वर्षा ऋतु का प्रारम्भ। पिछले कुछ दिनों से गर्मी के साथ ठंडी फुहारों की आँख मिचौली जारी थी। पतित—पावनी गंगा के प्रवाहमान जल को चीरते हुए एक किश्ती इस पार खेयाघाट की ओर बढ़ रही थी। माँझी ने किनारा निकट देखा, चप्पू को लहरियों से उठाया और किश्ती के किनारे लम्बा डाल कर खड़ा हो गया। मौसम में आर्द्र तपन व्याप्त थी परन्तु घाट के किनारे विशाल छतनारे पीपल के तले शीतलता का साम्राज्य था। वहाँ चबूतरे पर कई लोग किश्ती की प्रतीक्षा में ऊँघ रहे थे। इनमें से कई जूट, कागज और रबड़—मिल के मजदूर या फिर सब्जी बेचनेवाली औरतें हैं जो नियमित रूप से गंगा के इस पार हाट में आया करती हैं।
मंद-मंद बहते समीर का आनंद लेते हुए रवि भी खेयाघाट से कुछ हटकर गंगा के किनारे श्मशान को जाती सीढ़ियों पर अमलतास के नीचे बैठा अलसा रहा था। अर्थशास्त्र की पुस्तक उसके बगल में पड़ी हुई थी। उसके बंधुगण उससे तनिक परे हटकर हरी घास पर बैठे ताश खेलने में निमग्न थे। उनके दिन की अड्डेबाजी यहीं श्मशान के किनारे जमती है। विशेषकर रवि को यह स्थान कुछ अधिक ही शांत और तनाव-मुक्तहारी लगता है। घंटों बैठकर वह गंगा में तैरती किश्तियों को दूर तक ओझल होते हुए निहारता रहता है। वह अपने बेकार मित्रों में सबसे अलग है, हर मायने में – बुद्धि में, शिक्षा में, तर्क-वितर्क में और समस्याओं को सुलझाने में परंतु इधर विगत कुछ महीनों से उसे किसी भी समस्या का समाधान पाने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। एक सबसे बड़ी समस्या है बेकारी, जिसने उसे बिल्कुल उदासीन बना रखा है। उसके ये सभी मित्र भी बेकार हैं, पर सब मस्त हैं। उनका मानना है कि किसी छोटी-मोटी मिल में कुली तो लग ही जाएँगे, पर रवि के लिए वे भी चिंतित हैं। उनके पढ़े-लिखे शिक्षित मित्र को कम-से-कम एक अदद कुर्सी वाली नौकरी तो मिलनी ही चाहिए। अभी तक तीन बार ही तो इंटरव्यू में असफल रहा है वह, पर उन्हें विश्वास है कि रवि एक दिन बाज़ी अवश्य मार ले जाएगा। बेकार और आवारा कहे जाने वाले उसके मित्र उसे दिलासा देते — ‘‘तोर निश्चोइ होबे रे। चेष्टा छाड़बी ना।’ (तुम निश्चय ही सफल होगे, प्रयत्न न छोड़ना)
उनका रवि पर अटूट विश्वास था। उनसे प्रोत्साहन मिलने पर रवि भी मन-ही-मन दृढ़ हो जाता, ‘प्रयत्न तो जारी रहेगा मेरे भाई।’
रवि घर आता तो बंद कमरे में उसका दम घुटने लगता। इन दिनों वह आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था। घर पर पढ़ने में उसका जी नहीं लगता, उस पर फैक्टरी में पसीना बहाकर मजदूरी करनेवाले पिता की नज़र में वह आवारा छोकरों का लीडर था, इसलिए गंगा किनारे इस श्मशान के निकट ही अपनी शिक्षा की अलख जगाता, मानो जीवन की हर समस्याओं का समाधान यहीं हो। मित्रों ने तो साफ-साफ कह दिया था, ‘देखो मेरे भाई, तूने यहीं पढ़ना है तो पढ़। हम तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करेंगे, पर तू भी अपना ध्यान पुस्तक में ही रखना।’
जयंत ने एक दिन गम्भीर होकर कहा था, ‘‘देख भाई, तोर ऊपर आमादेर बहु आशा।’’ (तुझ पर हमारी ढेर सारी आशाएँ टिकी हैं)।
तब से रवि परीक्षा की तैयारी में जी-जान से जुट गया। उसे जो कुछ चाहिए होता, उसे मित्र उसे वहीं पहुँचा देते। दिन में तकरीबन चार-पाँच घंटे रवि यहीं पढ़ता।
वह आँखें मूंदे पढ़ाई की थकान मिटा रहा था, तभी जयंत की गुनगुनाहट उसके कानों तक पहुँची। आँखें खोलीं तो देखा कि आसमान में कादम्बिनी इठला रही है। रवि का हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उसने ताश फेंटते जयंत से अनुरोध किया, ‘‘होये जाक।’ (हो जाय)।
