कहानी समकालीनः सन्नाटे की चीख-अनिता रश्मि

रात का सन्नाटा!… सन्नाटा घर में… बागीचे में… गली – मुहल्ले में… पूरे शहर में भी। लेकिन कल रात से ही गूँज रही हैं चीखें। कानों में, फ्लैट के कमरों में, दोनों बालकनी में, बाहर की बिछी चमकीली चाँदनी में।
अमृत जिधर भी जा रहा है, चीखें साथ चल रही हैं। बेडरुम में नीले प्रकाश के नीचे भी जैसे जमी रही थीं। और वह भर रात जागता रहा था।
खिड़की के पार से झाँकते हरसिंगार के ऊपर छाए अँधेरे में भी उस पर सवार थीं। उसे हरसिंगार की ओर ताकने में भी डर लग रहा था। यह वही हरसिंगार था, जिसकी श्वेत नारंगी आभा को देखने वह शाम से ही बालकनी या इस खिड़की के पास जम जाता। सवेरे-सवेरे वृक्ष के नीचे बिछ गए शिवली के उज्जवल, पवित्र फूलों को देखने पहुँच जाता।
उसे चुनने, सजाने का काम उसकी फुफेरी बहन तृप्ति करती। वह उन फूलों को चुनकर पूजा घर में रखती कुछ भाई के कमरे में एक कांँच के बर्तन में भी सजाती कुछ ड्राइंग रूम की टेबल पर और फिर हंँस कर पूछती,
“मैंने ठीक किया ना भैया?”
वह वह भी हंँस देता और कहता,
“चलो महक और खूबसूरती सजाने की कला तुम्हें आ गई है।” लेकिन इधर फिर पूछने पर वह जवाब दिए बिना खाली आंँखों से उसे और उन फूलों को देखता रहता।
तृप्ति स्कूल में भी अमृत भैया की ही बातें करती। खेलते वक्त भी।

रात गहराई तो वह कमरे में एक सोफे पर बैठा था। सब तरफ गूँजती चीखों ने कहा – “बस ! अब बस!!”
वह बेचैनी में टहलने लगा।
आत्मा की आवाज भी निरंतर चीख में बदलती जा रही थी – “अब बस !… अब और नहीं…! बस… बस… स्टाॅप!”
बुआ के पास रहता है अमृत। अपनी सोसायटी की वे अध्यक्षा हैं। हर वक्त सबकी समस्याओं को हल करने में उनका समय कैसे गुजर जाता, पता ही नहीं चलता।
कभी इसकी समस्या हल करने बाहर जा रही हैं तो कभी किसी और की।
जब से अमृत उनके साथ है, अक्सर कहती रहती हैं वे, “आत्मा हर गलत कदम उठाने से पहले रोकती-टोकती है। तुम गौर करना। वह नो…नो जरूर कहती है। यह तो आदमी है, जो उसकी सुनता नहीं।”
“क्या बुआ, आप भी न, क्या बात लेकर बैठ जातीं हैं।”
“मैं सही कह रही। बस अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुन ले कोई, दुनिया में कुछ गलत नहीं होगा।”
“ओह! मेरी धर्मपरायण बुआ… नैतिकता-अनैतिकता में कितना उलझी रहती ह़ो।”
“क्यों न उलझूँ? फिर कौन सिखाएगा बच्चों को?”
“इस जमाने में भी…”
“तेरी माँ भी तो ऐसी ही थी अमृत। उन्हीं से सब सीखा।”
“पता नहीं, उस जमाने के लोगों को क्या रोग घेरे रहता था बुआ।”
“समझने की जरूरत इस जमाने के लोगों को भी है। आज जो यह मोरल गिर गया है न सबका, उसका कारण…।” “…नैतिकता… आत्मा… आदर्शवाद… ईश्वर… पूजा… आस्था… भक्ति… और न जाने क्या-क्या बंदिशें…ओह!”
“यह जो आज का टूटन-फूटन है न, इसके पीछे भी यही कारण है। हम अपने को मोरली मजबूत बनाते ही नहीं हैं।”
उसने सर को झटका दिया।
“प्लीज बुआ। प्लीज!”
