टन-टन टन-टन टन-टन… ‘दुबई हिन्द गुरुधाम’ विद्यालय के प्रांगण में बज रही छुट्टी की विद्युत चालित घंटी पूरे विद्यालय में साफ़ सुनी जा सकती थी। दिन भर कक्षाएँ शुरु होने और समाप्त होने की घंटी या प्रार्थना की घंटी सुनने में चाहे कोई चूक भी जाए, पर यह दो बजे वाली एकमात्र ऐसी घंटी थी, जिसका इंतज़ार प्रार्थना सभा के बाद से ही विद्यार्थी तो क्या शिक्षक भी बेसब्री से करते थे। केवल प्राचार्य को ही यह घंटी न सुहाती थी।
“मधु! ओ मधु! बधाई हो!” विद्यालय के सभागृह से गुजरती निहारिका ने पीछे से आवाज़ लगाई। संभवत: मधुलिका शोर में उसकी आवाज़ सुन न पाई हो अंत: अपनी गति कुछ और तीव्र कर उत्साही डग भरती क्षणांश में ही वह उसके साथ कदम ताल मिलाने लगी।
“धन्यवाद निहारिका!” मधुलिका ने निहारिका के बढ़े हुए हाथ से हाथ मिलाया पर साथ ही सिर नीचे कर गर्दन दूसरी दिशा में घुमा ली। निहारिका की चक्रव्यूहभेदी निगाहों से बचने का मधुलिका का यह पहला प्रयत्न नहीं था।
निहारिका को देखते ही चहक उठने वाली मधुलिका आज इतनी बड़ी उपलब्धि की बधाई स्वीकारते हुए अन्यमनस्क थी, यह निहारिका से छिपा न था। घनिष्ठ मित्र न होती तो परवाह भी न करती। परंतु एक वही तो थी जो मधुलिका की मुस्कराहट में भी घावों को चीन्ह लिया करती थी। आज उसे हैरानी अधिक थी। मधुलिका के नेत्रों में उमगते रक्तिम शोले अपूर्व कष्ट की कथा बाँच रहे थे।
“क्या बात है मधु? विद्यालय की सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का ख़िताब मिला है, इतना बड़ा इनाम मिला है। ‘प्रशस्ति-पत्र के लिए लोग तुमसे दावत की फ़रमाइश कर रहे हैं। सब तुम्हें बधाइयाँ देने के लिए ढूँढ रहे हैं और तुम हो कि… …!” सबसे बचती मुँह छिपाती चलती मधुलिका के हृदय के बवंडर में एक कंकरी फेंक उसकी थाह लेने का अघोषित प्रयास निहारिका के शब्द कर रहे थे।
“नहीं ऐसा कुछ नहीं। बस तबीयत थोड़ी ठीक नहीं।” एक पनीली स्मित के साथ निहारिका को अलविदा करते हुए मधुलिका अपनी बस की तरफ़ बढ़ गई। कोई और समय होता तो वह खुशी से निहारिका के गले लग जाती।
निहारिका से हृदय के भेद गुप्त रख पाना मधुलिका के लिए न पहले संभव हो पाया था न अब। दर्द असहनीय था पर पीड़ा को अंदर ही कड़ा जमा दिया गया था कि कहीं उसकी भाप भी बाहर न निकल जाए। विद्यालय की छुट्टी का समय था। अध्यापक-अध्यापिकाएँ, छात्र-छात्राएँ सभी मुख्य द्वार की ओर साथ ही बढ़ रहे थे। ऐसे में भावनाओं और संवेदनाओं के सैलाब को दुपट्टे से सोखना संभव न होगा।
निहारिका एक क्षण को वहीं ठिठकी खड़ी रह गई। खुशियाँ सार्वजनिक सम्पदा होती हैं, उनपर सबका अधिकार होता है। समाज से मिला त्रास भी बाँटा जा सकता है। कुछ वेदनाएँ केवल अपनी सम्पत्ति होते हैं उन्हें सबसे साझा नहीं किया जा सकता। ऐसी वेदनाएँ स्वाभिमान की संरक्षक होती हैं।
