बेचैन, उदास और असहज करने वाली जगह थी वह; बिल्कुल उसकी तत्कालीन मनःस्थिति की तरह ही। जिस शांति को तलाशती समुद्र के किनारे अकेली घूम रही थी वह, वही नहीं मिल पा रही थी कहीं ।
आई तो थी कि शांति से यूरोप के बदलते हालात और अर्थ-व्यवस्था पर कुछ लिखेगी, पर मुद्दा और जरूरत दोनों ही बदल चुकी थे अब उसकी निगाह में और एक नई उथल-पुथल थी मन में जो अब उसे गहरे अवसाद में डुबोए जा रही थी।
‘ मेमसाहब छतरी ले लो। काम आएगी ।‘
रिरियाते स्वर ने तंद्रा तोड़ी तो,’ हाँ-हाँ , क्यों नहीं। दे दो।’ कहकर तुरंत खरीद भी लीं थीं। एक नहीं, बल्कि दो-दो छतरियाँ। आदत के खिलाफ कोई मोल-भाव तक नहीं किया । एक दो दिन का भूखा जो दिख रहा था बेचने वाला।
शरणार्थियों का सैलाब-सा आ गया था मानो उस खूबसूरत समुद्र किनारे बसे गांव में। जिन्दा रहने की चाह में इधर-उधर दौड़ते-भागते और छटपटाते-से ये चारो तरफ ही तो बज़-बज़ा रहे थे ।
सड़क पार ग्राहकों से खाली दुकानों में बैठे दुकानदार घबराने लगे थे इनसे।
सामने बैठा एक मन-ही-मन बुदबुदाया उसे छतरी ख़रीदते देखकर-‘ इन जैसे पर्यटकों ने ही तो दिमाग खराब कर रखा है इन शरणार्थियों का ।’
फिर उसे सुनाता-सा थोड़ी ऊॅची और तेज आवाज में बोला- ‘ए मेमसाहब, क्यों पैसे नाली में फेंक रही हो, टिकाऊ सामान चाहिए तो हमारी दुकान से ख़रीदो, फुटपाथ से और इन सड़क-छाप चलते-फिरते लोगों से नहीं। गंदगी फैला रखी है इन आवारा कुत्तों ने चारों तरफ़ ।’
आवाज में भरी नफरत की सारी पीक अब उस पर भी बिखर चुकी थी, साथ-साथ उन अभागों के लिए कुछ विशेष न कर पाने की एक असंतुष्ट लहर भी- ‘ इतनी घृणा वह भी इन्सानों के लिए!’ रिया ने गीली हो आई आँखें पोंछ डालीं और चुपचाप आगे बढ़ गई, मानो कुछ देखा ही नहीं था, सुना ही नहीं था उसने। आगे बढ़कर चुपचाप अपना रास्ता पलट लिया रिया ने।
सड़क के दूसरे किनारे खड़े वे मोर-पंखी पेड़ सुंदर थे और स्वस्थ भी , पर जाने क्यों वह भी उदास ही लगे उसे…बेहद उदास।
मानो तनों में कई-कई चीखें फंसी हुईं थीं, कुछ समझाती और बताती सी- भोगा और सहा कोई दर्द जैसे!