“ई जो आत्महत्या-उत्या इतना ज्यादा बढ़ गया है न, उसके पीछे भी…। संस्कार और साहस देनेवाले दादा-दादी अब साथ तो रहते नहीं।”
“अब तुम्हारी गाड़ी चल पड़ी। रूक भी जाओ।”
फूफा जी दरवाजे पर खड़े सब सुन रहे थे। अंदर आते हुए टोका।
अमृत अक्सर सोचता रहता और बुआ की बातों को हवा में उड़ा देता।
इधर कई बार उसे महसूस होता, शायद बुआ और माँ सही हैं। अमृत ने भी तो सुनी हैं वे आवाजें। हर समय। हर वारदात से पहले। यह दीगर बात कि उसने हर बार उसको अनसुना कर दिया है। सन्नाटें में लिपटे रहना उसे पसंद है।
“चीखें पीछा कहाँ छोड़ती हैं।”
बगल के बेड पर लेटी तृप्ति चौंककर पलटी।
“क्या कहा भैया?”
“कुछ नहीं। तू सो जा।”
वह थोड़ा समय उलटती-पलटती रही। फिर सो गई।
अमृत को याद आया, कैसे घर से बाहर निखलते समय पतली गली में घरों के बाहर खाट बिछाकर बैठे लोग उनकी नई गाड़ी को देखते थे।
उनमें से कुछ युवा उठर खड़े हो जाते और गाड़ी के ओझल होने तक देखते रहते। कोई-कोई मुँह भी बिचकाता, कोई हसरतों से भर जाता।
रसिक भी अपने गुंडा साथियों संग जब-तब नजर आ जाता था।
पान चबाते हुए काले पड़ गए दाँतों को निपोर उसके पापा को सलाम ठोंकता। प्रायः लाल गंजी और नीली पतलून में नजर आता था वह। अपनी दाढ़ी को अक्सर सहलाता रहता।
उस मुहल्ले में हर तरह के लोग बसे हुए थे।
पाँच वर्ष… पूरे पाँच वर्ष अमृत के सामने रक्त-समंदर लहराता रहा है, जब से माँ ने उसकी आँखों के सामने ही तड़पकर दम तोड़ा है।
माँ की नाक का बाल वह उसे अपनी आँखों के सामने ही मरते देखता रहा था, कुछ कर नहीं सका था। माँ की मौत आँखों में खुदी थी… दिमाग के कैमरे में सब कुछ कैद…चेतन-अचेतन में।
अस्वाभाविक मौत का वह मंज़र भूलने लायक था भी नहीं। वह वीभत्स नज़ारा!
वह कॉलेज जाता। चुप रहता। क्रिकेट के मैदान में भी बैट लेकर जाता। वहाँ उसके दोस्त क्रिकेट खेलते हुए नजर आते पर वह वहीं बल्ला रखकर चुपचाप बैठा रह जाता। उसका मन कहीं भी नहीं लगता।
गली में बैठे, गुमटियों में व्यस्त लोग उसकी ओर ताकते पर उसकी मनोदशा नहीं समझ पाते। वे अपने काम में व्यस्त हो जाते। खेल के मैदान से वह पैदल ही आता-जाता।
अमृत ने अपने माथे पर हाथ रखा, माथा तप रहा था। माथे को अपनी तप्त हथेलियों से सहलाता हुआ वह अतीत के हवाले हो गया।

उस दिन भी उन्हें नववर्ष का समारोह हर वर्ष की तरह बड़े से क्लब में मनाना था। नुक्कड़, चौक-चौराहे, गली-मुहल्ले, सब जगह उल्लास का वातावरण! क्लबों, होटलों, पिकनिक स्पाॅटों पर नववर्ष मनाने की जैसे होड़ सी मची थी। सब जगह गुलज़ार। दिसम्बर के अंतिम दिवस की रात के बारह बजे तक विशेष आयोजन होते रहते थे। खासकर क्लबों, होटलों , काॅलेज-स्कूल के हाॅस्टलों में। सदा की तरह अमृत का परिवार भी क्लब में आमंत्रित था। चीफ इंजीनियर पापा क्लब के मेंबर थे।
नौ बजे से विभिन्न कार्यक्रम आयोजित। मंच पर धीमे प्रकाश के मध्य संगीत की स्वर लहरियाँ तैर रहीं थीं।
डांसिंग फ्लोर पर जोड़े थिरक रहे थे। धीमे मधुर स्वर में बजते गीत पर मध्यम आयु वर्ग के लोगों का नृत्य भी बहुत शांत, मनोहारी ढंग से हो रहा था।
