कमरे में पैर रखते ही अलेक्सा की बत्ती जल गई थी और के.एल. सहगल के पुराने गीत शुरु हो गए थे, ‘बाबुल मोरा नैहर छूटल जाए’…जितनी मन बांधती आवाज थी, उतने ही बींधते शब्द भी।। परन्तु आज कुछ भी नहीं छू रहा था उसे, या फिर अकस्मात के उस वार ने उसकी सारी संवेदनाओं को ही सुन्न कर दिया था।
‘अजीब बात है न कि मशीनें मन पढ़ लेती हैं और आदमी नहीं समझ पाता…। रोना कैसा पर, जो छूटा सो छूटा! फिर लौटती ही क्यों हैं बार-बार ये बेटियाँ यूँ अपमानित होने को? फिर बाबुल भी तो नहीं बैठा रह सकता वहाँ ताउम्र उन्हें गले लगाने को! और माँ-बाप बिना कैसा व किसका मायका!’
कुछ इतने धीरे से कराही और टूटी-बिखरी फिर मचली थी भगवती कि ख़ुद उसके अपने कान तक नहीं सुन पाए कि क्या कह गई वह उस एक ही हारे पल में।
अभी-अभी जो घटा था, तड़ाक-तड़ाक हर शब्द गाल पर चाटें जैसा ही तो था’ अगर आगे यहाँ आओ भी, तो मेरे घर पर तो मत ही आना। और भी भाई हैं। उनकी तो बहुएँ भी हैं। अब यह तो कभी कुछ कहेंगे नहीं। पर मेरा रक्तचाप बढ़ जाता है और हमारे बीच लड़ाई भी होने लगती है।’
कब सोचा था कि कोई ऐसे भी बात कर सकता है, पर अपना भी तो तब यही बोला था , ‘ आजकल तो होटल में ही रहना बेहतर है। हम लोग ख़ुद भी होटल में ही रहते हैं। चाहे, कहीं भी जाएँ।’
‘ठीक’, तक गले में ही अटक कर रह गया था। और अब क्या ‘ठीक’ है, इस परिस्थिति में सोच-सोचकर परेशान हुई जा रही थी वह। उलझी डोर सुलझ ही नहीं रही थी और तोड़ना वह चाह नहीं रही थी।
जड़ से कटे पेड़ सी ढह गई बिस्तर पर अकेले कमरे में।
बात ही कुछ ऐसी थी आरी-सी चीरती। और कितनी आसानी से कह भी दी गई थी, बिना किसी संदर्भ के, शर्म या लिहाज के।
स्तब्ध थी वह छोटों की इस दुस्साहस भरी नफ़रत पर ।
फिर आग्रह क्यों था, अपमानित करने को?
‘आइयेगा ज़रूर। चाहे जब तक रहिए, आपका अपना घर है।’
वाकई में उसी का घर तो था और अपना जान-मान कर ही आई भी थी। पर अब आगे नहीं।
स्थिति और मन्तव्य दोनों ही साफ़ थे। कोई पीछे से काटता हैं और कोई सामने से, सीधे सीने पर फन मारकर।
पर उसे भी तो सोचना ही चाहिए था। संकेत तो पहले भी मिले थे कभी नौकरानी के बहाने, तो कभी चीख-चीखकर समझाती पट्टियों के बहाने । पर उसने तो खुद अपनी आँखों पर पट्टी बांध रखी थी मायके के नाम की, पापा की इच्छाओं को पूरा करने के उत्तरदायित्व की। हँसकर बात आई-गई कर दी थी। नौकरों से भरे घर में ऐसा कोई बोझ नहीं था…पर कितनी गलत थी वह …
गाना तक मुँह चिढ़ाता-सा लग रहा था अब तो।
‘अलेक्सा स्टौप। ‘, कहकर गाना बन्द किया तो बाहर से कुत्तों के रोने की आवाज़ आने लगी।
‘अपशगुन है यह भी। मौत का आभास मिल जाता है जानवरों को। पर यहाँ तो कोई बीमार नहीं !