पर सीटी देती हवा के अलावा कुछ नहीं सुनाई दिया उसे।
शायद सुनना ही नहीं चाहती थी वह। अंधे और बहरे ही हो जाते हैं हम दूसरों के दुःख-दर्द में। फिर इन बेजान पेड़ों की तो औकात ही क्या?-धिक्कारने लगी थी रिया तब खुद को भी और उस पूरी मानवता को भी, जो कानों में शीशा डालकर और आँखों पर पट्टी बांधकर अंधी और-बहरी हो चुकी है।
अबतक बेचैन करता बूट के नीचे सूखे पत्तों का चर्र-मर्र करता कान-फोड़ू शोर भी चालू हो चुका था। चाल स्वतः ही तेज हो गई परेशान रिया की।
भागती कैसे पर, कुछ था उन पेड़ों में जो रिया को बता रहा था कि साधारण वनस्पति नहीं है यह। बेचानी का अहसास तीव्रतर होता चला गया और एक करुण भाव बेवजह ही घेरने लगा उसे- इतना बेचैन समुद्र का किनारा तो पहले कहीं नहीं देखा था उसने। हाहाकार करती लहरें तो थीं ही और तेज हवा का शोर भी, पर अँधा-धुन्ध झरते और हवा में तैरते सूखे पत्तों की बरसात वातावरण को और भी असहज और अंधा बनाए दे रही थी।
आड़े-तिरछे खड़े और अब गिरे, तब गिरे कतार-बद्ध खड़े मोर-पंखी के वे पेड़ हड्डी चीरती हवा में ऐसे कांप रहे थे, जैसे कोई गदराया भालू थिरक रहा हो । उसकी उदास आंखों में अचानक ही एक भीनी स्मिति आ गई- आख़िर कब जाएगा उसकी सोच से यह बचपना! थोड़ा और आगे बढ़ी तो उसे लगा मानो सैकड़ों असहाय आँखें निकल आई थीं उन पेड़ों में और कांपती टहनियाँ नहीं, असंख्य बाँहें थीं उनके पास जो न सिर्फ़ उसका पीछा कर रही थीं, उसे समेट और निगल लेना चाहती थीं । या फिर कुछ कहना चाहती थीं, मदद के लिए बुला रही थीं अपने पास।
मोर-पंखी उस कंपन में भय-भरा अबूझ रोमांच था, मानो गलत जगह पर खड़े थे पेड़ और अपनी जडों की सांकल से आजाद होना चाहते थे! मानो बसंत की चाह रखने वालों के लिए पतझर का मौसम बिखरा पड़ा था वहाँ पर, वह भी पल-पल रंग बदलते आसमान के तू तेवर के साथ । रोंगटे खड़े करने वाला अहसास था कि अकेली नहीं थी रिया वहां पर , उस सूनसान और पेड़ों से घिरे एकांत में भी नहीं।
सोच के घोड़े उसे कई दर्दभरी दिशाओं में ले उड़े थे। माथे का सारा पसीना पोंछकर, हँस पड़ी रिया अपनी उर्वर कल्पना शक्ति पर- एक बेबस-सी और लाचार हँसी पर।
घर से इतनी दूर घूमने आई थी , धैर्य और अपने साहस का इम्तहान देने नहीं। अब वह और अकेली घूमना नहीं चाहती थी वहाँ पर। गरम कैफेटेरिया मिले तो बैठकर, हँसते-बातचीत करते लोगों के बीच कौफी पीना की चाहती थी। और तब, जब उस अँधे कुँए से निकलने को वह मुड़ी ही थी कि अँधेरी आँखों में पुनः बिजली-सी कौंधी और एक और अद्भुत व चौंकाने वाला नजारा उसकी विस्मित आँखों के आगे पसर गया।
खुद को संयत करती रिया अब संभाल-संभाल कर कदम रख रही थी, जिसे बगीचा समझकर वह चली आई थी वह तो … सामने हर तने पर एक ताम्र पट्टिका थी, जैसे कब्रों पर शिलालेख।
पास पड़े पत्थर पर गिरती-सी बैठ गई थी तब रिया और अगले पल ही एक झटके से उठ भी खड़ी हुई, ’ हे भगवान, यह कैसे दुःस्वप्न में पहुँचा दिया है तुमने मुझे, किस दारुण जगह पर परीक्षा लेना चाहते हो ?‘
उसके हाथ अब प्रार्थना में जुड़े थे और आँखें बादलों से भी अधिक पनीली।
‘जेसनः उम्र दस वर्ष- दिनांक-22-8-2023.’ डैनियलः तैंतीस वर्ष , मारियाः 27 वर्ष…..
