कितने भी कठिन मोड लिए हों, पर मीठी यादों से महकती कहानी है यह उस अजनबी की और निडर व निष्पक्ष होकर ही लिखना चाहती हूँ मैं इसे, कि कैसे एक हंसता खेलता दिन पल भर में ही काली अँधेरी रात में पलट गया था, वह भी सैकड़ों खुली आँखों के आगे…याद जब कलम की नोंक पर आ ही बैठी है तो हर कोमल परत को खिलती कली की तरह पंखुरी-दर-पंखुरी खोलूँगी आपके आगे और उस उड़ते विभ्रम के धूल भरे गुबार को भी , जो आए दिन ही कहीं भी और कभी भी उमड़ आता है और पूरी तरह से मति को ढक सकता है।
प्रायः बहुत कुछ घटता रहता है। पर कुछ चीजों का असर मेहँदी जैसा होता है। मन की हथेली पर कब रची और कब उड भी गईं, पता ही नहीं चल पाता हमें। परन्तु जब तक रहीं, इनके सम्मोहन से बाहर निकल पाना संभव ही नहीं । ना ही उस रंग, उस ख़ुशबू से बच ही पाना। और फिर? फिर तो सब अतीत है ही… पूरी ही सिलेट धुली-पुछी और बिलकुल साफ। पर क्या सच है यह भी?
नहीं, मैं ऐसा नहीं मानती। बहुत कुछ है जो पूरा होकर भी पूरा नहीं होता, अधूरा ही रह जाता है। मिटता नहीं , चाहे हम कितना ही क्यों न अतीत में धकेल दें। वह मुलाकात भी कुछ ऐसी ही तो थी। भूल नहीं पाती कुछ भी। न तो स्ट्राबेरी को ही और ना जो कुछ घटा उस दिन, उसे ही।
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एक आम सा ही दिन था वह और साधारण सी तीन घंटे की छोटी-सी उड़ान भी। पर कितनी परीक्षा होगी धैर्य और विवेक की, अनुमान नहीं था तब मुझे।
जहाज़ के अंदर बस लाल बत्ती का टिमटिमाना शुरु ही हुआ था कि मैंने अपनी पेटी बांध ली थी। मेरे उतावले-पन को देखते ही मुस्करा पडी थी बग़ल में बैठी बच्ची।
‘स्ट्राबेरी तुम भी अपनी पेटी बांधो।’ आदेश मिला था उसे भी तुरंत, परन्तु बांध नहीं पा रही थी वह और दोनों सिरों को हाथ में पकड़े हुए बैठी, मुझे ही देखे जा रही थी।
सहज भाव से मैंने तब उसकी मदद कर दी थी । पर माँ को अच्छा नहीं लगा था यह। तमककर बोली थी, ‘ख़ुद ही सीखने दो इसे। यूँ दूसरों पर आश्रित होकर कब तक जिएगी!”
स्वर बेहद तल्ख़ और रूखा था । इतनी व्यावहारिक माँ कम ही देखी हैं मैंने । अधिकांश माँ बच्चों की सुरक्षा पेटी ख़ुद ही बांध रही थीं। और तब अचानक ही संतरा और मंतरा याद आ गई थीं मुझे। घर के पीछे ही तो रहती थीं दोनो कल्लू लुहार की जुड़वा बेटियाँ।
पैदा हुई थीं, तो एक फक् गोरी और दूसरी किसट काली।
गोरी माँ जैसी थी और काली बाप जैसी।
माँ दोनों को बराबर का प्यार करती। गोदी में एक-सा खिलाती, लोरियाँ भी एक-सी ही सुनाती।गोरी का नाम संतरा ऱखा था उसने और काली का मंतरा। पूछने पर कि यह कैसे नाम हैं? गोरी और सुंदर माँ ने हँसकर बताया था कि संतरा अपने रूप से और मंतरा अपने गुणों से मोहेगी सभी को । उसका मानना था कि औरतें बिना किसी गुण या रूप के बेकार हैं। ज़ी नहीं पातीं मर्दों की निर्मम इस दुनिया में फूहड़ औरतें।
चौंकी थी तब भी मैं, जैसे कि आज।
कहीं कुछ अपनी जगह से भटका-सा ही लगा था एक बार फिर मुझे।
नाम भी कैसा था स्ट्राबेरी?
चेरी और एपल तो कई बार सुने थे परन्तु यह स्ट्राबेरी तो पहली बार ही सुनने को मिला था…वही स्ट्राबेरी जो नाज़ुक होती है। कूट-पीसकर जाम बना दी जाती है। ध्यान न दो तो बड़ी जल्दी ख़राब भी तो हो जाती है, स्ट्राबेरी!
