उन गौरैय्यों के इधर-उधर फुदकते दाना चुगते, चहचहाने, की वजह से हाथ में ली हुई डाॅयरी में कुछ नोट करते, नवाजुद्दीन साहब का ध्यान अचानक भंग हुआ था।
हर रोज की तरह, बेगम द्वारा आंगन में चॉपाकल के पास तश्तरी में रखे चावल के कनों को चुगने वास्ते, गौरैय्यों का एक झुण्ड आंगन में उतरा था। गौरैय्यों के कलरव से नवाजुद्दीन साहब के सोच-विचार का क्रम टूटा था।
पैर में फ्रैक्चर की वजह से बीते सप्ताह वो अस्पताल में भर्ती रहे। उस दिन वहां मौजूद लोग कितने असहिष्णु हो गये थे? याद आता है तो मन कसैला हो जाता है। छोटी सी बात का अच्छा-खासा बतंगड़ बना दिया गया था। उस वाकए ने उन्हें वाकई बहुत आहत किया था। रह-रह कर घटना के बारे में सोचते, उन्हें खुद पर गुस्सा और झुँझलाहट सी हो रही थी।
ये जानते हुए कि खुद को किसी काम में व्यस्त रखने से ही अतीत के कड़वे अनुभवों को भुलाया जा सकता है, इसी के तईं वो हाथ में लिये अखबार में, जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में छपे अग्रलेख के कुछ मुख्य अंशों को अपनी डाॅयरी में नोट करने का प्रयास कर रहे थे। परन्तु ध्यान केन्द्रित नहीं हो पा रहा था। बीते सप्ताह की वो घटना एक फिल्म के रील की तरह उनके दिलो-दिमाग पर अभी भी छाई हुई थी।
‘‘…क्या सोच रहे हैं? इस उम्र में अब ज्यादा सोचा-वोचा मत करिये। अभी तो अस्पताल से आये हैं। दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालियेगा। आँगन में गुनगुनी धूप में बस्स ओठंगे ही रहियेगा। अब इस उम्र में किसी को बिन मााँगे सुझाव देने का ये शगल छोड़िये। हाँ, मन करे तो कोई हल्की-फुल्की किताब ही पढ़ियेगा। टी. वी. भी खोल सकते हैं। आजकल तो आपका फेवरेट ट्वेण्टी-ट्वेण्टी मैच भी चल रहा है। या अपनी मन-पसन्द चाय बना कर भी पी सकते हैं। मैं बस्स क्लाॅस खत्म होते ही आ जाऊँगी।’’ घर से बाहर निकलते-निकलते, कनखियों देखते, तनिक मुस्कियाते, ये जानते हुए कि नवाजुद्दीन साहब अपनी आदत से बाज नहीं आयेंगे, पत्नी इस्मत जी ने ये मीठी हिदायतें देते, महापुरूषों की सी वाणी में उन्हें समझाने का प्रयास किया था।
‘‘अऽरे बेगम, मैं कहांॅ सोचता रहता हूँ? तुम्हें खामखां ही गलतफहमी हुई है।’’
‘‘अब मुझसे बेहतर भला आपको कौन जानेगा-समझेगा? थोड़ा टैक्टफुल होइये। कूटनीति से भी काम लिया कीजिए। आगे से ये बातें गांठ बांध लीजिए। आपकी मुफ्त की सलाह किसी को बदल नहीं सकती। सुना होगा आपने भी, ‘घोड़े को प्यास न लगी हो, तो आप उसे जबरदस्ती पानी नहीं पिला सकते।’ लोगों को अपने नजरिये से नहीं, उनके नजरिये से देखिये-समझिये-परखिये।’’
‘‘पर…सामने वाला गलत हो, तब भी?’’ नवाजुद्दीन साहब ने प्रति-प्रश्न किया।
‘‘कौन सही है, कौन गलत है, इसका निर्णय आप कैसे कर सकते हैं? जीवन, शिकायत करने, बिलावजह झल्लाने, गुस्सा दिखाने, दुःखी होकर जीने का नाम नहीं है। नजरिया बदलिये। ‘ऑउट ऑफ द बाॅक्स’ जाकर सकारात्मक सोचिये। किस-किस की शिकायतें, किस-किस से करते फिरेंगे। दुनिया ऐसे ही चलती है, और चलती रहेगी। आप तो अक्सर वो फिल्मी गीत गुनगुनाते रहते हैं…‘गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहाँ, मैं खुद को उस मुकाम पे लाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया…।’’
