कहानी समकालीनः मन के तार-स्नेह गोस्वामी

दरवाजे पर दस्तक हुई और चिरपरिचित तालियों की ध्वनि भी तैरती हुई पूरे वातावरण को आंदोलित करने लगी ।
अरे भाई , घर वालो , कोई है कि नहीं घर में । दरवाजा खोलो , नहीं तो हथेली मारके तोङ ही डालेगी मैं हां ।
आ री हूँ , आ री हूँ । सीमा घुटनों पर हाथ रख कर उठी और धीरे धीरे चलते हुए मुख्य द्वार पर पहुँचकर दरवाजा खोल दिया ।
दरवाजा खुलते ही उसे परे धकेलती हुई महंत और उसके पीछे पीछे ढोलकिया मंसूर घर में दाखिल हुए ।
आओ बैठो – सीमा ने बरामदे में पङे मूढों की ओर इशारा किया और रसोई में चली गय़ी । मंसूर इधर उधर ताक रहा था ।
मुए , यूं गरदन घुमा घुमा कर क्या ताक रहा है । कभी दीवारें नहीं देखी क्या ?
कहते कहते चादनी ने खुद नजरें घुमाई । एक कोने में रखा है बङा सा मिट्टी का पात्र जिसमें प्लास्टिक के असली दिखते सूरजमुखी के फूल लगे है । एक तरफ है बुकरैक जिसमें हिंदी अंग्रेजी की तीस चालीस किताबें करीने से सजी हैं । बुकरैक के साथ ही रखा गया है कलात्मक पाट में पाम का सुंदर सा पेङ । बीचोबीच पङा है यह मूढा सैट । साधारण पर कुछ खास दिखती सज्जा । सामने की दीवार पर हाथ से बनी पेंटिंग टंगी है ।
एक औरत सबको पीठ किए , कमर पर बच्चा और सिर पर भारी बोझ लिए , नंगे पांव कंटीले रास्ते पर बढी चली जा रही है । अभी वह यह सब देखने में व्यस्त थी कि सीमा एक ट्रै में पानी , कुछ स्नैक और दूसरे हाथ में रूहआफजा का जग लिए आ पहुँची – लो आंटी , यह स्नैकस खाकर पानी पिओ फिर यह रुहआफजा तुम्हारे लिए ।
बिटिया तूने इस हालत में इतनी तकलीफ क्यों की । बस पानी पी कर हम चले जाते । वो क्या है न , हमारी रेखा गई थी मौहल्ले में चक्कर काटने । लगता है कोई अमिताभ बच्चन मिल गया होगा तो वहीं नैन मटक्का कर रही होगी । हम धूप में खङे खङे थक गये थे । ऊपर से गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा था तो सोचा यहां दो घङी आराम कर लें । रेखा के आते ही चल पङेंगे ।
सही किया आपने , गरमी में धूप में तपना जरूरी है क्या , बीमार हो जाती आप । लीजिए शरबत पीजिए ।
जीती रहो बच्ची , अल्लाह तुझे हमेशा नजरे बद से बचाए । कृष्ण जी तेरे सारे दुख हर लें । मातारानी तेरी हर मुराद पूरी करे । जुग जुग जिओ । सुहाग बना रहे । गोदी में दो दो लाल खिलाए ।
आप इधर पंजाब की तो लगती नहीं । आपकी बोली तो यू पी वाली है । मेरठ सहारनपुर की ठेठ खङी बोली ।
सही पैचाना तूने । मैं तो रूङकी की हूँ । पैदा हुई तो बाप और चाचा तो उसी समय बाहर फेंक आने को थे । दादी नमक चटाने को तैयार पर माँ ने जैसे तैसे रो धो कर मुझे बचा लिया था । ऐसे ही कभी प्यार और कभी नफरत झेलती हुई मैं छ सात साल की हुई थी कि पङोस में किसी के घर बेटा पैदा हुआ । वहाँ ये खुसरे नाचने आए हुए थे । मैं भी धीरे से सरक गई थी उनका नाच देखने । उन्होंने पता नहीं कैसे मुझे पहचान लिया था । वे मेरे साथ मेरे घर आए थे । माँ बहुत रोई चिल्लाई । मुझे अपनी छाती से चिपका लिया पर बापू नहीं पसीजा । उसने मुझे उन लोगों के हवाले कर दिया । मैं उनके साथ जाना नहीं चाहती थी पर जाना पङा । उनके डेरे पर आकर मैं कई दिन तक रोती रही थी । दो दिन तो पानी तक नहीं पिया था फिर हार कर हालात से समझौता कर लिया । माँ मुझे सपना कहती थी और बाकी सब लोग सिप्पू । यहाँ डेरे पर माई ने नया नाम दिया चांदनी । अब तो यहीं नाम मेरी पहचान है । – उसकी आँखें नम हो आई थी पर उसने ऊपर देखते हुए अपने आँसू सुखा लिए ।