क्यों है न, वह ख़ुद ।.. क्या पता तेज़ी से धड़कता उसका दिल ही अगले पल धड़कना बन्द कर दे!’
दो घूँट ठंडा पानी पीकर तुरंत ही ख़ुद को शांत करना चाहा तो और भी उलझती ही चली गई,
‘बेवकूफ है वह भी ! छोटी-छोटी बातें जिन पर ध्यान भी नहीं जाना चाहिए, कभी-कभी बेमतलब ही परेशान करने लग जाती हैं। क्या लेना-देना उसका। काट देगी नाम पता सब अपनों की डायरी से इनका ।
गांधी जी कहते थे बांए गाल पर थप्पड़ मारे तो दाहिना आगे कर दो।’
और जो मन पर आत्मा पर बरसों से छपता चला गया है वह…वह भी। बस चला तो दिल आत्मा सब कुछ। पलट कर सोने की कोशिश की तो अलेक्सा ने भी बत्ती गुल कर दी और बिल्कुल शांत हो गई। आंसू भीगी आँखों के आगे अब बस अंधेरा था और थी अंधेरों में नाचती अनगिनत परछाइयाँ ।
समने दीवाल पर एक बड़ी छिपकली छोटी को ज़िन्दा ही पूरा-का-पूरा निगले जा रही थी।
उबकाई आने लगी। ‘ छी! कितना स्वार्थ…कितनी निष्ठुरता है चारो तरफ। पर यही तो असली दुनिया है, दुर्बल की नहीं, शक्तिमान की। एक ही नियम है-कमजोर मत पड़ो किसी के भी आगे, चाहे वे अपने ही क्यों न हों।’
समझ में आने लगा उसे कि क्यों इतनी मुश्किल आन पड़ी थी ? फूल यदि कोमलता नहीं छोड़ पाता तो लकड़ी अपनी कठोरता भी तो नहीं! तो फिर …मन में चल रहा द्वंद अब कड़वी दवा का घूँट ही था ।
सारा अरुचिकर परोसा जा चुका था एक साथ ही और एक ही दिन में।
थूकना तो दूर, उठ तक नहीं पाई थी वह तो वहाँ से। संस्कार आड़े आते रहे, यादें बाधक बनी रहीं ।
अपच और बेचैनी गहरी होती चली गई और मारक भी, फिर भी फालिज-सी मारी नीलकंठ बनी बैठी रही, वहीं पर सब के साथ ही। पता नहीं बेशर्म समझा गया या फिर बेवकूफ, पर करती भी तो क्या करती, अपरिचित बने बैठे पराए नहीं, उसके अपने थे।
‘तो फिर कान पकड़कर डाँटा क्यों नहीं?’ सोच मात्र पर आँसू-भीगी आँखें तक हँस पड़ी।
‘बचपन में तो टौफी से बात बन जाती थी’… फिर हँसी, वही निश्चल हँसी- ‘वक़्त बहुत आगे निकल चुका है और उसके पास तो कुछ भी शेष नहीं अब इनके लायक। पराए घर से आई वक्र लाठी की बात न भी करे, तो वह बेपैंदी का लोटा तो उसका अपना ही है, पूरा हक़ बनता है डाँटने का भी और समझाने का भी-क्या अपनों से ऐसे बात की जाती है? पर कैसे बड़े अब, दही के या चटनी के!’