‘‘पर, वास्तविकताएं इन गीतों जैसी सीधी-सरल नहीं होती।’’ ये कहते, शायद नवाजुद्दीन साहब ने अपनी खिसियाहट मिटानी चाही थी।
‘‘देखा जाय तो जीवन बहुत सरल है, हमीं उसे कठिन बनाते जा रहे हैं। आप भी जानते होंगे, हमारी आधी से अधिक मुश्किलें तो ‘साॅरी’ और ‘थैंक्यू’ कह देने से ही निबट जाती हैं। कभी आजमा कर देखिये? ये अलग बात है कि जब तक कहीं लिखा हुआ पढ़ न लें, आप किसी की बात मानते कहांॅ हैं?’’ ये कहते उनकी पत्नी, बाहर से दरवाजा उढ़काते निकल गयीं थीं।
…क्या मैं इन बातों के अर्थ नहीं समझता? क्या मुझमें दुनियावी समझ की कमी है? पर ऐसा है नहीं। मैं भी समझता हूँ। हर चीज का एक समय होता है। पर किसी मुश्किल का हल, उस पर विचार-विमर्श से ही तो निकलता है न? सिर्फ हाथ पर हाथ धरे रहने से तो कुछ नहीं हो सकता न? फिर, बिन मांगे सलाह देने की अपनी आदत तो वर्षों पुरानी है। अब जाते-जाते ही तो जायेगी न, ऐसी जड़ीली आदत? बेगम के ऐसे औपचारिक सुझावों से तो कत्तई नहीं जाने वाली…।
अखबार हाथ में लिए, बीते सप्ताह की घटना पर ऊभ-चूभ होते, नवाजुद्दीन साहब काफी देर तक खुद से बतियाते, बेगम की कही बातों के मायने निकालते रहे।
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‘‘खट्ट-खट्ट…?’’ पत्नी के जाने के लगभग एक घण्टे बाद किसी के बाहरी दरवाजे के खटखटाने की आवाज हुई।
‘‘कौन है…?’’
‘‘जी…! मैं…मैं…?’’
‘‘अरे भई! कुछ नाम-वाम भी है तुम्हारा? या सिर्फ मैं-मैं ही नाम है?’’
’’क्या मैं अन्दर आ जाऊँ?’’
‘‘हाँ-हाँ, अन्दर आ जाओ। दरवाजा खुला ही है।’’
‘‘जी, नमस्ते! मैं अल्पना निधि। यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ।’’
‘‘ओ-हो! तो आप हैं। कहिये, अब क्या प्राॅब्लम हो गयी?’’ अपने सामने अचानक उस लड़की को देख, नवाजुद्दीन साहब के मन में जुगुप्सा सी हुई। उन्होंने उसकी ओर थोड़े उपालम्भ, थोड़े व्यंग्यात्मक लहजे में देखते पूछा।
‘‘जी, कोई प्राॅब्लम नहीं। उस दिन आपने साॅरी तो बोल ही दिया था, लेकिन बाद में जब मैंने पूरे घटनाक्रम पर सिलसिलेवार गौर किया तो लगा कि हो-न-हो मुझे ही गलतफहमी हो गयी हो? आपकी इतनी उम्र हो गयी है। आप भला कैसे ऐसी-वैसी, ओछी हरकत कर सकते हैं? मैंने खामखां ही बात का बतंगड़ बना दिया था। आपको बुरा लगा होगा। साॅरी तो मुझे बोलना चाहिए था।’’
‘‘अरे भई! ठीक है। इसमें कोई बुरा मानने वाली बात नहीं है। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। कभी-कभी गलतफहमी हो जाती है। इसमें उम्र या अनुभव कोई मायने नहीं रखता। तुम्हें किसी किसिम का गिल्ट महसूस करने की जरूरत नहीं है।’’
‘‘अंकल, आपको भले ही फर्क न पड़ता हो, पर मुझे तो फर्क पड़ता है न! मेरी वजह से आपको इतनी असुविधा हुई। चार बात सुनना पड़ा। सबके सामने शर्मिन्दगी उठानी पड़ी। बेवजह ही खेद प्रकट करना पड़ा।’’
‘‘खैर छोड़ो…। अब ये बताओ कि तुमने मेरे घर का पता कहाँ से ढूँढ़ लिया?’’
