कहानी समकालीनः बाइस्कोप-शैल अग्रवाल

कितनी यादें जमा कर लेते हैं हम एक ही जीवन में-पानी सी बहती हैं ये हमारे इर्दगिर्द और पत्थर से ही तो अटके रह जाते हैं हम इनमें, ‘ ए विधि, तू मेरे साथ रिक्शे में चलेगी। पैट्रोल की महक बर्दाश्त नहीं होती अब मुझसे।’ गणेश जी जैसी सात-आठ महीने की गर्भवती जीजी के संग टेढ़े-मेढ़े होकर रिक्शे में बैठना आसान तो नहीं था पर विधि बैठ ही जाती थी कैसे भी। गरमी, जाड़ा, बरसात, जब भी जीजी आतीं, हर साल की यही कहानी थी। हर बार बड़ा सा पेट लिए और फिर एक और नया भान्जा या भान्जी।
‘ऐसा क्यों?’-पूछने पर हंस पड़तीं, ‘क्या बताऊँ तुझे, बड़ी होगी तब खुद ही समझ जाएगी।’
बड़े रोचक होते थे जीजी के किस्से भी। याद आते ही आँखों के आगे मानो एक पूरी फिल्म ही चल पड़ती है।
वैसे भी हंसती गाती, तरह-तरह के दृश्य दिखाती, पुलकाती, उलझाती तो कभी रुलाती यह जिन्दगी एक सिनेमा ही तो है, जिसमें कभी तो हम पूरे डूबे खुद अभिनय कर रहे होते हैं, तो कभी मात्र एक दर्शक। छोटी ही थी वह, ग्यारह -बारह से ज्यादा की नहीं। और उस दिन स्कूल से लौटते ही, बस्ता कंधे पर लटकाए-लटकाए सीढ़ियों पर से ही चीखी थी कसकर- ‘अरे, यह बन्दर का बच्चा मेरे कमरे में कैसे आ गया?’
अब उसकी आँखों में भय तैर रहा था- फटी किताब-कौपी का, टूटी पेंसिल और आधे चबाए ब्रशों का। सब कुछ जमीन पर अस्त-व्यस्त बिखरा दिखने लगा था, हालांकि बच्चा वैसे ही शांत बैठा था अपनी उसी जगह पर। कैसे और क्या करे, सोच ही रही थी कि दौड़ती-सी जीजी आईं और लपककर उसे गोदी में उठा लिया।
विधि का मुंह खुला का खुला ही रह गया फिर तो- जिसे वह बंदर का बच्चा समझ बैठी थी, वह तो जीजी की रोली निकली,अकेली और निर्वस्त्र, तुरंत नहाई-धोई, कुछ ऐसे आगे को झुकी-झुकी-सी बैठी,थी कि उसे दूर से बिना बात ही भ्रम हो गया। अब विधि शर्मिंदा थी। माफी मांगे, इसके पहले ही जीजी उबल पड़ीं,
‘आँखें हैं या बटन? छह महीने की भान्जी बन्दर का बच्चा नजर आती है तुझे! नहलाकर लाई थी मैं अभी। जरा कपड़े और पाउडर लेने क्या गई, कि पूरा घर ही सिर पर उठा लिया तूने तो। भगवान करे, खूब टेढ़ी-मेढ़ी औलाद मिले तुझे, फिर पूछूंगी किसका बच्चा है, आदमी का या..?’
जीजी आहत थीं और विधि आकंठ ग्लानि से भरी हुई।
‘ कपड़े न सही, अगर आसपास एकाध तकिया और कुशन भी लगा देतीं आप तो यह भ्रम न होता मुझे। जो हो गया सो हो गया! मुंह से निकली बात और तरकस से छूटे तीर को वापस भी तो नहीं लाया जा सकता, जीजी!‘
अब जीजी के आगे हाथ जोड़े नतमस्तक खड़ी थी वह। ज्यादातर जीजी का पारा जितनी जल्दी चढ़ता है, उतनी ही जल्दी उतर भी जाता है। पर उस शाम ऐसा नहीं हुआ। विधि इंतजार करती रही और जीजी घंटे-दो घंटे तक उससे नहीं ही बोलीं। फिर शांत होते-ही पाउडर लगी, खूब सजी-संवरी और महकती-किलकती रोली को उसे पकड़ा गईं,‘अब शाम भर तू ही इसे रख, इसके साथ खेल। यही सजा है तेरी।’
