प्रिय मनु,
अब जाकर एक बात समझ आई है ‘जब चिडिया चुग गई खेत’
बीत गए जीवन के मदमाते बसंत सारे हम दोनों के। रह गए हैं सूखे से दिन, जहाँ बादल छाते तो हैं, उमड़ते -घुमड़ते भी हैं, पर स्नेह की बारिश के लिए तरसता मन चातक की भाँति दूर से ही चकोर को देख संतुष्ट कर लेता है मन को। समुद्र की लहरें उछलती है पूर्णिमा की रात छूने चाँद को, पर लौट आती है रेतीले किनारों को छूकर वापस मायूस-सी और अमावस्या में खोया चाँद उसे अन्दर तक विरह की अग्नि में जलाता है।
विरह जो तन का नहीं, मन के न मिलने का ही तो है। मन, जो एकाकार हो, बस एक दूसरे के सुख दुःख में भागीदार बन हाथों में हाथ लिए सात फेरों के वचन में लिपटा, आज भी अग्नि कुंड के किनारे पर खड़ा तुम्हारे लिए, परिवार की सुख की कामना में अपने सुखों की आहुति देते हुए स्वयं को अकेला, बहुत अकेला महसूस कर रहा है,
और तुम दूसरे छोर पर खड़े नितान्त अकेले, मेरी तरह ही तलाश रहे हो किसी ऐसे का साथ, जो तुम्हें तृप्त कर सके, संतुष्ट कर सके तुम्हारे तन-मन की ज्वाला को अपने शीतल और गर्म छाँव से।
कैसी विडम्बना है ये? हम दोनों अकेले, चाहतें अकेली, जीवन अकेला, आखिर क्यूँ?
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कभी -कभी इन्तेहा हो जाती दर्द की, तो उमड़ते -धुमडते श्याम बादलों की भीड़ बरसने को बेताब हो जाती है, और धरती सम हृदय, कोरे पन्नों सा, पर भावनाओं का सैलाब-सम पानी जैसे प्रलय ला देता है। तहन-नहस होने लगते हैं कोमल पन्ने चिन्दी चिन्दी बन, आँखों के आगे धूल उडाते, धुंधलका छाने लगता है…
और तब फिर से एक कोशिश तूफान से बाहर निकलने की, उन चिन्दी – चिन्दी टुकडों को जोड़कर लिखती हूँ तुम्हें पाती, एक सुकून की तलाश में, अपने को व्यक्त करने का सुकून भर। शायद कहीं और भी कोई किसी किनारे पर मेरी तरह ही छटपटा रहा हो तो इसे पढ़कर सुकून पा सके मेरी ही तरह, इसलिए भी, और शायद….
शायद कभी, किसी पल में, तुम्हारे हाथ लगे ये पाती और उत्तर दे सके तुम शायद मेरे प्रश्नों का, बुद्धि से बलवान हो ना तुम, ऐसा मानती हूँ मैं भी, भले ही तुम ना जानो, पर हाँ, दिल की दुनिया की शहंशाह मैं ही हूँ भले ही तुम मानो ना मानो।
तभी तो, बहुत सारे प्रश्न हैं मनु, तुमसे भी और प्रकृति से भी, विधाता से भी।
पर एक प्रश्न जो छटपटाता है उत्तर के लिए स्वयं भी!
क्या तुम दे सकोगे इसका जबाब?
जब बनाया है ईश्वर ने हम दोनों को ही मानव, तो मन भी एक -सा क्यूँ नहीं दिया, तन तो अलग है ही, फिर भी शायद पूरक रूप, पर मन?
मन तो एक जैसा दे सकता था ना !
जो समझ सकता एक दूसरे को, जो स्वीकार कर पाता एक दूसरे को उसी रूप में जैसा बनाया तुमने, नहीं तो फिर एक जैसी प्यास होती दोनों में,
और एक जैसी तृप्ति, पर मनु , ऐसा नहीं है ना!