‘‘कल सण्डे का अखबार पढ़ रही थी। उसमें एक कहानी छपी थी, जिसमें एक आदमी अपनी बेटी और पत्नी, जिन्हें वो वर्षों पहले खो चुका है, को ढूँढ़ने वास्ते दर-ब-दर की ठोकरें खा रहा है। गुजश्ता सालों में उनकी तलाश में उसे नाकामयाबी ही हाथ लगी है। इस दौरान जिस मर्मान्तक पीड़ा से वो आदमी गुजर रहा है, उसे लेखक ने बखूबी अंजाम दिया है। कहानी दिल को छू लेने वाली, अत्यन्त मार्मिक है। चूँकि कहानी के साथ ही लेखक की फोटो भी छपी थी, जिसे देख कर मुझे ऐसा लगा, जैसे मैंने वो चेहरा कहीं देखा है। पर कहाँ देखा है, ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा था। इस बारे में अभी सोच ही रही थी कि बगल में ही लेटे मेरे छोटे भाई ने उस फोटो को देखते ही कहा…‘अऽरे दीदी, ये तो वही वाले अंकल जी हैं, जिनसे तुम हाॅस्पिटल में बेवजह ही भिंड़ गयी थी। वो बार-बार साॅरी-साॅरी कह रहे थे, पर तुम बार-बार उनकी बातें अनसुनी करते उन्हें कोसे जा रही थी।’ चूँकि वहांॅ मौजूद लोगों ने भी मेरी ही तरफदारी की, ऐसे में मेरा भी दिलो-दिमाग सुन्न पड़ गया था। मेरे सामने झट आपका मायूसी भरा, मासूम सा चेहरा घूम गया कि आप उस दिन किस कदर निरीह और असहाय से महसूस कर रहे थे?’’
‘‘हाँ, मगर…?’’
‘‘आप लेखक भी हैं, मुझे नहीं मालूम था। मैंने सुन रखा है कि रचनाकार अतिभावुक व संवेदनशील किस्म के इन्सान होते हैं। चीजों को अपने नजरिये से देखते हैं। घटनाओं की तह में जाकर, अपने तरीके गहन पड़ताल करते हैं। उनका नजरिया ही अलहदा किस्म का होता है। शायद, तभी ही उनके बारे में कहा जाता है…‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।’’
‘‘अरे वाह! तुम तो लेखकों की फितरत के बारे में अच्छी-खासी जानकारी रखती हो। क्या साहित्य की छात्रा हो?’’
‘‘जी नहीं, अंकल। मैं तो विज्ञान की छात्रा हूँ, और इसी क्षेत्र में आगे रिसर्च भी करना चाहती हूँ। साहित्य में भी थोड़ी-बहुत रूचि रखती हूँ। हाँ मगर, मेरे पिता जी लिखते थे। क्या पता, मुझ पर उन्हीं का कुछ असर हो?’’