जीजी फरमान सुनाकर लौट चुकी थीं। अब शाम भर वाकई में उसे रोली के साथ ही रहना था। खाना-पीना होमवर्क सब उसे गोदी में लिए लिए-लिए ही करने थे। जरूरत पड़ी तो नैपी और पौटी भी। कोई माफी नहीं थी। कान पकड़कर माफी मांगने पर भी नहीं, फ्रिज से जीजी की पसंदीदा आइसक्रीम लाकर उन्हें खिलाने पर भी नहीं। जीजी अब आराम से पीढ़े पर बालों में नारियल का तेल लगवाने बैठ गई थीं, फिर मुन्नी से बाल धुलवाएंगी और रगड़-रगड़कर दही बेसन से पीठ साफ करवाएंगी। अगले दो-तीन घंटे तक अब कोई उन्हें वहाँ से उठा नहीं सकता था, रोली भी नहीं। जैसे वह आहत होने पर कामकाज में व्यस्त होकर सब भूल पाती है, जीजी घंटों अपने शरीर की सेवा कर और करवाकर ही चैन पाती हैं। फिर ऐसी गलतियाँ और नोंक-झोंक तो आए दिन ही होती रहती थीं उनके बीच। दोनों ही बेहद स्वाभिमानी और अपनी-अपनी मर्जी की मालिक।
विधि की सौंदर्य-प्रिय आंखों को मुश्किल से ही कुछ जंच पाता था और जीजी के लिए उनके बच्चे, हर माँ की तरह ही, पूरी कायनात की सर्वाधिक खूबसूरत कृतियाँ थीं। विधि को कल-सी याद है वह बात, जब सजी-सजाई रोली को गोदी में पकड़ाकर पूछा था जीजी ने -‘कैसी लग रही है मेरी रोली? ‘और उसके ‘ठीक-ठीक’ कहने पर, पूरे तीन घंटे नहीं बोली थीं।
याद आते ही उस दुःख की घड़ी में भी एक तिरछी, क्षीण मुस्कान आ गई थी विधि के होठों पर- कैसे-कैसे चित्र दिखाती हैं ये यादें भी। सच में यह जिन्दगी एक बाइस्कोप ही तो, एक झूठा सच। जिसे हम पूरी सच्चाई के साथ जीते तो हैं, बस, अपने बस में ही नहीं कुछ।…
पर जीजी ने कभी नहीं माना था जिन्दगी को झूठ। सच से भी ज्यादा सच थी जिन्दगी उनके लिए, इतना और ऐसा प्यार करती थीं वह इससे और अपनों से। असल में प्यार भी तो एक अजीब-सी शह ही है एक बार लग जाए, तो चाहे या न चाहे आदमी हर चीज से प्यार करने लग जाता है- पशु, पक्षी, प्रकृति, हर चीज से… जिन्दगी की उलझी-सुलझी, टेढ़ी-मेढ़ी और कांटों भरी डगर तक से।
‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचनः’, रोज ही सुबह-सुबह जोर-जोर से गीता पढ़ा करती थीं जीजी और श्लोक का अर्थ समझ में आते ही, पटक भी देती थीं उसे एक ओर। उठ खड़ी होती थीं तुरंत-‘ झूठ, सब झूठ! यह कैसे संभव है ! काम करते ही हम इसलिए हैं कि उसका फल मिले!’
तब होमवर्क करती नन्न्हू से उनकी उलझन न देखी जाती और वह उन्हें तुरंत समझाने भी बैठ जाती- ‘ठीक। पर सोचो जीजी, कृष्ण जी भी तो यही समझा रहे हैं गीता में। कर्म तो हमें करते ही रहना चाहिए। उससे छुटकारा कहाँ ? बस, अपने मित्र को फालतू के दुख से बचाना चाहते थे वह। फल तो मिलेगा ही कर्म का। परन्तु परिणाम सदा इच्छानुसार हो यह भी तो जरूरी नहीं। जरूरी नहीं कि हमेशा कर्म और इच्छा के अनुसार ही फल मिले। निराशा से बचना है तो जो हाथ में नहीं, उसके बारे में सोचो ही मत। उसकी इच्छा करना तो बिल्कुल ही निरर्थक और व्यर्थ है।’
‘ बाप रे, इतना ज्ञान! मेरी नन्ही सी जादू की बंडल, कहाँ से आया यह सब तेरे पास? पिछले जनम में साधु महात्मा थी क्या!’ और वह बाहों में भर लेतीं जीजी नन्हू को।
और तब और जोश में आई विधि कुछ और ज्ञान बांटने लग जाती-‘सोचो जीजी, बाहर कोई आम खा रहा है, आम आपको भी अच्छा लगता है, पर आम आपके पास नहीं है, तो क्या आपका मन ललचाएगा, नहीं न। बस यही बात है यहाँ पर भी।’
‘क्यों नहीं?परन्तु मैं तो तुरंत नौकर को भेजकर बाजार से आम मंगवा लूंगी। इंतजार नहीं करूँगी आम का।’
‘और मान लो अगर बाजार में आम खतम हो गए हों तो, या फिर आपके पास पैसे..तब, तब जीजी?’
