मीठी नोंक-झोंक चलती ही रहती है दोनों के बीच, चाहे कैरम हो या फिर सांप सीढ़ी। स्क्रैबल वह खेलता नहीं, हारना पसंद जो नहीं। दादी अक्सर कहती है-खेलेगा नहीं तो जीतेगा कैसे? तो तुरंत कह देता है-‘और अंग्रेजी सीख लूं, तब। थोड़ा और बड़ा हो जाउँ, तब। हारने वालों में से नहीं आपका पोता।’ और यही प्यार की चासनी में पगी बातें ही तो पुलकाती है मंजरी को, कि चौबीसो घंटे पोते के साथ ही, उसका मुंह निहारते, फरमाइश पूरी करते ही बीत जाते हैं।
अब तो पति भी उलाहना देने लगे हैं-‘क्या बच्चों में बच्चा बनी रहती हो दिन भर।’
घंटे भर से अधिक हो गया पर खेल खतम ही नहीं हो रहा था उनका । आंचल खींच-खींचकर युवी लगातार ताली बजाए जा रहा था,
‘ दादी-दादी, आपको निन्यानवे पर सांप ने डस लिया है। वापस इकसठ पर जा गिरी हो। और मैं सीढ़ी चढ़कर तिरानवे पर पहुंच गया हूँ। हा-हा-हा, देखते हैं कौन जीतता है अब। ‘
दादी ने भी छेड़ा –
‘ सही गिने हैं न सारे खाने, या फिर थोड़ी ….’
‘ भगवान कसम। इतनी जरा-सी बात के लिए बेईमानी थोड़े ही करूँगा!’
‘ अच्छा, तो बड़ी के लिए कर लेगा?’
सूरज की किरण सी दमकती और लजीली मुस्कान पूरे चेहरे पर फैल गई तब। और बात का मर्म समझते हुए गर्दन तिरझी करके धीमे स्वर में ‘नहीं।‘ कह दिया युवी ने ।
मंजरी ने भी तुरंत लाड़ में समझदार और लाडले आठ वर्षीय पोते को खींचकर अपनी गोद में बिठा लिया और प्यार से मुँह चूमकर बोली,
‘अब आराम से बताओ, क्या कह रहे थे तुम ? इतनी दूर से साफ-साफ सुनाई भी तो नहीं देता।’
‘ सब सममझता हूँ। आपका मन मुझे प्यार करने को कर रहा था, है न यही बात? आपका बेस्ट फ्रैंड जो हूँ, दादा से भी ज्यादा।’
अब वह भी उतने ही प्यार से दादी को पप्पी दिए जा रहा था।
इसके पहले ही दादी-पोते के उस आत्मीय पल में कुछ और मस्ती घुले, भंग करती फोन की घंटी झन-झनाकर बज उठी ।
उठाया तो कविता थी लाइन पर। घड़ी में भी वही ठीक सुबह के ग्यारह ही बजे थे। रोज का निर्धारित काफी-टाइम था यह उनका अपना। झटपट काफी बना लाई मंजरी और चीयर्स कहकर आराम से सोफे पर सहेली के साथ गपशप करने बैठ गई।
अब सांप, सीढ़ी और गोटी सब युवान की तरह ही उसका मुंह देख रहे थे। युवी जानता था कि अब इन सहेलियों की बातें लम्बी चलेगी। खेल को वैसे ही बिछा ही छोड़, वहीं चुपचाप बैठ गया वह लीगो से जहाज बनाने।
सारी सहेलियों में सबसे बड़ी जासूस और सलाहकार थी कविता…एगोनी आंट संग दैनिक समाचार पत्र…सबकुछ एक में ही। अखबार पढ़ने या खबर सुनने की जरूरत ही नहीं थी। फैशन, दवाई, लड़ाई-झगड़े, हर तरह की चटपटी खबरें , सबकुछ आ जाता था उनकी बात-चीत में।
‘ सुना,तो क्या नई ताजी है आज की?’ मंजरी बच्ची-सी चहकी।
‘क्या वाकई में कुछ नहीं सुना तूने?’ कविता ने भी उत्सुकता और जगा दी।
‘ बताएगी, तभी तो सुनूँगी। ‘
मंजरी व्यग्र थी और कविता जानती थी कि लोहा अब पूरा गरम था।
‘रुक्मन और भुप्पी अलग हो रहे है। ‘
‘क्या? ‘
क्या- कुछ इस झटके के साथ बाहर आया कि हाथ में पकड़ी काफी तक गिरते-गिरते बची। खबर सुनते ही मंजरी उदास थी, बेहद उदास, शायद थो़ड़ी शर्मिंदा भी। बात अपनों की थी। भुप्पी और रुक्मन तो उसके विशेष मित्र थे…उनके बीच यह नादानी भरी बातें!
