ठक् ठक् ठक् – दरवाजे पर धीमी-सी ही थपथपाहट थीं और यह सोचकर कि माँ ने कुछ खाने-पीने को भेजा होगा, बिस्तर पे लेटे-लेटे ही कह दिया था कुहू ने –‘ अन्दर आ जाओ।‘
और तब उसकीआशा के विपरीत, एक परछांई सी हिली और बिल्ली सी सतर्क,दबे पंजे तुरंत ही सामने आ खड़ी हुई।
कमरे का दरवाजा भी बिना कहे खुद ही लुढ़का दिया था उसने और माथे पर पड़ा घूंघट भी पूरा हटा दिया था तुरंत ही।
कुहु ने आगन्तुका को गौर से देखा, बाहर चलरही लू से भी अधिक आंच और बेचैनी थी उसके चेहरे पर।
पर पहचानते ही, लेटे रह पाना असंभव हो गया कुहु के लिए-यह यहाँ पर इस समय और इस हालत में ? इतवार के अलावा सहेलियाँ नहीं आती थीं मिलने। यह भी एक अनकहा-सा ही नियम था उसके घर का।
थोड़ी खुश, थोड़ी परेशान कुहू तुरंत उठ खड़ी हुई उसके स्वागत में। खुश क्योंकि स्कूल की खोई-बिछुड़ी एक सहपाठिन मिलने आई थी और परेशान, क्योंकि उसके फटेहाल एक बेहाल कहानी बयाँ कर रहे थे।
चन्द महीने पहले जब इसकी शादी हुई थी, पहली बार गई थी कुहु उसके घर पर और पहली बार ही देखा था किसी सचमुच के फांसी देने वाले जल्लाद को उसने। बिल्कुल वैसे ही थे वह जैसा कि तस्बीरों में दिखाया जाता है। लम्बे-चौड़े बड़ी-बड़ी मूछें और सिर से पैर तक किस्सट काले। लाल होठ और डरावनी लाल बड़ी बड़ी आँखों वाले, साक्षात कालभैरव की तरह ही। और भी आश्चर्य तब हुआ, जब किसी ने बताया कि वही अमला के पिता हैं। वह तो लम्बी छरहरी, तनी ठुड़्डी और पंक्तिबद्ध दांत व सुगढ़ शरीर वाली सांवली सलोनी सहपाठिनी अमला को ही जानती थी, जो उसे अक्सर मशहूर अभिनेत्री सोफिया लोरेन की याद दिलाती थी। खुलकर हंसनेवाली और उसकी कक्षा की दो तीन अच्छी खिलाड़ी लड़कियों में से एक। उसकी इस योग्यता की बहुत इज्जत थी कुहु की आंखें में और उसके बारे में कुछ और जानने की न तो कभी जरूरत ही रही और ना ही फुरसत ही कुहू के पास। बहुत मनोयोग से चुनकर तोहफा लेकर पहुँची थी वह उसके घर शादी में, शायद अंतिम मुलाकात हो यही सोचती मानती।
वही अमला आज इस हालत में-सफेद पुरानी काली किनारी की मैली कुचैली धोती- कहीं पति तो …मस्तिष्क में झंझावत था हजार प्रश्न थे परन्तु- ‘अरे तुम, यहाँ और इस वक्त?’ बस इतना ही पूछ पाई वह और एक स्वागत करती मुस्कुराहट के साथ हाथ पकड़कर बगल में बिठा लिया उसने उसे ।
‘तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।‘
वह बौखलाई-सी हड़बड़ी में थी। एकबार फिर उसे अपनी तरफ से पूरी तसल्ली देने की कोशिश की सीधी सरल कुहु ने-
‘हाँ-हाँ, बोलो, कर पाई तो अवश्य ही करूंगी।‘
‘क्या मैं यहाँ तुम्हारे पास रुक सकती हूँ, कुछ समय के लिए? फिक्र मत करो, बोझ नहीं बनूंगी। खाना पीना भी यहाँ तुम्हारे पिछले वरांडे में मैं खुद ही पका लिया करूंगी अपने लिए।’
उसकी आवाज व्यग्र थी और उसके जबाव भी अब प्रश्नों से अधिक रहस्यमय और कौतुक भरे होते जा रहे थे।
‘अरे नहीं, इसकी जरूरत नहीं। खाना, पीना और रहना तो कोई समस्या नहीं। बस, मुझे पिताजी को बताना होगा। पर यह तो बताओ ऐसी कौन-सी जरूरत आन पड़ी, क्या बात है ? सब कुशल से तो है, हमारे जीजाजी और तुम्हारे पापा ?’