एक बार फिर से बग़ल में बैठी नन्ही स्ट्राबेरी को ध्यान से देखने लगी थी मैं ।
गोरी चिट्टी गुलाबी गालों वाली स्ट्राबेरी वाक़ई में बहुत खूबसूरत और प्यारी थी। परन्तु उसकी गहरी आँखों में एक लहरों सी बेचैनी थी और चेहरे पर उम्र से कहीं अधिक गंभीरता। वजह नहीं जानती थी तब । हाँ, खिंचती अवश्य जा रही थी उसकी ओर।
अचानक ही, ‘ मैं स्ट्राबेरी और आप?’ चहकती नन्ही बच्ची का दोस्ती का हाथ मेरी तरफ़ बढ़ा हुआ था।
‘मैं, रेवा।’ कहकर मैंने भी उसी गर्नजोशी से हाथ मिलाया था उसके साथ तब।
आगे क्या बात करें, लगातार कोशिश करते रहे थे फिर तो हम दोनों ही।
कई बार तो इसकी भी ज़रूरत नहीं पड़ी थी, इतनी बातें थीं हमारे पास करने को।
जैसे ही सीट बेल्ट का लाल निशान हरा हुआ मैंने सामने के रैक से निकालकर मैगजीन उलटना-पलटना शुरु कर दिया था और नन्ही स्ट्राबेरी भी मेरे साथ ही उचक-उचककर पन्ने पढ़ने की कोशिश करने लगी थी। संग-संग तस्बीरें तो देख ही ले रही थी वह। कुछ और नहीं मिलता, तो हम उन्ही तस्बीरें पर बात करने लग जाते। बीच-बीच में वह इक्के-दुक्के सवाल भी पूछ लेती थी !
चन्द मिनटों में ही अच्छी-खासी दोस्ती हो चुकी थी हमारी। खो-से गए थे हम दोनों एक दूसरे में, जाने किस जनम का कुछ ऐसा रिश्ता था हमारा।
पर उड़ान-परिचारिका द्वारा दी गई अपने हिस्से की टौफी जब मैंने उसे देनी चाही, तो पहले तो माँ की तरफ़ देखने लगी, फिर जब माँ ने हाँ में सिर हिला दिया, तो सीधी अपनी सीट छोड़ती मेरी गोदी में ही आ बैठी थी नन्ही स्ट्राबेरी।
माँ-बाप ने भी कोई ऐतराज नहीं किया था। अपने में ही मस्त दिख रहे थे वे दोनों ।
सच कहूँ तो थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ था यह देखकर।
‘ एक अजनबी पर इतना भरोसा? जाने किस अजनबी दुनिया से आए थे वह? आजकल तो बच्चों को यही समझाया जाता है कि अजनबियों से बातें मत करो, उन पर क़तई भरोसा मत करो! उलटी-सीधी ख़बरों से भरे ही रहते हैं रोज़-रोज के अख़बार। फिर कौन बच्चा यूँ लपककर अनजान की गोदी में आ बैठता है?’
जितनी मेरी चेतना संदिग्ध सवालों के भँवरों में डूबती जा रही थी, उतना ही स्ट्राबेरी का भरोसा मुझ पर बढ़ता जा रहा था। उसके उस भरोसे की पूरी कद्र करना चाहती थी मैं भी अब ।
प्यार से मुँह चूमकर सिर थपथपा दिया था तब मैंने उसका, मानो मेरी अपनी हो, कुछ खास हो।
आश्चर्य से मुझे देखते हुए पूछा था तब उसने, ‘ क्या आपको अपनी बेटी की याद आ गई मुझे देखकर? क्या मेरी जितनी ही बड़ी है वह भी? क्या उसे छोड़े बहुत सारे दिन हो गए हैं आपको?’
‘नहीं।’ कहकर मुस्कुरा पडी थी तब मैं। पर उसके नन्हे-नन्हे मासूम सवालों का कोई अंत नहीं था। और दोनों हाथ फैलाकर ‘बहुत सारे’ कहना तो बहुत ही प्यारा लगा था मुझे। पर न जाने क्या याद करके अगले पल ही उसकी पलकों का भीग जाना, कहीं बहुत गहरे मुझे भी तो पूरा भिगो ही गया था। मेरे यह कहने पर कि ‘मेरी तो कोई बेटी ही नहीं। बेटी क्या पति भी नहीं।’ ‘ओह’ , कहकर खिलखिलाकर हँस भी पड़ी थी स्ट्राबेरी। मानो ख़ुद को ही नहीं, अब वह मुझे भी बहलाना चाहती थी। ऐसी जटिल परिस्थितियों से निपटना भलीभाँति आता था उसे।
तुरंत ही अपने उसी बुजुर्गाना अंदाज में सलाह भी दी थी मुझे, ‘आपको भी एक गुड़िया रख लेनी चाहिए मेरी तरह, प्यार करने को, बातें करने को। पर आप तो ऐसा कर ही नहीं सकतीं? लोग हंसेंगे गुड़िया के साथ आपको देखकर? बड़ी जो हो चुकी हैं आप। मेरी बात और है मैं तो अभी छोटी हूं और पौली को पूरे वक्त अपने साथ रख सकती हूं। सब कुछ उससे कह सकती हूं। पूरे वक्त उसके साथ खेल सकती हूं। क्या आपको पता है रेवा, रात को भी मेरी पौली मेरे साथ ही सोती है। कभी मुझे अकेला नहीं छोडती। पर यह बड़ा होना भी तो एक मुसीबत ही है, कितना ध्यान रखना पड़ता है हर बात का!’
खिलखिलाकर हँस पड़े थे हम दोनों ही तब। मानो एक औरत के हाथ में गुड़िया का होना, दुनिया का सबसे बड़ा हास्यास्पद दृश्य हो!
जितनी स्ट्राबेरी की बातें रोचक थीं, उतना ही उसका सोचने और बयाँ करने का अंदाज भी।
बात-बेबात पर जी खोलकर हँसते रहे थे हम दोनों ही रास्ते भर। पर जाने क्यों मेरा मन भर आता था बारबार उसकी बातें सुनकर, उनके पीछे छुपे एकाकी अहसास में भीगकर।
उसकी नन्ही सोच उम्र से कहीं अधिक परिपक्व और बुजुर्गाना थी। बेहद संवेदनशील और समझदार लगी स्ट्राबेरी मुझे। दूसरों की पूरी परवाह करने वाली, पर शायद उसकी उतनी परवाह नहीं हो पाती थी उसके परिवार में!