भावनाओं के इस उमड़ते आवेग को कैसे संभाले पर … रस निचुड़े छिलकों-सी अकेली-अकेली निशब्द व्यर्थ महसूस करती रही। आंसू बहाती रही और सोचती रही कि आगे के लिए क्या सही होगा। पर निर्णय आसान नहीं था। अपनी ही जडों से कटना था उसे, वह भी पूरे मान-सम्मान के साथ।
किस मान सम्मान की सोच रही है वह, बचा ही क्या है … अपनी ही बन्द पलकों के भीतर पूरी तरह से ढह चुकी थी भगवती अब जागृति के उस एक ही वक्र पल में।
‘ सँभालो भगवन्, रास्ता दिखाओ। क्यों भेज दिया मुझे इस कीचड़ में?’ अब तो बहते आँसू भी प्रार्थना कर रहे थे। भगवान को किसने देखा है पर! आसमान में ही छुपा बैठा रहा वह भी।
वृक्ष से कटी टहनी-सी बेसहारा थी भगवती अब। सारा प्यार-परवाह, सारी समझ, कपूर-सी जाने कहाँ उड़ गई थी एक ही पल में अपनों से भरे उस घर से। घर सूना और उदास ही नहीं, अजनबी भी लग रहा था अब तो उसे…वही घर, जिसके लिए वह सात समंदर दूर से भी दौड़ी-दौड़ी चली आती थी। पहुँचने के, सबसे मिलने के सपने देखा करती थी। दीवारों से मिलकर, छूकर ही अपनों से मिलने जैसे अहसास से भर जाती थी।
भरी तो आज भी गई थी पर यादों से नहीं, सिर्फ़ आंसुओं से।
‘तुम लौटी ही कब? छोड़ दिया है तुमने भी तो मुझे !’
घर खुद उलाहना देता उसकी बन्द आँखों के आगे आ खड़ा हुआ था अब ।
‘घर हमारा होता है या फिर हम घर के!’- इस सच झूठ का तो पता नहीं, पर विश्वास नहीं हो पा रहा था उसे कि एक घर भी इनसानों की तरह बातें कर सकता है, शिकायत कर रहा था उससे?
समझदार बुजुर्ग की तरह खड़ा-खड़ा घर उसे देखता रहा और उस पर मुस्कराता रहा। पता नहीं लाड़ में या फिर उसकी नादानी पर…
हिम्मत करके उसकी आँखों में झांका तो तस्बीर वही बरसों पुरानी ही थी और वात्सल्य भरी थी।
कितनी यादें आ जुड़ी थीं उस वक़्त उसके इर्द-गिर्द ।
‘छोटी काकी महीनों बाद नए-नवेले भाई को लेकर पीहर से लौटी हैं और ‘ ले सँभाल अपने भाई को ।’ कहकर पापा ने छह महीने के भाई को सबसे पहले उसी की गोदी में लिटा दिया। और तब तीन साल की वह कैसे भी भाई को सँभालती दिन भर किलकती रही थी -‘ मेरा भइया…। ‘
बिना भाई की अभागिन को भाई जो मिल गया था। पर सब कुछ मान और जान लेने से ही तो नहीं मिल जाता… बचपन की वह भाई के साथ की तस्बीर तक माँ के पास रही उनकी तिजोरी में। जैसे कि वह कैद है आज तक उसी भ्रम में। वक्त हो या घर, नए पुराने का फर्क तेज धूप सा फैल चुका था उस पर और अब तो माथे को तिरका भी रहा था।
‘चलना है, मैं जा रहा हूँ।’
भाई ने तंद्रा तोड़ी तो तुरंत ही उठ भी खड़ी हुई वह । कुछ भी हो जाए इसका मन तो नहीं ही तोड़ सकती थी। लाठी की मार से पानी कब अलग हुआ है। फिर उसकी चोट पर भी तो मरहम लग ही चुकी थी।
‘चलो। ‘
‘महीनों हो गए घर छोड़े। घरों के भी पैर होते हैं क्या, अक्सर ही बुलाने आ जाता है ?’
हंसकर भाई ने बताया तो,
‘पर रहने वाले तज दें तो आत्मा तक निकल जाती है इससे भी !’ रोकते-रोकते निकल ही गया उसके मुँह से।
भाई समझदार था जानती थी। पर गुस्सा भी तो अपनों पर ही निकलता है।
पैर चुपचाप उसके साथ-साथ चलते रहे अपने घर की ओर ।
पहुँची तो जहाँ प्यार था , किलकारियाँ थीं, उदास ताले लटके दिखे । अंधेरों के अनगिनत भ्रम भरे मकड़-जाल दिखे।
पर वह तो किवाड़ों की झिर्रियों से मिट्टी कुरेदती तो कभी मटमैली दीवालें पोंछती, मानो सहला रही हो एक-एक घाव को, हालचाल पूछ रही हो उसका!