चारो तरफ फटी-फटी नजरें घूमती चली गईं ।
एक नहीं, सैकड़ों परिचय पट्टिका पंक्ति बद्ध खड़ी थीं उन मोरपंखी पेड़ों का दुशाला ओढ़े।
हरेक पर एक नया नाम , फरक उम्र और अलग-अलग तारीखें। कई पर तो कोई परिचय और जानकारी नहीं। बस सपाट चमकती पट्टियाँ, जिनपर बस एक गुलाब का फूल अंकित। शायद ये वो मृत थे जिनकी लाशें समुद्र ने असहाय और लावारिश-सी फेंक दी होंगी किनारे लाकर, टूटे-बिखरे अन्य सामान और कूड़े की तरह ही, बिना किसी लगाव के और बिना पहचान के। टूटे- फूटे और फैले-बिखरे लोगों का कब्रिस्तान था वह। टूटे-बिखरे- शरीर से भी और मन से भी। अतृप्त और अपोषित आकांक्षाओं से कराहती-सी लगी वह जगह और बेवजह ही रिया को बांधती भी चली गई- ‘ चले तो सब एक नए देश और सुरक्षित घर की तलाश में ही होगे, पर किस्मत देखो कि बीच मझधार ही सारी आस बिखर गई।’
सामने एक बड़े से सूचना पटल पर यह भी पढ़ा तभी उसने, ‘ कृपया शोर न करें। यहाँ कई थकी आत्मायें सोई पड़ीं हैं।‘
जिसे अभी तक वह बगीचा समझ रही थी बगीचा नहीं, कब्रिस्तान निकला… भूमध्य सागर से उठाई गई सड़ी-गली और किनारे आ लगी लाशों का।
जूट के बोरों में कैमिकल और कुछ मिट्टी व बीजों के साथ. सीधे जमीन में गड़े ये लोग, ताकि कम जगह लें अपदस्थ पर एक सम्मानजनक अंतिम संस्कार । पर क्या कहना चाहते हैं अब ये, इस जड़ रूप में पहुँचकर भी? कुछ दिन पहले ही पढ़ा था उसने कहीं कि इटली , ग्रीस और साइप्रस के खूबसूरत टापू, डूबे शरणार्थियों का कब्रगाह बनते जा रहे हैं और जगह की कमी की वजह से स्थानीय सरकारों ने यह अभूतपूर्व तरीका अपनाया है अवांछित लाशों से छुटकारा पाने का।
कोई बुराई भी तो नहीं पर इसमें । कीड़े खाकर खाद बनाएँ, या कैमिकल सड़ा-गलाकर , अंत तो वही मिट्टी में मिट्टी का मिलना ही है। मोरपंखी तो उगाए ही इसलिए जाते हैं कि लकड़ी मिले उनसे और जिन्दा इन्सानों के काम आए! पर दस वर्ष ….कहीं पांच वर्ष तो कही पर दो वर्ष की उम्र भी…बिना जिए ही… सिसकी बाहर न निकले इसलिए मुँह में रूमाल ठूंस लिया रिया ने और बिना पीछे मुड़े आगे बढ़ चली।
एक ठंडे जमे शिशिर के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था उसे अब वहाँ पर।
पर रिया की मस्तिष्क की घड़ी ने एकबार फिर से टिक-टिक करना शुरु दिया था। जानती थी कि मौत के बाद तो कहीं कुछ शेष नहीं रहता, फिर भी उसे डर लग रहा था….एक अज्ञात सा भय । साथ में यह भी कि कहीं किसी ऐसी जगह पैर न पड़ जाए उसका, जहाँ नहीं पड़ना चाहिए। और कोई सुकुमार आत्मा आहत न हो जाए…फिर अगले पल ही खुद ही हंस भी पड़ी…एक बेहद करुण हँसी- ‘नहीं, नहीं अब तो चैन से हैं ये सब और इनके सारे सोए सपने भी। लहरों के थपेड़ों में टूटे बिखरे बहुत कुछ सह चुके, अब तो बस चैन-ही चैन है। न भूख की घबराहट और ना ही अनजान भलिष्य की बेचैनी और उत्कंठा ही…सब शांत है इस अंतिम गोद में तो।
ऐसा होता ही क्यों है कि लोगों को अपना घर छोड़कर भागना पड़े, क्यों होती हैं ये लड़ाइयाँ ? पर कहाँ नहीं हैं दुख, लड़ाई नहीं तो भूख और बीमारी! कई-कई वादियाँ धधक रही हैं। गाजा की चीखों से बहरे हुए तो यूक्रेन का दुःख भूल गए लोग। हर कोने में ही तो एक आग है , आदमी की खुद की लगाई आग और जिन्दा और मुर्दा सभी को तो निगल रही है यह। किस-किस को और कहाँ-कहाँ आखिर संभाले दुनिया!’