फिर ड्रम की आवाज़ पर मदमस्त हो कुछ जोड़े तेज संगीत के नशे में भी चूर-चूर हुए थे। खासकर युवा, किशोर, बच्चे। कुछ साठ पार के बूढ़े भी।
शराब पानी की तरह बह रहा था। अब तो जल की किल्लत भले हो, शराब की कहाँ होती है! शराब के दौर पर दौर। सभी स्काॅच, व्हिस्की के नशे में झूमकर नूतन वर्ष की आगवानी को खड़े-बैठे थे। विभिन्न स्टार्टर, डिशों के साथ भोजन भी चल रहा था।
पापा, माँ, अर्पिता के साथ वह भी आन्नद में निमग्न। उसने माउथ आर्गन पर एक बहुचर्चित गीत बजाया तो वन्स मोर की मांग पर दो-तीन गाने सुना डाले।
बारह बजते ही आतिशबाजियों के शोर ने, बधाईयों ने, शैंपेन की खुलती झागदार बोलतों ने नवीन साल के आने की सूचना क्लब के कोने-कोने में पहुँचा दी। शोर बढ़ गया। आकाश में आतिशबाजी देखने लायक थी।
आधे घंटे के बाद अधिकांश अपने-अपने घरौंदो की ओर चल पड़े। क्लब में बोतलें लुढ़की पड़ी थीं, जूठी प्लेटें चेयर पर या डस्टबिन में। जिन्हें ज्यादा चढ़ गई थी, वे भी लुढ़के पड़े थे।
कुछ लोग अभी वहीं बैठने, लुढ़कने के मूड में थे… जमे रहे। साथियों का साथ देनेवालों की भी कमी नहीं थी।
पापा, माँ अर्पिता के साथ वह भी सुनहली आॅल्टो गाड़ी में घर की ओर बढ़ा।
अभी-अभी आॅल्टो खरीदी थी। चारों बेहद प्रसन्न। अपनी बातों को शेयर करते, अनुभवों को बाँटते वे जल्द से जल्द घर पहुँचना चाह रहे थे। आॅल्टो मेन रोड में पहुँचनेवाली थी कि पतली, सुनसान गली का लाभ उठा, तीन-चार मोटरसाइकिलों ने कब गाड़ी को चारों ओर से घेर लिया, उन्हें पता ही नहीं चला।
जब तक कुछ समझते, आठ रिवाल्वर तन चुके थे।
आॅल्टो के ब्रेक लगने के साथ होठों पर बिछी हँसी, एवं शेयर करनेवाली बातों पर भी ब्रेक लग गया। इस अप्रत्याशित स्थिति ने साँसों में भय भर दिया। फिर पापा ने कड़ककर पूछा था,
“कौन हो तुम लोग? क्या चाहिए?”
उनकी समवेत हँसी तीनों के डर का मजाक उड़ाने लगी। एकाएक हँसी पर रोक लगाते हुए एक शख़्स बोला,
“गाड़ी की चाभी दो और फूट लो यहाँ से।”
पापा ने स्थिति की नज़ाकत को भाँपते हुए तुरंत बात मान लेना उचित समझा। आठ तने आग्यास्त्रों के बीच चार बेबस जानें उन्हें विवश कर रही थीं, वे तनिक प्रतिरोध नहीं करें। अर्पिता का साथ होना सबसे बड़ा कारण था।
बगलगीर माँ चुप नहीं रह सकी। झट उन्होंने पापा का बायाँ हाथ थाम लिया। बहुत धीमे से फुसफुसाते हुए कहा,
“आप बाहर मत निकलिए। तेजी से गाड़ी…।”
उन सबके तन-बदन में आग लग गई। माँ की बात पूरी नहीं हो सकी, रिवाल्वर के शोले चमके और अमृत ने… सबने एक आह सुनी। माँ की आह के बाद पापा की ओर रिवाल्वर तन गया। सबको काटो, तो खून नहीं। दोनों भाई-बहनों के मुँह से चीख भी नहीं निकल सकी।
जो नकाबपोश सबसे आगे था, उसके चेहरे पर पड़ा नकाब पल भर को हटा था। फिर उसने झट ढँक दिया। चाँदनी में इतना उजास तो था कि चेहरे की लकीरें तक नज़र आ गईं। मुहल्ले का नामी दादा रसिक था वह।
नई गाड़ी के प्रति वह पहले से ही लालच पाले हुए था शायद। लेकिन उसके बीच यह रक्त क्यों?