‘ यह कैसे हो सकता है ? गलत तो नहीं सुना तुमने! साठ और सत्तर की उम्र के हैं दोनों । पिछले चालीस वर्ष से साथ हैं। आरामदेह और आत्मीय रिश्ता रहा है। भरी-पूरी गृहस्थी जमाई है। हर आंधी-पानी में साथ दिया है एक-दूसरे का। अपना ही नहीं दूसरों का भी साथ दिया है, सुख-दुःख बांटा है । समाज में भी अच्छी-खासी पहचान और इज्जत है । शादी-शुदा, बराबर के बच्चे भी हैं ,अलग होने की तो एक वजह नहीं हो सकती । छोटे-बड़े मतभेद किस दंपति में नहीं होते? आदत पड़ जाती है गुण-अवगुण दोनों की ही। सच-सच बता, कब, कैसे और किसने लिया यह फैसला? ‘
‘ हाँ, सब कुछ कितना सही और अच्छा था इनके जीवन में…इतना अच्छा कि लोग उदाहरण देते थे। ईर्षा करते थे। फिर न जाने क्या हुआ ? मुझे भी तो विश्वास नहीं हो रहा !’
कविता ने भी तुरंत ही सांत्वना देनी चाही ।
कविता की आदत है, बोलना शुरु करती हैं, तो रुकती ही नहीं। पर सीधे बात पर कभी नहीं आती। घुमा-घुमाकर बात को लंबा खींचती ही चली जाती है। और मंजरी बेचैन थी, इतनी बेचैन कि करीब-करीब बीमार-सा महसूस कर रही थी। तुरंत ही सबकुछ जानना था उसे, ताकि इस फिसलन को रोक सके और क्षति कम-से-कम हो। मंजरी के लिए झटका तेज भूकंप से कम नहीं था। विश्वास की नींव तक हिल गई थी । पवित्र बंधन है यह यूँ एक झटके में कैसे तोड़ा जा सकता है!
पर कविता थम-थमकर रहस्यमय ढंग से ही बोल रही थी- ‘जैसा दिखता है सब कुछ हमेशा वैसा ही तो नहीं होता माइ डियर। ‘
‘हाँ, और असली और दुख की बात भी तो यही है। ‘
मंजरी के मुंह से एक आह-सी फिसली और जवाब सुने बगैर ही फोन काट दिया उसने ।
अंदर तक निचुड़ चुकी थी वह। मन में एक दहशत-सी, एक दर्द-सा था।
खबरों का बाजार तो चारो तरफ गर्म रहता है। विशेषतः कविता के पास तो इतनी बातें रहती हैं कि बताए न तो बदहजमी होने लगती है। पर यह खबर साधारण और अनजानों की नहीं थी कि चुपचाप विश्वास कर ले वह और भूल जाए सब। उसके भाई-से भुप्पी और सहेली रुक्मन का पूरा परिवार बिखर रहा था । किसी के हाथ कुछ नहीं लगेगा। बीच-बचाव करते वकील ही इस बंदर बांट में सब हड़प लेंगे।
सवालों का बम-सा फूट गया था अंदर-बाहर ही नहीं, चारो-तरफ भी। उचित हल की तलाश में सोच कई दिशाओं में दौड़ा रही थी उसे। किसी काम में अब मन नहीं लग रहा था उसका। युवी की समझ में भी बात आ गई थी-तभी तो दादी ने अभी तक लंच के लिए भी नहीं पूछा।
मदद करना चाहती थी मंजरी, करने को बेचैन थी। पर कैसे और क्या कर पाएगी, यह नहीं जानती थी । खाई में तो नहीं ही गिरने दे सकती इन्हें । लपलप करती कनपटियों को दबाती, युवी के लिए सैंडविच और अपनेे लिए सिर्फ एक कप चाय बना लाई । कोई भी परेशानी हो, भूख सबसे पहलेे दूर छिटक जाती है और इस फिसलते रहस्य का तो कोई सिरा ही हाथ नहीं लग रहा था ।
फोन भी तो नहीं कर सकती । अभी तो दोनों काम पर ही होंगे । शाम का वक्त ही ठीक रहेगा, इत्मीनान से सब कुछ समझने को । घड़ी देखी तो एक भी नहीं बजा था अभी।