‘‘परन्तु, मेरे लिए तो ये असीम आनन्द के पल हैं। आज मैं एक खानदानी साहित्यकार से रूबरू गुफ्तगूं कर रहा हंूॅॅ।’’
‘‘जी नहीं अंकल। ऐसी कोई बात नहीं। ये जान कर कि आप एक लेखक हैं, मैंने सोचा कि क्यों न उस दिन की घटना के लिए चल कर आपसे माफी माँग ली जाय। उम्मीद है, आप मुझे माफ कर देंगे। क्या पता, आप ही दुरूस्त हों। आपकी नजर वास्तव में प्रसाधन-कक्ष के दरवाजे पर लगी उस टूटी पट्टिका पर न पड़ी हो। मैंने भी गलतफहमीवश, बिना जाने-बूझे, आपको जाने क्या-क्या कह दिया। पर स्थिर मन सोच-विचार करते, हिम्मत कर आपके वाॅर्ड में गयी तो पता चला कि आप वहाँ से डिस्चाॅर्ज होकर घर जा चुके हैं।’’
‘‘हाँ, मैं पहले से बेहतर महसूस कर रहा था। मुझे तो अस्पताल और डाक्टर के नाम से ही घबराहट होने लगती है। रिपोर्ट देखने के बाद डाॅक्टर साहब ने मुझे उसी दिन डिस्चाॅर्ज कर दिया था।’’
‘‘अब आप स्वस्थ्य हैं?’’
‘‘जाहिर है, स्वस्थ्य और प्रसन्न महसूस कर रहा होऊंॅगा, तभी तो तुम्हारे सामने यहाँ आराम से बैठा बतिया रहा हूँ।’’
‘‘आपको वाॅर्ड में न पाकर, वहाँ से लौटने के बाद मैं काफी उलझन में थी। आपसे कैसे मुलाकात हो, इस बारे में अपने छोटे भाई के बेड के बगल बैठे-बैठे सोच ही रही थी कि मेरी निगाह, अपने साथ लाए अखबार में छपी उस कहानी पर फिर चली गयी। कहानी के आखिर में आपका नाम-पता और मोबाॅयल नम्बर भी छपा हुआ था। पहले सोचा कि आपसे मोबाॅयल नम्बर पर ही सम्पर्क करूँ, पर तुरन्त ही ये खयाल भी आया कि उस दिन की घटना के बाद मुझ अजनबी लड़की के बारे में जाने आपने कैसी धारणा बना ली हो? फोन करने पर,पता नहीं आपकी क्या प्रतिक्रिया हो? सो मैंने आपसे खुद ही मुलाकात करने की सोची।’’
‘‘अभी तुम्हारे छोटे भाई की तबियत कैसी है।’’
‘‘जी, वो ठीक है। आज सुबह ही हाॅस्पिटल से डिस्चार्ज हुआ है। इसीलिए, मैंने सोचा कि आज सब काम छोड़ कर, सबसे पहले आपसे मुलाकात कर, उस दिन की घटना के लिए माफी माँग ली जाय। सो, अखबार में छपे आपके घर का पता पूछते, यहांॅ तक चली आई। मेरा यूँ, अचानक बिना बताये, आपके घर आ जाने पर आपको बुरा तो नहीं लगा?’’
‘‘अरे नहीं भई। मुझे क्यों बुरा लगने लगा। तुमने नाहक ही कष्ट उठाया। तुम्हें उस मुद्दे को इतना सीरियॅसली नहीं लेना चाहिए। रात गयी, बात गयी। मैं तो उस दिन की घटना को लगभग भूल ही गया था। हाँ, कुछ वजहों से कभी-कभी ऐसी छोटी-मोटी गलतफहमियां हो जाती हैं, पर ऐसे में हमें खुद पर दोष मढ़ने के बजाय, तात्कालिक देश-काल-स्थिति-परिस्थिति पर भी विचार करने की आवश्यकता होती है। कोशिश करनी चाहिए कि आगे ऐसी गलती दुबारा न हो। खैर…तुम यहांॅ इत्मिनान से बैठो। क्या लोगी, चाय या काॅफी?’’
‘‘जी नहीं अंकल, थैंक्स। मैं ठीक हूँ। क्या आपके घर में और कोई नहीं है?’’