कहीं प्यार की भूखी तो नहीं यह बच्ची? आख़िर अभाव ही तो है, जो वक़्त से पहले बड़ा कर देता है इन्सान को!…
अगले पल ही सब कुछ भूलकर, वह अपनी गुड़िया मुझे दिखा रही थी।
कभी मेरी गोदी में गुड़िया को बिठा देती, तो कभी बग़ल की कुरसी पर बिठाकर उसके बाल संवारने लग जाती।
जब भी मेरी गोदी में रखती तो एक जूता उतार देती और मेरे वापस पहना देने पर गदगद होकर हंसती। उसकी हंसी और आँखों की चमक दोनों ही जाने क्यों मेरे मन में जा बैठे थे। पूरी तरह से रम गई थी मैं उसके रूप और खेल में। सात और चालीस की उम्र का वह अंतर जाने कहाँ छू मंतर हो चुका था हमारे बीच से और पूरी उड़ान भर जी भरकर दोहरते रहे थे वह निरर्थक-सा दिखता खेल।
कुछ ऐस जादू था स्ट्राबेरी में, उसकी हंसती अबोध आँखों में, निश्छल बातों में कि मेरा तो बचपन ही वापस आ गया था । नाम-सा ही एक अनोखा रंग और स्वाद था उसके संग-साथ में। और वह स्वाद पूरी तरह से स्फूर्त कर रहा था मुझे। वैसे भी स्ट्राबेरी मुझे बहुत पसंद है।
हो सकता है बस प्यार से ही पुकारते हों परिवार वाले उसे इस नाम से, असली नाम कुछ और ही हो? या फिर इसके मेंहदी से लाल बाल और भूरी बिन्दियों से भरे गुलाबी गालों की देखकर ही रख दिया हो यह नाम? खैर, वजह जो भी हो, नाम उसके रूप पर फबता-सा लगने लगा था अब तो मुझे।
उड़ान के तीन घंटे कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला।
वैसे भी पूरी बात कब और किसे पता चलती है? हाँ, जहाज़ से उतरते ही स्कौटलैंड यार्ड के खोजी कुत्तों ने उसकी बार्बी की तस्बीर वाली नन्ही अटैची को सूंघना अवश्य शुरु कर दिया था और पूरी तरह से चौंकाते हुए पुलिस वाले तुरंत ही पूरे परिवार को संदिग्ध मुजरिम करार करते, अंदर जांच के लिए भी ले गए ।
हमारा वह साथ कुछ घटों का भले ही रहा हो, आकर्षण और मेल-मिलाप, अपनत्व भरा और बेहद सुखद था। घटनाओं के इस आकस्मिक मोड़ से मैं अब पूरी तरह से सदमे में थी। स्तब्ध थी,’नहीं, इतनी नन्ही बच्ची को तो ज़रूर किसी ने फंसाया ही है?’
दौड़कर स्ट्राबेरी को जाँच रूम से बाहर ले आना चाहती थी, प्यार और सुरक्षा देना चाहती थी। पर एक भय था क़ानून का जिसने मुझे जड् कर रखा था।
थोड़ी ही देर में हमारे चारों तरफ एक हलचल-सी मच गई।
पूरे क्षेत्र को पीले फ़ीते से घेर दिया गया , जैसा कि अपराध क्षेत्र में जाँच के वक़्त कर दिया जाता है।
अब कहीं भी आ या जा नहीं सकते थे हम। सीमा सुरक्षा पुलिस की नज़र में पूरा ही हवाई अड्डा सुरक्षित नही रह गया था। विशेषकर वह द्वार नं. आठ जहाँ पर हम खड़े थे। तुरंत ही जैसे था, वैसे ही सब सील कर दिया गया। एक-एक कूड़े दान को उलटा-पलटा जा रहा था अब। सब कुछ ही बिखेरा और जाँचा जा रहा था।
फिर एक-आध छोटे-छोटे नियंत्रित विष्फोट भी किए गए।
पर हुआ क्या था ऐसा?…क्या मिला था उन्हें नन्ही स्ट्राबेरी के गुलाबी बार्बी बैग से, जिससे इतना आतंक फैला दिया चारों तरफ!
पहेली दुरूह थी और हममें से किसी को कुछ पता नहीं चल पा रहा था, बात इतनी अधिक ख़ुफ़िया रखी जा रही थी।
मलागा हवाई अड्डे पर आए चार घंटे से अधिक हो चुके थे और हम सब क़ैद थे वहाँ। बाहर निकल नहीं सकते थे और अंदर की कोई ख़बर भी नहीं मिल पा रही थी हमें।
बस एक चिंताजनक संदिग्ध घेरा था हर आँख में और हमारे इर्द-गिर्द…सच कहूँ तो चारो तरफ़ ही।
कहते हैं ज़िन्दगी एक यात्रा है, जिसमें सुरक्षा और सावधानी दोनों ही ज़रूरी हैं किसी भी अन्य यात्रा की तरह ही। पर हादसे तो फिर भी होते ही हैं, न? हर सावधानी के बावजूद भी होते हैं। न तो इन्हें टाला ही जा सकता है और ना ही इनसे पूरी तरह से उबरा ही जा सकता है। बस कैसे भी जीता ही तो है इन्सान आज के इस जटिल और स्वार्थी युग में।
जैसे भी जी पाए, हर सुख-दुख से गुजर पाए। प्रायः बिना किसी सुरक्षा उपकरण के ही तो निकलती है उसकी ज़िन्दगी, विशेषतः निर्बल और असहायों की।
पर
अब तो कार और बसों तक में सुरक्षा-पेटी की सुविधा हैं पर… फिर इन अभागों की ज़िन्दगी ही इतनी बेसहारा क्यों? पूर्ण सुरक्षा की गारंटी हो या न हो , कम-से-कम एक तसल्ली तो रहनी ही चाहिए!