मधुलिका यदि पल भर भी निहारिका के पास खड़ी रही होती तो स्नेह की ऊष्मा से अंतस में यत्नपूर्वक दबाया गया ज्वालामुखी फूट पड़ता, लावा बह निकलता। ऐसे में गुप्त संताप निर्बाध झरने सम दूर से ही दिख सकता था। स्त्री की व्यथा और उसकी कथा में अंतर करने में समाज अक्षम है। चुस्की और चस्के; यही विधान है जग का।
शीतल बयार के मौसम में मधुलिका का स्वेदयुक्त वदन घुटन व्यक्त कर रहा था। बधाइयों के शब्द बाणों की बानगी हृदय को ऐसे छलनी किए दे रहे थे, जैसे गीली धरती पर कुदाल के चिह्न। विद्यालय में कैसे उसने स्वयं को संयत किए रखा, बस उसकी आत्मा ही जानती थी। घर पहुँचकर कटे पेड़ सी ढह गई बिस्तर पर। निपट अकेली। आँखों से पतनाले बह निकले। उसके आसुँओं की भाषा समझने वाला एक उसका तकिया ही था वहाँ। यही उसके सम्पूर्ण दुख-सुख का साथी व साक्षी रहा है। यहाँ इस स्थान पर बर्फ़-सी जमी हुई पीड़ा को तहाकर निकल जाने की आज्ञा थी। आँसुओं से गीला तकिया उसके दग्ध हृदय को ठंडक पहुँचाने को उद्यत था।
(2)
अतीत से वर्तमान का सफ़र इतना लम्बा नहीं था जितना ‘मुहाई’ से दुबई तक का। कहाँ अपने अस्तित्व से जूझता-सा, विकास की दिशा में रेंगता-बढ़ता, भारत के नक्शे पर दिखने के लिए संघर्ष करता यह छोटा सा ‘मुहाई’ गाँव और कहाँ यह गगनचुम्बी इमारतों से जगमगाता, नायाब विश्व कीर्तिमानों से सजा-धजा, आलीशान जीवन की दावत देता दुबई। इसे शहर कहा जाए, इमारात या यू.ए.ई. का व्यावसायिक केन्द्र; वास्तविकता तो यह है कि दुनिया के हर बड़े नामी शहर को टक्कर देने वाला यह एकमात्र शहर है, जो शिक्षा, पर्यावरण, तकनीक, व्यापार, पर्यटन, सौन्दर्य, विलास सब में सर्वश्रेष्ठ स्थान व ख्याति प्राप्त कर चुका है। यहाँ की दौड़ती-भागती ज़िंदगी में आकर थम गया था मधुलिका के जीवन का प्रवाह।
अतीत के पल से कितना ही आँखें चुराना चाहा मधुलिका ने परंतु किसी अचिह्नित सेंध से प्रवेश पा, दुर्ग प्राचीर-सी मजबूत दीवारों वाले इस कक्ष में वे आँखों के सामने चील बन मंडराने लगे। उसके जीवित शरीर में ही वे चोंच मार-मार उसे आहत करने लगे। कहीं तो उसके घावों को मरहम देने का काम भी ये गुज़रे पल ही कर रहे थे, तो कहीं नए घाव भी यही दे गए थे। कुछ चिर-यातनाओं के उपचार नवीन यातनाएँ हुआ करती हैं।
(3)
विवाह को पाँच वर्ष बीते थे। दो स्वस्थ सुंदर पुत्रियों की माता थी मधुलिका। मधुलिका वर्मा विवाह के बाद शुद्धोधन सिंह की पत्नी मधुलिका सिंह थी। शुद्धोधन सिंह मुहाई से पाँच किलोमीटर दूर ‘गुरबाई’ कस्बे में उच्च माध्यमिक कक्षाओं को गणित पढ़ाया करता था। मधुलिका अपने ही गाँव ‘मुहाई’ में आठवीं तक के छात्र-छात्राओं को विज्ञान की शिक्षा दिया करती थी। शाम को भी आस-पास की स्त्रियों और (स्कूल न जाने वाली) कन्याओं को अपने आँगन में बिठाकर पढ़ाया करती। औरतें अकसर उसकी