‘‘हाँ, हैं न! बेगम साहिबा हैं। पर इस वक्त वो घर में मौजूद नहीं हैं। घण्टा भर पहले ही वो अपने ‘मोटिवेशनल-क्लाॅस’ में लेक्चर देने गयीं हैं। तुम बैठो, वो बस्स आती ही होंगी।’’
‘‘और बच्चे लोग?’’
‘‘हाँ, दो बच्चे हैं। छोटी बेटी, दूसरे शहर में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हाॅस्टल में रहती है। बड़ा बेटा, यू. के. में सपरिवार सैटल है।’’
‘‘फिर तो, इस उम्र में आप दोनों घर में खाली बैठे-बैठे बोर हो जाते होंगे?’’
‘‘ये कैसे समझ लिया तुमने? मैं एक रिटाॅयर्ड आदमी जरूर हंूॅ, मगर खुद को स्वतन्त्र-लेखन कार्य में बिजी रखता हूँ। मेरे पास तो लिखने-पढ़ने वास्ते इतनी सामग्री जमा हो गयी हैं कि उन्हें पूरा करने में, सौ-साल भी कम पड़ेंगे। काफी सामग्रियांॅ तो मेरी हाॅर्ड-बाउण्ड डायरियों में रफ-ड्राफ्ट के रूप में अभी भी फेयर किये जाने की बाट जोह रहीं हैं। तुमने भी सुना होगाा, अंग्रेज दार्शनिक, वैज्ञानिक, निबन्धकार, लेखक और वक्ता, सर फ्रांसिस बेकन ने अपने एक निबन्ध में कहा है…‘कुछ किताबें चखी जानी चाहिए, कुछ किताबें खायी जानी चाहिए, लेकिन कुछ किताबें जुगाली कर-करके पूरी तरह से पचायी जानी चाहिए।’ मैं तो पढ़ता हूँ। लिखता हूँ। उन्हें पचाना भी चाहता हूँ, पर वक्त ही नहीं मिलता।’’
‘‘मैं तो कहूँगी कि आप अपने लिखे हुए को बन्द आलमारियों से अवश्य बाहर निकालिए। आपकी कहानी में आम-जीवन का मनोविज्ञान और जीवन-दर्शन बड़ी ही शिद्दत से देखने-पढ़ने को मिला। क्या आपने ‘माया एंगेलाऊ’ का ये कथन नहीं पढ़ा…‘किसी अनकही कहानी को अपने सीने में दफन रखने से बड़ी व्यथा और कुछ नहीं हो सकती है।’’
‘एक्चुवॅली…असली वजह मेरा आलसीपन ही है। थोड़ा-बहुत योगदान मेरे गठिया-हवा-बतास की समस्या भी हो सकती है। इस व्याधि के कारण, ज्यादा देरे तक बैठ कर लिखना-पढ़ना हो नहीं पाता। मैं जानता हंूॅ, समय बहुत तेजी से भाग रहा है, और मेरे पास काम बहुत ज्यादा है। फिर भी, मैं किसी किसिम की जल्दी में नहीं हूँ। गुणवत्ता बनाए रखने के तईं, थोड़ा समय लगना स्वाभाविक भी है। वैसे भी सृजनशीलता तो सुदीर्घ चिन्तन प्रकिया का परिणाम होती हैं।’’
‘‘अरे वाह! आपने तो बातों-बातों में ही गूढ़ बातें कह दीं। काफी दिलचस्प आदमी हैं आप। रिटाॅयर होने के बाद, खुद को व्यस्त रखने वास्ते आपने बहुत अच्छा उपाय सोचा है। इससे, बुढ़ापे में अकेलेपन का अहसास भी नहीं होगा।’’
‘‘तुम्हारी बातों से लगता है, तुम भी कम समझदार लड़की नहीं हो? वैसे मैं, बातूनी बहुत हंूँ अपनी बातों से तुम्हें, बोर तो नहीं कर रहा?’’