इतना आत्मीय संबोधन वह भी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे जानती तक नहीं, यह। पढ़ने-लिखने में भले ही तेज हों, परन्तु कितनी अव्यवहारिक और अपनी काल्पनिक दुनिया में ही रहती हैं ये लाड़-प्यार में बिगड़ी और दबीढकी बेटियाँ-अमला के होठों पर अब एक व्यंगात्मक मुस्कान थी सीधी-सरल कुहु के लिए।
‘ हाँ-हाँ सब ठीक ही हैं। मैं खुद ही उन्हें छोड़ आई हूँ।’
‘ओह तो झगड़ भी लीं अपने उनसे। कहाँ सुल्तानपुर में हैं न?’
‘ और पापा?…अपने बड़ों से क्या और कैसी नाराजगी!’
आदतन अल्हड़ किशोरी अपनी ही रौ में चहकती रही, सामने वाली के मुंह पर आते-जाते हावभावों को पढ़े या जाने बगैर ही।
‘नहीं सुल्तानपुर में तो सास ससुर हैं। रेनुकूट में हैं- ओवरसियर।’
‘ लाओ मुझे नं. दो, मैं बात करती हूँ जीजाजी से। यह सब तो चलता ही रहता है पति-पत्नी के बीच। देखना, वह तुम्हें आकर ले जायेंगे। तबतक तुम यहाँ मेरे पास आराम से बेफिक्र रहो। जानती हूँ, यहाँ घर में भी किसी को तुम्हारे रहने से कोई आपत्ति नहीं होगी।’
और तब जाने क्या सोचते हुए, उसने भी तुरंत ही पति का नंबर लिखकर दे दिया उसे।
हाथ मुंह धोने के लिए तौलिए साबुन सहित गुसलखाने में भेजकर और नाश्ते का पूरा इन्तजाम करवाकर 18 वर्षीय कुहू उम्र से कई गुना बड़ा और जिम्मेदार महसूस कर रही थी अब आमला के लिए और उतावली थी. सब कुछ ठीक करने को। शुभस्य शीघ्रम की सीख पर चलते हुए, आराम और हाथ के सारे काम भूल, सीधे पिताजी के औफिस में जा बैठी । और अगले पल ही मुठ्ठी में बंद रेनुकूट का नंबर भी बेझिझक डायल कर डाला उसने।
मिनटों में उधर से एक भारी और डूबी-सी अजनबी आवाज सुनाई दे रही थी -‘ हलो ।’
‘हलो , नमस्ते जीजा जी।’
आवाज में बहता उत्साह और संतोष फोन के उस पार बैठे व्यक्ति को तुरंत ही उसकी अमानत सौंप देना चाहता था।
‘ नमस्ते, आप कौन हैं पर, पहचाना नहीं मैंने?’
