले में मुर्गी या मुर्गा। अन्य सामान के साथ तेल की शीशी थामे मीनवा मेरी सीट के बगल में खड़ी थी। भीड़ बढ़ती जा रही थी। ठेलमठेल! उनमें से किसी को सीट नहीं मिली थी।
वह थैले को दाहिने हाथ से बाएँ, कभी बाएँ से दाहिने हाथ में पलटती खड़ी थी, बिना कुछ बोले।
बस के हिचकोले मेरी आँखों को झपकाने में मददगार साबित हो रहे थे। मैंने झपकी ली थी कि एक तीखी आवाज़ ने चौंका दिया था,
– दूर ना रह सका है! माँ-बहिन नखै का। बेस लखे उढ़ाव, उबर जाइ के बैइठ।
फिर तो गालियों की लंबी बाछौर से पूरे सहयात्री भीग उठे थे। सब जान गए थे, उसके बगलवाले खड़े सहयात्री ने उसके साथ अभद्रता की है। शायद एक आदिवासी, गरीब, अकेली महिला जानकर।
और उसी महिला ने असाधारण दुःसाहस दिखाते हुए एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया था। वह पानी-पानी हो उठा था। उसकी उजली कमीज, उजली पैंट, रंगीन टाई, दमदमाते जूते एवं आधुनिक मन शर्म में डूब गया था। वह बिना कुछ बोले पीछे चला गया, ठेल-ढकेल कर। बदतमीजी के बदले में इस सामान्य महिला से ऐसे साहस की उम्मीद उसे नहीं थी ….ना मुझे, ना ही और किसी को। मीनवा से मेरा यह पहला परिचय था। वही परिचय पल भर में उससे मुझे जोड़ गया था।
लगा था, हम असाधारण माने जानेवाले लोग मात्र प्रतिकार कर पाने की हिम्मत नहीं जुटाने के कारण हर गलीज़ हरकत को या तो टाल जाते हैं, सह जाते हैं या माफ कर देते हैं। इसे देखो। यह भद्र पुरुष अब किसी के साथ पूरा जीवन अभद्रता नहीं कर सकेगा।
फिर तो मेरे शहर में दो साल से रह रही मीनवा बारंबार मेरे घर आई थी। मैं बेरोजगार पतिवाली मीनवा को अपने घर में रखने से मना नहीं कर सकी थी, जब उसने एक दिन खुद कहा था। बाद में उसने मेरा घर नहीं छोड़ने की कसम सी खा ली थी। यूँ ही दिन-रात के चर्खे चल रहे थे। मीनवा और मेरी बांँडिंग बढ़ती जा रही थी। अब भी वह उसी घर में रह रही थी , जिसे बसाने में मैंने मदद की थी। हाँ, शहर में बदलते चलन के अनुसार वह भी बदल रही थी।
तपन, मेरे पति का बिजनेस अच्छा चल रहा था। इतना कि दो-चार लोगों की सहायता खुशी से कर सकूँ। मुझे करने में खुशी मिलती थी। और मीनवा तो मीनवा थी।
उधर एक लफँगे को लेकर उसकी शिकायत कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी। मैं समझा-बुझाकर उसे शांति से रहने को कहती रहती थी।
लेकिन
वह काली, अँधेरी रात भी आई, जब तारे नभ में यूँ छिप गए थे, जैसे कभी निकलेंगे ही नहीं। चाँद तो पहले ही सहमकर मुँह छिपाए बैठा था। पता नहीं क्यों, मन बड़ा बेचैन था। दरवाजे पर पड़ी थाप से अनमनाती हुई उठी।
– अरे! मीनवा? इतनी रात को यहाँ ?
वह लगभग मुझे धक्का देती हुई अंदर घुसी थी, मेरे लाॅन की धूल को अपने पाँवों के साथ लेकर।
– क्या बात है मीना? इतनी घबराई हुई क्यों हो?…. तुम्हारा हसबेंड तो ठीक है, या बच्चे?
प्रश्नों की बौछार झेलती मीनवा तन का भार न झेल सकी थी। जमीन पर धम से बैठ गई थी।
तब मैंने देखा कि….
तब तक वह कह चुकी थी – दीदी, हम मार देलि। मार दिए उसको….।
– ….किसको?
– ऊ हरामी को। आय रहे हमर मरद मन के मारे, आउर हमके बेइज्जत करे… बस, सब झमेला खतमे कर देलि।
उसकी खिचड़ी भाषा पर ध्यान नहीं था मेरा, जो वह अब प्रायः बोलने लगी थी। मैं उसके हाथ में लहू से लाल हसुआ को देखती रह गई थी। किंकर्तव्यविमूढ!
……….
– ये तुमने क्या किया मीनवा ? क्यों ??
– ऊ सार कहिया से हमर पीछे पड़ल रहे। काइट देलि आइज। अइब किसी का बेइज्जती करने के लायक नय रहा ऊ।
……
वह झटके के साथ उठी थी – अब हम जा रहे हैं।
कहाँ? – पूछ सकूँ, उससे पहले ही वह हवा के झोंके की तरह लहूवाला हसुआ लिये नौ दो ग्यारह!
इस हवा के झोंके को मैं ताजी हवा का झोंका तो नहीं कह सकती थी।
मीनवा कहाँ गई, कहाँ रह रही है? पकड़ ली गई या मर गई, मैं कुछ नहीं जानती। कसम से मैं नहीं बता सकती, वह कहाँ है। पुलिस ने दबाव डालकर मुझसे बार-बार पूछा
– मीनवा कहाँ है? तुमने उसे कहाँ छिपाया है?
मैंने दिल से पूछा था – मैंने उसे बच्चों का वास्ता देकर क्यों नहीं रोका? क्यों नहीं कसकर थाम लिया ?
पर आँधी जैसी उस हवा को मैं रोक सकती थी क्या?