उन तीनों की हँसी सहमकर गुम हो गई थी। नूतन वर्ष के आगाज़ का वह समय रक्तरंजित था। सकते की हालत में थे तीनों। वे सब गाड़ी सहित नौ दो ग्यारह! अमृत, अर्पिता और पापा उनलोगों के द्वारा फेंकी गई माँ की लाश के साथ खड़े थे।
लाश एक ममतालु महिला की थी। ऐसी महिला, जिसने सदा ध्यान रखा, चलते समय पैरों के नीचे चींटियाँ न आ जाएँ। परिंदों को दाने…गरीबों की सेवा…।

काफी दिनों तक… महीनों तक… नहीं!… नहीं!! सालों तक तीनों ठूँठ हो गए थे।
“क्या नववर्ष का आगमन इतना काला भी होता है! खुशी के माहौल में कैसे जहर घुल गया?” – अमृत सोचता।
“इंसान इंसान की खून का प्यासा कब तक रहेगा? वह भी अँधी लालच के लिए?”
उसे जवाब नहीं मिल पा रहा था। उसने पापा से पूछा था। उन्होंने जवाब दिया था,
“सदियों से है, सदियों तक… शायद। लालच, मोह, बुराईयाँ खत्म नहीं होंगी कभी।”
माँ की मौत किंकर्तव्यविमूढ़ता बन उसके दिमाग पर जब छाने लगीं, पापा ने उसे बुआ के पास भेजने का प्लान किया।

बुआ अपने घर में फोन रखने के बाद फूफा जी से बतिया रही थी।
“बहुत टूट गए हैं तीनों। आवाज भी जैसे गहरे कुएँ से आती है।”
“उन तीनों को गहरा आघात पहुँचा है।”
फूफा जी ने अखबार मोड़कर मेज पर रखते हुए कहा। बुआ पास आ बैठीं।
“आज तक किसी ने किसी का दिल कभी नहीं दुखाया था और उन्हें इतना बड़ा कष्ट!…भैया ने बुलाया है।”
“दर्द तो हमें भी है। चलो, कल ही चलते हैं। भाई साहब कह रहे थे कि अमृत अब हमारे पास रहकर ही पढ़ेगा।”
अमृत अपने कमरे में ही था कि पोर्टिको में गाड़ी रूकी। पापा की आवाज सुनाई दी,
“आ गए आपलोग। अच्छा किया। चलो…चलो अंदर।”
अमृत और अर्पिता हॉल में आ गए। दोनों उनके चरण छूकर वहीं बैठ गए। अमृत के चेहरे पर उदासीनता साफ झलक रही थी।वह वहांँ होकर भी जैसे वहांँ नहीं था। बुआ जान बूझकर इधर-उधर की बातें करने की कोशिश करने लगीं।
पापा और अर्पिता तो उनकी बातों का जवाब भी दे रहे थे और ध्यान भी। लेकिन अमृत अपने में डूबा था। एकदम चुप्पी।
पता नहीं, किस ध्यान में गुम था। “अमृत, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?”
उसने केवल सर हिलाया। जैसे कहा हो – “ठीक।”
“अमृत, वो…वो…वो फिल्म देखी है?…क्या नाम.है उसका…अभी तो रिलीज हुई थी। हाँ! बधाई हो।” – फूफा जी ने भी उसके ध्यान को भंग करने की कोशिश की।
पर इसका जवाब भी उसने नहीं दिया।
चाय नाश्ते के बीच भी अमृत अपने में डूबा रहा।
“चलो भैया बाहर।” – तृप्ति ने अर्पिता को भी बाहर आने का इशारा किया। दोनों बाहर निकल गईं।
अंत में बुआ उसका हाथ थामकर कॉरिडोर में पहुंँच गई। बगीचे में उँगली से इशारा करते हुए चहकी,
“अरे हरसिंगार कितना बड़ा हो गया है। मुझे तो यह बचपन से पसंद है। जब सवेरे-सवेरे इसके फूल जमीन पर बिछकर कालीन बन जाते हैं, मैं तो एकदम मस्त हो जाती हूंँ।… तुम्हें भी अच्छा लगता है न अमृत।”
“बस चले तो मैं तो इसी कालीन पर सोऊँ। बट मम्मी-पापा…” – तृप्ति बीच में ही हँस पड़ी।
“और वह आम का पेड़ तुम्हारे पांँचवे जन्मदिन पर भैया ने लगाया था। देखो तो तुम्हारे साथ कितना बड़ा हो गया अमृत। इस साल मंजर आया था क्या?”
हल्की सी स्मित के साथ उसने कहा – “हाँ!”