और तब नन्हू को अपने चेहरे पर प्यार के गीले चुम्बनों के साथ एकाध आंसुओं की गरमाहट भी महसूस होने लगती। लबालब प्यार करती थीं जीजी जिन्दगी से, मुठ्ठी में जकड़कर और अपनी ही शर्तों पर। मजाल है कि कहीं कोई जरा-सी भी सिलवट रह जाए। हर समस्या का समाधान था उनके पास। एक बेटे के तीसरी बेटी हो गई तो दूसरे बेटे का बेटा पकड़ा दिया नवप्रसूता बहू को।
‘ले इसे पाल। आज से यह तेरा ही बेटा है।’
मज़ाल क्या, जो परिवार में कोई भी उनकी बात टाल सके। बड़े के पास दो बेटी और एक बेटा थे अब और छोटे के पास दो बेटे और एक बेटी। सब खुश। भूल गए सब कि भगवान ने एक को तीन बेटे और एक को तीन बेटियाँ दी थीं। हर काम उनकी मर्जी से ही तो होता था परिवार में। अगर जीजी बड़ों में बच्चा थीं तो बिधि बच्चे के रूप में पूरी बुजुर्ग। पर उनका आकर्यषण और आपसी जुड़ाव यह विलोम ही था और चुम्बकीय शक्ति भी शायद । कई समानतायें भी थीं उनके बीच। एक ही परिवार में जन्मी, खूब लाड़-प्यार से पली बढ़ी, और दोनों ही बाइस्कोप की शौकीन। यथार्थ से अधिक कल्पना की दुनिया में बिचरने वाली, कवि मन और दार्शनिक स्वभाव…व्यवहारिक होते हुए भी पूर्णतः अव्यवहारिक।
जीजी को तो हर शाम बाइस्कोप देखना ही था, और बचपन से ही विधि को भी। इंतजार करती थी वह भी रोज काले परदे में मुंह छुपाकर खो जाने का। एक आंख बंद और एक आंख खोलकर, रंग-बिरंगे मायाजाल में डूबने को बेचैन, देखती जो थी रोज ही बच्चे बूढ़े सभी को लाइन लगाए अपने पीछे खड़े हुए। आज की तरह का जमाना तो था नहीं वह कि सोफे पर लेटे-लेटे ही नन्हे से रिमोट के बटन दबाकर ही चाहे जितने बाइस्कोप देख लो। कितने रूप बदले हैं इस बाइस्कोप ने भी हमारी तरह ही! पर आज भी तो वही हाल है दीवानों का…’ नई फिल्म रिलीज हुई है, पहले दिन न देखी तो मजा ही क्या?’- हर हफ्ते ही कहा करती थीं जीजी ।
फिल्में तो पलपल ही रिलीज होती रहती हैं कभी थियेटर में तो कभी आँखों में।…
जीजी, नटखट, निश्चल, सहज और सरल.. नन्ही सी बच्ची जो अपनी बरफ की चुस्की तक का पूरा आनंद लेने में भी सब कुछ भूल जाया करती थीं, कैसे तीखे-क़ड़वे जीवन को पचा पातीं! अपनी ही दुनिया में रहतीं, पर कहीं कोई बनावट नहीं। लाग-लगाव नहीं। पसंद, नापसंद, जो मन में, वही होठों पर। पर खुद विधि भी तो ऐसी ही है- चचेरी थी तो क्या, बहन थी उनकी आखिर। ऐसी दीदी की मौत की खबर साधारण कैसे हो सकती थी विधि के लिए, पूरा हिलाकर रख दिया था उसे।
अच्छी-खासी थीं, अचानक बोलीं जी घबरा रहा है। और डाक्टर आए, तबतक सब खतम भी। ..माँ-सहेली-और बड़ी बहन…थ्री इन वन थीं जीजी। पापा कहा करते थे सुख में भले ही न पहुंचो, पर दुख में तो हर हाल में पहुँचना जरूरी है। फिर वह कैसे न जाती…पापा की कोई बात भला कब टाल पाई है, उनके गुजरने के बीस साल बाद भी नहीं।
एकबार फिर मुस्कुराती जीजी को सामने खड़ी देखकर आंसू पोंछती खुद भी तो मुस्कुरा पड़ी थी विधि-किसने कहा कि जीजी अब नहीं हैं। यादों के बाइस्कोप दीदी की बातों के, उनके संग-साथ गुजारे पलों के दृश्य पर दृश्य दिखाए जा रहे थे उसे और वह उन्ही में डूबी, कभी मुस्कुराती, तो कभी आंसू पोंछती, ट्रेन के पहियों की खड़खड़ और धकधक को रात के उस सन्नाटे में भी अपने अंदर-ही अंदर सोखे जा रही थी। हर गुदगुदाहट, हर कसक में बारबार डूबती-उबरती, रातभर जगी, गुमसुम बैठी-बैठी ही तो सुबह का इंतजार करती रही थी विधि। इंतज़ार दीदी के शहर का, उस स्टेशन का, जहाँ उतरना था उसे और दीदी के प्रति अपना आखिरी फर्ज निभाना था।
स्टेशन पर गाड़ी ज्यादा देर नहीं रुकी, पर जल्दी-जल्दी एक हड़बड़ाहट में कैसे भी खुद को संभालती विधि गाड़ी से उतर ही ली। घर ज्यादा दूर नहीं था स्टेशन से। सड़क के अगले मोड़ पर ही, बांई गली का पहला बंगला।
सोहम ने कहा भी था गाड़ी भेजने को पर उसी ने मना कर दिया था। कपड़े का एक हलका सा थैला ही तो था कंधे पर। फिर जब मन पर टनों बोझ हो तो इस जरा से बोझ की क्या गिनती… खुद को ही जाने किस अपराध की सजा देना चाहती थी विधि।
जीजी के लिए आखिरी वक्त कुछ न कर पाने का अहसास एक कांटे की तरह अड़ा था और पैदल चलना चाहती थी विधि, इसी बहाने सुबह की सैर भी हो जाएगी और शायद सबसे मिलने से पहले थोड़ा खुद को सुलझा भी पाए वह!
