मुक्ति-उर्मिला जैन

‘’मैं तो यहाँ मुहल्ले भर में , किसी घर में नहीं आती-जाती न किसी को अपने यहाँ बुलाती हूँ। इतने वर्ष हो गए ब्याह कर आए हुए , आज पहली बार आपके घर आई हूँ। ‘’
‘’अरे, ऐसा क्यों?’’
‘’क्या बताऊँ 1 पुरखों ने यह शानदार कोठी गंगा किनारे बनवा ली। शादी के बाद यहाँ आई और तब से यहीं हूँ। ‘’
‘’यहाँ अकेले तो ऊब होती होगी ?’’
‘’होती ही है । खासकर , निलय एकदम अकेला हो जाता है। दस का होने वाला है, पर अभी से चुपचाप रहता है। खेलने को कहो तो रूआँसा हो जाता है।‘’
दरअसल हमें भी उस मुहल्ले में आए मात्र दो ही वर्ष हो रहे थे। जब हमने विदेश से लौटने का मन बनाया तो उस मुहल्ले में ही रहने वाले अपने एक परिचित प्रोफेसर से उस शहर में मकान खरीदने की इच्छा व्यक्त की । वे हमारे पुराने प्राध्यापक थे। विदेश जाने के बाद भी उयसे चार-छ्ह माह पर खतो-किताबत होता रहता था। मुझे उस मुहल्ले के बारे में पता था तो बस इतना ही कि गंगा जी के पास बसा वह मुहल्ला शहर की पुरानी बस्ती है। यह भी लगा कि वे खुद भी वहाँ रहते हैं , जो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मात्र ही नहीं बल्कि लोकप्रिय साहित्यकार भी हैं तो निश्चित ही अच्छी जगह होगी। वैसे भी उस मकान के बारे मै अपने पत्र मे उन्होंने जो कुछ बतलाया था उससे वह ‘ड्रीम हाउस’ लगता था। मसलन बड़ी सी कोठी, चारों ओर एक भी मकान नहीं। पीछे कछार, गंगा जी थीं। बड़ा सा बगीचा था, उसमें तरह-तरह के फलों के पेड़ थे यहाँ तक कि काजू का भी। सब-कुछ इतना मोहक लगा था कि उनके कहे अनुसार हमने विदेश से ही मकान मालिक को आधा पैसा एडवांस दे दिया था। नतीजतन उस मकान को लेना ही लेना था।
यह बात अलग थी कि आने के बाद उस मुहल्ले का पिछड़ापन देख कर हम बराबर पछताते रहे कि बिना देखे घर खरीदना कितनी बड़ी बेवकूफी है। वे अपने विद्यार्थी जीवन से यहाँ रहते आए थे। इसलिए उनमें तो इस तरह की जगहें रच-बस चुकी थीं। बाद में यह भी पता लगा कि वे चाहते थे कि कोई खाता-पीता, पढ़ा-लिखा परिवार उनके पड़ोस में आ जाए तो उनके लिए अच्छा रहेगा। फिर विदेश से लौटने वालों के पास गाड़ी तो रहेगी ही। तब उन्हें भी सुविधा हो जाएगी। कारण, उस मुहल्ले में न तो रिक्शे चलते थे, न बसें। लोगों के आने-जाने का एक मात्र सहारा निजी वाहन ही था।वह भी ज़्यादातर साइकिल या एकाध लोगों के पास स्कूटर या मोपेड़ थे।
हम उस मकान में आ गए थे। मकान क्या, बड़ी-सी कोठी ही कहिए। वहां रहना ही था। आने के कुछ ही दिनों बाद से हम सोचने लगे थे कि हमें कोई और मकान लेना चाहिए। पर यह उतना आसान तो था नहीं। दिन बीतते जा रहे थे। तभी हमारे एक आत्मीय ने उस मुहल्ले में रहने वाले एक परिवार से हमारा परिचय कराया। वह परिवार राय सा0 का था। खाता-पीता शिक्षित यह परिवार हर तरह से संतुष्ट दिखता था। वे लोग हमारे यहा आए और हमें भी चाय पर बुलाया।
उस दिन वे मेरे यहाँ केवल बेटे के साथ आई थीं। बातों ही बातों में जाने कब से उनके मन में रह रह गुबार फूट पड़ा। संभवतः आज बहुत दिनों बाद उन्हें मौका मिला था , मन को खोलने का। कहने लगीं , ‘’ मैं राय सा0 की बहू हूँ। पुश्तैनी मकान है। मकान क्या, हवेली है। हमें तो रहना ही यहाँ है , जो शहर का इतना पिछड़ा मुहल्ला है। ‘’
‘’यहाँ इतनी बड़ी कोठी, ऐसी जगह पर पुरखों ने बनवाई ही क्यों ?’’