काश् वाक़ई में ऐसा हो पाता।…
एक कहानी जो साधारण-सी उड़ान में बडे मोहक अन्दाज़ में शुरु हुई थी, डरावना मोड ले चुकी थी और एक संदेहात्मक आतंकी घटना में तब्दील हो चुकी थी। हम सभी को एक ओर सुरक्षित जगह पर ले जाकर खड़ा कर दिया गया था । अब एक सहमा देने वाली आपदकालीन व्यस्तता भी फैल चुकी थी हमारे इर्द-गिर्द। सख्त निर्देश भी कि जब तक आगे की सूचना न मिले, हिले तक नहीं हम अपनी जगह से, वरना…
जो अंदर थे उन्हें छोड़कर किसी अन्य की पैठ नहीं थी अब उस क्षेत्र में।
बन्दूक धारी पुलिस तैनात थी चारो तरफ़ और सभी पर कड़ी आँख रख रही थी।
थौडी ही देर में जब धीरे-धीरे घुसपुस ख़बरें धुएँ-सी बाहर आनी शुरु हुईं, तो पता चला कि स्ट्राबेरी के बैग में कपड़े या खिलौने नहीं, विस्फोटक थे।
‘पर क्या उसे इसके बारे में कोई जानकारी थी?’
विचारों के बवंडर अब मुझे सूखे पत्ते-सा भटका रहे थे।
पूछने पर भयभीत स्ट्राबेरी ने बताया भी था कि नहीं , उसे इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उसने तो पहले कभी देखा भी नही था इन्हें। नहीं जानती वह कि ये सब क्या हैं, और किस काम में आते हैं? माँ ने ही सभी बैग लगाए थे। उसने तो बस यह एक गुड़िया ही ली थी अपने साथ अपने हाथों से।
और तभी उसके हाथ से वह गुड़िया भी छीन ली गई थी।
वही गुड़िया, जो उसकी सबसे बड़ा सहारा थी। भयभीत स्ट्राबेरी माँ बाप की तरफ़ देखकर नहीं, उसे ही तो सीने से भींचकर दूर खड़ी रोए जा रही थी। मानो सिवाय एक उस गुड़िया के कोई और उसका था ही नहीं वहाँ पर। और तब उसे चुप भी तथाकथित माँ-बाप ने नहीं, पुलिस अधिकारी ने ही कराया था। उसी पुलिस अधिकारी ने जिसने अभी-अभी उसकी अटैची और गुड़िया को उससे लेकर दूसरे साथी को दे दिया था और फिर थोढी ही देर में एक धमाका भी सुना था सभी ने। पर रोई नहीं थी स्ट्राबेरी।
उसकी गुडिया का क्या हुआ? सोच- सोचकर और दुखी नहीं होना चाहती थी वह, शायद।
सब कुछ स्पस्ट और सामने ही तो था।
एक कठिन दिन था उसके सामने।
अपनों के नाम पर सब कुछ तहस-नहस करने वाली और उसे हिरासत में लेकर बैठने वाली , मीत और दुश्मन अब बस यही पुलिस-औफिसर ही तो रह गई थी उसके लिए इस इन्सानों से भरी-पूरी दुनिया में।… तो क्या मैं आगे बढ़कर उसकी अभिभावक बन जाऊँ? नहीं, अजनबी तो बस भीड़ का हिस्सा होते हैं और भीड़ से बचा जाता है, घर नहीं लाया जाता इन्हें। कायर मन तरह-तरह की चेतावनी देने लगा था और सामने बैठी उसकी माँ भी अब उलटे उसे ही अपराधी सिद्ध करने पर तुली हुई थी।
‘बहुत ही आवारा और बदचलन, पूरी तरह से क़ाबू से बाहर लड़की है स्ट्राबेरी।’ कह रही थी- ‘जाने किन-किन के साथ और कहाँ-कहाँ दिन भर खेलती रहती है, हमें तो कभी कुछ पता ही नहीं चल पाता? बेहद चुप्पी भी है। मन में क्या चल रहा है, भनक भी नहीं लगने देती कभी।’ साथ में यह भी कबूला माँ-बाप ने कि असल में तो स्ट्राबेरी उनकी बेटी है ही नही। सात साल पहले जब तीन महीने की थी, समुद्र किनारे रेत पर पड़ी मिली थी उन्हें और दया-वश ही घर उठा लाए थे । पाला-पोसा ही है बस उसे। जैसे कि एक पालतू जानवर को पाला जाता है-बस इतना ही रिश्ता है हमारा और इसका। क्या पता था कि ऐसी मुसीबत में डाल देगी हमें, वरना हाथ भी न लगाते। मरने देते वहीं पर भूखी-प्यासी।’
पूरी तरह से पल्ला छाड़ चुके थे वह उससे। पर सुरक्षा पुलिस उन्हें ऐसा करने नहीं दे रही थी। सड़ांध की गंध दूरतक फैल जो चुकी थी।
‘ क्या स्थानीय पुलिस को ख़बर दी थी आपने, दर्ज करवाई थी यह घटना?’