“अर्पिता के पाँचवे जन्मदिन पर कौ सा पेड़ लगा था?…शायद नीम…है न?”
“बुआ, माँ हवा स्वच्छ-शुद्ध रखने की कोशिश करती रही। कहाँ रख पाई। खुद गुम हो गई। बेकार।”
बुआ सकपका गई। थोड़ी देर उसे एकटक देखती रही।
“बेटे! हम कोशिश करना क्यों छोड़ें।”
“हम सब की जिंदगी तो खत्म हो गई न।”
“जिंदगी कभी…कभी भी खत्म नहीं होती।”
अर्पिता ने बुआ का हाथ थाम लिया।
“बुआ! चलिए वहाँ बैठते हैं।”
तीनों सामने के बगीचे में रखी कुर्सियों पर जा बैठे।
“इस पेड़ को मांँ ने लगाया था न मैं रोज यहांँ कर बैठती हूंँ बुआ।”
उन्होंने ने करूण निगाहें अर्पिता पर डाल सर हिलाया।
“मुझे यहाँ बड़ी शांति मिलती है। लगता है, जैसे माँ…।”
अर्पिता रो पड़ी।
अमृत का चेहरा कठोर हो गया।
माँ के द्वारा उन दोनों के जन्मदिन पर दोनों से लगवाए गए पौधों की याद उनके बीच पसर गई।
उधर अमृत के पापा फूफा जी से कह रहे थे,
“मुझे अमृत के लिए बहुत चिंता होती है। वह मेंटली काफी डिस्टर्ब है। यादें उसे तड़पाती रहती हैं। हम देखते रहते हैं…बेबस…।”
“ठीक सोचा है आपने, यहांँ से बाहर रहेगा तो चेंज आ सकता है।…हम ले ही जाएँगे।”
“उसे अपने से दूर करने का अफसोस तो होगा बट कोई चारा नहीं। शायद बदला परिवेश उसे शांति दे।”
“ठीक हो जाएगा भाई साहब। डोंट वरी, हम तीनों हैं न।”
” हाँ! यूँ तो हम सब हिल गए हैं। लेकिन अमृत इज वेरी सेंटिमेंटल।”
“आप दोनों भी चलिए। कुछ दिन बाद लौट जाइएगा।”
“नहीं। अभी मीटिंग पर मीटिंग है। अभी संभव नहीं होगा।”
“अमृत का एडमिशन?”
“एडमिशन के समय मैं आऊँगा। ”
“आज भी है मीटिंग। अभी मुझे निकलना होगा।”
वे तैयार होकर ऑफिस चल दिए। ऑफिस में मीटिंग में व्यस्त हो गए।
दो दिन बाद फूफा जी, बुआ और अमृत लौट रहे थे। पापा ने अंक मे भरकर उसे प्यार किया।
“ठीक से रहना। मैं जल्द आऊँगा।”
पापा अर्पिता के साथ वहीं रह गए। अर्पिता गाड़ी के धुएँ को देखती चुपचाप खड़ी थी कि पापा कंधे पर हाथ रखकर उसे घर के अंदर ले आए।
“हम अमृत से मिलने जल्द चलेंगे।”
कुछ दिन बहुत उदास सी रही अर्पिता। फिर पढ़ाई में व्यस्त हो गई।
हताशा-निराशा के कुएँ में उभ-चुभ करता अमृत का मन बुआ की सकारात्मक, उत्साहभरी बातों से भी शांत नहीं हो पाता। कोर्स की पढ़ते-लिखते वक्त भी अक्सर अमृत हवा में गोलियाँ चलाने लगता। वह अपने आप को कभी माफ नहीं कर सका।
वह सोचता, क्यों नहीं बदमाश से रिवाल्वर छीन सका था या माँ के सामने आकर खुद गोली खा सका था? खुद ढेर हो जाता, माँ तो बच जाती। माँ जैसे लोगों की जरूरत यहाँ थी।
कल्पना में जीने-मरने की बात सोचनेवाले अमृत की मनोदशा बुआ नहीं समझ पाती। फिर भी भाभी की भक्त बुआ समय-असमय नैतिकता की बात बताती रहती।
“आधुनिक होते हुए भी पुराने सही विचार को अपनाना जरूरी है।” – उनका एकदम स्पष्ट मत था।
वह नहीं जानती, अमृत कल्पना में रसिक और उसके साथियों को भून डालता है। यह भी नहीं कि पथरीली राह पर बिछी लाल रक्त से सनी देह उसका पीछा नहीं छोड़ रही है।
अंततः उसने बुआ से कहा था – “मैं सारी दुनिया में आग लगा दूँगा। रसिक जहाँ भी छिपा है, उसको वहाँ से ढूँढ लाऊँगा और… और…!”