‘’जिस जमाने में यह कोठी बनी थी , उन दिनों यहाँ गंगा जी का किनारा था। आस=पास कोई बस्ती नहीं थी। दूर-दूर कछार और गंगा की लहरें ही दिखती थीं। जब यह विशाल, भव्य हवेली बनकर तैयार हुई थी, सारा शहर इसे देखने उमड़ पड़ा था। बड़ी कोठी के नाम से मशहूर यह है भी तो अनोखी। पत्थरों से बनी पूरी कोठी और उन पत्थरों में ऐसी बारीक नक्काशी कि पूरे शहर में यह कोठी बेजोड़ है। कहते हैं कि जब हवेली बन कर तैयार हुई थी तब राय सा0 ने कारीगरों के पंजे कटवा डाले थे कि कहीं और ऐसी नक्काशी न बन सके । उनकी कोठी अकेली रहे , अनोखी रहे,उनकी नकल न होने पाए।‘’
सही भी था। इतना बड़ा शहर है। एक से एक मकान, बंगले, हवेलियाँ,कोठियाँ हैं लेकिन कहीं भी इस ढंग की ऐसी नककाशी नहीं है। शहर के लोग ही नहीं, विदेशी भी जानकारी मिलने पर यहाँ आते और कोठी की फोटो खींचते हैं। खड़े होकर, देर तक कोने-कोने से निहारते हैं। कुंभ के दिनों में तो भीड़ लगी रहती है।
आगे उन्होंने बताया, ‘’जब इसे बनवाया गया था , पूरी-की-पूरी सड़क पर अकेली कोठी थी । उससे लगी हुई परती जमीन थी। एक मंदिर था और अपनी प्रजा थी। उन दिनों किसी में साहस नहीं था कि आसपास घर बनवा ले। बनवाता भी कैसे। चारों ओर जमीन तो सब मेरे पुरखों के कब्जे में थी। फिर लोग इतना भय खाते थे कि उसक बाद भी जमीन लेकर अपना घर बनवा सकें, इतना साहस नहीं था। बड़ा रोब-दाब था उन दिनों। वैसे आज भी इस शहर के लिए यह हवेली एक चिन्हानी है। रिक्शे वाले, टेम्पो वाले, किसी से भी इस मुहल्ले में आने की बात करो तो पूछेंगे – ‘’क्या बड़ी कोठी तक जाना है या बड़ी कोठी की तरफ जाना है ?’’ यानी जगह चिन्हित थी।
फिर एक लम्बी सांस लेती हुई कहने लगीं, ‘’अब तो राय साहिबी रही नहीं। राय सा0 को गुजरे भी वर्षों गुजर गए, पर परंपरा बनी रही है। उन परम्पराओं को तो हमें ढोना ही है। नतीजतन हमारे परिवार का कोई भी पैदल घर से नहीं निकल सकता। एकाएक किसी चीज की जरूरत होने पर भी हम खुद जाकर इस बस्ती की किसी दुकान से अपनी पसंद की कोई चीज नहीं खरीद सकते। निलय के पापा कहते हैं – ‘कुछ भी लेना हो सिविल लाइन ही जाओ। वहीं से खरीदो, भले वहाँ इधर से चीजों की कीमत ड्योढ़ी, दुगुनी हो।