तुम तन में सुख तलाशते तृप्त और फिर-फिर अतृप्त और तृप्त की यात्रा करते रहे, और मैं मृग की भाँति कस्तूरी की तलाश करती, मन की दुनिया में ही विचरण करते हुए भी तुम्हारी आँखों में अपनी छवि तलाशती रह गई।
स्त्री का धरती होना और पुरुष का आकाश!
क्या आकाश होता भी है?
या शून्य, सिर्फ खालीपन। जिसको सबकुछ समझ पुरुषत्व का दम्भ नहीं सह पाता स्त्री रूपी धरती का सबकुछ धारण कर लेना बिना एक शब्द उच्चारण किए, और सम भावसे स्वीकार लेना, आकाश का होना, अपने ऊपर छाए रहना, उसके होने के गर्व में फूलते हुए भी देखते रहना,!
क्या ये अन्तर भी स्त्री-पुरुष का है?
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पुरूष को चाहिए सिर्फ मेनका रम्भा- सी अप्सराओं की अदा वाली वामांगी, आज जाना।
मैं नहीं बन पाई हर वक्त वैसी।
मैंने सीखा था पुरूष की, परिवार की, समाज की जिम्मेदारियों का वहन और उसी में सुख तलाशने की यात्रा,,
बखूबी निभाया मैंने ये सब गृह सेविका बनकर भी, पर सेविका का तन और मन भी होता है, ये मुझे भी पता नहीं था, तुमने भी कभी बताया नहीं, क्यों?
तुम खुश थे तब, जो करना था, जो चाहा था, सब हो ही तो रहा था, स्वच्छंद पक्षी की भाँति विचरण, मेरे बारें में सोचना, समय और जरूरत दोनों ही नहीं, है ना मनु!
और मैं सिर्फ तुम्हें ही सोचती रही हर पल, हर क्षण, कमाल तो ये है कि आज भी यही तो कर रही हूँ, विचित्र है स्त्री होना! एकबार अपना मान लिया तो बस मान लिया, पर पुरुष! क्या वे भी ऐसा ही सोचते हैं, तुम्हें देखकर तो नहीं लगता।
व्यवसायिक बुद्धि की श्रेष्ठता शायद लाभ-हानि ही सोचती है रिश्तों में भी, प्रीत-प्यार मन बहलाव से अधिक कुछ नहीं, है ना मनु!
फिर मैं थी ना!
हर जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने को तैयार भी, क्या ये भूल थी मेरी?
अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं, सीखा ही नहीं था ना मनु।
सजी सँवरी भी तो तुम्हारे लिए ही।
मैं भूल गई थी चौबीस धंटे ही होते हैं दिन के और तन की भी एक सीमा, एक शक्ति, शायद यौवन की तन था, झेल गया तुम्हारे सतही प्यार को सच्चा मान सबकुछ, पर कब तक?
आखिर कब तक?
तन की खुराक का ही होश नहीं था, तो मन की खुराक की क्या बात करूँ। पर जानते हो मनु, तुम्हारा पुत्र थोडा बड़ा होते ही मन और तन दोनों की खुराक के बारें में पूछने लगा, तुमने कभी नहीं पूछा, इसलिए उसका बचपना लगा, आदत नहीं थी ना अपने बारें में स्वयं ही कभी नहीं सोचा ना किसी को चिन्तन करते देखा था, मैं बात हँसी में टालती रही।
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अब संसार ने भी सिखाने की कोशिश की मुझे, मन की खुराक भी।
अशक्त शरीर ने समझाया मुझे तन की खुराक भी, वक्त तो बहुत हो चला था।
पर चलो, देर आए दुरुस्त आए।
नहीं, नहीं मनु, संस्कारों में लिपटा मन? ये मुहावरा भी मुझपर तब भी लागू नहीं होता।दुरुस्त तो अभी भी नहीं हो पाए। जिम्मेदारियाँ लेने की भी आदत हो जाती हैं न मनु!