युवी बगल में आ बैठा। उसे भी अब दादी की उतनी ही चिंता थी जितनी मंजरी को मित्रों की थी। हाथ पकड़कर वापस खेल पर बिठा लिया मंजरी को। उदासी दूर करने की खेल से बढ़कर क्या दवा हो सकती है- आजमाया नुस्खा था यह युवी का भी।
चुपचाप गोटी दादी की हथेली पर ऱख दी ।
‘ आपकी चाल है । मैं अपनी चल चुका हूँ। ‘
पासा फेंका तो छह और दो -यानी आठ आ गए । वापस उनहत्तर पर जा पहुँची मंजरी और सीढ़ी चढ़कर फिर तिरानवे के खाने पर थी। एक विजयी मुस्कुराहट तैर रही थी अब चेहरे पर।
‘ यह तो जादू है। आप कितनी लकी हो दादी। पर देखना, जीतूंगा तो मैं ही। ‘
दुगने उत्साह के साथ पासा फेंका युवी ने तब और छह और तीन लाकर वाकई में जीत भी गया।
मंजरी ने भी चैन की सांस ली। खेल में उसका मन नहीं था। मस्तिष्क की घड़ी हथौड़े-सी टिक-टिक कर रही थी- ‘पर बात करेगी, तो करेगी कैसे? पूछेगी, तो पूछेगी कैसे और किससे-रुक्मन से या भुप्पी से पहले ? अभद्र तो नहीं लगेगा व्यक्तिगत मामलों में पूछताछ करना, फिर यह खबर गलत भी तो हो सकती है!’
समस्या का न मिलने वाला हल ढूंढ ही रही थी मंजरी कि मोबाइल पर भुप्पी की मैसेज आ गई ।
‘भाई कहाँ हैं? उनका फोन नहीं लग रहा! कुछ जरूरी बातें करनी हैं।‘
‘डिस्चार्ज पड़ा होगा। मैरे पर कर लें । मैं कमरे से बाहर चली जाऊंगी। ‘
‘नहीं। मैं चाहता हूँ आप दोनों ही सुनो। अलग तो नहीं हो आप भाई से। ‘
भुप्पी ने जिद की। मंजरी की आंखें छलक आई। ऐसे सज्जन के साथ ऐसा छल…संभव है, सब संभव है। कैसे भी यह बात संभालनी ही होगी। वक्त रहते की तुरपाई बखिया को उधड़ने नहीं देती। बिखरने कैसे दे सकती है यूँ वह इस उम्र में आकर इन्हें। ‘
उधेडबुन में रहकर भी उसका ध्यान फोन पर चल रही वार्ता पर भी पूरा ही था –
‘ न कभी मेरी इज्जत की, न माँ की। बस निभाता ही रहा हूँ मैं तो। क्या नहीं किया मैंने इसके लिए फिर भी रोज-रोज के नाटक। क्या-क्या बताऊं- अचानक चंडी का रूप ले लेती। घर से गायब हो जाती और मेरी बूढ़ी माँ रात-बिरात ढूंढती फिरती इसे। ‘
मंजरी का मन भर आया। ऐसा तो नहीं हो सकता। सास-बहू तो बड़े प्यार से रहती थीं।
जैसे तैसे इंतजार किया और छह बजते ही रुक्मन को फोन लगाया ।
‘ हाँ, सही है दीदी, सब सही है। मैं उसे छोड़ आई हूँ। नहीं, और नहीं रह सकती अब उस आदमी के साथ मैं । हमसे ज्यादा तो अपने कुत्ते की परवाह करता है वह। बहू को कुत्ते से एलर्जी है, फिर भी कुत्ता घर में ही रहेगा। हर कमरे में खुला घूमेगा। क्या नहीं किया मैंने इसके लिए। जबतक माँ थीं , थोड़ी लाज शरम थी आँखों में। पर उनके जाने के बाद तो…अभी मैंने बरसी की सास की तो बेटे के साथ प्रसाद देने गई। हाथ नहीं लगाया । कह दिया-पूजा करवानी होगी माँ के नाम की तो वह खुद करवाएगा। उसकी पूजा को मां स्वीकारेगी ही नहीं। फिर प्रसाद किस बात का? अब आप ही बताओ दीदी. ऐसे आदमी के साथ कोई कैसे निभाए!’