‘ क्या किया जाए, करना ही पड़ता है। जमाना बादल गया है। अब तो लेडीज दुकानों में जाकर खुद पसंद कर हर तरह की चीजें ले लेती हैं। , पर हमें तो परंपरा इसकी इजाजत नहीं देती। यदि किसी वजह से ड्रायवर नहीं आया तो हमें कहीं जाना है तो हम नहीं जा सकते, क्योंकि रिक्शे में तो हम बैठ नहीं सकते। इस घर की परंपरा टूट जाएगी। यदि मेजबान अपनी गाड़ी भेज पाया तो उस दिन हम जा पाते हैं अन्यथा हम बड़ी सी हवेली में बैठे परंपरा निभाते रहते हैं। ‘’
आगे और बताने लगीं, ‘’ जब भी गंगा जी का पानी बढ़ता था उसके आस-पास झुग्गी-झोपड़ी मे रहने वाले लोग आ जाते थे और रहने की जगह मांगने लगते थे। हवेली के तहख़ानों में बनी छोटी-छोटी कोठरियाँ उनके लिए खुलवा दी जाती थीं। सब दुआ देते हुए रहने लगते थे। पानी खुलने पर चले जाते थे। कोई गरीब-गुरबा दरवाजे से कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, सारे मौकों पर दान-दक्षिणा बटनी ही थी।अब भी लोग पहले ही जैसा सोचते और चाहते हैं। अब इतना कहाँ से लाया जाए कि खुले हाथ दान-दक्षिणा बांटा जा सके। लोग मुंह बनाते चले जाते हैं। जो हालात हैं, किसी को रहने की जगह तो अब दे ही नहीं सकते। लोग नाक-भौ सिकोड़ते हैं। हमारे बारे में बात करते हैं।‘’
फिर कुछ व्यंग्य-सा कसती बोलीं,’’मैं राय सा0 की बहू हूँ। यदि खाना खुद बना लूँ तो लोग कहेंगे – राय सा0 की बहू खाना खुद बनाती हैं। इसलिए महराजिन को तो रखना ही है। वह एक नियत समय पर आती है और खाना बनाकर चली जाती है भले ही उस समय खाना खाने का किसी का मन न हो। बाद में और चीजें तो गरम कर लो पर रोटियाँ तो ठंडी ही रहती हैं। और चीजों में भी गरम करने पर वह स्वाद तो नहीं ही रहता जैसा तुरत बनाए में रहता है। यदि हमारा मन कभी केवल तहरी खाने का है तो महराजिन से मात्र तहरी ही कैसे बनवाई जाए?’’