सुबह के छह ही बजे थे अभी पर सामने का सूरज आँखों पर तेज चमक रहा था । अपने ही खयालों में गुम अपनी ही परछांई पर पैर रखती आगे को बढ़ती जा रही थी विधि, मानो खुद से ही जूझ रही हो, या फिर जुड़ रही थी शायद, बाहर से नहीं, खुद अपने ही अंतर्मन से। ..
परछाई साथ चलती रही चुप-चुप जैसे कि विधि चली जा रही थी गुमसुम ।
थकती तो थोड़ी आड़ी-तिरछी हो लेती, थैले को दांये कंधे से बांये कंधे पर रख लेती। गली में कुछ भी नहीं बदला था । सब कुछ स्थाई रह सकता है, बस एक आदमी ही नहीं, कुछ भी तो साथ नहीं चलता…ये अपनी कही जाने वाली परछाइयाँ भी तो वक्त के साथ कोण बदल लेती हैं। कभी-कभी तो छुपा तक ले जाती हैं खुद को, विशेषकर तब जब अंधेरा निगलने को तैयार बैठा हो। हर बात, हर परिस्थिति के कई कोण होते हैं जैसे खुद हमारे अपने इस रोज़ देखे चेहरे के भी, कोई सुहाना तो कोई भद्दा… इन आँखों के भी, आँखों में बसे प्रेम के भी । कभी आंसू तो कभी चमक बनकर तैरती बेसुमार यादों थीं, जो कभी गाल, तो कभी होठ, कभी-कभी तो वक्ष तक गिरकर भिगोए ही जा रहे थीं।
जीजी की आवाज यादों में भी उतनी ही स्पष्ट और रसभरी थी जितनी कि उस दिन, जब कैरम खेलते हुए हंस-हँसकर वह रोचक घटना सुनाई थी उन्होंने- ‘पूरा घर फूलों से सजा हुआ था और ए.सी. की ठंडी हवा ने घर के कोने-कोने को गेंदे, गुलाब और चमेली से गमका रखा था। अगले दिन पापा की लाडली विधि की शादी जो थी। बरात तो एक दिन पहले ही, भोर तड़के ही आ पहुँची थी और सुना खूब जोरदार खातिरदारी भी हुई थी। पांच तारा होटल में ले जाने से पहले बारात का ठंडी गुलाब-जल की फुहार और हेलीकौप्टर से बरसती टनों गुलाब की पत्तियों से स्वागत किया गया था। हमारे जमाने में पर ऐसा कुछ भी नहीं था,नन्हू।’
जीजी की आँखों में बच्चों जैसा कौतुक और बेताबी थी अपनी बात कहने की- ‘बर्फ की सिल्ली और मिट्टी की सुराही, बस यही दो सहारे थे, गर्मी से निजात पाने को तब तो। वह भी जब चाहे तब बर्फ़ पिघल जाती, सुराही लुढ़क जाती। जेठ का ही महीना था वह भी जब हमारी भी शादी हुई थी। अगले दिन खूब तपती दोपहरीी में विदा हुई थी। स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी और मैं घुटने तक घूँघट काढे गरमी से परेशान, भारी भरकम शादी के जोड़े में कैद ।
टीन के उस डिब्बे के अंदर बाहर से भी ज्यादा गरमी थी। पंखा तक हवा नहीं मानो आग उगल रहा था। अनजाना अकेला अजनबियों के साथ का वह सफर और उतना ही रहस्यमय व अनजाना मेरा भविष्य। तपते सूरज से भी ज्यादा मेरा माथा तपता रहा। बहुत बेचैन थी मैं-कैसा होगा वह जिसके संग यूँ बांध दिया गया है मुझे? कैसा होगा वह घर और बर, जिसे मुझे अपनाना है और पूरी उम्र गुजारनी है जिनके साथ अब! तुरंत ही यह ख्याल भी आता मन में और थोड़ी-बहुत तसल्ली भी दे जाता कि प्यार करते हैं अम्मा-बाबा, कोई ऐसे-वैसे के संग तो नहीं ही बांधेंगे! लाडो हूँ उनकी, कोख से जनी!