‘ इतनी सी बात पर, पर घर भी तो नहीं तोड़ते! कहो तो, मैं बात करूँ? अगर वह अपने गलत व्यवहार और शब्दों के लिए तुमसे माफी मांग ले तो क्या वापस जाओगी?’
‘ कौन औरत अपना घर तोड़ना चाहती है, पर वह माफी नहीं मांगेगा। बहुत घमंड है रुतबे और पद का उसे। ‘
मंजरी का अगला फोन भुप्पी को ही था। शुरु में वह जितना असहज था फिर उतना ही स्पष्ट और दृढ़।
‘छोड़ो भी आप। क्या-क्या बताऊं मैं अब? माफी मांग चुका हूँ। कई बार मांग चुका हूँ। और आप कहोगी तो दुबारा भी मांग लूंगा। आप मेरी बड़ी हो, बहन और भाभी दोनों की ही इज्जत दी है आपको। पर अब मैं और उसके साथ एक छत के नीचे नहीं रह सकता। आप ही बताओ-कितनी भी नाराज हो, क्या आप भाई को भूखा छोड़कर खुद खाकर रोज, तीन-तीन महीने तक यही सिलसिला रखोगी और कमरा अंदर से बंद करके अकेली सो सकती हो। भूखा तरसा हूँ अपने ही घर में मैं और इस औरत ने पलट कर देखा तक नहीं। यह अपमान कैसे बर्दाश्त करूँ? खुद ही खुद को नोच-खसोट लेती और अपने भाई-बहनों को तस्बीर दिखाती कि मां ने पीटा है। मैंने पीटा है। आप ही बताओ, क्या हम हाथ उठा सकते हैं ? और उससे भी बड़ी बात है क्या यह पिट सकती है। निर्णय लेने से पहले साल भर तक हमारी काउंसलिंग हुई है। ‘
एक पल को तो सदमे में गूंगी थी मंजरी। आँसू भीगी आँखें बंद की तो यादों के कई मीठे पल झरने से बहने लगे। भुप्पी, रुक्मन और आंटी के साथ बिताए मधुर और शीतल पल थे वे। फिर यह इतनी नफरत की आँच कहाँ से आ गई? बेहद नजदीक होकर भी कभी किसी तिरक की एक जिक्र नहीं। कहीं यह बस अहम की निरर्थकतो और कठोर गांठ ही तो नहीं! मां की मौत का सदमा ही तो नहीं!
‘सुनो, शादी में जा रही हो न, तो वहाँ कान में यह एक बात और डाल देना ।’
पति ने जब सोच तंद्रा तोड़ी तो मंजरी ने भी खुद को संभाला और ठंडे पानी की घूंट से सूखता गला तर कर लिया,
‘ कौन-सी बात? भुप्पी और रुक्मन की?’
‘ नहीं, डिंपल की।‘
‘ क्या हुआ डिंपल को?’ वह तुरंत और इस अप्रत्याशित दूसरी चोट के लिए कतई तैयार नहीं थी।
‘ भाग गई ।‘
‘ क्या कह रहे हो? कहाँ , कब और कैसे?’
काले-काले धब्बे बनकर धरती आकाश सब एकसाथ घूम ने लगे आँखों के आगे । खुद को संभालने तक के लिए बगल की दीवार का सहारा लेना पड़ा।
‘ महत्सवाकांक्षी जरूर थी परन्तु समझदार थी और खुश भी उसके साथ। अभी तो तरह-तरह की मौज करके लौटी थी। चूमा-चाटी तक के फोटो देखे हैं मैंने सोशल मीडिया पर। ‘
‘ हाँ, और अब उसी पति की सारी कमाई, बचत,जेवर सब कुछ लेकर भाग गई। हर तरह से नंगा कर गई है उसे। बहुत शर्म आ रही है मुझे तो। तुमने ही तो करवाई थी यह शादी। ऐसे हैं अपने रिश्तेदार! क्या मुँह दिखायेंगे अब हम? क्या सोचता होगा वह हमारे बारे में !’