असमंजस में ही थी भगवती,’ कोई पागल न समझ ले, कौन है यहाँ, किससे मिलने आई है वह अब? ज़रूर कुछ तिलचट्टे , छिपकली जैसे जीव-जन्तु, कुछ तो होंगे यहाँ पर … जाने पहचाने। जो जानते और पहचानते होंगे उसे? कुछ न कुछ तो शेष रहता ही है।’
जाने कैसी हठीली आस थी, कैसा ज़िद्दी मोह था कटने ही नहीं दे रहा था उसे।
अजनबियों के बीच अपनेपन को ढूंढने की ज़िद पर उतर आई थीं बावरी आँखें। पर जब पिछवाड़े ख़ड़ा विशाल बरगद तक न दिखा, जिसके नीचे बैठकर पूरा बचपन गुजारा था, तो उदास हो गई फिरसे,
‘दादाजी कहते थे कि उनके पापा ने अपने हाथों से रोपा था। ‘
‘गन्दगी बहुत करते थे कबूतर, तो पिछली साल कटवा दिया। जगह और धूप सब रोकने लगा था।’ –
सुनते ही, अनायास ही फिर से रुँआसी हो गई भगवती।
अतीत के सारे मुरदे नहला-धुलाकर शमशान पहुंचा दिए गए थे । धुली-पुती उन हवाओं में अब न तो कोई पुरानी गंध ही शेष थी और ना ही राख-सनी मिट्टी में एक भी पुरानी तस्बीर ही । वक़्त का दीमक सब कुछ चट कर चुका था।
कितनी ग़लत थी पर वह।
अचानक पिछवाड़े से गाय-भैंसों के रंभाने की आवाज सुनाई देने लगी , साथ ही बाल्टियों की जानी-पहचानी खनक भी।
‘ बरसों से जहाँ चिड़िया तक ने पर नहीं मारा, वहाँ पर गाय-भैंस! पागल हो गई है क्या वह? ‘
डबडबाई आँखें पोंछ तक पाए, उसके पहले ही सरपट भागती एक छाया ने हाथ पकड़ लिया उसका,
‘इतनी बड़ी हो गई है तू, कि हमसे बिना मिले ही चली जाएगी? आ, बैठ मेरे पास। देख, तेरी माँ ने तो दूध भी उबालना शुरु कर दिया है तेरे लिए। बच्चों को नहीं लाई इस बार !’
काकी के पास प्रश्न-ही-प्रश्न थे और भगवती के पास आश्चर्य के अलावा कुछ भी नहीं ।
सारी बेचैनी फटी आँखों से उतरकर सीने में पंख नुची चिड़िया-सी फड़फड़ाने लगी।
दीवाल का सहारा लिया तो, अविश्वास में सिर झटका तो सम्मोहन की सी स्थिति में ख़ुद को कहते पाया,
‘ ना काकी ऐसा कैसे सोच लिया तुमने। तुम सब के बारे में ही तो सोच रही थी मैं अभी-अभी । पर तुम यहाँ कैसे और कब से ? बरसों हो गए अब तो तुम्हें भी गए, या फिर गई ही नहीं कहीं?’
‘हाँ । देख, पर तू भी तो नहीं जा पाई यहाँ से! इंतजार ही तो करते रह जाते हैं सभी । सुबह होने तक ठहर जा, समझ जाएगी सब कुछ । यह दर्द, सारी पीड़ा, सारे अनुभव…मेरे , तेरे, सारे…।’
‘ शरीर की बात नहीं, मैं आत्मा की पूछ रही हूँ। समझूँगी क्यों नहीं! पर यह आत्मा भी तो बस इच्छा-मात्र ही है, शायद। जैसे कम्प्यूटर की हार्ड-ड्राइव। एकबार निकल गई तो सब बेकार। पर इस सब की ज़रूरत ही क्या रह गई है अब तुम्हें ? फिर हमारे जैसे जिनकी आत्मा शरीर में क़ैद हो, उनके लिए तो वीत-राग होना इतना आसान नहीं। पर तुम क्यों क़ैद रहना चाहती हो वापस इसी कारा में? तुम्हें तो मुक्ति मिल चुकी है न… शरीर से, सारे रिश्तों से ?’
