कहानी समकालीनः तब भी नहीं: शैल अग्रवाल

दादी बार-बार सोमू को आवाज दिए जा रही थी–

‘ सोमू देख, दिन कितना चढ़ आया है– आ अन्दर आकर नहा-धो ले–खा-पी ले–‘

अपनी ही नन्ही दुनिया में मगन सोमू को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। धूप बिल्ली सी दबे पाँव आकर उसके पैरों पर पसर गई थी और सोमू अब गुनगुनी गरमाहट अपने पैरों और तलवों पर महसूस कर रहा था। आज फिर वह रोज की तरह लॉन में लेटे-लेटे बादलों के बनते बिगड़ते आकारों के बीच कुत्ते बिल्ली ढूँढेगा—हाथी घोड़े बनाएगा।

कभी बादलों की झील में हँस के सिंहासन पर बैठी राजकुमारी तैर जाती तो कभी गाल फुलाए मुँह से धुँआ फेंकता दैत्य बच्चों का पीछा करता हुआ इधर-उधर दौड़ता भागता नजर आने लग जाता। यह बात दूसरी थी कि आज उसे होमवर्क जरूर ही पूरा करना था, वरना कल फिर पूरे क्लास के सामने डाँट खानी पड़ेगी और बेंच पर खड़ा भी होना पड़ेगा।

परवाह नहीं थी उसे इसकी। जब से मा भगवान के यहाँ गई है सोमू को सबसे डाँट खाने की आदत सी पड़ती जा रही है। पहले तो जरा सी डाँट पर ही वह बहुत अपमानित और तिरस्कृत महसूस करता था और मा को उसे घँटों समझाना और बहलाना पड़ता था। पर अब तो ऐसा कुछ भी नहीं होता– शुरु-शुरु में उसकी हर गलती को, ‘ जाने दो बिना मा का बच्चा है’ कहकर माफ कर दिया जाता था। पर अब बस डाँट ही डाँट पड़ती रहती है मानो सबलोग भूल ही गए हैं कि मां भगवान के घर जाकर वापिस आने का रास्ता भूल चुकी है। अब तो उसे ही कुछ करना होगा मां की मदद के लिए।

अब मां फिरसे उन बिखरते बादलों की डोली में बैठी उसकी तरफ प्यार से देख रही थी। हाथ हिला-हिलाकर विदा ले रही थी और फिर तुरंत ही जाने कहाँ वापिस चली भी गई।

वह तुरँत ही फिर से अपनी मा को ढूँढने लगा। उन बिखरते रूई के फाँवों में कभी उसे झील-झरने पहाड़ नजर आते (शायद भगवान का घर ऐसा ही हो)— कभी फिर वही हाथ फैलाए, अपने कमर तक लम्बे बालों को हवा में लहराती, मां उसकी तरफ दौड़ी चली आती। उसकी अपनी मां, सोमू को बहुत प्यार करने वाली मां— उसकी हर जरूरत का ध्यान रखने वाली मां—कहानी सुनाने वाली मां—होमवर्क कराने वाली मां— उसकी एक आवाज पर दौड़ी चली आनेवाली मां। बार-बार ही, एक क्षण में ही, उन तितर-बितर होते बादलों के सँग तितर-बितर भी तो हो जा रही थी वह।

सोमू तब एक आँख बन्द कर के माथे पर बल डालकर, माथे को बीचोबीच से दो उँगलियों से दबा लेता। ध्यान लगाने की कोशिश करता –जैसे दादी की किताब में ऋषि-मुनि भगवान को देखने के लिए ध्यान लगाते हैं–या फिर उसके गाँव की रामलीला में रामजी अपनी खोई हुई सीता को माथे पर हाथ रखकर ढूँढते फिरते हैं। उन हवा में उड़ती तस्बीरों को फिर से अपने पास खींचकर लाने की कोशिश करता– बिल्कुल वैसे ही जैसे वह धूप में छुपे हुए रँगों को, आँख बन्द कर वापस अपने पास खींचकर ला सकता है या फिर रात में चमकती बल्ब की तेज रौशनी की लाइन को चाहे जिधर घुमा-फिरा सकता है। उन्हें पीले-नीले, काले और गोल-चौकोर धब्बे बनाकर दीवार पर मनचाही जगहों पर चिपका तक सकता है वह तो।