पूछते ही दोनों सिर झुकाकर खड़े हो गए थे तब और पुलिस चार्जशीट पर तुरंत ही उनके खिलाफ एक और नया चार्ज लिखने लग गई थी।
उनकी हर बात किसी साज़िश और झूठ की गवाही देती-सी ही लगी।
स्ट्राबेरी को तुरंत ही पुलिस ने अपने संरक्षण में ले लिया।
उसका सारा दुख दर्द की काली परछाईं बनकर अब तक उसके पूरे नन्हे चेहरे पर फैल चुका था, पर। एकबार फिर स्ट्राबेरी किसी की बेटी नहीं रह गई थी। नाम का ही सही, था तो, पर कोई परिवार नहीं था उसका अब। दोबारा अनाथ थी और एक नहीं, दो देशों की पुलिस कस्टडी में भी थी।
गुमशुदा सामान की तरह ही, एक कोने में गुमसुम पड़ी, अब आगे क्या होगा? का इंतज़ार करती स्ट्राबेरी अचानक बहुत ही कमजोर दिखने लगी थी, जैसे कि एक फूल मुरझाने और झरने से पहले अपनी सारी आब खो देता है।
एक ही अभागे उस दिन में उम्र से बहुत बड़ी हो चुकी थी वह अजनबी।
सवालों का एक तूफ़ान था अब मेरे मन में -‘हो सकता है कुछ और ही नाम हो इसका भी और पहचान छुपाना चाहते हों, इसलिए इस नाम से पुकारते हों? किसी बड़े गैंग का हिस्सा हों सब-के-सब। अनाथ बच्चों का व्यापार करते हों? उनका हथियारों की तरह इस्तेमाल करते हों? फिर बच्चों का क्या किसी भी नाम से पुकार लो, जबाव तो दे ही देते हैं!
वैसे भी नन्ही स्ट्राबेरी तो जाने कितनी खेतों से यूँ ही लपक भी ली जाती हैं।’
अब उसका यह स्ट्राबेरी नाम मुझे बेहद अभागा और दयनीय-सा लगने लगा था उस पर।
पर इसी नाम से ही तो पुकारती और खेलती रही थी मैं इसके साथ पिछले पूरे तीन-चार घंटे, उसकी बातों के रस में डूब-डूबकर। मैं जिसे बच्चों के साथ खेलना समय व्यर्थ करने जैसा लगता है, अच्छा लगा था बार-बार ही उसे इस नाम से पुकारना। बात-बात पर हंसी के इस मासूम और गुदगुदे बंडल को बाँहों में भींच लेना। फिर अब काँटे-ही-काँटे क्यों निकल आए इस नन्ही-सी स्ट्राबेरी में? चन्द घटों में ही इस रसीली स्ट्राबेरी का सारा रस सूख कैसे गया?
मेरा मन अभी भी कुछ मानने को तैयार नहीं था। पर सामने जो घट रहा था, उसे नकारा भी तो नहीं जा सकता था !
मुँह में एक स्वाद और मिठास के साथ अभ्यस्त होती चली गई थी मैं स्ट्राबेरी से भी और उसके नाम से भी। किस्मत ही मानी थी तब तो मैंने कि बग़ल में बैठे उन दोनों ने भी कोई एतराज नहीं किया था, खेलने दिया था मुझे इसके साथ, वरना भला कौन अपने बच्चों को आज के इस असुरक्षित समाज में अजबनियों से बातें तक करने देता है?
पर यह तो उसके मां-बाप थे ही नहीं, फिर क्यों फिक्र करते उसकी!
महज़ एक साधन, एक उपकरण ही तो थी बच्ची किसी बड़े षड्यंत्र की।
…
वह गलियारा जहाँ खड़े हम अपनी रिहाई का इंतज़ार कर रहे थे, अब तरह-तरह के गडमड विचारों का एक युद्ध-क्षेत्र बन चुका था मेरे लिए। तरह-तरह की बातें बेवजह ही इधर-से-उधर शस्त्रों-सी फेंके जा रहे थे आँख-कान मेरी तरफ़। अटकल पर अटकलें थीं चारों तरफ, जो उस बेचैन चुप्पी के बीच असुरक्षा के भाव को और भी बढ़ाए जा रही थीं।
हर आदमी ही सहमा-सहमा और आशंकित ही दिखा तब।
सारी घुमाई की ललक यथार्थ की इस चिलक धूप में भाप-सी उड़ गई ।
एक बेचैनी का अहसास जो इन बंधी परिस्थितियों में होता ही है , पूरी तरह से दबोच चुका था हम सभी को और सभी वापस खुली हवा में लौटने को बेचैन हो चुके थे, सिवाय स्ट्राबेरी के। उसके पास न कोई जगह थी, न कोई राह ही।
कोई उसकी मदद को आगे नहीं आया। आतंक का भय सभी के विवेक को पूरी तरह से निगल चुका था ।
इस मनःस्थिति और परिस्थितियों में स्ट्राबेरी को पूरी तरह से भूल भी चुकी होती मैं भी, अगर तभी पुलिस कौन्स्टेबल उसे अपनी गोदी में लेकर ठीक मेरे सामने ही आकर न बैठ गई होती। उदास और भ्रमित स्ट्राबेरी पुलिस परिचारिका की गोदी में थकी सो-सी रही थी। या फिर शर्मिंदा और आत्मग्लानि में थी। आंखें खोलने की, किसी का सामना करने की हिम्मत या ताक़त ही शेष नहीं रह गई थी अभागी में अब।
अनाथ बच्ची और भी अकेली और अनाथ दिख रही थी। देखते ही मन भर आया।