उसके बाद बात निकली फर्नीचर और सफाई पर, रखा-रखाव पर। इस बारे मै भी उन्होंने जो बताया वह सचमुच मथने वाला था।
‘’ घर में अब नए-नए फर्नीचर तो आ नहीं पाते , पर जो हैं उन्हें साफ-सुथरा तो रखना ही चाहिए। नौकर-दाई तो अब भी हैं , पर सब मनमानी करते हैं। कभी आए, कभी नहीं। जिस दिन काम करने वाले, सफाई करने वाले नहीं आते वह दिन यही मनाते बीतता है कि आज हवेली में कोई आ न जाए। । घर में पोंछा न लगा हो या कहीं पर , किसी भी चीज पर धूल का एक कण हो तो तौहीनी हो जाएगी। फिर इस हवेली में किसी भी तरह का काम करने वाले हमसे इतना पैसा चाहते हैं कि पूछिए मत। मास्टर रखो तो हजार रु0 से कम में बात नहीं । लोग सोचते हैं , राय सा0 का घर है, इन्हें पैसे की क्या फिक्र। ये लोग तो हमेशा से देते आए हैं। यह तो परंपरा है इनके यहाँ की कि रेट से ड्योढ़ा, दुगना देना। ‘’
‘’कहीं और दूसरा घर क्यों नहीं ले लेतीं ? ‘’
‘’पुश्तैनी घर है, इसे छोडना भी संभव नहीं।‘’
‘’इसके रख-रखाव में परेशानी भी तो है ‘’
‘’वह तो है ही। इसे तो हम भुक्तभोगी ही जानते हैं। हवेली के बाहर की महीन नक्काशीयों पर धूल जंम जाती है। साल में एक बार भी साफ कराओ तो कितनी परेशानियाँ होती है , कितना खर्च आता है, इसे हम ही जानते हैं। अब तो हमने कोठी की दो मंजिलों को इस्तेमाल में लाना ही बंद कर दिया है। ऊपर और नीचे की मंजिलों में ताला दलवा दिया है। सिर्फ बीच वाला हिस्सा ही हमारे लिए काफी है। उसका रख-रखाव ही सर-दर्द बना रहता है।‘’
‘‘कोठी के सामने बहुत बड़ी खाली परती जमीन भी तो है। क्या वह भी आप लोगों की है ?’’
‘’ हाँ, वह भी हमारी ही है। कई बार उसे घिरवा कर बगिया बनवानी चाही। पर मुसीबत यह है कि आस-पास झोपड़ियों में बसे लोग उस पर अपना हक समझते हैं। उनके बच्चे घेरों को कभी टिकने नहीं देते। वे हमेशा उन्हें तोड़ कर अपने खेलने का मैदान बना डालते हैं। उन्हें कोई सजा दी भी तो नहीं जा सकती। पुश्त-दर-पुश्त से यदि यहा राय सा0 की कोठी है तो उनकी झोपड़ी भी तो है । जब तक पुराना दरबान था , लोग उसका रोब-दाब मानते थे । अब तो नया आदमी है । कहता है, ‘बहू जी, अगर हम मना करिबे तो लोगन हमही पर बमवा फेक दीहें। कउन आपन जनवा गँवाए ।‘ हार कर हमी लोग चुप हैं।‘’
आज जैसे सारी व्यथा उड़ेल देना चाह रही हों। आगे और कहने लगीं, ‘’’निलय कभी-कभी अन्य बच्चों की तरह साइकिल पर बाहर निकलना चाहता है । पर कर नहीं सकता। राय सा0 का परपोता है। साइकिल पर कैसे चले। एक दिन जिद्द कर जरा-सी देर के लिए साइकिल पर बाहर निकाल गया था तो गली के दोनों तरफ उसे देखने के लिए कतारें लग गयी थीं।
‘’इतने वर्ष हो गए इस घर में बहू बन कर आए। इस मुहल्ले के किसी परिवार में मैं कभी नहीं गई। इधर एक भी घर ऐसा नहीं जो ऐसे स्तर का हो , जिसके यहाँ जाया जा सके, उठा-बैठा जा सके। एक विशेष स्तर की जो परंपरा हमारे यहाँ चली आ रही है उससे हम अलग कैसे हो सकते हैं। मेरी जिंदगी तो अब इस हवेली में बीतेगी पर कोशिश कर रही हूँ कि निलय इस घेरे से उबर जाए।वह परंपरा को तोड़ डाले। कहीं और रहे। चाहे उसे किसी फ्लेट में ही रहना पड़े।‘’