पर लगता है मा को वापस लाना इतना आसान नहीं। बादल वैसे भी तो दीवार से बहुत ज्यादा उँचे होते हैं न, और दूर भी तो। पापा शायद सच ही कहते थे – सच में उसकी मा थोड़ी बुद्धू ही थी। घर से इतनी दूर जाने की क्या जरूरत थी ? वह तो कभी खेलता हुआ भी इतनी दूर नहीं जाता। किशन के साथ अमरूद के बगीचे तक भी नहीं। पर मा को तो उसे ढूँढना ही होगा। यह उसका, सिर्फ उसका राज था। बस प्रिय एक खेल ही नहीं, एक व्यक्तिगत् राज …नितान्त जरूरत भी।
अब उसे कोई भैया या बहिन नहीं चाहिए, बस मां आ जाएं– इतना ही काफी है। वैसे भी यही तो एक ऐसा राज था जिसे वह अब किसी और को बताना तक नहीं चाहता–किशन को भी नहीं। उसका मन करता है कि दिन-रात बस ऐसे ही मां को ढूँढता रहे– तभी तो शायद मां मिल भी पाएंगी। दादी की डाँट और मास्टरजी की मार खाने से तो यह काम हर हालत में अच्छा था। पापा तो वैसे भी कभी कुछ बताते ही नहीं।

और दादी…यह दादी तो बस दिन भर सिर्फ डाँटने के लिए ही है ।
‘ मेरी बूढ़ी हड्डियों में बस यूं ही खटते रहना लिखा है तभी तो पहले तेरे बाप को पाला और अब तुझे पालूंगी।’
जरा सा लेटने भी नहीं देती, सोमू ने दादी के ही शब्द दोहराए
‘सोमू नहा ले…खा ले…अब बैठ कर पढ़ ले। दूध पी ले। अब सो जा।’ दादी की फरमाइशों की तो लिस्ट ही कभी खतम नहीं होती। पर मां ऐसी नहीं थी। वह तो खुद ही नहलाती थी उसे। कपड़े भी तुरंत ही पहना देती थी और स्कूल भी छोड़ आती थी। दूध का भरा ग्लास ऐसे पिला जाती थी कि सोमू को पता तक नहीं चलता था कि उसने दूध पिया भी या नहीं। कई बार तो रात में फिर से दूध पीने की हुड़क उठने पर उठकर बिस्तर के नीचे झाँककर देखना पड़ता था कि खाली दूध का ग्लास वहाँ है भी या नहीं। यह दादी तो बस शोर मचा-मचाकर ही पेट भर देती है– वैसे भी पिओ या न पिओ, अब तो दूध अच्छा ही नहीं लगता उसे। पता नहीं मां कैसे दूध बनाती थीं? दादी को तो कुछ भी नहीं आता, बस कहने को ही सबसे बड़ी हैं। पापा की भी मम्मी हैं। बेचारे पापा…ऐसी बेकार की मम्मी से काम चलाना पड़ा उन्हें। वैसे भी कितनी झूठी हैं यह दादी– कहती थीं मां अस्पताल से भैया लेकर आएंगी। भैया वगैरह तो कोई नहीं आया… बस सोती हुई मां को ही उठा लाए सब अस्पताल से। और फिर रस्सी से बाँध कर जाने कहाँ ले भी गए, एक लम्बी सी सीढी पर लिटाकर।
दादी से पूछा तो कह दिया- ‘भगवान के घर जा रही है। भगवान का घर दूर है न, इसलिए इतनी लम्बी सीढ़ी की जरूरत पड़ती है। और फिर बाँधेंगे नहीं तो रास्ते में गिर नहीं पड़ेगी ? आखिर सोई हुई जो है!’