पर मेरा भी तो उस तक लौटना, उससे बातें करना अब असंभव ही था।
कुछ भी तो वैसा नहीं रह जाता, जैसा पाँच मिनट पहले रहता है, हम खुद भी तो नहीं! हम दोनों, जो एक दूसरे से पूर्णत- जुड़े, एक-दूसरे को समझते, एक दूसरे पर विश्वास करते घंटों बातें कर रहे थे, अब अजनबियों की तरह एक दूसरे से आँख मिलाने की हिम्मत भी नहीं कर पा रहे थे। नजर मिलते ही जाने किस डर से तुरंत ही नजरें फेर ले रहे थे।
पर कुछ ही मिनटों में फिर से एक दूसरे की तरफ देखने भी तो लग जाते थे, मानो एक आस बाक़ी थी कहीं। अदृश्य एक डोर खींच रही थी अभी भी हमें। जुड़ने को उकसा रही थी।
शायद एक ही डाली के फूल और पत्ती थे हम। अलग-अलग रूप रंग तो, पर अंदरूनी महक एक ही। एक दूसरे के साथ पूर्णतः सहज और जाने-पहचाने तो पर व्यक्त करने में चाहकर भी पूर्णतः असमर्थ और बेजुबां।
साहस भी तो एक संयम ही है और वही नहीं था कहीं उस दिन।
दिन, जो अब कभी न खतम होने वाली एक लम्बी सुरंग बन चुका था जिसमें मैं ख़ुद भटकने लगी थी।
लम्बा और बेबस वह दिन, छिछले पानी में व्यर्थ ही छपछप करते ही बीत गया। इसे ही शायद नियति कहते हैं या विनाश काले विपरीत बुद्धि। बहुत कुछ संदर्भ और अर्थ बिखरे पड़े थे चारों तरफ जो न सिर्फ भयभीत, अपितु अपाहिज भी तो कर दे रहे थे।
कोई पूर्णतः सुरक्षित नहीं महसूस कर रहा था पुलिस के उन संदिग्ध घेरों में।
जिन्दगी की यह दौड़ कहीं यही पर तो खतम नहीं हो जाएगी, सभी को यह भय तो था ही। कहीं-न-कहीं इसकी संभावना भी पूरी ही थी। हवाई अड्डों पर अकारण ही गोलीबारी की ख़बर, आम ख़बर है अब तो और आए दिन ही सुनने को भी मिल जाती है। वैसे भी, इन अप्रत्याशित खतरों के बारे में कभी कुछ कहा नहीं जा सकता। अमानवीय दैत्य से कहीं भी किसी भी समय प्रकट हो जाती हैं ।
जब तक घर वापस न पहुँच जाओ, हर यात्रा खतरनाक है!
फिर मैं तो दिन देर-सबेर अपने घर पहुँच ही जाऊँगी, पर स्ट्राबेरी का घर तो संभवतः अब हमेशा के लिए ही छिन चुका था उससे। जाने किन-किन केयर होम में ज़िन्दगी बीतेगी अब तो उसकी? अगले नौ दस साल तक तो निश्चय ही!
सोच-सोचकर ही मन भारी हो चला था, उसे तो भुगतना ही था पर यह सब। पाँचों उँगलियाँ बराबर कब होती हैं?
यादें मन की अतल गहराइयों से कभी पत्थर , तो कभी रेत तो कभी शायद कुछ ऐसा जिसे वह अनमोल मानती हैं, उलीच और सँभाल रही थीं पर मैं असमर्थ थी और सहेजने के सारे प्रयास व्यर्थ। ध्यान हटाने के लिए मैं ख़ुद ही उठकर दूर जा बैठी।
इतना डर?…हँस पड़ी थी पर तब खुद पर ही …एक ऐसी ङँसी जो रोने से भी बदतर थी।
‘सब कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ती यह ज़िन्दगी कब किसकी हुई है, फिर आज यह भय और इतना मोह क्यों हो रहा है? कहीं मैं सच में ही तो कायर ही तो नहीं!
जो होगा, देखा जाएगा! सोचना भी तो व्यर्थ ही है पर, जब बस में कुछ है ही नहीं। ‘
हज़ार दलीलें और बहाने थे अब मेरे पास छुपने को।
एक लम्बा और खामोश अंतराल पसर चुका था हमारे बीच…बर्फ़-सा ठंडा और कठोर, जिसे हम दोनों की ही पलकों में छुपे आँसू तक नहीं पिघला पा रहे थे।
कैसे भी हिम्मत करके आगे बढ़ी थी पर मैं दोबारा और स्ट्राबेरी का ठंडा हाथ अपने हाथों में भी ले लिया था। पर स्ट्राबेरी ने आँखें तक नहीं खोली थीं।
उस कौन्स्टेबल ने ज़रूर पूछा कि क्या मैं जानती हूँ इसे? और मेरे ‘ नहीं, बस सहयात्री थे हम।’ कहने पर, मिनटों में ही उससे दूर कर दिया था – ‘अच्छा होगा तुम्हारे लिए भी और इसके लिए भी कि दूर ही रहो अब इससे ।’
और मैं छिटककर तुरंत ही दूर अपनी जगह पर वापस आ बैठी थी।
विचारों का वह सैलाब भँवर पर भँवर दिए जा रहा था पर।
कभी स्ट्राबेरी पर दया आती तो कभी वह दमघोटू जाल-सी दिखती। स्थिति से दूर भागने को, सब कुछ भूल जाने को मन करता-‘परित्यक्ता है यह पहले माँ-बाप द्वारा और अब तो समाज द्वारा भी।’
‘ क्या सहारा देने की ताक़त भी है मुझमें?’