रिया की आँखें अब झरते चिनार के पत्तों से भी ज्यादा तेजी से झर रही थीं। भागना चाह रही थी वह अब विचारों के उस मकड़ जाल से।
पल भर पहले की वह तेज चटक धूप भी तो अब गहरे काले बादलों के अंधेरे से घिर आई थी। किसी भी पल तेज बारिश हो सकती थी। छतरी हमेशा साथ रखती है वह और आज भूल गई तो खुद ही चलकर आ ही गई छतरी भी तो उसके पास । हर समस्या का हल रहता है…ग़लत कुछ का नहीं भी शायद, जैसे ये आड़ी तिरझी बौझारें कब रुकती हैं एक छतरी मात्र से।
तो क्या लौट चले तुरंत ही होटल की तरफ ।
पर वहाँ भी तो वही टीं.वी. और उस पर चलती बस वही चैनल! असहाय गाजा की उन चीखों से घबराकर ही तो भागी थी वह सुबहृ-सुबह! बम रुक नहीं रहे और कोई मदद कर नहीं सकता। दवा-दारू की तो छोड़ो , खाना पीना तक नहीं वहाँ पर तो। पानी, बिजली सब कट चुके। हद ही तो है यह भी। दुःख तो होता है पर क्यों साथ देते हैं ये भी उन आताताइयों का। अब जब उनमें जा मिले हैं तो घुन के साथ गेहूँ भी तो पिसेगा ही !
रिया की सोच अब रुकने का नाम नहीं ले रही थी।
होठ और मुट्ठियाँ दोनों ही पुनः भिंचने लगी थीं उसकी- ‘ हंसते खेलते लोगों का बिना किसी अपराध के अपहरण और फिर उनके साथ इतना दुर्व्यवहार….भूल नहीं पा रही थी वह, कैसे उस नंगी लड़की की लाश पर बैठकर अपनी विजय-पताका फहरा रहे थे राक्षस… गलत तो नहीं हैं वे भी यूँ गुस्सा निकालने में, बम गिराने में। इतना ही अपने लोगों का ख्याल है, दर्द है उनकी तकलीफों का तो सौंप दें आताताइयों को। जिन्हें घरों में, अस्पतालों में और बंकरों में छुपा रखा है इन्होंने।’
सोचते-सोचते ही आँखें नम हुई जा रही थीं, मानो युद्ध वहाँ नहीं, उसके इर्द-गिर्द ही चल रहा था और वह सारा तूफान भी बाहर नहीं उसके मन और मस्तिष्क में ही उठ रहा था। …कभी किसी के दुख में आंखें भर आतीं तो अगले पल ही उन्मादी और फूहड़ उस प्रदर्शन को याद करके आँखों से खून के आंसू भी टपकने लग जाते।
मन और आकाश दोनों का ही सारा अंधेरा उसकी बंद आँखों में उतर आया था और थोड़ी बूंदाबांदी भी शुरु हो चुकी थी अब तो।
कैसे भी होटल पहुँची तो मुख्य द्वार पर ही एक नन्हा मासूम अपने से दुगने बड़े कोट में सिमटा-सिकुड़ा उसकी तरफ बड़ी हसरत भरी नजर से देख रहा था –
‘मैम क्या मैं आपके बूट साफ कर दूँ। पूरे कीचड़ में सने हैं।’
और तब एक मिनट भी नहीं लगा उसे बूट उतार कर देने में ।