‘मैं आपकी साली, अमला की सहपाठिनी। ‘
‘ बहुत उदास और परेशान है अमला आपके बिना। इस वक्त मेरे घर पर ही है। मुझे पता है कि आप उससे नाराज हैं, पर अपनों से कैसी नाराजगी। आइये और आकर ले जाइये उसे अपने साथ, प्लीज।’
शालीन किशोरी ने हिम्मत जुटाकर मन की बात कह ही डाली।
‘ जी, आपका पता? ‘
वह आवाज अभी भी फंसी-फंसी और गहरे सोच में ही डूबी हुई थी।
‘ 17 लाटूश रोड, पानी की टंकी के सामने , इलाहाबाद।’
आगे और कुछ पूछे या सुने बगैर ही कुहु ने इत्मीनान से फोन रख दिया। सभी उसकी बात मानते थे, रखते थे। अमला का पति भी मानेगा- पूरा विश्वास था उसे। कोई कठिन या अनहोनी मांग तो नहीं थी उसकी। फिर अच्छे काम का तो नतीजा अच्छा ही सदा। पति-पत्नी में सुलह करवाना निश्चय ही एक नेक काम है।
कमरे में लौटी तो अमला ने नहा-धोकर फिर वही गंदी साड़ी पहन रखी थी। और तब कुहु को ध्यान आया कि उसके पास कपड़े ही नहीं, कोई भी सामान नहीं था। तुरंत ही नई कंघी और अपने धुले प्रेस किए कपड़े दे दिए उसे पहनने को।
रातभर बातें होती रहीं, इधर-उधर की, पुराने स्कूल की। अमला की खेल जगत की उपलब्धियों की। उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में न कुहु ने ही कुछ पूछा और ना ही अमला ने ही कुछ बताया।
रातभर एक उलझन और एक आवेश व उद्वेलन से थककर आँखें बन्द ही हुई थीं कुहु की कि उसने देखा- अमला दोबारा नहा धोकर बाहर जाने को तैयार खड़ी थी। वह उससे पूछे कि इतनी सुबह सुबह कहाँ , इसके पहले ही वह उससे पूछने क्या, मांगने लगी-
‘ क्या मैं तुम्हारी वह भागलपुरी सिल्क वाली साड़ी पहन लूँ? सिलेटी और गुलाबी रंग वाली।’
इसने कैसे देख ली, अभी महीने भर पहले ही तो मिली थी वह मंहगी और खूबसूरत साड़ी उसे। एक मिनट को तो झिझकी कुहु फिर तुरंत ही, ‘ हाँ-हाँ क्यों नहीं?’ कहते हुए साड़ी निकाल कर दे दी।
‘क्या पांच सौ रुपये भी दे पाओगी तुम, मुझे? कुछ बिल देने हैं, दूध वाले के और कुछ और भी। लौटा दूंगी।’
‘हाँ -हाँ।’ और बिना कुछ पूछे वह भी दे दिए उसने।
साड़ी बदलकर , रुपये लेकर अमला तीर सी निकल गई, कभी न लौटने को। इंतजार करती कुहू को कब झपकी आ गई उसे खुद न पता चला। आँखें खुलीं तो लड़ाई-झगड़े जैसे भयानक शोर से। दौड़कर आगे वाले कमरे के बरांडे से झांककर देखा तो बीस पच्चीस लठ्ठधारी लोगों को घर के नौकर समझा रहे थे। और दो आदमी तो बाहर के ब़ड़े दरवाजे को भी ठोके जा रहे थे और ‘खोलो वरना…’ तोड़ गिराने तक की धमकी दे रहे थे। एक जोर-जोर से ‘अमला-अमला’ भी आवाज लगा रहा था। पर अमला का तो फिर एकबार किसी को कोई पता ही नहीं था। क्या मुंह दिखाएगी वह इन्हें… कुहू डर गई,
‘अब क्या होगा, किस मुसीबत में डाल दिया है उसने अपने परिवार को! ‘
हर विषम परिस्थिति में उसके दुखभंजक और रक्षक तो एक अकेले पापा ही थे । दौड़ी-दौड़ी पापा के पास गई और शाम से सुबह तक की एक-एक बात, हर संभव संदर्भ के साथ पापा को सुना दी ।
पापा कुछ बोले नहीं और बिना कपड़े बदले ही बाहर चले गए। जाने क्पा कहा और समझाया कि पापा के आते ही चीजें शान्त हो गईं और वे लठ्ठधारी जैसे आए थे वैसे ही वापस लौट भी गए।
वह अमला से कुहू की आखिरी मुलाकात थी।
…
साल भर से अधिक बीत चुका था उस घटना को। कुहु एम.ए फाइनल की छात्रा थी अब। महीने भर बाद इमतहान और शादी दोनों ही एकसाथ। कड़ी परीक्षा का वक्त था यह कुहु के लिए। तैयारी वह पूरी और अच्छी करना चाहती थी ताकि परिवार का गौरव और लाडली रहे। शाम के उस धुंधलके में कमरे में बैठी वह पढ़ाई कर रही थी। अचानक ही देखती है कि एक बदहवाश आदमी घर की हर कमरे की खिड़कियों से झांक-झांककर जाने क्या ढूंढ रहा था।
अगले पल ही स्वभाव से निर्भीक कुहु ने खिड़की पूरी खोलकर पूछा,
‘ आप क्या ढूंढ रहे हैं, क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकती हूँ?’