बस एक यही बात दुःख दे रही थी मुझे कि हम बेटियों का मन, जीवन, पानी सा क्यों होता है? और ऐसे क्यों बड़ा किया जाता है हमें कि मानो अपना कोई रूप रंग ही नहीं। बचपन से एक ही सीख- जहाँ रहो, उसी में ढल जाओ। और मजाल क्या जो बेटी मां-बाप से एक सवाल तक पूछ ले अपने वर और घर के बारे में। सब माँ-बाप और भगवान की मर्जी। ‘
माँ सी उम्र की और रिश्ते में बड़ी बहन… हजार किस्से थे , हजार यादें थीं विधि के पास।
उम्र की बीस-बाईस साल की खाई के बावजूद भी दोस्ती का ही रिश्ता अधिक था उनके बीच। कुछ भी बांट लेती थीं जीजी उसके साथ और कुछ भी फरमा भी देती थीं। और विधि बजाती भी थी उनका हर हुक्म पूरी वफादारी के साथ, कुछ ऐसा चुम्बकीय व्यक्तित्व था जीजी का और उनकी अंतहीन रसभरी बातों का ।…
‘तो फिर आगे क्या हुआ!’-उस दिन भी पूछा था विधि ने लहककर।
‘अरे, फिर आगे और क्या होता! वही पुरानी कहानी! एक था राजा, एक थी रानी। दोनों की बन गई एक नई कहानी।’
जीजी तब बच्चों-सी मुस्करा पड़ी थी मोती-से चमकते दांतों के साथ। बताती हूँ, बताती हूँ। थोड़ा तो सब्र कर- खयालों के जिन्न चकर-घिन्नी की तरह घुमा रहे थे मुझे। घूंघट के अंदर ही कभी सूखे गले को तर करती, तो कभी माथे का पसीना पोंछती, बैठी तो रही मैं, पर अंदर-ही अंदर बावली हुई जा रही थी। अभी तो गाड़ी स्टेशन से चली भी नहीं थी, आगे पूरे बारह घंटे का सफर और था। ‘कैसे कटेगा, कहीं इस घूंघट में ही घुटकर मर गई तो?’
‘सब कुछ बस एक अनुमान, एक आशंका ही तो थी मेरे लिए। देखा-सुना तो कुछ भी नहीं था, अपना दूल्हा तक नहीं ! जब और बर्दाश्त नहीं हुआ तो गठरी-सी ही, कैसे भी धीरे-से सरक कर खिड़की की तरफ घूम गई और गोटा जड़ा वह भारी भरकम घूँघट भी ऊपर कर लिया था जरा-सा, इतना कि कुछ देख सकूँ, थोड़ी हवा आ सके। पसीने से लथपथ चेहरे पर जब ताजी हवा लगी तो पता चला कि जिन्दा हूँ, मरी नहीं हूँ अभी। तभी मेरी नजर उस पर पड़ी। बाहर ठीक सामने खडा वह नौजवान सुदर्शन था और अच्छे संपन्न परिवार का भी लग रहा था। लम्बा-चोड़ा, सांवला सलोना। तीखे नाक-नक्श, घुंघराले बाल, मुस्कराती, चुहल करती-सी आँखें, पर अंदाज कुछ-कुछ बिगड़े नवाबों से…दीन दुनिया से बेखबर और सिगरेट पीने में मस्त। कश पर कश लेता और धुँए के छल्ले छोड़ता चला जा रहा था वह। जाने किन सुहाने सपनों में खोया हुआ था उस वक्त।
‘देखो तो, कैसा इतरा रहा है खुद पर! क्यों नहीं, है भी तो कितना बांका। पर मैं जिसके संग बांध दी गई हूँ, वह भी क्या ऐसा ही दिखता होगा- बिल्कुल ही गौन विथ द विंड के क्लार्क गेबल की तरह! इससे थोड़ा कम होा, तो भी चलेगा। सब कुछ तो नहीं मिल जाता सभी को। पर इतनी घामड़ कैसे रही मैं कि सात फेरे लिए, संग बैठी रही पीढ़े पर पूरे तीन घंटे और बस अपने पैरों को ही घूरती रही । चेहरा तक नहीं देखा उसका। चेहरा तो छोड़ो कद काठी का भी पता नहीं चला था मुझे तो। कहीं कुबड़ा हुआ तो…चलने में लंगड़ाता हो तो, कैसे सहेलियों के आगे मुँह दिखलाऊँगी! अपनी-अपनी किस्मत है यह भी, बंध गई अब तो इसी के साथ सात जनमों के लिए।’ बाबरी सी बस जाने क्या-क्या सोचे जा रही थी मैं उस वक्त। सात जनम…मेरे होठों से बरबस एक आह निकल गई और कमबख्त ने तुरंत सुन भी ली। यही नहीं हिमाकत तो देखो, आँखें मिलते ही धुंए का एक छल्ला मुंह में पूरा भरकर मेरी तरफ फेंक दिया। और तो और -ऐसा रसिया कि आँख तक मारने से नहीं चूका। पर सच बताऊं मेरे तो तन-बदन में मानो आग ही लग गई थी। अब क्या फायदा मुझ पर यूँ डोरे डालने से! रईसजादा होगा तो अपने घर का। हूर का परा होगा तो भी ठीक , पर मैं तो अब किसी और की हो चुकी । अंधा है क्या? दिख नहीं रहा यह शादी का जोड़ा, लम्बी भरी मेरी सिन्दूरी मांग! मैंने घूंघट वापस खींच लिया, परन्तु तभी ग़ज़ब हुआ, नन्हू। गाड़ी के सीटी देते ही वह दौड़कर हमारे डिब्बे की ओर लपका और अंदर चढ़ आया। मेरा जी अब जोर-जोर से धड़क रहा था। यह आवारा तो अब जूते-चप्पलों की मार से ही सही होगा! और तो और बड़ा ग़ज़ब तो तब हुआ जब छोटी ननद मैथली, जो पल भर को भी मेरा पल्ला नहीं छोड़ रही थी , तुरंत ही उठ खड़ी हुई और यहाँ बैठो भैया- कहकर उसे मेरी बगल में बिठा दिया।
और अचानक उस एक अनहोने पल में मेरी तो मानो पूरी लौटरी ही निकल आई थी, विधि।
वह वक्त ऐसा ही तो था हमारा, दबा-ढका…पूरी तरह से रहस्यमय। फिर भी रोमांच और प्यार से भरा हुआ ।..घूँघट की तरह धीरे-धीरे खुलता, और कच्ची शराब-सा वक्त के साथ-साथ और मादक, और महकता चला जाता। यह जीवन भी तो ऐसा ही है …कभी धूप , कभी छाया, गजब प्रभु तेरी माया… मेरी नन्हू को भी ढेरों खुशियाँ देना, भगवान।’
जीजी अब मेरे बाल सहला रही थीं।
‘भगवान ने इतना दिया है मुझे कि आंचल बारबार छोटा पड़ जाता है। तू भी खुशियों के लिए झोली खुली रखना हमेशा नन्हू। हर पल को जी भरकर जीना। एक ही जिन्दगी मिलती है हमें।’
विधि को याद है कि दीदी के गोरे गाल कश्मीरी सेव से लाल हो जाते थे, जब वह ज्यादा आवेग में बोलती थीं और आंखें बेहद पनीली मानो कितनी यादें कितने सपने तैर रहे हों उनमें।
साल भर पहले की ही तो बात थी जब जीजाजी ने उसे बताया था फोन पर-‘ ग़ज़ब की होशियार है तुम्हारी बहन। कुछ भी नहीं छुपा पाता हूँ मैं इससे। बताया नहीं था मैंने कि बीच वाले चाचा गुजर गए हैं। सोचा अभी बीमारी से उठी है, बर्दाश्त नहीं कर पाएगी । पर डले पर लिपटी चाचा की खद्दर की धोती और लड़्डू-कचौरी से ही सब जान-समझ गई थी और घंटों रोती-सुबकती मुझसे लड़ती रही थी-बता कर जाते, तो मैं भी सबसे गले मिलकर रो आती। यूँ अकेली-अकेली तो न घुटती। चाचा थे मेरे, आखिर! पर मेरे तो चचिया ससुर ही नहीं पिता भी थे वह। बारह वर्ष का था जब पिता जी गुजरे थे और हमारा लम्बा चौड़ा कारोबार, पूरा मुनीम ने अपने कब्जे में कर लिया था। सब कुछ होते हुए भी पैसे-पैसे को मोहताज हो गए थे हम। तब यही चाचा आकर तीन महीने रहे थे मेरे साथ। उन्होंने ही सब संभाला था मेरा घर-परिवार,व्यापार और उसके साथ-साथ मुझे भी।
बहुत इज्जत करता हूँ बीच वाले चाचा जी की मैं, नन्हू। ‘
‘ सही ही कह रही थीं दीदी। पर पापा के गुजरने पर मैं भी गई थी जीजाजी । और किसी से भी गले मिलकर नहीं रोई। आंसू मानो बरफ की सिल्ली बनकर जम गए थे सीने के अंदर। ऐसी कोई आंच भी तो होनी चाहिए गले लगाने को, जो पिघला सके दुख को। ऐसी थीं, तो बस एक हमारी दीदी ही-कुछ भी कह लो,कुछ भी बांट लो । सब धोने और भस्म करने की सामर्थ रखने वाली, झरने सी शीतल और तेज लपट सी गरम भी।-अब आपको ही क्या बताने बैठ गई मैं भी!’- कहकर भारी मन सें फोन रख दिया था विधि ने, मानो सारी दुखती याद को झुठलाना चाहती थी, झुठला नहीं पा रही थी। उनसे दूर तो अवश्य ही भागना चाहती थी।