वाकई में उस अनाथ की मदद करना चाहती थी रिया। पर बूट उतारते समय उसने देखा कि बच्चे का मुंह तो उसके बूटों से भी ज्यादा गंदा था। धंसे गालों वाले चेहरे पर सूनी-सूनी दो आँखें ही दिखती थीं, हर आते जाते से उम्मीद लगाए, शायद कोई कुछ दे ही दे यूँ जूतों की सफाई के बदले में । ज्यादा नहीं, थोड़ा बहुत खाने का जुगाड़, जिससे पेट की यह गुड़गुड़ करती आग दिन भर परेशान न करे उसे। वैसे तो इसकी भी पूरी आदत हो चली थी उसकी। रात का खाना तो होटल वाला दे देता था और सीढ़ी के पास एक छोटे से हिस्से में सो भी लेने देता था, पर दिन बहुत मुश्किल से निकलता है। इतना पानी पीता है रोज कि भूखे पेट ही कि मितली आने लगती है ।
रिया मानो सुन और समझ रही थी उसकी एक-एक बात। साथ-साथ यह भी जानती थी कि उसका दिमाग ओवर-टाइम कर रहा है। इन यूरोपियन देशों में तो कोई भूखा नहीं मरता। कुछ-न-कुछ जुगाड़ हो ही जाता है।
‘अरे मेम साहब , कहाँ उलझ गईं हो आप भी। कोढ़ हैं ये शरणार्थी हमारे लिए। कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं। एक ढूंढोगी तो दस मिलेंगे। किस-किस की फिक्र करोगी और किस-किस से जूते साफ करवाओगी।
पर फिक्र तो करनी ही पड़ेगी वरना हमारे इंसान होने का क्या मतलब रह जाता है। होठों ही होठों में रिया धीमे से बुदबुदायी।
लड़का चमचमाते बूट हाथ में पकड़े, बड़ी आस-भरी नजरों से अब उसे देख रहा था।
दस यूरो उसकी तरफ बढाते हुए रिया पूछे बगैर न रह सकी,
क्या नाम है बेटे तुम्हारा। पूछते-पूछते अनाथ को गोदी में उठा लिया था उसने ।
‘ जेसन’-
नाम सुनते ही रिया की आँखें फटी-की फटी रह गईं।
‘यह कैसा संजोग है…वहाँ भी जेसन और यहाँ भी…!’
और तब मानो उसकी उलझन को सुलझाता-सा वह नन्हा ख़ुद ही बोला, नहीं वह क़ब्रगाह वाला मोरपंखी नहीं हूँ मैं। वह तो मेरा बड़ा भाई जौनपुर है। मैं तो पापा की गोदी में था। मम्मी, पापा, जौनपुर तीनों वहीं हैं। बस मैं नहीं जा पाया उनके साथ मोरपंखी बनने। रोज़ मिलने जाता हूँ ।
सुनते ही वहीं फूट-फूटकर रो पड़ी रिया। मानो तूफान जो अंदर उमड़ रहा था , बाहर आना चाहता हो।
चौकीदार झटके से उठा और कसकर चपत लगा दी जेसन को।
‘जो मिलना था, मिल गया न तुझे। अब भाग यहाँ से कि एक थप्पड़ और…’
शेरनी सी लपकती और खबरदार करती रिया अब दोनों के बीच में खड़ी थी ।
भौंचक चौकीदार तुरंत अपनी जगह पर वापस जा ख़ड़ा हुआ और जेसन को गोदी में लिए लिए भी बाथरूम में चली गई । खुद अपने हाथों से उसने बच्चे का मुंह साफ करने। फिर उसे अपने साथ पेट भरकर खाना खिलाया और बाद में होटल के मंहगे बुटीक से ही दो जोड़ी नए कपड़े और कुछ फल और बिस्कुट वगैरह भी दिलवाए अभागे को ।