‘कैसे रिश्ते और किसकी है यह दुनिया! हाँ इंतज़ार जरूर, पर कब तक! वह पेड़ देख रही है न, बरगद, पीपल और नीम…सारे पूर्वज हैं हमारे….पहचान सके तो पहचान… अभी भी दो बूँद जल को तरसते, अपनों का इंतज़ार करते। मरते वक्त जहाँ प्राण अटके, वही तो रूप और जनम मिल जाता है । मैंने कुछ नहीं चाहा, अतीत को ही पकड़े रही, तो कुछ भी नहीं हूँ, न तब और न अब।’
‘पर मौत के बाद कैसी उधारी! साहूकार का लेन-देन तो नहीं जीवन-मरण ?
‘हाँ , सही है यह भी। पर रहता है, कइयों को रहता है इन्तजार। मुझे है, उन सभी का जिन्होंने झूठे वादे किए और उनका भी जिन्होंने भरोसा तोड़ा। हाँ, आज भी अपने-पराए, सभी का इंतज़ार है मुझे। ‘
‘क्या उस दुनिया में भी अपने-पराए रह जाते है, काकी? कोई मतलब भी है इस लेखे-जोखे का !…यह धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र भी तो सबके अपने-अपने ही हैं और अलग-अलग भी… क्या अपनी-अपनी जीत और अपनी-अपनी हार नहीं, जैसे अपनी-अपनी राह और मंज़िलें, अपने-अपने कर्म अनुसार? फिर कहते तो यह भी हैं कि सब कुछ ही पूर्व-निर्धारित है, फिर कैसी परेशानी और क्या फ़ायदा यूँ इनमें उलझे रहने से भी?’
‘तू नहीं समझेगी। हर बात नफ़े-नुकसान की ही तो नहीं ।’
काकी की सलेटी आँखों में और भी उदासी दिख रही थी अब उसे ,
‘क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूँ , कैसी भी? कोई पूजा पाठ, … क्या चाहती हो तुम, कोई मदद, दान-तर्पण , कुछ भी?’
‘इतना आसान नहीं, समझ पाना। कपास के गुच्छे-से हैं हम । हवा के एक झोके से बिखरने वाले। तुरंत ही वापस उग भी आते हैं पर। एक भी रेशा बिखरा तो पूरे बिखर गए इतने कमजोर। संभाल पाएगी क्या तू हमें? जानती और समझती हूँ तेरा दर्द और यह उलझन भी।’
‘ पर शरीर और आत्मा अलग तो नहीं, माध्यम हैं एक दूसरे के। हमारी इच्छाओं के ।’
‘ पर, अब रहा ही कौन है , जिनके बारे में तू सोचे, लौटे! मेरी माने तो उलटे पैर लौट जा। पलटना नहीं। मोह के ये धागे मकड़ी के जालों से कम नहीं होते। भाग बेटी, बचा ले ख़ुद को। हम तो डूब चुके हैं पर तू मत पलटना इधर को, क़सम है तुजे मेरी।
‘पर क्यों काकी, जब तुम हो यहाँ पर इंतज़ार करतीं। बात करती हम से, संग-संग हंसतीं-रोतीं?’