पकड़ से छूटने का भरसक प्रयास करतीं। घर में, रसोई में काम का बहाना कर भागने की कोशिश करतीं। पर मधुलिका की तीक्ष्ण निगाहों को कौन धोखा दे सकता था भला! ऐसे में छड़ी का भय दिखाने से भी वह न चूकती। किसी को एक घंटे की क्लास के बीच हिलने तक न देती। यहाँ तक कि प्यास, शौच आदि किसी को फटकने की इजाजत नहीं। कक्षा समाप्त करते ही वह स्वयं सब कन्याओं को नींबू-पानी और स्त्रियों को चाय पिलाया करती। पढ़ाई से कतराने वाले इस स्त्री वर्ग के खिले चेहरों पर मधुलिका के प्रति स्नेह और सम्मान के भाव चाय की प्यालियों में खनका करते थे।
इस वर्ग की कुछ लड़कियाँ उसके विद्यालय जाने के बाद उसकी दोनों बेटियों को सँभालने में उसकी माँ का हाथ बँटाया करती थीं। उनकी कक्षा खत्म होते-होते शुद्धोधन भी आ जाया करता था। शुद्धोधन अतिरिक्त आय के लिए विद्यालय की छुट्टी के बाद कस्बे के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम करता था। जिससे घर की आमदनी में कुछ वृद्धि हो जाती थी।
(4)
मुहाई, महाराष्ट्र के एक गाँव में पली-बड़ी मधुलिका बचपन से ही मेधावी छात्रा थी। जहाँ कुछ ग्राम्य बालाओं ने पाँचवीं-आठवीं के बाद पढ़ाई को तिलांजलि देकर चौका-चूल्हा सँभाल लिया, या कुछ ने दसवीं-बारहवीं पास भी कर ली तो उनके लिए वर खोजने में माता-पिता को नाकों चने चबाने पड़े, जो उनके पछतावे का मुख्य कारण बना; वहाँ मधुलिका बी.एस.सी., बी.एड. फिर एम.एस.सी. एक के बाद एक करती चली गई। गाँव में यह बात सबकी अपच का मुख्य कारण थी। आपस में कानाफूसी होती तो घूम-फिरकर व्यर्थ की गप्पबाज़ी का विषय मधुलिका या उसकी विधवा माँ शकुंतला ही निकलती। कभी यह दबी-छुपी फुसफुसाहट बड़े स्पष्ट स्वर में गूँज बनकर उभरती।
“शकुंतला की मत मारी गई है जो लड़की जात को इतना पढ़ा-लिखा रही है। क्या कलैक्टरनी बनाएगी या थानेदारनी?”
“बाप वैसे ही नहीं है लड़की के सिर पर। इकलौती होने के कारण दिमाग अलग फिर गया है छोरी का।”
“धरती पर पैर नहीं रखती माँ-बेटी। पाँच किलोमीटर दूर पढ़ने जाती है। पता नहीं किस-किस से दोस्ती गाँठ रखी है।”
“मुँह काला करवाएगी किसी दिन। तब समझ आएगा कि लड़की और बछिया तभी तक शरीफ़ हैं जब तक गले में जंजीर पड़ी है। नहीं तो खुले पिंजड़े की चिड़िया की तरह उड़नछू होते देर नहीं लगती।”
माँ शकुंतला ने सारे गाँव से दुश्मनी मोल लेकर मधुलिका को पढ़ाया। आठवीं तक गाँव के विद्यालय में, बारहवीं तक ‘गुरबाई’ कस्बे के विद्यालय में और महाविद्यालय की पढ़ाई के लिए तो घोर तपस्या की थी माँ-बेटी ने। भोर से पूर्व ही मुँह अँधेरे साइकिल पर शकुंतला को बिठाकर मधुलिका गुरबाई कस्बे तक ले जाती। फिर बस स्टैंड पर बने साइकिल स्टैंड में साइकिल खड़ी कर मधुलिका बस पकड़कर दो घंटे का सफर तय कर नाशिक तक ‘महात्मा गाँधी विद्यापीठ’ में पढ़ने जाती।