फिर झूठ… सोमू जानता था मां ऐसे कभी नहीं सोती। धीरे से भी आवाज दो, तो आधी रात में भी, भरी नींद में ही मां तुरँत उठ कर आ जाती थी ।और फिर क्या सोमू को नहीं पता कि रास्ते में बहुत शोर होता है, तो क्या मां पूरे समय बस सोती ही रहेगी?

उसका मन किया कि इस झूठ बोलने वाली दादी को ही मा की जगह रस्सी से बाँध कर भगवान के घर पहुँचा आए। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। दादी के सँग उसे कमरे के अँदर भेज दिया गया -यह कहकर कि अभी वह बहुत छोटा है, बर्दाश्त नहीं कर पाएगा।

कभी तो सब कहते हैं कि बहुत बड़ा हो गया है वह। उसे बच्चों की तरह बात-बात पर रोना नहीं चाहिए। और कभी कहते हैं कि बहुत छोटा है। कैसे बात नहीं समझ पाएगा …पूरे छह साल का है वह अब। कभी कोई ठीक से समझा कर तो देखे…कह कर तो देखे!

उसे भी पता है कि किसी के घर ऐसे ही नहीं जाया जाता। कोई बुलाए, तभी जाते हैं। तो फिर भगवान की दोस्ती तो दादी से ही ज्यादा थी, फिर उसकी मां को ही क्यों बुलाया उन्होंने?
क्या उन्हें किसी ने बता दिया था कि मा दादी से ज्यादा होशियार है, ज्यादा अच्छा खाना बनाती है, ज्यादा प्यार करती है?
असल में सभी कुछ दादी से ज्यादा अच्छा जानती थी मां, कहानी भी। दादी के खिलाफ कुछ कहो तो कह देती- दादी अब बहुत बूढ़ी हो गई हैं न, इसलिए सब भूल जाती हैं। उन्हें बेकार में सताया और थकाया न करो। इज्जत और प्यार दिया करो। जाने कबतक का साथ है ! भाग्यशालियों को ही दादी मिलती हैं, जाने कब भगवान के घर से बुलावा आ जाए ?

उसने भी अक्सर सोते-जागते दादी को कहते सुना है- हे भगवान अब तो बुला लो। फिर भगवान ने दादी की जगह मां को ही क्यों बुलाया?

सोमू की समझ में नहीं आ रहा था। पापा से पूछो, तो कह देते कि बड़े हो जाओगे तो सब खुद ही समझ जाओगे। और वह रोज ही इँतजार कर रहा है- न तो भगवान ही बुलाते हैं, ना ही वह बड़ा ही हो पा रहा है, और ना ही कुछ जान ही पा रहा है।

ये बड़े लोग भी अजीब होते हैं। क्यों नहीं निश्चय करके उसे साफ-साफ बता देते हैं कि वह अभी वाकई में बड़ा है या छोटा? तो वह उसी हिसाब से सब काम करने सीख ले ! करना शुरु कर दे ! इनसे तो किशन अच्छा है, जो कल कह रहा था- ‘देख सोमू, तू अब बड़ा हो गया है। साफ-साफ समझ ले, तेरी मा अब कभी नहीं आएगी वापस, क्योंकि वह मर गई है। और मरे लोगों को घाट किनारे ले जा कर जला दिया जाता है। और जलकर जब सब खतम हो गया तो फिर तू ही बता, तेरी मा वापस कैसे आ सकती है? तू क्यों उलटी-सीधी जगहों पर उसे ढूँढता फिरता है?’