‘‘नहीं अंकल, ऐसा नहीं है। आपकी बातें तो दुनियादारी भरी हैं, जिनमें आपका ज्ञानार्जन, व्यापक जीवनानुभव, समाया हुआ है। जाहिर है, सुनने वाला तो इससे परोक्ष रूप से लाभान्वित ही होगा।’’
‘बैठो, तुम्हारे लिए चाय बना कर लाता हूँ। फिर हम इत्मिनान से ढ़ेर सारी बातें करेंगे। वैसे भी, मैं अदरक-तुलसी-कालीमिर्च की बहुत बढ़िया चाय बना लेता हूँ। हाँ पर, चाय थोड़ी कड़क होगी।’’
‘‘अरे नहीं अंकल जी, रहने दीजिए। कोई फाॅर्मेलिटी-वाॅर्मेलिटी मत कीजिए। मैं चाय नहीं पीऊँगी। मुझे अभी निकलना है। फिर कभी, फुर्सत से आऊँगी, तो आपकी चाय अवश्य पीऊँगी। अदरक-तुलसी-कालीमिर्च वाली कड़क चाय। ढ़ेर सारी बातें भी करूँगी, और हाँ, आंटी जी से भी मिलूँगी।’’
‘‘अरे बेटी, ऐसा कैसे हो सकता है? चाय तो तुम्हें पीकर ही जाना होगा। फिर मुझे भी तो चाय की तलब हो रही है। हाँ, दूध खत्म हो गया है। क्या बिना दूध वाली काली चाय चलेगी?’’
‘‘एक शर्त पर…। चाय मैं बनाऊँगी।’’
‘‘खैर…जैसी तुम्हारी मर्जी। किचन उधर आँगन के पार दाहिनी तरफ है।’’
…………………………………………..
निधी एक कुशल गृहिणी की भाँति, अगले दस मिनट में ही फटाफट चाय बनाते, दो कप चाय, एक ट्रे में लेकर हाजिर हुई।
‘‘अंकल जी, पीकर देखिये, कैसी बनी है चाय?’’
‘वेरी टेस्टी! एक दम मेरे पसन्द की। कम चीनी वाली। इतनी बढ़िया चाय तो मेरी बेगम साहिबा भी नहीं बना पातीं।’’
नवाजुद्दीन साहब ने चाय सुड़कते जवाब दिया।
‘‘अरे वाह! आपको तो झूठी तारीफ भी करनी आती है?’’
‘‘नहीं! सच कह रहा हूँ। तुमने वाकई बहुत बढ़िया चाय बनाई है।’’
‘‘अच्छा अंकल जी, एक बात पूछूँ?’’ निधी ने भी चाय सुड़कते, बात आगे बढ़ाई।
‘‘हाँ-हाँ, पूछो, क्या पूछना है? कोई खास बात?’’
‘‘नहीं अंकल, कुछ खास नहीं। मुझे बस्स, उस कहानी के बाबत कुछ पूछना था। अखबार में छपी आपकी कहानी, जिसमें एक आदमी, अपना परिवार खो चुका है। पत्नी के साथ ही अपनी बेटी को याद करते, उसकी छोटी सी दुनिया, उसके बचपन को याद करते, उस संग बिताए गये पल, बचपन की ढ़ेरों बातों का जिक्र किया गया है। कहानी के बीच में ही, एक कविता के माध्यम से, बेटी के प्रति एक पिता के लगाव, उसकी भावनाओं, बिछुड़न के दर्द को आपने बड़ी ही मार्मिकता से बयान किया है। पढ़ते हुए वो एक कविता नहीं, बल्कि पूरी आख्यान लगती है। मुझे वो कविता इतनी अच्छी लगीं कि मैंने उसी दम अपने छोटे भाई को पूरा पढ़ कर सुनाया।’’