वापसी में न ताँगा न बैलगाड़ी; शकुंतला पैदल वापस आती। थकी-टूटी शकुंतला सबके तानों-उलाहनों से अपने कानों को संज्ञाशून्य कर गृहस्थी के काम-काज में लिप्त रहती। पुन: शाम को पाँच किलोमीटर पैदल यात्रा कर वह उजाला छँटने से पहले ही कस्बे के साइकिल स्टैंड पर मधुलिका को लेने पहुँच जाती। हारी-बीमारी, आँधी-तूफ़ान कुछ हो, यह क्रम न थमता। शिक्षा के लिए गाँव के बाहर पैर निकालने वाली बहुत सी कन्याओं का हश्र याद आते ही शकुंतला की छाती धड़कने लगती। ग्राम पंचायत में उन्हें हादसा-दुर्घटना, होनी का लिखा करार कर घटना पर पटाक्षेप कर दिया हो किंतु सच्चाई पर पड़े पर्दे के पार संवेदनशील दृष्टि का पहुँच पाना इतना असहज भी न था।
ऐसी अंगरक्षक की-सी सुरक्षा देना नितांत आवश्यक था।
जिस दिन कॉलेज में मधुलिका की कोई अतिरिक्त कक्षा लग जाती, भय और आशंका से शकुंतला का कलेजा फटे ढोल-सा बजता रहता। नाशिक से आने वाली हर बस से उतरने वाली सवारियों में बेटी को खोजती रहती। जब दिन ढलने लगता तो बस के दरवाज़े से सटकर ही एक-एक सवारी को गौर से देखती, बस की सीढ़ी चढ़, सीटों पर झाँकती कि कहीं थकान के मारे सोती ही तो नहीं रह गई हो बस में। जब तक नाशिक की बस से मधुलिका उतर न जाती उसकी साँस गले में अटकी रहती। बस से उतरते ही मधुलिका सड़क पर ही माँ के गले से लिपट जाती। शकुंतला बेटी को इस बचकानी हरकत पर मीठी झिड़कनी देती- “इतनी बड़ी हो गई! बचपना नहीं गया।”
“कहाँ रह गई थी? मेरे प्राण निकले जा रहे थे।”
“कहाँ निकले जा रहे थे तुम्हारे प्राण? तुम्हारे प्राण तो मैं हूँ।”
शकुंतला निरुत्तर हो जाती। चेहरे पर गर्व की आकृति उभरती। बस उसी ललक में हर बार मधुलिका यह हरकत करती।
‘घरेलु हिंसा’ जैसी शब्दावली और कानून यहाँ कोई मायने न रखते थे। लगभग सभी कन्याएँ दिन में कई-कई बार अपनी माँ तो क्या अपनी बड़ी बहनों से भी पिट जाया करती थीं। कभी मटरगश्ती करने पर, तो कभी काम न करने पर और नहीं तो कभी यूँ ही (जब बड़ों को अपनी कुंठा उतारने को कोई न मिलता तो); पिटाई घर-घर में सर्वाधिक प्रचलित मनोरंजक प्रकरण था। मधुलिका की उम्र तक आते-आते वे अपने ससुराल से तंग होकर अपने कई बच्चों के साथ मायके में दिखाई देती थीं।
शकुंतला और मधुलिका का संबंध ‘मुहाई’ में एक अपवाद था। वह माँ-बेटी का कम और दो सखियों जैसा अधिक था। शकुंतला ने मधुलिका को हर ऊँच-नीच की शिक्षा प्रेमपूर्वक दी और सही-गलत में अंतर करना सिखाया। उसकी हर आशा-आकांक्षा को पूरे मनोयोग से पूरा किया। अपने बचपन में पढ़ने से वंचित रही शकुंतला ने इस अभिशाप का साया भी अपनी मधुलिका पर न पड़ने दिया।
(5)