पर यह किशन भी तो पूरा पागल है।

रोहन की मा मर गई है, उसकी नहीं। रोहन की मा मर सकती है पर उसकी नहीं। क्योंकि उसकी मां ने तो प्रौमिस की है–‘ क्रौस यौर हार्ट एँड होप टु डाई’ वाली, पक्की ‘प्रौमिस’। उसे याद है जब एक दिन उसकी मा को बुखार आ गया था और खाँसते-खाँसते उसका पूरा चेहरा लाल हो गया था, तो सोमू डर कर रोने लगा था। तब मां ने उसे अपनी गोदी में छुपा लिया था और कहा था—‘ डर मत मुझे कुछ नहीं होगा। मैं तुझे अकेला छोड़कर कहीं नहीं जाउँगी। कम से कम तब तक तो हरगिज ही नहीं, जब तक तू अपने पापा जितना बड़ा नहीं हो जाता। और तब उसने हाथ पर हाथ मारकर मां से पक्की प्रौमिस ली थी। दस साल का है तो क्या हुआ इस किशन को तो कुछ भी नहीं पता… फिर अगर उसकी मां मर गई है तो उसे मां के कमरे में से हमेशा मां की महक क्यों आती रहती है?
वह रात में जब सोता है और उसका सर खूब कस कर दुखता है, तो मां अक्सर आ कर सर कैसे दबा जाती है उसका? करीब-करीब हर रात ही तो उसके साथ रहती है मां। बस जरा सा आँख खुलने पर ही तो दिखाई नहीं देती है। भगवान भी तो नहीं दिखाई देता हमें और भगवान के लिए तो कोई नहीं कहता कि भगवान मर गया!

वैसे यह मरना होता क्या है?

सोमू ने भी साँस खींच कर, दोनों आँखें बन्द कर के, चुपचाप लेट कर, कई बार मरने की कोशिश की है। पर यह किशन का बच्चा हमेशा ऐन वक्त पर आकर गुदगुदा देता है। या फिर कभी जब वह बस मरने ही वाला होता है तो दादी आकर डाँट लगा देती हैं- शोर मचा देती हैं-
‘ चल उठ , पढ़ेगा भी अब या बस यूं ही पड़े- पड़े उलटे-सीधे स्वाँग ही रचता रहेगा। चल उठ जा मेरे लाल। देख, पूरा का पूरा चेहरा बिल्कुल लाल हो गया है। मरें तेरे दुश्मन।’

‘ यहाँ तो कोई चैन से मरने भी नहीं देता। ‘-सोमू गहरी साँस लेते हुए कहता तब। दादी की नकल करने में, उसे परेशान करने में, उसे बहुत मजा आता है। सोमू उठ भी जाता है, यह सोचकर कि-चलो मां आएगी तो माँ से ही पूछूँगा कि ठीक से कैसे मरा जाता है ?और वह कैसे इतनी देर तक मरी पड़ी रही थीं उस दिन, जरा भी हँसे और हिले-डुले बगैर!

उसका तो थोड़ी सी देर में ही दम घुटने लगता है और खाँसी आ जाती है।

सोमू जानता है कि उसकी मा को जलाकर फेंका नहीं गया था बल्कि एक घड़े में बन्द कर के गँगा में बहा दिया गया था। पापा ने बताया था उसे। और पापा कभी झूठ नहीं बोलते। वैसे यह काम उसने खुद तो नहीं किया था पर उसे पापा पर पूरा भरोसा है। जब एक जिन्द छोटे से लैम्प में आ सकता है, तो मा घड़े में क्यों नहीं आ सकती! और उसे यह भी पता है कि अल्लादीन के उस जादूई चिराग जैसे वह भी एक दिन अपनी मां को ढूंढ ही लेगा। एक दिन वह घड़ा उसे भी जरूर ही वापिस मिल ही जाएगा। और फिर तीन बार मां को याद करके जब वह घड़ा सहलाएगा तो मां फिर से वापिस बाहर निकल आएंगी, हमेशा-हमेशा उसी के पास रहने के लिए… बिल्कुल उस कहानी वाले जिन की तरह ही। आखिर यह कहानी मां ने ही तो सुनाई थी उसे।

बस, सोमू अब घाट-किनारे रोज ही जाएगा, इसके पहले कि वह घड़ा किसी और के हाथ लग जाए! आखिर मा को अपने घर भी तो वापिस लेकर आना है। उसने उसी रात चुपचाप दादी का बक्सा खोलकर घाट जाने से पहले अपने बेस्ट क्रेयौन से उस घड़े पर मां का नाम लिख दिया था। घड़ा खोने का तो सवाल ही नहीं उठता? पर कल किशन को भी अपने साथ ले ही लेगा वह। किशन चीजों को जल्दी जो ढूँढ लाता है। उसके सारे खोए कँचे भी तो किशन ने ही ढूँढे हैं और मा तो वैसे भी कँचों से बहुत बड़ी है और खूब गोरी भी अंधेरे में भी दिख जाती है। हो सकता है घड़े के अंदर है इसलिए न दिखे दूर से!