‘ ए छोरी, आँखें हैं या बटन, बता कहाँ हूँ मैं? क्या तू छू सकती है मुझे, चल सकती है मेरे साथ-साथ? आधी-अधूरी इच्छाओं की परछांई हूँ मैं बस। जो भटक रही है, भटका रही है। जिनका इंतजार है मुझे, वे तो पलटते ही नहीं । उड़ गए सारे पक्षी। उड़ गए सारे पक्षी।’
जोर-जोर से हिलती काकी अब अपने पोपले मुँह और सफ़ेद रूखे उड़ते बाल और हवा में घूमते हाथों के साथ बेहद रहस्यमय दिख रही थी ।
पैर थर-थर काँपने लगे उसके, डर के मारे आँखें तक बन्द हो गई थीं अब तो उसकी ।
तभी त्रिशूल हाथ में लिए दौड़कर रास्ता काटा किसी ने, तो काकी फिर से शांत हो गई। फिर से धीमे स्वर में बोलने लगी ,
‘याद है वह बगल के कमरे वाली, कितनी जतन से संभालती थी बेटी का एक-एक सामान। अब न खुद रही, ना ही बेटी । सामान जरूर तितर-बितर पड़ा है । और वह आदमी को आदमी न गिनने वाली, वह भी तो नहीं रही। सब कुछ यहीं धरा रह जाता है। पंछी रैन बसेरा है यह ….पंछी रैन बसेरा।
‘बेटी ज़िन्दा है , सामने खड़ी है।’, बताना व्यर्थ था। समझकर भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था उसके और बदल कर भी तो नहीं बदली थी काकी। वैसी ही ज़िद्दी, झक्की और स्वाभिमानी, अपना हक और रुतवा तलाशती । आदतें कब बदलती हैं? कुछ यही समस्या उसकी भी तो थी उस वक्त!
कहने-सुनने को कुछ नहीं बचा तो छाया घूम-घूमकर नाचने लगी, एक डरावना नाच…कभी पेड़ पर तो कभी ज़मीं पर। शायद खुद को ही समझना चाहती थी, शांत करना चाहती थी। या फिर भगवती बेचैन थी तो उसे अकेला छोड़ना चाहती थी पर छोड़ नहीं पा रही थी।
बगल के कमरे से माँ अभी भी दूध का गिलास लिए इंतजार कर रही थीं उसका । इशारे से पास बुला रही थीं और सामने तीसरे कमरे के दरवाज़े पर खड़े पापा सचेत कर रहे थे -‘ मरे आदमियों के हाथ से कुछ नहीं लेते, न दूध , और ना ही त्रिशूल।’
मतलब पोषण या संरक्षण कुछ भी नहीं। प्रणाम करती, ख़ुद से ही सवाल करती और ख़ुद को ही जबाव देती, तेज कदमों से भागी भगवती वहाँ से ।
हड़बड़ाहट में लिफ्ट का बटन दबाया तो ,पर खुला दरवाजा खुला ही छोड़ती, पैदल ही सरपट पांच तले की इमारत से नीचे सड़क तक की सारी सीढ़ियाँ उतर आई ।
अब ,’ ए माई चार पैसे दे, दे। तेरे बच्चे जिएँ। कल से कुछ खाया नहीं है। अल्लाह बरकत दे । लाल जिएँ तेरे। ससुराल, मायका सब सलामत रहें ।’
अंधेरे कोने में खड़ी बिल्ली चूहे को डराती है, सामने सड़क पर वही बिल्ली कुत्ते के डर से थर-थर काँपने लग जाती है। किसकी परिस्थिति कब बदल जाए, कोई नहीं जानता…पर यही तो जीवन है-सब के अपने-अपने लक्ष और आखेट हैं यहाँ पर। और सब के अपने-अपने लालच भी तो, सशक्त हों या निर्बल , दोनों के ही…जो भी करते हैं हम बस अपने लिए ही तो, प्यार नफरत सब, दान-दक्षिणा तक…गोदी में बैठी बेटी तो माँ से भी ज़्यादा दुबली दिख रही थी। अनायास ही मन भर आया और पूरा बटुआ ही भिखारिन की गोदी में पलट दिया, बिना गिने ही। पता नहीं यादें भरमा रही थीं, या शायद कान भी बजने लगे थे उसके !