‘‘जैसा कि कहानी में तुमने पढ़ा होगा, एक आदमी, जिसके साथ उसके ससुराल-पक्ष के लोग अच्छा व्यवहार नहीं करते। कारण कि वो अन्य दामादों की अपेक्षा कम कमाता है। अपने प्रति सास-ससुर के उपेक्षित बरताव की वो अपनी पत्नी से अक्सर शिकायत भी करता रहता है, पर उसकी पत्नी बेचारी क्या करे? वो न तो मांॅ-बाप का विरोध कर पाती है, और न अपने पति का ही। इसी कश्मकश में वो, और उसकी बेटी भी पिस रही है। धीरे-धीरे वो आदमी नशे का आदी हो जाता है। आये दिन घर में मार-पीट, झगड़े के माहौल के कारण एक दिन उसकी पत्नी,अपनी बेटी को लेकर कहीं चली जाती है। अगले दिन जब उस आदमी ने पत्नी-बेटी को ढूँढ़ने का प्रयास किया, उन्हें अपने ससुराल, रिश्तेदारी में भी पता किया, परन्तु पत्नी और बेटी का कहीं भी अता-पता नहीं चला। पत्नी-बेटी के वियोग में परेशानहाल, तमाम आशंकाओं के बीच, घर की चारदीवारी में अकेला बैठा, एक दिन एलबम में अपनी पत्नी-बेटी की तस्वीर देखते उसके मन में जो भी खयाल आते हैं, उसे ही मैंने उस कविता के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है।’’
‘‘कविता पढ़ कर स्पष्टतः लगता है कि पिता-पुत्री के बीच गहरे भावनात्मक सम्बन्ध को विविध आयाम देने में आप पूरी तरह सफल रहे हैं। पर अखबार में छपी आपकी वो कहानी अभी अधूरी ही है। कहानी के अन्त में…‘शेष भाग आगामी अंक में’…लिखा हुआ है। कहानी के अंतिम भाग में उस आदमी को उसकी बेटी, पत्नी मिल तो गयी होगी न?’’
‘‘बेटी, तुमने तो मेरी कहानी को बड़ी ही गम्भीरता से पढ़ा, और उसमें आयी कविता की स्पिरिट को भी उसी शिद्दत से महसूस किया। तुम्हें साधुवाद। हालांकि वो कविता अभी अनगढ़ रूप में, आधी-अधूरी ही है, जिसका पुनर्पाठ किया जाये तो उसमें काफी-कुछ घट-बढ़ होने की गुंजायश है। वो तो उस अखबार के सम्पादक महोदय की इच्छा थी। छापने योग्य कोई कहानी मांगी थी। उन्हें बताया कि अभी प्रक्रियाधीन है, तो कहने लगे, जैसी भी है, दे दीजिए। हम उसमें जरूरत भर सम्पादन करके, आपको दिखाने के बाद ही छापेंगे। पुराने परिचित हैं, सो मैंने भी हामी भर दी। कहानी में उन्होंने मेरी अनुमति से केवल सम्पादित अंश ही छापा है।’’
‘‘लेकिन, कविता जितनी भी छपी है, पूरी कहानी का सार व्यक्त करने के लिए काफी है।’’
‘‘हाँ, शुरू-शुरू में वो कविता दस-पन्द्रह पंक्तियों की ही थी। परन्तु बीतते समय के साथ उसमें काफी-कुछ जुड़ता, संशोधित होता चला गया। लेकिन, इसमें थोड़ा-बहुत क्रेडिट सम्पादक महोदय को भी जाता है। उनकी मेहनत को नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता।’’
‘‘सो तो, है ही अंकल।’’
‘‘पर, देखा जाय तो तुम भी कम भावुक और संवेदनशील नहीं हो? यहाँ, मेरा एक सुझाव है, तुम्हें।’’
‘‘जी! कहिए?’’