इस पर जयंत ने एक नन्हे-मुन्ने की तरह अपनी एक अंगुली डुलाई, ‘‘कृपया हिन्दी में।’’
एक अर्से से रवि के बंगाली मित्रों में हिन्दी में वार्तालाप का भूत सवार था। रवि के सान्निध्य में उन्होंने हिन्दी के उच्चारण में आशातीत सफलता अर्जित कर ली थी। इसके पहले तक वे हिन्दी फिल्मों के संवादों को रटने-भर तक सीमित थे। अब वे बांग्ला कम और हिन्दी अधिक बोलने का प्रयास करते। रवि भी एक समर्पित गुरु की भांति उनकी हिन्दी निखारता रहता। जयंत की एक विशेषता यह थी कि स्कूली पढ़ाई से शीध्र ही मुँह फेरने के बावजूद उसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के ढेर सारे गीत कंठस्थ थे। इनमें से कुछ उसने स्थानीय क्लब ‘जातीय क्रीड़ा, संस्कृति ओ शक्ति संघ’ में सप्ताह में दो दिन बच्चों को संगीत शिक्षा देनेवाली युवती नंदिता की सहायता से धुनें बनाकर संगीतबद्ध कर ली थीं। यह बात दीगर है कि एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त नंदिता के दिल के तार इसी संगीत के कारण जयंत जैसे बेकार और आवारा मार्का से बंध गए थे।
‘क्षमा चाहता हूं जयंत बाबू ! आपसे प्रार्थना है कि कृपया अपनी गुनगुनाहट को शब्दों की माला में पिरोएँ।’ रवि ने जानबूझकर अलंकृत भाषा का प्रयोग किया। जयंत आशय समझकर मुस्कुराया पर बबलू, शौकत और प्रसून अकबका गए।
जयंत ने खुले आसमान की ओर एक नज़र डाली और गाने लगा —
‘मन मोर मेघेर संगी
उड़े चले दिग्दिगंतरे पाने
निःसीम शून्ये श्रावणवर्षण संगीते
रिमिझिम रिमिझिम रिमिझिम।’
गीत समाप्त होते ही रवि ने कहा, ‘जयंत, मैं तुम्हारी तरह सुर में गा तो नहीं सकता, पर मुझे भी रविबाबू का एक गीत स्मरण हो आया है।‘
शौकत चिल्लाया, ‘फिर देर किस बात की?’
रवि ने आवृत्ति की —
‘बदल मेघे मादल बाजे
गुरु गुरु गगन माझे
तारि गंभीर रोले आमार हृदय दोले
आपन सुरे आपनि भोले।
कोथाय छिलो गहन प्राणे
गोपन व्यथा गोपन गाने
आजि सकल गाए श्यामल बनेर छाए
छड़िए गेलो सकलखाने गाने-गाने।‘
गीत समाप्त होने पर सबने तालियों से उसे नवाज़ा। बबलू भी मचल उठा। उसने एक हिन्दी फिल्म के गीत का मुखड़े को सुर दे दिया– ‘कहां से आए बदरा…हो…घुलता जाए कजरा…।’
फिर उसने रवि से पूछा ,‘भाई, इस वर्षा ऋतु पर तुम्हारे हिमाचल का भी कोई गीत है क्या?’
इस पर रवि ने कहा, ‘क्यों नहीं है। हर भाषा और हर बोली में वर्षा गीत हैं।’
‘तो सुना दो कोई।’ सभी एक सुर में बोल उठे।
‘माँ से सुनना। उसे एक बहुत प्यारा हिमाचल का लोकगीत याद है। इन दिनों गुनगुनाती रहती है।’
बबलू को माँ की प्यार-भरी पहाड़ी झिड़कियाँ भी बहुत अच्छी लगती हैं। वह तो अक्सर एक शब्द ही दुहराता रहता है, ‘नखसमी।’
दरअसल हुआ यह था कि एक दिन बबलू रवि से मिलने उसके घर गया था तो उस समय उसकी माँ ने रसोई से एक बिल्ली को खदेड़ते हुए कहा था, ‘नखसमी, अन्दरा जो इ दौड़दी।’
बबलू को रवि की मां की यह मीठी झिड़की इतनी पसंद आई कि वह जब-तब इसकी फरमाइश कर देता, ‘मासी माँ, आपने बिड़ाल के लिए जो बोला था, हमको भी बोलिए।’
माँ और रवि दोनों हँस पड़ते। रवि ने उसे समझाया कि यह झिड़की स्त्रीलिंग में है, पर वह नहीं मानता और झिड़की सुनकर ही माँ का पीछा छोड़ता। बबलू को हिमाचल प्रदेश से बड़ा लगाव था हालाँकि उसे अब तक वहाँ जाने का अवसर नहीं मिला था। उसके बाबा (पिताजी) फैक्टरी के अपने सहकर्मियों के साथ एक बार शिमला और कुल्लू-मनाली घूम आए थे। तब से जब भी रवि उन्हें कहीं दिख जाता, वे मुस्कुराकर पूछते, ‘‘रवि, कबे जाच्छो पाहाड़े?’’ (पहाड़ पर कब जा रहे हो?)