‘ क्या अमला आई है यहाँ पर? क्या आप जानती हैं कहाँ पर है अमला ?’
कुहू को समझते देर नहीं लगी वह अमला का पति है। विनम्र स्वभाव से झुककर नमस्ते करते हुए उसने कहा,
‘आइये, अंदर आइये। ‘
‘ शांति से पता करने की कोशिश करते हैं। यहाँ तो नहीं आई है और ना ही उस दिन के बाद कभी मुझसे मिली ही है।’
‘ विषकन्या है पूरी विषकन्या।’
‘ बारबार डस रही है मुझे। ‘
‘ यहीं तुम्हारे घर के पास यार रहता है उसका। चोरी-छिपे उसीसे मिलने जाती है।अक्सर गायब रहती है हफ्तों । ‘
‘ दूध पीती बेटी तक की फिक्र नहीं। किसे बताऊँ, और क्या बताऊँ ! कैसे निभाऊँ और झेलूँ इस जिल्लत को ।’
‘ सोचा था आज उसे और खुदको, दोनों को ही खतम करके किस्सा ही खतम कर दूंगा, हमेशा-हमेशा के लिए। पर तुम्हारा सौम्य शालीन धैर्य देखकर एक नई राह खुल गई है आँखों के आगे। सुधरूंगा और सुधारूंगा अपने इस नारकीय जीवन को।’
हाथ के रिवाल्वर को सामने की मेज पर रखकर अब वह आंसुओं के आचमन के साथ जाने कितने दृढ़ संकल्प मन-ही-मन लिए जा रहा था। कुहु ने चुपचाप गरम गरम चाय और नाश्ता उसके सामने रखवा दिया। अब वह चाय की चुस्कियों लेते हुए मानो खुद से ही बातें किए जा रहा था।
‘ बचपन से ही साथी था हरि मेरा। हम दोनों के बीच जाने कब कैसे यह आ गई। दोनों को ही तो डस लिया। किसीकी नहीं हुई।
आप नहीं समझोगी इन बातों को, भले घर की हो न…फिर मेरे घर में भी तो अब बेटी है। ‘
‘ सुधरूंगा मैं उसके लिए, और सुधारूंगा भी, पर प्यार से, एक अच्छे वातावरण में बड़ा करूंगा अपनी बेटी को।’
चाय खतम होते ही वह उठा और एक शर्मिंदगी भरी , माफी मांगती-सी नमस्ते कहकर चला गया ।
कुछ बातें कुहू के पल्ले पड़ीं, कुछ नहीं भी।
हाँ, शहर की उस अपरिचित भागती-दौड़ती भीड़ में कुहु की आँखें आज भी अक्सर ही उन्हें ढूँढने लग जाती हैं। अमला को भी और उसके पति को भी…विशेशतः उस विषकन्या को, जिसने ताउम्र जहर पिया और पिलाया।…
शैल अग्रवाल
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