जैसे-तैसे सुन पा रही थी मंजरी। जानती थी डिंपल ऐसा नहीं कर सकती और किशोर में भी तो ऐसी कोई खराबी नहीं! फिर… अब तो खड़े रहना भी मुश्किल हो गया था। सोफे पर धम्म से आँख बन्द करती बैठी-सी जा लेटी। समाज क्या, अब तो पति से भी आँख नहीं मिला पा रही थी वह।
गलतियाँ होती हैं, सबसे होती हैं पर खुद गलत हो जाओ इन्ही के बहानो, झूठ का सहारा लो, यह तो सही नहीं। ऐसी भी क्या योजना कि पूरा करने को जायज-नाजायज हर तरीका अपनाने की जरूरत पड़ जाए। पर विवेक तो पहले ही साथ छोड़ देता है अँधी महत्वाकांक्षा में…एक सांप आता है डस जाता है, एक सीढ़ी मिलती है और ऊपर चढ़ लेते हैं हम मनचाही मंजिल पाने को। डिंपल ने भी यही किया शायद। अमेरिका या इंगलैंड ही तो आना चाहती थी इसीलिए तो चुना था किशोर को उसने। भलीभांति जानती थी वह भी इस बात को। कोई बुराई भी नहीं थी इसमें अगर निभाती भी। बड़े शहर में रहने की ख्वाइश हर लड़की करती है। कहीं किसी और का लालच तो अपने पत्ते नहीं खेल रहा इसके बीच। रोज की ही तो बात हो गई है पर यह भी। फिर इतना रंज और विषाद क्यों हो रहा है उसे? अपनी तरफ से तो ठीक ही किया था उसने। कुछ गांठें जिन्होंने लगाईं हैं उनसे ही खुलेंगी। उन्ही पर छोड़ भी देनी चाहिएँ। ज्यादा कोशिश करने पर डोरी टूट सकती है।
हर समस्या का हल होता है फिर इन रिश्तों में पड़ी गांठों का ही क्यों नहीं पर! मन अपनी मदद की जिद भी नहीं छोड़ रहा था और उसे समझाने की कोशिश भी, क्योंकि मन तो बस मन ही है, न । बस में न रखो तो कई-कई मन का हो जाए और कैसे भी न संभले। पूरा खानदान शामिल है शायद इस निर्णय में। कल तक जो तारीफ करते न थकते थे बीन-बीनकर सौ सच्ची-झूठी बुराइयाँ निकाल रहे हैं अब। साफ-साफ कह दिया है-अच्छा-बुरा जो भी है हम खुद ही निपटेंगे और बताएँगे, आप तो दूर ही रहो । फिर कैसे बताए वह किशोर को जो बस एक बार डिंपल से मिलने की जिद किए जा रहा है। कैसे कहे उससे कि भूल जाए सात साल की शादी को, अपनी पूरी जमा पूंजी और घर गृहस्थी को, डिंपल पुनर्जन्म ले चुकी है, उसकी नहीं रही ।
एक करुण मुस्कान थी अब मंजरी के होठों पर और पूरा चेहरा आंसू भीगा। पति की नजर पड़े इसके पहले ही झटपट सब पोंछ लिया। परन्तु जिद्दी सोच नहीं ही मिटी- कितने अरमान और जतन से संजोते हैंं अपने-अपने घरौंदे को, फिर इसी के प्रति इतनी उदासीनता? क्यों लेते हैं इतनी आसानी से हम ये अनचाहे, आकस्मिक निर्णय और हस्तक्षेप ! क्यों आने देते हैं बाहरी और अदृश्य ताकतों को जीवन में, मन में, अपने आसपास ? घर की धूल तो रोज ही झाड़ी जाती है, मन की भी क्यों नहीं? किसने दिया यह अधिकार सांपों को आयें और डसें…क्यों पहुँच जाते हैं सीढ़ियों के पास बेवजह ही हम, आखिर कितना और कहाँतक बढ़ने दें सुरसा-सा इसका मुख? जबकि एक सीधी डगर हमेशा सामने रहती है। …यह लालच… यह मोह… यह तलाश और यह भटकन, ये हमारे मन के अंदर के विकार ही तो हैं असली सांप और सीढ़ियाँ इस जीवन के। जब सीढ़ी चढ़ते हैं तो सौभाग्य पर इतराने लगते हैं। लुढ़कते हैं तो रोते हैं, हाय-हाय करते हैं। पर सच्चाई तो यह है कि कहीं कोई क्विक फिक्स नहीं जीवन में और हड़बड़ी का खेल भी नहीं यह – सीधी सपाट बात है- जिस राह पर चलोगे, वही मंजिल मिलेगी। फिर पासे भी तो उसके ही हाथ रहते हैं सदा। शकुनी की तरह अपने हाथ में लेने की कोशिश की तो महाभारत तो होनी ही है।
मंजरी इस अवसाद समाधि से बाहर निकना चाहती थी। मंत्र की तरह होठों-होठों में ही कुछ बुदबुदाने लगी थी। तरक-वितर्क के साथ खुद को ही समझाए जा रही थी। जाने कैसे महाभारत शब्द पति ने भी सुन लिया।
‘ किस महाभारत की बात कर रही हो, तुम मंजरी?’