‘‘कहानी को एक कहानी की तरह ही लेना चाहिए। ये ठीक है कि लिखते समय एक रचनाकार के अपने अनुभव होते हैं। वो यथार्थ और कल्पना के बीच उड़ान भरते, एकालाप, तो कहीं बहुलाप। कहीं संक्षिप्त तो कहीं विस्तार। कहीं हर्षातिरेक तो कहीं विषाद से परिपूर्ण, शब्दों की बाजीगरी बिखेरते अपनी बातें प्रस्तुत करता है। साथ ही प्रस्तुतीकरण में उसका भावनात्मक स्तर, देश- काल- स्थिति- परिस्थिति, उसके अपने परिवेश की भी महती भूमिकाएं होती हैं।’’
‘‘जी अंकल। ये एक रचनाकार का परकाया-प्रवेश ही तो है। वो अपने अन्दर एक ही साथ, एक ही समय में ढ़ेरों पात्र, यथाः नायक, नायिका, खलपात्रों, सहपात्रों आदि को भी जीता चलता, उनसे जद्दोजहद करता चलता है। जिसमें कहीं-न-कहीं उसका स्वान्तः सुखाय भी शामिल होता है।’’
‘‘बहरहाल…मेरे लिए तो रचनाकर्म, तनाव-शैथिल्य का साधन सरीखे है। हालांकि, मैं भी आसानी से अपने रचना-कर्म के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर नहीं निकल पाता। पर क्या करूंॅ, बाकियों की तरह जल्द ही मुझे भी उस परिवेश से बाहर आना ही होता है। अऽरे भई! दूसरी और कहानियोंॅ भी तो लिखनी होती हैं कि नहीं?…हें-हें-हें।’’
‘‘पर अंकल, आपने अभी तक बताया नहीं कि उस आदमी को अपनी बेटी मिली कि नहीं? वो अपनी पत्नी-परिवार के साथ खुशहाल जीवन जी पाया कि नहीं? कहानी में अच्छा-खासा सस्पेन्स रचा-बुना गया है। जिससे बराबर आगे जानने की उत्सुकता बनी रहती है।’’
‘‘बताता हूँ, बताता हूँ। थोड़ा धैर्य रखो। भई! तुमने चाय तो बहुत बढ़िया बनाई थी।’’
‘‘देखिये अंकल जी, मुझे बहलाइये मत।’’
‘‘अरे हांॅ भई, तुम इस कदर मायूस मत होओ। उसकी बेटी मिल जाती है। उस परिवार का सुखद मिलन भी होता है। वो बच्ची बड़ी भी हो गयी है, बल्कि देश की एक कामयाब साइन्टिस्ट भी बन गयी है। बिलकुल तुम्हारी उम्र की हो गयी है। पर उस आदमी का अपनी बेटी और पत्नी से मिलन, कैसे और किन परिस्थितियों में होता है, इस बारे में मुझसे अभी कुछ मत पूछना। बता नहीं पाऊँगा। कारण कि इससे कहानी का आकर्षण जाता रहेगा, और कहानी का अंतिम भाग पढ़ने का तुम्हारा मजा भी किरकिरा हो जायेगा।’’
‘‘वाह, अंकल जी। आपने तो मेरे मन का बोझ ही हल्का कर दिया। अब मैं निकलूँगी। किसी दिन फुर्सत में आऊँगी। आपसे ढ़ेर सारी बातें करनी हैं।’’
‘‘ठीक है बेटी। लेकिन आने से पहले फोन अवश्य कर देना, ताकि तुम्हें कोई असुविधा न हो।’’
‘‘आप अपना फोन नम्बर बता दीजिए।’’
‘‘नम्बर तो वही है, जो कहानी के आखिर में छपा है…।’’
‘‘ओह…हांॅ अंकल जी। देखिये, मैं भी कितना भुलक्कड़ हूँ? ओ.के.बाॅय अंकल…।’’
‘‘बाॅय बेटी…।’’
निधि के जाने के बाद नवाजुद्दीन साहब ने देखा कि चांपाकल के पास तश्तरी में रखे चावल के कने समाप्त हो चुके थे। गौरैय्यों का झुण्ड वहाँ से जा चुका था। उन्होंने अपने सामने पड़ी डाॅयरी उठाई, और प्रफुल्लित मन अपनी कहानी के ‘आगामी शेष भाग’…को अंतिम रूप देने में लग गये।
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राम नगीना मौर्य,
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