मैं आप को बुआ बोलूं । मैं भी रुङकी की हूँ । गणेश चौंक के साथ वाली गली में हमारा घर है ।
अरे वाह , क्यों नहीं भतीजी । आज से मैं तेरी बुआ ।
तब तक इन दोनों को खोजती हुई रेखा भी चली आई थी ।
ये मेरी भतीजी है रेखा । मैं साथ न रहूँ तो भी इसका ख्याल रखना ।
तेरा आठवां महीना है न ।
हां जी
अपना ध्यान रखना । मैं आती जाती रहूँगी । उसने अपनी पोटली में से थोङा गुङ और पाँच सौ रुपए उसकी हथेली पर ऱख सिर पर हाथ रख दिया ।
ये नहीं बुआ । मैं ये पैसे नहीं ले सकती ।
एक तरफ बुआ कहती है और दूसरी ओर शगुण से मना करती है । पगली जिंदगी में पहली बार रिश्ता बनाया है । किसी ने प्यार से बुआ कहा है तो उसका मान तो रखने दो ।
वह चली गई थी । सीमा कितनी देर तक दरवाजा पकङे खङी उन्हें जाते हुए देखती रही फिर भीतर आकर पैसे आलमारी में रख दिए और गुङ रसोई में ।
अगले दिन वह तीन बजे फिर आई । एक बहुत सुंदर कंबल लेकर ।
ले बिटिया ये तेरे लिए ।
नहीं बुआ , आज मैं यह सब नहीं लूंगी । अभी कल ही तो पाँच सौ का कङकता हुआ नोट देकर गई हो ।
उसने पोटली में से एक सिल्क का सूट निकाला – तो ये ले ले ।
बुआ कहा न , मुझे यह सब नहीं चाहिए ।
बिटिया तुझे लग रहा होगा , एक हिजङे से ये सब …। पर सच जानना, यह सब शुभ का है । बधाई में अगले ने अपनी खुशी से दिया है । इसे लेने में कोई दोष नहीं लगेगा । वहम न कर ।
मुझे असमंजस में देख उसने एक विकल्प दिया – ऐसा कर ,तू मुझे सौ रुपए दे दे । पचास कंबल के और पचास सूट के । फिर तो तुझे कोई ऐतराज नहीं होगा ।
बुआ यह तो अकेला सूट ही सात आठ सौ का होगा । तू इतना सस्ता बेच रही है ।
हमारी बङी महंत तो बीस रुपए में भी दे देती है । गरीब लोग बेटी की शादी के लिए या किसी फंक्शन में पहनने के लिए अक्सर खरीद कर ले जाते हैं ।
सीमा ने चार सौ रुपए देकर दोनों चीजें खरीद ली थी । शाम को सुधीर आए तो उसने उन्हें चांदनी की बातें बता कर सूट और कंबल दिखाए तो वे देर तक हंसते और मजाक बनाते रहे । भई वाह ये यू पी वालों की कैसे कैसे लोगों से रिश्तेदारियां हैं ।
चांदनी बुआ का घर में आना बदस्तूर जारी रहा । जब भी उन्हें कोई सुंदर व महंगा सूट या कंबल बधाई में मिलता वे उसे थामे दौङी चली आती और बिना दिए जाती ही नहीं । साथ ही लाती छिटपुट हिदायतों की पोटली जो उसने इधर उधर से सुन कर पूछ कर इकट्ठा की होती । अक्सर वह अपनी माँ को याद करके आँसू बहा लेती । कभी कभी अपने भाई बहनों की बातें भी याद कर लेती । कभी कहती – तू अब मायके जाएगी तो मेरे घर जाकर उनका हाल पता कर आना । उन्हें मेरे बारे में मत बताना । उनके लिए तो मैं मर गई फिर थोङी देर बाद कह बैठती –रहने दे , तू कहां ढूढेगी उन्हें । मुझे तो गली मौहल्ला कुछ भी याद नहीं है । पिछले जन्म की बातें हैं वे सब ।
करते करते नौवां महीना बीत गया और नन्हें रिशु ने दुनिया में कदम रखा । वह अस्पताल में ही उसे देखने पहुँच गई थी । बलाएं ली थी उसने मेरी और मेरे बेटे की और जिस दिन वह सवा महीने का हुआ , उस दिन दलबल के साथ आई थी वह घर । बेटे के लिए दो प्यारे से झबले और नरम सा तौलिया लेकर । छम छम करती पांव में घुंघरु बांध जी भर कर नाची थी वह मेरे आंगन में । रेखा बार बार कहती – अम्मा थक जाओगी , बस करो अब । अब मैं नाचती हूँ ।