नहाया-धोया और साफ-सुथरे नए कपड़ों में जेसन अब उसे अपने दोनों बच्चों जैसा ही दिख रहा था। मंत्रमुग्ध सा उसके साथ-साथ चलता ही चला गया जेसन और उसके कमरे तक आ गया। फिर वहीं दरवाजे पर बैठकर फल खाने लगा। जाने क्यों रिया ने भी दरवाजा भेड़ा नहीं। अब वह उसे एक टक देखे जा रही थी। खा-पीकर थका हारा वहीं सो भी गया जेसन ।
रिया उठी और अपने पास सुला लिया अनाथ को । रात में आँख खुली तो देखा जाने कितने दिन बाद गरम बिस्तर पर ममता की छांव में सोया जेसन एक नन्हे देवदूत-सा शान्त और बेफिक्र था। पर उसके बिस्तर से नीचे पैर रखते ही तुरंत ही उठ बैठा जेसन भी। होश में आते ही अब उसके चेहरे पर एक दयनीय शर्मिंदगी राख-सी पुत गई थी- इतनी जुर्रत कैसे हुई उस लावारिश की, कि यहाँ तक पहुँच गया! होटल के स्टाफ को पता चला तो यह आसरा भी छिन जाएगा।
तेजी से उठा और तीर-सा कमरे से बाहर निकल गया। रिया रोक तक नहीं पाई उसे।
दरवाजे पर पड़े अध-खाए एक-एक टुकड़े को समेट लिया था उसने।
अपना एक भी निशान नहीं छोड़ना चाहता था वह कमरे के बाहर। और तब बिना मुड़े ही, बिना देखे ही चुपचाप नीचे भी उतर गया जेसन। मानो आँख मिलते ही रोक लेगा यह नया बंधन उसे और यथार्थ में उसके लिए कोई जगह नहीं है वहाँ पर।…
उन नम और झुकी आँखों में मानो एक पूरा समंदर, सारे ज्वार-भाटा के साथ उठता-गिरता देख लिया था रिया ने उस एक पल में ही ।
जिन्दगी जब अनाथ करती है तो कितने असह्य बोझ के साथ अकेला भी तो… गीली पलकें पोंछ तो लीं रिया ने। परन्तु मन था कि हाहाकार ही करता रहा-‘ वह तो चंद घंटे भी नहीं बिता पाई थी इस तूफानी मौसम में, इस बिचारे को तो पूरी जिन्दगी जूझना है इसीसे! वही मोर-पंखी पेड़ों का कंपन अब उसे जेसन के पैरों में भी साफ-दिख रहा था। नहीं, वह जेसन को एक और कब्रिस्तान में खड़ा मोर-पंखी पेड़ नहीं बनने दे सकती।
एक दर्द की लहर चीरे जा रही थी और नींद उचट चुकी थी -‘ तो क्या इसे वह अपने साथ वापस इंगलैंड ले चले, कानूनन् गोद ले ले? ‘
पल भर को ही सही, सुख और शांति का एहसास अनूठा था, ‘ निराश होकर हाथ-पर-हाथ रखकर भी तो नहीं ही बैठा जा सकता था…जितने समंदर हैं उतने ही किनारे भी तो। इंसानों के साथ कीड़े मकोड़ों जैसा व्यवहार भी तो नहीं हीना चाहिए। ‘
पर उसकी सारी नेक-नीयती के बावजूद अब एक नया प्रश्न फन उठाए, सीधे उसकी आँखों में आँखें डालकर घूर रहा था -‘ जेसन को तो चलो माना वह गोद ले लेगी, पर वो जो हर सड़क, कोने-कोने में रोज ही सैकड़ों बेघर हो रहे हैं, उनका क्या ?’
जवाब अब आँसुऔं के साथ खुद ही बह निकला था भीगी पलकों से–‘आशा का नन्हा बीज कितना ही नन्हा क्यों न हो, अगर सही खाद-पानी मिले तो सघन वृक्ष बनते देर नहीं लगती इसे!’…
शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com