यादों में खोई विधि कब जीजी के दरवाजे पर पहुँच गई, पता ही नहीं चला। पहली ही बेल पर दरवाजा खुल गया था। दरबान ने सलाम करके थैला अपने कंधे पर टांग लिया था और पीछे-पीछे चल रहा था। सूनी सकरी ड्राइव पर बिछी पत्थर की वे पट्टियाँ बेहद साफ और ताजा धुली नजर आ रही थीं और तेज धूप में जगमग कर रही थीं मानो उसी के स्वागत में विशेष रूप से साफ करवाया गया था उन्हें। पर बेहद उदास लगीं। एक चिड़िया तक नहीं चहक रही थी बगीचे में। और अगर चहक भी रही हो तो उसे तो नहीं ही सुनाई दिया कुछ, कुछ ऐसी गुम थी वह अपने ही खयालों में – कितनी दूर हो जाती हैं बेटियाँ भी शादी के बाद, कहीं पैदा हों और दूर कहीं और किसी और परिवार में जिएँ- मरें।- फिर भी ना तो वह घर अपना और ना ही यह घर, सब छूट जाता है! जैसे रूमाल सिर्फ आंसू पोंछ सकता है, दुख नहीं।
पर वह कोशिश करती रही आँसू और दुःख दोनों को ही पोंछने की-कम-से-कम बच्चों-सी विह्वल तो ना ही दिखे, सोहम और जीजा जी के आगे। आंसू पोंछने आई है । उनका दुख बांटने, उन्हें अपने दुख में बहाने नहीं। पर दुख का वह एहसास बेलगाम बहते आंसुओं के साथ और भी तेज होता चला गया। बटुए के अंदर की पॉकेट में छुपा कर रखे पैसों की तरह ही सहेजना चाहा उसने दुख को पर उगते सूरज-सा दुख अब उसके पूरे चेहरे पर फैल चुका था। जल्दी-जल्दी गीले रूमाल से ही आंसुओं के एक-एक निशान को चेहरे से रगड़-रगड़कर पोंछ डाला उसने और तेज कदमों से बड़ी हिम्मत के साथ देहलीज पार करती, बैठकी में दाखिल हो ही गई विधि।
देखते ही सामने तख्त पर लेटे जीजाजी उठ बैठे और सोफे पर बैठे भान्जे ने तुरंत ही उठकर पैर छुए उसके। फिर उसे वहाँ उनके पास बैठने का इशारा करता. पास वाले दूसरे सोफे पर जा बैठा था।
अब वहाँ मरघटे-सा सन्नाटा था। कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। फोन पर ही सोहम् ने बता दिया था -‘मौसी पापा को पता न चलने पाए कि मम्मी नहीं रहीं। बहुत बीमार हैं पापा। बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे यह खबर। हमने कह रखा है कि दीदी के घर गई हैं। उनकी बेटी की तबीयत जरा गड़बड है, दूसरा हाथ चाहिए उन्हे मदद को। ठीक होते ही लौट आएंगी। जल्दी ही लौट आयेंगीं।’
और कितने झूठ, कब तक बहलायेंगे ये एक दूसरे को। याद आया जब किसी गहरे दुःख के पल में जीजी ने उसे बताया था-‘जानती है नन्हू -मैं हर दम क्यों इतनी खिलखिलाती, बच्चों-सी चहकती रहती हूँ? क्योंकि तेरे जीजाजी चाहते हैं कि मैं खुश रहूँ हमेशा और मैं चाहती हूँ कि वह खुश रहें हमेशा। इन्सान इतना नेक और ख्याल रखने वाला है कि अपने आप आदमी ढलता चला जाता है मर्जी के मुताबिक। कब मैं इतनी इनकी हो गई कि खुद अपनी ही न रही, मुझे पता ही न चला, नन्हू। पर आज मैं रोऊंगी जी भर के तेरे कंधे पर सिर रखकर रोऊंगी। प्यार में हंसने को ही नहीं , एक कंधा रोने को भी तो चाहिए ही। सिर्फ बाइस्कोप ही तो नहीं है यह जिन्दगी। ‘
क्यों हम खुश नहीं रह पाते, आदमी के चोले के सारे सुख चाहते और बटोरते हुए, पंछी जैसे स्वच्छंद जीवन की चाह रखते हैं।
आँखें बचाकर एकबार फिर विधि ने अपनी नम हो आई आँखें पोंछ लीं।
सोहम और वह अब कभी एक दूसरे का हाथ सहलाते तो कभी बेवजह एक नर्वस मुस्कुराहट एक दूसरे की तरफ फेंक देते। दोनों ही बातचीत का कोई सिला ढूंढ रहे थे-पर चुप्पी तोड़ी जीजाजी की खनकती हंसी ने -‘ मौसी पर लाड़ खतम हो गया हो तो अब छम्मन चाचा के यहाँ से खस्ता कचौड़ी, जलेबी और ताजा रबड़ी के नाश्ते का इंतजाम करो सोहम। देख नहीं रहे- कैसा चुहिया-सा मुंह निकल आया है एक ही रात के सफर में ।’
‘जी पापा।’ कहकर सोहम तुरंत उठ खड़ा हुआ, मानो बाहर जाने का रास्ता ढूंढ रहा हो।
पर जाते-जाते पलटकर बोला-‘ आप भी तबतक फ्रेश हो लो, मौसी। मैं बस यूँ गया और आया।’
उठी तो जीजाजी ने हाथ पकड़कर रोक लिया उसे -‘बैठ नन्हू, मेरे पास बैठ। जैसे-तैसे भगवान ने यह मौका दिया है। आगे जाने हमें मिले या न मिले!’