‘बदलते सुधार केन्द्र और अपराध की दुनिया, वही घर होगा अब तो इसका सुधार के नाम पर। इन्हीं द्वारा इस्तेमाल के लिए जन्म होता है ऐसे बच्चों का और वहीं अन्त भी। हथियार हैं ये बस अंधेरी और अंधी दुनिया के। क़िस्मत अच्छी हुई तो मनोरंजन करेगी, जैसे कि मेरा किया था कुछ घटों के लिए!’
इतनी तटस्थता…चिढ़ हो रही है अब तो ख़ुद से ही मुझे।
गुड़िया भीतर गुड़िया ही तो है पर यह ज़िन्दगी। कितने अलग-अलग चेहरे, चाहें न चाहें परतें चढ़ती ही जाती हैं और सारे चेहरे, सारी परतें उघाड़ पाना बस में नहीं ।
परिचय और साथ बस घंटे दो घंटे का ही तो था फिर हमारा । फालतू की यह उधेड़बुन, इतना मोह और लगाव ठीक नहीं। पर प्रेम में तो कड़ुवा भी मीठा हो जाता है? इसी जादू के लिए तो जीते हैं हम। इसी के घटने का तो इंतजार करते हैं और जुड़ जाते हैं किसी भी परिचित, अपरिचित से यूँ ही चलते-फिरते, एक ही नज़र में !
पर जिन्दगी सरल सीधी रेखा नहीं, ना ही इतनी रूमानी ही।
सही गलत भी कुछ नही यहाँ पर, बस अपनी-अपनी क़िस्मत है!
फिर क्यों इतना निर्दयी और कायर महसूस कर रही हूँ मैं? कितने खोखले और पलायनवादी हैं हमारे विचार और आदर्श भी! तभी एकबार फिर बुद्धि ने भावुक होते हृदय को तुरंत ही सँभाल लिया- ‘ चुपचाप आँखें मूंदकर आगे बढ़ जाओ, वरना चने के साथ घुन के भी पिसने का पूरा ख़तरा है अब तो ! तुम्हें तो यह तक पूछने का अधिकार नहीं कि क्या कभी भविष्य में मिल भी सकती हो इससे?’
ज़िन्दगी की इस आपाधापी में कई सपनों की परछांइयों के पीछे भटकते, बहुत दूर निकल जाते हैं और कई मिट्टी के ढेर पर बैठे पीछे ही छूटे रह जाते हैं। जैसे कि यह स्ट्राबेरी, जाने क्या है अब इसके अनिश्चित भविष्य में? भले ही इसकी तो कोई योजना या गलती भी नहीं रही होगी!
हाँ, कइयों की नहीं होती! ज़िन्दगी एक जुआ ही तो है! कोई संकेत, सांत्वना या सहारा, साझी डोर शेष नही थी अब हमारे बीच । बस यह मुखर टीस ही इस मुलाकात की याद बनकर रह जाएगी अब, चाहे कितना ही अख़बार और ख़बरें, सोशल मीडिया आदि पर भटक लूँ, स्ट्राबेरी नाम को तलाशती ही रह जाऊँ मैं, कुछ पता नहीं चलेगा मुझे!
जंगल-सी भटकाती, नदिया-सी आल्हाद में डुबकियाँ लगवाती, वह सुकुमार लड़की अब मेरे मन को उमड़ती करुणा के साथ-साथ बेहद असहज भी कर रही थी।
स्ट्राबेरी का क्या होगा आगे? किसके साथ और किसके पास रहेगी, किस देश में रहेगी? कुछ भी तो नहीं पता मुझे, चाहे जानने की कितनी भी तीव्र इच्छा रहे!
दिन कभी न खतम होने वाली एक लम्बी सुरंग बन चुका था, जिसमें शायद हम सभी भटकने लगे थे। यह भी एक सच्चाई ही थी। भले ही आप इसे कायरता और नैतिक क्षरण ही कहें?