“कौन रसिक?… बोल, कौन रसिक?”
“वही, जिसने मेरी जिंदगी में आग लगा दी। माँ को…।”
वह तुरंत चुप लगा गया।
फिर बाहर आते हुए बुदबुदाया,
“बदले का ज्वार-भाटा मेरे मन-दिमाग के समंदर तट पर पछाड़े खा रहा है।”

अमृत ने रसिक को पहले ही कई जगह ढूँढा था। उसके सारे अड्डों का पता लगाकर भटकता रहा था। वह वहाँ नहीं मिला था।
“यहाँ रह रहा है, आजकल।”
अमृत के दोस्त ने खबर दी थी। तभी उसने बुआ के शहर में आने के लिए हामी भरी थी।
“रसिक को मैं स्वयं सजा दूँगा।”
लेकिन उसे रसिक नहीं मिला, तो नहीं मिला।
सपने में फायर पर फायर करता वह अपने अंदर घुलते-मिलते विष से आक्रांत रहने लगा। और भी विवश, और भी विषैला। उसके अंदर इतना विष जमा हो गया था कि वह उस शहर के पान दुकानों पर अड्डा जमाकर साजिश रचनेवाले शोहदों से जा मिला था।
उसे अपना साथी बनाते हुए वे सब भी बहुत हर्षित हो उठे। उन्होंने एक दिन अमृत के हाथों में देशी कट्टा थमाते हुए उसे कुछ नसीहत दे डाली।
पापा अमृत के पास काफी पैसे भेजते थे। आवश्यकता से ज्यादा। उन सबका ध्यान इन पैसों पर भी था।
“यार! मालदार है। चलो, खूब मलाई खाने को मिलेगा।”
“तुमने एकदम सही शख्स को फँसाया है यार!”
“हा!…हा!!…”
“ये तो आगाजे इसक है, रोता है क्या
आगे-आगे देखो, होता है क्या।”
वे शोहदे आपस में बातें करते।
अमृत के भीतर जमे जहर और शोहदों की मित्रता ने पहले उसे नशे की गिरफ्त में लिया। वह गाँजा, भांग, देशी दारु से लेकर अंग्रेज शराब का दीवाना होता चला गया।
माँ की बात, बुआ की सीख याद आई थी… लेकिन उसने सर को झटक दिया था, जैसे उन बातों, उन सीखों को राख की तरह झाड़कर आगे बढ़ गया हो।
पापा का पैसा कम पड़ने लगा था।
“नशे की लत की तरह रुपये का नशा होता है। सर चढ़कर बोलता है।”
“पैसा पैसे को खींचता है।… जितना पैसा बढ़ता है, उतना ही लालच भी।”
जानता था यह बात। सुनता रहा था मितव्ययी माँ के बोल। लेकिन फिर वही… कँधे को झटकना।
अपहरण कर फिरौती माँगने, जान से मारने की सिर्फ धमकी देने से शुरू अपराध का कीचड़ दलदल में बदल चुका था। छोटे अपराध की कोशिशों ने धीमे-धीमे अमृत को दुर्दांत अपराधी बना डाला था।
वह इसके कारणों पर विचार करना नहीं चाहता था। किया भी नहीं। न आगत की सोच, न विगत की चिंता। बस रुपया-पैसा… बम-गोली… बारुद-बदला… चिढ़, गुस्सा और पता नहीं किस-किस तरह का विष वमन!