‘कैसी बात करते हो आप भी!’- मुंह पर हाथ रखकर तब बीच में ही रोक दिया था विधि ने उन्हें।
कहने को ही साली थी विधि, मानते जीजाजी उसे नेहा की तरह अपनी बेटी ही थे। साल भर छोटी ही थी विधि नेहा से।
पर जीजी ने कभी छोटा नहीं माना उसे। रुकती नही थीं। अच्छा-बुरा सब बांट कर ही दम लेतीं। वह भी मित्रता के पूरे अधिकार के साथ। सारा मन हलका कर लेती थीं जीजी उसके सामने। उसे भी अच्छा लगता था उनका वह बेबाक अपनापन। सहेली-कम-मां-कम- बहन -थ्री इन वन थीं उसकी भी तो जीजी। कहने को ताई की बेटी पर माँ जाई क्या जुड़वा-सी… स्वभाव में, काफी कुछ खुद उसके जैसी ही।
‘ देख कितनी लापरवाह निकली तेरी जीजी। ‘ जीजाजी ने ही तंद्रा तोड़ी – ‘ मुझसे तो कहा था कि फिल्म देखने चलेंगे और बिना बताए ही दिल्ली जा बैठी। परवाह ही नहीं रह गई मेरी। ऐसी रम गई है अपने नाती-पोतों मे कि लौटने का नाम ही नहीं ले रही। मैं अगर जरा-सी बात न मानूँ तो दुछत्ती में रूठकर जा बैठेगी और अगर मनाने जाऊं तो छिटक कर तुरंत नीचे भी आ जाएगी। आसान तो नहीं उसे मनाना। मुश्किल से ही हाथ आती है। पर अभी तो कबसे हमारी कोई नोंक-झोंक ही नहीं हुई। हुई भी हो तो मुझे तो याद नहीं। उसे तो सब याद रहता है पर, फिर कैसे याद नहीं आता मैं ! महीने भर से अधिक हो गया गए। आने दो, साफ-साफ कह दूंगा -चलेंगे तो अब संग-संग , वरना कोई कहीं नहीं जाएगा। ‘
‘हाँ जीजाजी ‘-कहकर विधि ने उनके बहते आंसू तो पोंछ दिए पर अपने बहते आंसुओं को संभालना मुश्किल हो चला था उसके लिए।
अब तू क्यों रोने बैठ गई?
‘ हम सब पिक्चर देखने चलें? वही, जो आप जीजी के संग देखना चाह रहे थे!’
‘सच विधि !’
जीजाजी बच्चों की तरह निरीह दिख रहे थे, मानो ऐसी संभावना ही नहीं थी और विधि के मन में एक दूसरा ही द्वंद चल पड़ा था-इनकी फिल्म तो कब की खतम हो चुकी है। यह तो बस वह बाइस्कोप है, जिसे हम देख तो सकते हैं, हंस और रो भी सकते हैं साथ-साथ , परन्तु सूत्रधार हम नहीं। हमारे बस में कुछ नहीं, न तो आरंभ और नाही अंत…! एक सच को छुपाने को आखिर कितने और झूठ बोलेंगे? क्या संभव भी है! आखिर कब तक जीजा जी को यूँ ही बहला पायेंगे वे, झूठ-मूठ ठगते रहेंगे?
…सच झूठ का तो पता नहीं, पर इस बाइस्कोप में अभिनय भी तो इतना आसान नहीं, विशेषकर तब जब बेहद विश्वसनीय अभिनय ही करना हो। और अभिनय करना तो कभी आया ही नहीं उसे।
फिर क्यों आई है वह यहाँ पर- जीजी की खातिर? पर जीजी तो रही ही नहीं! तो फिर क्या सिर्फ अपनी खातिर? या फिर बस एक रस्म और रिति-रिवाज को निभाना है, उस फर्ज की खातिर! परन्तु फर्ज भी कैसा, जब कोई परिणाम ही नहीं है इसका!
प्यार अगर जीवन-मीत है तो मौत को भी तो निर्मम बधिक होते देर नहीं लगती!…
विधि को लगा कि वह वक्त के काले कपड़े से ढकी वापस वही नन्ही बच्ची बन गई है, जिसे सच-झूठ का फर्क ही नहीं पता है… बचपन में देखे आकार बदलते उन कांच के रंग–बिरंगे रूप पर ताली तो बजा सकती थी वह आज भी, पर हाथ में लेकर उस चुभन को चूमना, उसे बर्दाश्त करना तो कभी सीखा ही नहीं था।
टूटे-बिखरे और बेहद बूढ़े-से दिखते जीजाजी को वहीं बैठा छोड़कर, कुछ पल के लिए ही सही, बाइस्कोप के तिलिस्म से बाहर निकल आई थी विधि।
और तब एक आश्चर्य और हुआ, बाहर लौन में अब उसे न सिर्फ़ चिड़िया दिख रही थीं, अपितु उनकी चहचह तक साफ़ सुनाई दे रही थी।…

शैल अग्रवाल
बरमिंघम, यू.के.
shailagrawal@hotmail.com

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