फिर वे कहते कि बबलू को भी साथ ले जाना। वहीं अपनी देखरेख में सेब के किसी बाग में लगवा देना।
रवि हँस देता। अब उन्हें कैसे समझाए कि उसका गाँव जिस इलाके में है, वहाँ सिर्फ मक्की और गेहूं की फसल होती है और वह भी गुजारे लायक।
पाँचों मित्र वर्षाऋतु के स्वागत-गान में मशगूल थे कि तभी रंजन मुखर्जी के दस वर्षीय पोते ने घाट की सीढ़ियों पर से हाँक लगायी – ‘ओ रवि दा, बाबलू दा… दादू मारा गेछेन’ (दादाजी गुज़र गए)।
शांत वातावरण में एक आवाज़ गूँजी और सबकी निगाहें उस ओर उठ गईं। सबने एक दूजे को मन-ही-मन इशारा किया। प्रसून ने पत्ते समेटे। जयंत पाँव पसार कर लेट गया।
रवि ने कहा, ‘चलो, चलते हैं।’
‘चलो भाई।’ जयंत ने उठकर अंगड़ाई ली।
‘दादू को अचानक क्या हो गया?’
‘बुढ़ापे की उम्र, … और क्या होगा?’
‘इतन बूढ़े भी तो नहीं थे।’
‘परन्तु साला था एक नम्बर का चोर। घूस खा खाकर मोटा हो चला था।’ प्रसून की आवाज थी।
रवि ने टोका, ‘क्या इस समय ये बातें करना ज़रूरी है?’
‘क्यों, तुम्हारे साथ भी तो एक दिन लड़ रहा था और तुम्हें ‘सुअर कोथाकार’ (सुअर कहीं का ) कहा था।’
‘गुस्से में लोग क्या-क्या नहीं कह देते हैं?’
‘पर यार, तुम्हारी तो कोई गलती भी नहीं थी। तुमने तो सिर्फ एक असहाय का पक्ष लिया था। ठीक ही तो था, कहाँ से बढ़े हुए मकान का किराया चुकाता वह गरीब निमाई जिसे कुछ पैसों की ही आय है। फिर आज तक कुंडु गली में किसी ने एक पैसा भी मकान का किराया नहीं बढ़ाया तो उसकी जुर्रत कैसे हुई?’
रवि ने कहा, ‘पर उन्होंने बाद में अपनी गलती स्वीकार कर ली थी और निमाई का किराया भी नहीं बढ़ाया।’
‘भये, शुधुमात्र भये (डर के कारण)’, जयंत ने कहा — ‘उन्हें पता था कि उन्होंने ऐसा किया तो हम आवारा-बदमाश उनका जीना हराम कर देंगे। वरना रवि, आज तक वह हर गली-मुहल्ले में तुम्हारी बदनामी नहीं करता फिरता। देखा नहीं, पिछली बार इंटरव्यू में तुम्हारे असफल होने पर उन्होंने गोपाल दा से क्या कहा था, ‘एई लम्पटदेर के चाकरी देवे?’ (इन लम्पटों को कौन नौकरी देगा भला?)।
‘अच्छा छोड़ो ये बेकार की बातें।’ रवि ने कहा, ‘जाकर सारा काम जल्दी से संभालना है।’
उसने बबलू को पुस्तक थमाते हुए कहा, ‘जा, घर पर इसे रखकर जल्दी लौट आ।’
रंजन मुखर्जी के भव्य मकान के बाहर मुहल्ले के लोग जमा होने लगे थे। अन्दर से औरतों के रोने की घुटी-घुटी आवाजों के बीच एक तेज पुरुष-क्रंदन उभर रहा था। वह रंजन मुखर्जी का बेटा पार्थ मुखर्जी था। रंजन मुखर्जी ने उसके लिए अच्छा-खासा व्यवसाय जमा तो दिया था, पर वह अभी तक इसमें कुशल नहीं हो पाया था। पिता का साया सिर पर से उठने का उसे ही अधिक कष्ट हुआ था। पहले पिताजी बहुत हद तक बहुत-कुछ संभाल लेते थे।
रवि ने प्रसून को अपने साथ आने का इशारा किया। वे दोनों जाकर पार्थ को सांत्वना देने लगे। पार्थ जो पहले किसी और के कंधे पर सिर रखे जोर-जोर से रो रहा था, अब रवि से लिपट गया और पहले से भी अधिक ऊँचे सुर में रोने लगा।
वहाँ पहुँच चुका बबलू मन-ही-मन बुड़़बुड़ाया, ‘साला माघी’(औरत कहीं का)।