इस बीच कितना कुछ बदल गया। गाँव शहर बन गए। ग्रामीण शहरी। साजो-श्रृंगार का प्राकृतिक रूप खो गया। अब नकली फूल जूड़ों की शोभा हैं। हाथ-पैरों में फूल के गहने नहीं, गोदने का पुराना रचाव नहीं, आर्टिफिशियल गहने, टैटू का जमाना है।
भाषा, बोली, पहनावा सब परिवर्तित। और तो और सब गलीज़ हरकत सह कर भी मुँह नहीं खोलनेवाली स्त्रियाँ बोलने लगीं। मौन मुखर हो गया। लेकिन उस समय अलख जगानेवाली मीनवा नहीं मिली, तो नहीं मिली। उसके अंदर कुछ भी आर्टिफिशियल नहीं था। उसका विरोध भी नहीं।
उसका नेता पति अब बड़ा नेता बन गया है। बच्चे अब भी मुझसे आस लगाए बैठे हैं कि मैं उनकी माँ का पता बता दूँगी।
सच कहूँ, मैंने उसे कहीं नहीं छिपाया है। मुझे तो नहीं पता, आपको पता है, वह कहाँ है ?
——

अनिता रश्मि
कथाकार, कवयित्री।

प्रथम उपन्यास 19-20 वर्ष की उम्र में लिखा।

दोनों उपन्यास पुरस्कृत।

ज्ञानोदय, हंस, वागर्थ, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य, वर्तमान साहित्य, जनसत्ता सहित कई राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में विविधवर्णी रचनाएँ प्रकाशित।

2 उपन्यास, 4 कहानी संकलन, 1यात्रा वृत्तान्त, 1लघुकथा संकलन भी प्रकाशित।

साहित्य अकादमी से साझा कहानी संकलन ‘ झारखण्ड कथा परिवेश ( संपादक – ऋता शुक्ल ) में एक कहानी शामिल।

कहानियों का मलयालम, तेलुगु में अनुवाद।

प्रकाशनाधीन – एक कहानी संग्रह।

चंद पुरस्कार।

पता –
1सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, पूर्णिमा काॅम्पलेक्स के पास, कुसई बस्ती, डोरंडा, राँची, झारखण्ड -834002

ईमेल – rashmianita25@gmail.com

error: Content is protected !!