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और तुम!
तुम फिर नए की तलाश में, मनबहलाव के लिए।
जानते हो मनु, तुम्हारे होठों पर किसी और का नाम मुझे मेरे नाम की जगह दिखता तो टीस तो होती थी मन में, पर तुम्हारी खुशी में ही तो खुशी तलाशती रही थी जीवनभर, इसलिए मन को समझा देती, बस चू पडती कभी -कभी बादल के कोरों से जल की कुछ बूँदे, मन को शीतल करने।
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देखो बात कुछ ओर करने बैठी थी और धागे कहाँ से कहाँ जीवन को बुनते चले गए।
बात थी एक समझ की, हाँ,
मेनका रम्भा हर समय बनी रहना, नहीं बन पाई मैं परिवार और तुम्हारी जिम्मेदारियों के बोझ तले, जो दिनोंदिन बढे ही, घटे नहीं, तुमने गृहसेविका ही तो चाही थी, मेरा इन्कार और इकरार दोनों ही कब मायने रखता था, सेविका जो थी, यही मेरी नियति थी और परिणति भी जीवन की।
पर आज जब तन-मन से अशक्त हो गई हूँ, सेविका नहीं रह पा रही तो?
ये सवाल मुझे भीतर तक कचोट रहा है। क्या इतना कच्चा था ये रिश्ता, जो एक सेविका होने तक ही जुड़ा था?
वे सात फेरे, वो अबतक की उम्र के तीन हिस्से के जीवन की आहुतियां! सब पर पानी फेर दिया तुमने नितान्त अकेलापन सौंपकर?
तुम मिटाते रहे अपने तन की प्यास, और मैं अपने मन के खाली पात्र को भरने के लिए व्याकुल।
शायद यही इस प्रकृति का अन्तर्द्वंद्व है, सदियों का स्त्री-पुरुष का भेद तन से मन तक की यात्रा का।
ये अब समझ आया है, क्योंकि अब थक गया है तन भी और मन भी।
बिना खुराक के तन और मन दोनों ही, समय से पूर्व या समय पर, पता नहीं, पर थक गया है अब गृह सेविका और तुम्हारी सेविका दोंनो के ही योग्य नहीं रहा, जान लिया है तुमने भी शायद।
सच तो ये है कि अब मन ही नहीं रहा जैसे मेरा,
इसलिए परित्यक्ता!
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पर एक बात और है मनु,, मुझे नहीं पता, बाकी पुरुष की भी यही प्रकृति होती है क्या? मेरे लिए तो तुम ही एक पुरुष रहे जीवन भर, नहीं जान पाई औरों के बारें में। ये अहम था तुम्हारा या और कुछ, बहुत चाहकर भी कभी मन के करीब नहीं पाया तुम्हें।
या फिर कोई और चूक जो अनजाने ही मुझसे, तुमसे या हमदोनों से हुई और सारे सुख फिसलते चले गए,
आज खाली हाथ हम दोनों।
मौन….पर बिखरने को छटपटाते से शब्द, खाली हाथ लौट आते शब्द मानों पत्थर की दिवारों से टकराकर, लहूलुहान-से शब्द, बिना मरहम के टपकते-से, अपनी नियति को कभी स्वीकार करते सम भाव से, कभी बिसुरते से ।
बदलते शब्द, पल-पल बदलते भावों के साथ, सातों जन्मों तक साथ निभाने की कसमें और आधे जन्म में ही……
सोचने पर मजबूर मैं।
काश सात फेरों की जगह एक ही फेरा और एक ही वचन होता मन से जीवनभर साथ रहने का तो सौ जन्मों बाद भी हम साथ ही होते…. करीब आत्मा के….जुड़ाव आत्मा से….बंधन आत्मा का….जो कभी टूटता ही नहीं ना मनु!
तुम्हारी,
सिर्फ तुम्हारे लिए स्त्री बनी
श्रद्धा
इंदु झुनझुनवाला
बैंगलुरु, भारत