उसके जी में आ रहा था कि जाकर उसे दो-चार चांटे जड़ दे और कहे, ‘अबे, औरतों की तरह क्यों रोये जा रहा है? बाप ही तो मरा है और वह भी अच्छी-खासी उम्र भोगकर। तेरा बाप ही नहीं मरा पहली बार। प्रसून को देख, जब दस साल का था तभी मर गए थे बाबा उसके। कुछ नहीं छोड़कर गए थे उसके लिए। तेरा बाप तो लाखों छोड़ गया है, साथ में एक व्यवसाय भी जमा गया है। हमें देख साले, कुछ रुपयों की नौकरी की लालसा-भर है हमारी।’
रवि पार्थ को किसी दूसरे कंधे के हवाले कर बबलू के पास आया और उससे कहा, ‘तुमलोग श्मशान-यात्रा की तैयारी करो।’
इस पर बबलू फट पड़ा, ‘जानते तो हो यार, आदमी की यह अन्तिम यात्रा भी बिना माल-कौड़ी के पूरी नहीं होती। कुछ पैसे-वैसे दिला दे।’
रवि घर के अंदर गया और कुछ पैसे ले आया। रुपया मिलते ही उसके सभी मित्र मुस्तैदी से शव-यात्रा की तैयारी में जुट गए। इतनी शीघ्रता और कुशलता से यह कार्य संपन्न हुआ मानो उन्हें इस कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त हो। सच कहा जाय तो उन्हें ऐसे सभी कामों का अनुभव था जो परिवारवालों से असंभव हो उठता। मुहल्ले में गम का माहौल हो या खुशी का, ये आवारा और बेकार का लेबल चिपकाकर घूमनेवाले युवक तटस्थ भाव से सारा काम निबटा देते। अभी उस दिन की ही बात है जब अमित की गर्भवती युवा पत्नी की दशा बिगड़ी तो वे स्वयं उसे अस्पताल ले गए थे। अमित को तो बाप बनने की खबर दफ्तर से लौटने पर मिली थी।
सफेद कफन में लिपटा और फूलों से सजा रंजन मुखर्जी का शव चार कंधों पर जा रहा था। ये चार कंधे रवि, जयंत, बबलू और प्रसून के थे। उनके चेहरे पर किसी तरह का विषाद, दुःख या अफसोस की परछाईं नहीं थी। अपनी धुन में वे राम का सत्य नाम ‘हरि बोल…बोल हरि’ करते जा रहे थे। पार्थ का रूदन अब बंद हो चुका था। शव के पीछे मुहल्ले के कुछ लोग थे जो आपस में बतियाते जा रहे थे। निश्चय ही ये बातें दिवंगत रंजन की प्रशंसा में हो रही होंगी। ऐसे थे, वैसे थे वे। यह किया, वो किया।
गंगा किनारे घाट पर चिता सजा दी गई। अन्तिम—क्रिया संपन्न हो रही थी। इधर बबलू, जयंत और प्रसून घाट की सीढ़ियों पर बैठकर बीड़ियाँ फूँकने लगे और उधर चिता में अग्नि धधक उठी। रवि, पार्थ के समीप था। शौकत घाट पर किश्ती का इंतज़ार करते उसे ‘खबरेर कागज’ का नाम पाए भिखारी के पास चला गया। उन्हीं के मुहल्ले में यह भिखारी रोज आने-जाने वालों से भीख माँगता है और सारा दिन अखबार पढ़ता रहता है। शौकत को उसने बताया कि एक रुपए का कागजी नोट फिर से चालू होने वाला है और भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बदला जा रहा है।
थोड़ी देर बाद सभी श्मशान से लौट गए। रवि सहित वे पाँचों वहीं बैठे रहे। रवि की निगाह चिता पर थी जो काफी जल चुकी थी। शायद वह जीवन-मृत्यु की पहेली में उलझ गया था।
बबलू ने उससे कहा, ‘अन्तिम संस्कार के खर्च के लिए जो पैसे मिले थे, उसमें से कुछ बचे होंगे यार। एक देशी की बोतल मंगा लेते हैं। पार्थ का हिसाब-किताब बाद में कर देंगे।’
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