तो मरी तुझे मैंने कब रोका है , तू भी नाच । आज मैं बहुत खुश हूँ । नानी बन गई हूँ मैं नानी ।
और वह ठुमके लगाती हुई फिर से नाचने लग जाती । उसके साथ आई रेखा चमेली , और पारो नाच कर थक जाती तो बैठ कर गाने गाने लगती पर चांदनी के पैर तो मानो थकना भूल ही गए थे । एक गाना खत्म होता तो दूसरा छेङ लेती । लगातार चार घंटे जम कर नाची थी वह । मेरी सासु माँ ने एक थाली भर गुङ और उस पर ग्यारह सौ रुपए शगुण के रख कर उसे देने चाहे तो उसने हाथ जोङ दिए थे – नहीं बहन जी ये मेरी बेटी का ससुराल है । सीमा को मैंने अपनी भतीजी बनाया है । मैं अपनी बेटी के घर से पैसे कैसे ले सकती हूँ । आप ये गुङ और एक रुपया शगुण दे दीजिए । उसने अपना आंचल फैला दिया था । सास जी ने उसकी झोली में गुङ डाला तो उसने थाली से एक रुपया उठा कर माथे से लगा लिया था । हजारों दुआएं दी थी उसने पूरे परिवार को ।
वह तो उसने जिद करके चारों साथ आए लोगों को हजार हजार रुपए कपङों के नाम के थमा दिए पर बुआ ने लेने से साफ मना कर दिया था । पनीली आँखों से घर में छींटा देती हुई चाँदनी इस समय सचमुच इस परिवार की कोई बुजुर्ग ही दिख रही थी ।
उन लोगों के जाते ही सास जी ने पूछा था – बहु तुम तो जमना नगर की हो फिर ये रुङकी वाली कहानी ?
कुछ नहीं माँ, अपनेपन को तरसती रूह को थोङा सा सुकून देने की कोशिश की है बस- आँसू पौछते हुए सीमा ने कहा ।


स्नेह गोस्वामी
विभिन्न संस्थाओं में अध्यापन । अंत में केन्द्रीय विद्यालय संगठन से सेवा निवृत्त । आजकल स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें – स्वप्नभंग ( काव्य संग्रह )उठो नीलांजन ( कथा संग्रह ), वह जो नहीं कहा (लघुकथा संग्रह) तुम्हे पहाङ होना है (कहानी संग्रह ) होना एक शहर का ( लघुकथा संग्रह) कथा चलती रहे ( लघुकथा संग्रह ) भापे की चाची (उपन्यास) सोई तकदीर की मलिकाऐं ( उपन्यास प्रकाशनाधीन ) शब्द की हांडी में समवेदनाएं ( लघुकथा संकलन ) सङक और गलियां ( लघुकविता संग्रह ) पच्चीस साझा संग्रहों में रचनाएं शामिल ।
स्टोरी मिरर , प्रतिलिपि.काम और मातृभारती पर रचनाएँ प्रकाशित
हिंदी चेतना , आधुनिक साहित्य , नवल , समांतर , द्वीपलहरी , किस्सा कोताह , दृष्टि , लघुकथा कलश , पलाश , शुभतारिका , प्राची , पङाव और पङताल जैसी कई पत्रिकाओं और दैनिक ट्रिब्यून और पंजाब केसरी अंग भारत , परिवेश मेल जैसे समाचारपत्रों में रचनाएँ प्रकाशित
स्नेह गोस्वामी का रचना संसार नाम से यू टयूब चैनल । आकाशवाणी बठिंडा , एफ. एम बठिंडा और आकाशवाणी जालंधर से रचनाएँ समय समय पर प्रसारित ।
सम्मान – शब्द साधक पुरुस्कार भाषा विभाग पटियाला से , लघुकथा सेवी पुरुस्कार हरियाणा प्रादेशिक साहित्य सम्मेलन एवं लघुकथा अकादमी से , निर्मला स्मृति हिंदी साहित्य गौरव सम्मान निर्मला स्मृति साहित्यिक समिति , किस्सा कोताह कृति सम्मान ऊषा प्रभाकर लघुकथा सम्मान एवं अन्य कई सम्मान ।
पता – स्नेह गोस्वामी 78 कमला नेहरू नगर बठिंडा पंजाब 151001
चलभाष 8054958004

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