यह पैसे ही तो हर समस्या की जड़ हैं- ग़रीबों के लिए भी और अमीरों के लिए भी।
किसी के पेट पर ताला लगा देते हैं , तो किसी के विवेक पर।
अगरू की महक वापस बन्द कमरे से आज़ाद ,उस तक आ पहुँची थी । मुस्कुराती माँ अब प्यार से देख और दुलरा रही थीं, जैसे कि बचपन में करती थीं … वैसे ही आंचल की ओट से , अपनी नेह भरी मुस्कुराहट के पीछे से।
पापा भी आ गए तभी।
गोदी में भरकर अपनी लुंगी के छोर से ही सारे आंसू पोंछ दिए – ‘ना बेटा, मन पर नहीं लेते कुछ भी। इन कांटों पर ही तो गुलाब खिलते हैं। भले ही दुनिया अपनी ना लगे, पर होती अपनी ही है । क्योंकि बस ख़ुद एक हम ही तो अपने हैं। बाकी सब तो, मानो तो अपने, नहीं तो कुछ नहीं। जब अकेले ही आना और अकेले ही लौटना है, तो दूसरों से कैसी उम्मीद, कैसा भरोसा! पर ख़ुद पर यह भरोसा कभी मत छोड़ना। फिर मैं तो हूँ ही न तेरा। अभी भी, और सदा ही साथ, तेरे अपने ही अंदर। बह जाने दे यह सारी उदासी। मेरी गोदी में सिर रखकर कर ले जी हल्का अपना। और हाँ रिश्तों की वह बेल जिसे सूखा छोड़कर तू भागी जा रही है, आजीवन इंतज़ार करेगी तेरा। भूलना मत यह बात भी।’
भगवती का मन किया कि गले लग जाए, जी भरकर रो ले।
सामने निकला सुबह का वह सूरज बेहद कड़क था। झुलसने लगी थी भगवती अब।
फिर भाग-भाग कहती काकी ने धक्का भी तो इतनी कसकर दिया था कि सीधे बाहर सड़क पर ही आ कर रुक पाई थी वह । पर ख़ुद से ही यूँ लगातार जूझते रहने की अब और हिम्मत नहीं थी उसमें , पापा के प्यार से नहाई भगवती में भी नहीं।
दौड़ कर रुद्र के बगल में जा बैठी।
टैक्सी भी तो बस उसी का इंतजार कर रही थी।
‘साधो यह मुर्दों का गाँव रे.’..
कबीर के भजनों ने अब सरपट दौड़ती टैक्सी के अंदर भी शांत और मंदिर-सा वातावरण रच लिया था।
पीछे छूटे शहर को, यादों को भगवती ने मन-ही-मन आंसू डूबी आँखों से पुनः पुनः प्रणाम किया और पति के कंधे पर सिर टिका दिया। रात भर की जगी तुरंत ही उंघने भी लगी । रुद्र भी प्यार से आहिस्ता-आहिस्ता उसके बाल सहलाने लगे । पर तभी अचानक मानो रेडिओ का स्टेशन ही बदल जाए, बन्द पलकों से बहते आंसुओं में डूबे शब्द हवा में तैरने लगे,
‘ हम मुसाफिर खाने में ठहरें, या न ठहरें रुद्र, पर यह अँधेरे और उजाले की आँख-मिचौनी कब रुकती है !..जैसे अच्छों के वंशज होते हैं, बुरों के भी तो। कई घर, कई मंजिलें आती और जाती रहती हैं एक ही जीवन में । मेल-मिलाप…क्या और किसके साथ और कितना… हमें खुद चुनना चाहिए , यह ख़ुद हम पर ही तो निर्भर है। दूसरे नहीं कर सकते यह राहें और मंजिल चुनने का काम हमारे लिए…खुद ही सोचना होगा कि आम चाहिएँ, या फिर बबूल?
फिर घर और रिश्ते. दोनों ही अंदर-ही- अंदर तो उठते और ढहते हैं । बाहर ढूँढना व्यर्थ है इन्हें। कई बार जर्जर को संभालना भी। दंश ही देगी व्यर्थ की यह भटकन ! रात दिन का ही नहीं, अंधेरे उजाले का खेल अंदर भी तो चलता है। निरंतर का है यह भी। पर रात कितनी भी अंधेरी हो, सुबह का इंतज़ार तो करना ही होगा!’
रुद्र कब जान पाए पर कि क्या कह गई थी भगवती… प्रश्न पूछ रही थी , या मात्र अपनी सोच और समझ से आगाह कर रही थी,अपना मन्तव्य बता रही थी उन्हें !
होश में थी, या नींद में ही कुछ भी बोले जा रही थी उनकी भगवती !…
शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्र : shailagrawal@hotmail.com
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