“आत्मा हर किसी को गलत कदम उठाने से पहले रोकती-टोकती है। वह तो आदमी है, जो उसकी आवाज को नहीं सुनता।”
“उपदेश देने में माँ बुआ बन जाती, बुआ माँ।” – वह तृप्ति से कभी-कभार कहता।
लेकिन उसे दोनों के उपदेश याद नहीं। वह याद करना भी नहीं चाहता।
बात अभी तक खुली नहीं थी, न पापा के सामने, न ही बुआ के सामने। बुआ कभी मंदिर जाती या रिश्तेदारी में तो साथ तृप्ति भी साथ होती। अमृत हमेशा न कह देता। सब्जीवाला कोठी के पास ही आवाज लगाता। बुआ ही खरीदती। बाकी सौदा-सुलूफ फूफा जी लाते। कभी-कभार अमृत भी।
बुआ-फूफा जी कोचिंग में घंटों सर खपानेवाले बिन माँ के भतीजे को एकदम डिस्टर्ब करना नहीं चाहते। वे बतियाते,
“दिन-रात तो बेचारा अमृत काॅलेज, ये कोचिंग, वो कोचिंग में लगा रहता है।”
“हाँ! जरूरत पड़ी, तो अपने मैडम, सर से भी मिलता रहता है। फुरसत कहाँ उसे।”
उसके पापा आते। अर्पिता आती। खूब धमाल मचता। पर अमृत वैसे ही धीर-गंभीर।
” कोई पापा दो-तीन दिन में कितना समझ लेंगे बच्चों को। अमृत के पापा उनसे अलग हैं क्या?” – बुआ कभी कहती। लेकिन सच्चाई का पता, उन्हें भी नहीं थी।
पापा कहते,
“इसको ए वन इंजीनियर बनाने का सपना इसकी माँ ने भी देखा था।”
सारी सुविधाओं से लैश कर उसे ए वन कोचिंग सेंटर में डाल दिया था… एक नहीं, दो-दो।
“उसे विदेश भेजने का सपना पूरा होकर रहेगा।” – वे आश्वस्त थे।
वे उस पर ध्यान दे नहीं पाए। अपने काम से फुर्सत उन्हें मिलती भी नहीं।
अर्पिता छोटी थी। अभी-अभी दस वर्ष बीते थे। कहने का मतलब उड़ती चिड़िया के पर गिनने की फुर्सत किसी को नहीं थी।
“बस, मैं अपनेआप को पहचानता हूँ… पूरी तरह।”
उस पर जिद सवार रहती।
“बदला नहीं ले पाने की नाकामी…ओह!”
वह अँधेरे कमरे में खुद से उलझता ही रहता। जिद और नाकामी शांत वसुंधरा को रक्तरंजित करने के लिए उसे उकसाती रहती थी।
कुछ साल यूँ ही पँख लगाकर उड़ गए। इन सालों में उसकी मासूमियत का पक्षी कहाँ खो गया, कोई नहीं जान सका… खुद भी। बाहर से एकदम भोला, दर्मियाने कद का, दुबला, गोरा-चिट्टा, मीठी मुस्कान का मालिक अमृत ऐसा-वैसा दिखलाई भी तो नहीं पड़ता।
इन सालों में वह बेखौफ योजनाएँ बनाता रहता था, अंजाम देता रहता था।
इस बार डॉक्टर शिशिर प्रसाद के बेटे के अपहरण की योजना कार्यान्वित होने के बाद वह मन ही मन हँसा था, जैसे रसिक से आगे निकल, उसे मात दी हो।
जब इस काम के संपन्न होने के बाद उसके हाथ नोटों की गड्डियों से भरा बैग आया, उसने उस बच्चे के सर को अपने कट्टे की गोली से छलनी कर दिया था। एक क्रूर संतुष्टि उसके मन के भीतर उतरती चली गई थी।

उसे नहीं लगता, वह किसी मासूम, बेगुनाह की हत्या करता रहा है।
अमृत को लगता था, उसने फुफकारते आग्नेयास्त्र से जिसकी हत्या की है, वह कोई और नहीं, वह स्वयं है।
सामने रक्तरंजित शव उस व्यक्ति का नहीं है। रसिक का भी नहीं। वह तो अमृत ही मृत पड़ा है।
“वह कायर अमृत… माँ की मौत का जिम्मेदार अमृत!”
“रसिक को सजा नहीं दिलवा पाने का दोषी अमृत!”
बड़बड़ाता रहता वह।
मोबाइल ऑन कर परिजनों के सामने ही किसी को मारते हुए नकाबपोश अमृत को बहुत आन्नद का अनुभव होता था।

प्रिया… सात-आठ साल की बच्ची! उसे स्कूल से लौटते वक्त उठा लिया था। कुछेक दिनों तक रेकी की थी। फिर घटना को अंजाम दिया था। उसकी जान उसने आज ली थी। वह चिल्ला रही थी जोर-जोर से,
“भैया! मत मारो …। मत मारो भैया मुझे।…भैया!… भैया!!”
“चुप!… चोप्प !!”