‘ यही जो हमारे चारो तरफ घट रहा है।
वाकई में बहुत सोच-समझकर ही रिश्ते जोड़ने चाहिएँ। वैसे भी रिश्ते तो बराबर के ही ठीक। अमीर घर की लो तो नखरे उठाओ , सीमित आय में न निभे, नाक कटे तो तलाक मुंह पर मारकर जाते भी देर नहीं लगती। और बराबर की न हो तो कब उसके या घर वालों के मन में लालच आ जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। मौका मिलते ही सब लेकर भाग जाना तो पर डकैती ही हुई न। कैसे पता चले किसी के मन का, इरादों का! तलाक की राजधानी कहते है लंदन को अब। तीन-तीन किस्से हो चुके अपनी ही पहचान वालों में। परखने का कोई जरिया नहीं? कार तो नहीं, कि खरीदने से पहले टेस्ट ड्राइव कर ली, निजी रिश्ते हैं ये, चौबीसो घंटे निभाने वाले, तभी सधते हैं! निभाना आना चाहिए, निभाने की चाह होनी चाहिए। वरना कुछ नहीं बचता। मन की मनमानी ही तो रह जाती है। कब कौन-सी बात चुभ जाए और मन पलट जाए, कोई नहीं कह सकता। रोज ही तो होता रहता है यह भी!इस मन को भी संभालना पड़ता है वरना पांच सात महीने और सालों की ही नहीं, 45-50 साल तक की पुरानी शादियाँ भी टूट रही हैं अब। वह भी एक नहीं सात जनम का रिश्ता मानने वालों के बीच। ‘
‘ अच्छा, तो तुम कब अब अपना मन पलट रही हो, या फिर कहो तो मैं ही वकील के पास हो आऊँ? ‘
मंजरी को उद्विग्न देखकर पति ने आदतन चुहल की। पर मजाक में ही सही, फेंका गया वह अपमान का तीर चुभ गया। मंजरी संभली और तुरंत ही बाहर खींच लाई सारा जहर। आहत मन को समझाती, हँसकर बोली,
‘ना-ना ऐसा तो हरगिज ना करना। जैसे-तैसे, बरसों की लगन और मेहनत के बाद ही इस हैलोइन के कद्दू को काट-छांटकर मन लायक बना पाई हूँ !’
‘अच्छा-तो हैलोइन का कद्दू हूँ मैं, और आप क्या हो हमारी रानी साहिबा, जरा मैं भी तो समझूँ ?’
मायूसी को वहीं पर खतम करते तब मंजरी ने बच्चों-सी नटखट मुस्कान के साथ पति की तरफ देखा और खूबसूरत व चपल मोड़ दे दिया पूरे उस अनचाहे और अटपटे व दुखद प्रसंग को।
पति के हाथ प्यार-से हाथ में लेकर बोली-
‘ बता दूँ, पर खुद भी तो कुछ सोचो, आप! मैं…मैं, झाड़ू पर बैठी वही जादू भरी विच, तो चलें हम अब अपनी सैर पर।… ‘
शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com