फिर वह पल भी आया, जिसका हमें इंतज़ार था। फ़ीता हटा दिया गया। घोषणा हो गई कि हम बाहर जा सकते हैं।
अनगिनत उन विचारों की तरह ही, कभी परिचित तो कभी भयभीत करने वाला ही और कल्पनातीत ही महसूस होता रहा पर सब कुछ । वह रसभरी कहानी जाने कैसे पूरी तरह से कसैली हो चुकी थी। बात क़ानून तक जा पहुँची थी और क़ानूनी मामलों में उलझना ठीक नहीं। विदेश की धरती पर तो हरगिज़ ही नहीं। बड़ी-बड़ी अबूझ बातें भी मुझे तसल्ली नहीं दे पा रही थीं, हम भी तो इसी भीड़ के हिस्सा हैं। मेरे हर तर्क-कुतर्क को ठुकराता, आहत मन कराहता ही रहा। बुद्धि ने फिर डाँटा- ‘ कुछ कर पाना इतना सहज नही होता हमेशा। एक ढर्रा, एक साँचा है समाज का। नया रख भी दो तो भी बेढब और जोड़ा, कमजोर ही रहेगा, बदलेगा नहीं। कोई प्रगति, मंजिल या संभावना नहीं। दुनिया बहुत बड़ी है और इसे चलाने वाले अदृश्य और ताकतवर। प्रवंचना ही प्रवंचना है चारों तरफ। इनसे सीखा जा सकता है, बिचरा जा सकता है इनमें यदा कदा, पर इन्हें जिया नहीं। पैगम्बर या अवतार नही हो तुम।”
भलीभाँति जानती थी कि स्वार्थी हो रही थी। भाग रही थी स्ट्राबेरी से और अपनी ज़िम्मेदारी से भी। पर यही तो दुनियादारी है आज के आधुनिक चतुर और ज़िन्दा इंसान की। कोमल सहृदय मन तो वही मानव का, परन्तु निर्मम यथार्थ की दौड़ में दबा ढका, मानवता करुणा सब कहीं पीछे छोड़कर हमेशा दौड़ता-भागता।
पानी की तरह बहता और अपने मोड़ खुद ही लेता दिन था वह मेरी जिन्दगी का, कहीं-कहीं तो रुका-ठहरा और षड्यंत्र की बदबू से भरा हुआ भी। फिर भी एक असह्य मलाल है, क्यों कुछ नहीं किया मैंने स्ट्राबेरी के लिए।…शायद एक दर्शक की तरह ही देखते हैं हम सभी चिड़िया की चोंच में चींटी को भी और चींटी के बिल में चिड़िया के चन्द अवशेषों को भी।
सभी शिकार हैं यहाँ किसी न किसी के और सभी शिकारी भी तो। जीना भी यहीं पर है, इसी जंगल में। फिर कैसा मलाल और किस बात का, खास करके तब, जब सामने वाले से फिर कभी मिलना ही नहीं! …
स्ट्राबेरी को वैसे ही अजनबी की गोदी में अकेला और बेसुध छोड़कर दौड़ती-सी बाहर खड़ी टैक्सी में आ बैठी थी मैं ।
अंत तक एक रहस्य रही और रहेगी भी स्ट्राबेरी, जैसे कि दूर आकाश में लटका चंद्रमा- निरंतर घटता और बढ़ता ही जाता। बाहर निकलना चाहती थी मैं अब उस अवसाद-भरी परिस्थिति से।
दलदल में जान-बूझकर तो नहीं ही गिरा जाता? ज़िन्दा रहना चाहती हूँ , अपने लिए, अपनी माँ के लिए। बहुत ज़रूरत है माँ को भी मेरी।… मिनटों में ही टैक्सी अब हवा से बातें करने लगी थी, पर मन था कि शांत ही नहीं हो रहा था।
हर बात संभव नहीं आज की इस विकसित और आधुनिक दुनिया में भी? तंत्र हैं चारों तरफ उलझाने को, जैसे कि राजतंत्र, षड्यंत्र…असल में तो चाहे कोई भी तंत्र हो, डरना ही चाहिए हमें इनसे। फिर क्यों इतना उलझ गई हूँ भावनात्मक रूप से नन्ही-सी अपरिचित उस बच्ची के साथ मैं?
एक कोमल परन्तु यथार्थवादी कहानी मात्र है यह, जो घटना के पर्यटन पर तो ले गई थी मुझे, परन्तु वापस अपने घर यानी आज और यथार्थ में लौटा भी लाई थी । दुनिया इतनी तेज़ी से अराजकता की ओर फिसलती जा रही है कि अब किसी की कोई क़ीमत नहीं, ज़िम्मेदारी नहीं, जबाबदेही नहीं। आदमी दूसरे कि क्या , अपनी ही सुरक्षा कर ले , यही बहुत है। सभी हथियार हैं एक बड़ी लड़ाई के, जटिल षड्यंत्रों के।
और मैं ज़िन्दा रहना चाहती हूँ, स्ट्राबेरी की तरह चक्रव्यूह में फँसना और मिटना नहीं।
धैर्य और समझ भी तो एक ठहराव नहीं संयम ही है, अकूत साहस से भरा हुआ। और वही तो नहीं था उस दिन। विचारों की रेलम-पेल थी बस। तो क्या गोद ले लेना चाहिए था मुझे उस अनाथ को? पर क्या माँ करने भी देती ऐसा ? हरगिज़ नहीं। दुनिया देखी है उन्होंने। घर है अनाथालय नहीं। एक अकेली माँ और बेटी के घर में अजनबी और अनाथों का क्या काम? ख़ुद दौड़ में रहने वालों के पास थमने का वक्त नहीं होता।…जैसे-तैसे ही तो घर चल पाता है हमारा । फिर जरूरतें कब सभी की पूरी हो सकती हैं, ख़ास करके इस जैसे अनाथों की। पटी पड़ी है दुनिया इनसे। किस-किसके बारे में सोचूँ…स्मैंट्राबेरी बस एक हादसा ही थी मेरी यादों का, मेरी ज़िन्दगी का। और हादसों से बाहर निकला जाता है उन्हें अपने संग घर नहीं लाता कोई।…
अजनबी तो बस अजनबी। इनसे बस मिला जाता है और भूल जाया जाता है । ढोया नहीं। छाया हैं, आए और गुजर गए। एक भीड़,अपरिचित और अजनबियों की… दूर दूर, जैसे कि आँख के आगे चलती फिल्म, कितनी भी आकर्षक थी, परन्तु उस कहानी में हमारा कोई दखल नहीं। इसका हिस्सा बने नहीं रह सकते हम ।…
शैल अग्रवाल
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