वह भैया! भैया! करती रही थी। पहली बार किसी को मारते हुए उसके हाथ काँपे थे।
फिर उसने उसकी जगह स्वयं को देखा था और एक साथ कई गोलियाँ उसके सीने, खोपड़ी में उतार दी थीं।
तब से वह बच्ची चीख बनकर दिल में उतर गई थी। अपनी अर्पिता बनकर भी। उसकी चीखें पीछा नहीं छोड़ रही हैं।
“मत मारो भैया!… मत मारो।… भैया!…भैया!!”
कभी वह अर्पिता बन जा रही है कभी प्रिया।
“अरे अर्पिता! तू यहांँ कैसे?”
“मत मारो भैय्या…”
अरे, यह तो अर्पिता है। प्रिया भी अर्पिता के उम्र की थी। उसके गाल पर भी बड़ा सा मस्सा था।
“तुम्हारे बाएँ गाल का मस्सा दाहिने पर कैसे चला गया अर्पि?”
वह उठ बैठा। चहलकदमी करने लगा।
“आत्मा हमेशा गलत काम करने से पहले रोकती-टोकती है। मनुष्य है, जो उसकी सुनता नहीं।… सुन ले, गलत काम हो ही नहीं।”
यह आवाज़ फिर आई।
“बुआ की है या माँ की?”
उसने पहलू बदला। “… माँ की
है।”
माँ अक्सर कहती रहती थी – “चींटी को भी बचाकर क्यों चलती हूँ, जानता है?… हम किसी को जीवन दे नहीं सकते, फिर उसकी जान लेने का अधिकार हमारा कैसे?”

अमृत तीन खून कर चुका था। कभी भी आवाज़ों को बदले के दर्द के शोर को पार करते नहीं देखा। हाँ, मन चिंहुक उठता था हर बार।
“भैया! मत मारो… भैया…भैया!”
अमृत लेट गया पर सो नहीं पा रहा। शोर से दिमाग की नशे फटने लगीं। उसने दोनों अँगूठे से नसों को दबाया।
एक बार हलकी झपकी। फिर चीख से नींद खुल गई।
“अरे ! अर्पिता?… क्यों चीख रही है?”
वह पसीने से भीग गया। मुँह में टपक कर स्वेद-कण अंदर चले गए। खारा स्वाद…थू…थू!
“मुझे चस्का-स्वाद लग गया है खून का…”
वह घबरा गया।
“भैया! मत मारो। भैया…!
अर्पिता यहाँ कहाँ!”
“… चींटी भी न मरे अमृत। सँभलकर चलो बेटा।”
“जब जागो, तभी सवेरा।”
सब गडमड! शोर बढ़ता जा रहा था। कितने दिनों से वह इस शोर से जूझ रहा है।

रात का अंतिम प्रहर! अमृत को जल्द निर्णय करना है। वह उठा। वी.आई.पी. को अलमारी के ऊपर से उतारा। पलंग के नीचे से बैग खींचा। बड़े बाप के बिगड़े बेटे ने सारे पैसे, गोलियाँ, पिस्तौल वी. आई. पी. से निकाल, बैग में रखा। बुआ के कमरे में झाँक आया।
धीरे से बाहर का गेट खोला। बाहर भी अभी तक सन्नाटा था। उसने गेट में ताला जड़ा और पास ही बहती स्वर्णरेखा नदी की ओर बैग थामे पैदल चल पड़ा।
अब अर्पिता की चीखें धीमी पड़ने लगीं थीं।
नदी के पास जाकर वह एक चट्टान पर देर तक बैठा रहा। फिर धीरे से उतर कर आगे बढ़ते हुए उसने बैग को दूर फेंक दिया।हहराती नदी में बैग कुछ दूर डूबता-उतराता दिखता रहा…फिर जलमग्न।

आंँखें बंद कर उसने गहरी सांँस ली। वह धीरे-धीरे सुकून महसूस करता रहा। उसके होठों पर एक नन्हीं मुस्कान कोमल चिड़िया की तरह आ बिराजी। फिर वह वापस लौट पड़ा। उसके गहरे कदमों के निशान बालू में दिखते रहे।

सामने से रक्तिम सूर्य की लालिमा उसके चेहरे को उद्भासित करने लगी। उसे अर्पिता स्कूल ड्रेस में स्कूल जाते हुए खिलखिलाती नजर आई।
जैसे ही हॉल में पहुंँचा, देखा, तृप्ति जल से भरे कांँच के खूबसूरत पॉट में हरसिंगार के फूलों को सजा रही थी।
वह भी सजाने में व्यस्त हो गया।

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