मैंने उनकी ओर देखा। उनकी आँखों में एक निश्चय झलक रहा था और मेरी नजर अपनी कोठी के बाहर पड़ी । 2500 वर्ग गज में फैले अपने विशाल बगीचे को निहारा। सामने नजर गयी तो देखा – बड़े से गेट से जहां मैं रात के सिवा कभी भी ताला नहीं लगाती थी , नूरजहाँ अपने दोनों बच्चों सहित चली आ रही थी। बगीचे के सारे पेड़-पौधे , जो धीर-धीरे झूम रहे थे , और भी हरे-भरे नजर आने लगे।
नूरजहाँ को आते और मेरे बराबर में बैठते देख वे आश्चर्य में भर उठीं। वे उसे जानती थीं, क्योंकि वह तेल-मालिश किया करती थी और उनके घर भी इस सिलसिले में गई थी।
एकाएक उठीं और बोली , ‘’ अब मैं चल रही हूँ।‘’
‘’नहीं, नहीं, रुकिए न, अभी तो आपने चाय भी नहीं भी पी है।‘’
उन्हें रुकना ही पड़ा। किचन में काम कर रही गीता को आवाज दी। मैंने अपने लोगों के लिए चाय और बच्चों के लिए शर्बत बनाने को कहा।
नूरजहाँ की आयशा और शमशाद,मेरी किंजल्क और किसलय तथा राय सा0 की बहू का निलय बगीचे में खेलने लगे। कभी बरामदे में दौड़ते, कभी बगीचे में। शोरगुल, हा-हा, ही-ही होता रहा। धमा-चौकड़ी मचती रही।
वे बोल उठीं, ‘’निलय को घर में इतना खुश तो मैंने कभी देखा ही नहीं जब कि हम इतने तरह-तरह के गेम्स, खिलौने ला-लाकर देते रहते हैं। हमेशा गुमसुम बना रहता है। हाँ, सुबह स्कूल जाते समय जल्दी-जल्दी तैयार होता है और जाने की जल्दी मचाये रहता है।‘’
मैंने कहा , ‘’ उसे खेल-कूद के लिए साथी चाहिए। अकेला बच्चा कब तक बड़ों की कंपनी इंजवाय करेगा। कभी-कभार निकलने दीजिये न या हम-उम्र बच्चों को बुलाने दीजिये। ‘’
वे कुछ नहीं बोलीं। चुपचाप चाय पीती रहीं। लगता था,जैसे कहीं गुम हो गई हैं। फिर मैंने देखा कि उनका चेहरा चमक उठा है। आँखों में एक निश्चय उभर आया है। वे उठ खड़ी हुईं।
‘’अच्छा अब चलूँगी।‘’
बच्चों को पुकारा, ‘’तुम लोग यहाँ बहुत खेल चुके। आओ, अब सब लोग – आयशा, शमशाद, तुम लोग भी मेरे यहाँ चलो । निलय की नई इलेक्ट्रानिक ट्रेन आई है । उससे खेलना। बाद में ड्रायवर तुम लोगों को तुम्हारे घर छोड़ देगा। क्यों नूरजहाँ, बच्चों को इजाजत दोगी न ?’’
और उनके ड्रायवर ने पांचों बच्चो सहित गाड़ी उनकी हवेली की ओर मोड़ दी।

डा. उर्मिला जैन
जन्म : ४ मार्च १९४० आरा (बिहार)
शिक्षा : एम.ए. (स्वर्णपदक), डी.फिल. इलाहाबाद
प्रकाशन : आधुनिक हिन्दी काव्य में क्रान्ति की विचारधाराएँ
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हिंदी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
प्रसारण : बी.बी.सी. तथा आकाशवाणी से
सम्पादन : नई आजादी (मासिक), जैन बालादर्श (मासिक)
सम्प्रति : रचना उत्सव (अनियमित)
विदेश यात्रा : अबतक एशिया, अफ्रीका,यूरोप और अमेरिका के ५० से अधिक देशों की यात्रा
संपर्क : ‘सन्दर्भ’, ८ए बंद रोड, एलेनगंज, इलाहाबाद – २११००२
67 Inkerman Drive, Hazlemere, High Wycombe HP15 7JJ Bucks. U.K.
दूरभाष : ०५३२-२४६६७८२ मो. ०९४१५३४७३५१
ई-मेल : mrjain150@gmail.com

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