अचानक सोमू डर गया यदि किशन को भी मां वाला घड़ा न मिल पाया तो, तो फिर क्या होगा…?

इतना डर तो उसे कभी अकेले सोने में भी नहीं लगा था। मां कहती थी कि अगर वह अपना पूरा होम वर्क करेगा, सबकी बात मानेगा, तो वह कभी भी उसे अकेला छोड़कर नहीं जाएंगी। और अपने पास उन्ही के बिस्तर में, सोने भी देगी। यह सब याद आते ही, उस दिन से क्या, उसी वक्त से सोमू बहुत अच्छा बच्चा हो गया है। ठीक से ब्रश करने लगा है और दादी और पापा की सभी बातें भी मानता है।

दादी ने जब उससे कहा कि सोमू आज तेरी मा का श्राद्ध है–चल, जल्दी उठ, नहा ले और तैयार हो जा। पँडितानी को खाना खिलाने में मेरी मदद करना। तो बिना दादी से पूछे ही कि मा और पंडितानी का क्या सँबन्ध है? वह झट से तैयार हो गया था।
हाँ बस मन ही मन उसने यह जरूर सोच लिया था कि अगली बार जब भी वह बीमार पड़ेगा तो अपने हिस्से की सारी कड़वी दवा इसी मोटी पँडितानी को ही पिलाएगा, क्योंकि दादी भी तो सब अच्छी-अच्छी मिठाइयाँ यह कहकर इस पँडितानी को खिला रही थीं कि सब सीधा उसकी मा के पेट में ही जा रहा है। जरूर इस पँडितानी को कोई जादू आता होगा। शायद इसे तब तो यह भी पता होगा कि मां आखिर है कहाँ पर? पर यह खूसट कोई बताएगी थोड़े ही, वरना दादी से तरह -तरह की मिठाई कैसे खाने को मिलगी!

सोमू जानता था कि यह काम तो उसे खुद ही करना होगा। रात में चाहे कितना भी डर लगे, इसीलिए अब तो उसने रात में रोना तक छोड़ दिया है।
किसी को नहीं जगाता अब वह। बस कसकर आंखें मींचे लेटा ही रहता है। दादी की तरह मन ही मन जय रामजी की और जय हनुमानजी की करने लग जाता है।
कल फिर जब रात में उसके अँधेरे कमरे में वही पीले दाँतों और लाल आँखों वाला राक्षस आया था। उसके बिस्तर पर रात भर कूदा था। उसने मां को बहुत याद किया था। पचास की कौन कहे पूरे सौ तक की गिनती भी कह डाली थी। सही-सही सब बता दिया था उसने कि वह कितना भी थका हो, मन करे या ना करे, सबसे पहले पूरा होम-वर्क ही करता है अब तो वह। सुबह उठते ही दाँत भी साफ करता है और फिर तुरँत ही नहा भी लेता है। दादी को भी कतई परेशान नहीं करता…किसी भी चीज के लिए जिद नहीं करता वह। इतने सारे होमवर्क की वजह से कभी-कभी तो खेलने तक नहीं जा पाता ।

सोमू रात भर रोता रहा… गिड़गिड़ाता रहा…अपनी सुधरी आदतें एक-एक करके मा को गिनवाता रहा, पर माँ थीं कि तब भी नहीं आंईं उसके पास।
शैल अग्रवाल

लिखना आदत और मजबूरी दोनों ही। प्रिय विषयः जीवन और इससे जुड़ा सबकुछ।

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