सखी सदैव सखी होती है और माँ सखी होते हुए भी आवश्यकतानुसार माँ में ढलने की पूर्ण क्षमता व अधिकार रखती है, यह बात मधुलिका को भली-भाँति विदित थी। शुद्धोधन के बारे में शकुंतला को सूचना देने का समय आ चुका था। मधुलिका भीषण चिंता में थी कि विजातीय लड़के से विवाह की बात करने पर घर में भूचाल आएगा ही। अब तक माँ की मार से बची रही वह खूनों नहा जाएगी। मधुलिका के मुख से झड़े कुछ अधूरे शब्दों से शकुंतला ने उसके हृदय के भावों को ऐसे ही पढ़ लिया जैसे एक माँ स्लेट पर खिंची आड़ी-तिरछी रेखाओं में भी श्लोकों को उद्धृत कर पाती है।
अब हँसी-ठहाकों के स्थान पर एक अध्वनित अपरिचित नीरवता कुंडली मार कर फुँफकारती रही। शकुंतला घर के काम-काज यथावत करती रही। विचारों की बरसात ने उसे पल भर को भी विचलित नहीं किया। वह बादलों के ऊपर उड़ती चील-सी तटस्थ विचारमग्न रही।
मधुलिका दम साधे, दाँतों से नाखून कुतरती हुई ओट में रहकर माँ को अपलक निहारती। उसका गला सूखा जाता था यह सोचकर कि माँ का इरादा क्या है। माँ के दिमाग में चलने वाली ऊहा-पोह की खटक बाहर न सुन पड़ती थी। वह किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया के लिए स्वयं को मजबूत कर रही थी। वह भूली नहीं थी कि शकुंतला ने उसे आत्मनिर्भर बनाने के लिए कितनी आहुतियाँ दी हैं विद्यार्जन रूपी यज्ञ-कुंड में और उसने मंत्रोच्चारण में माँ को कभी अकेला न छोड़ने की सौगंध ली थी। शुद्धोधन को चुनने का आधार भी यही संकल्प रहा था।
देर रात तक यह अनिश्चय मधुलिका को सालता रहा कि यह अबोला कब टूटेगा। शुद्धोधन को पाने की खातिर वह माँ का परित्याग कदापि नहीं कर सकती थी। माँ का निर्णय जानने के क्षण पहाड़ से विशाल हुए जाते थे।
अगला दिन रविवार था। मधुलिका प्रात: सोकर उठी तो देखा माँ को सिरहाने बैठा पाया। शकुंतला उसे अनिमेष निहार रही थी मानो वह कोई नवजात शिशु हो। माँ की ऐसी निरीह आँखें उसने कभी न देखीं थीं। दृढ़ता ही सदा शकुंतला की आँखों का काजल बना रहा। वह अचकचा गई फिर मिचमिचाते नेत्रों से नेत्रों की भाषा का अनुवाद मन-ही-मन करने लगी।
शकुंतला ने स्नेह से बेटी के सिर पर हाथ फेरा और शाम को शुद्धोधन से मिलने की इच्छा जताई। आश्चर्यचकित मधुलिका उछलकर माँ के गले में लटक कर झूला-सा झूल गई। हाथ पकड़ कीकली करने लगी। शकुंतला ने चक्कर आते सिर को थामकर बड़ी मुश्किल संतुलन सँभाला। हर्ष और आशंका की शीशियाँ साथ ही बिखर गईं। हिदायत दी कि गाँव में अभी किसी को पता न चलना चाहिए। माँ-बेटी को कहाँ काट कर गाड़ देंगे किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होगी। अत: शुद्धोधन से गाँव के बाहर गुरबाई कस्बे में मिलने का तय हुआ।
शुद्धोधन सिंह ‘गुरबाई’ कस्बे के स्कूल में मधुलिका के साथ ही पढ़ा था। और कॉलेज में बी.एस.सी. दोनों ने साथ ही की थी। हृष्ठ-पुष्ट, चुस्त-दुरुस्त शुद्धोधन शकुंतला को भी एक ही नज़र में जम गया। गुरबाई कस्बे में रहने वाला शुद्धोधन गणित में एम.एस.सी. कर, गुरबाई के विद्यालय में वरिष्ठ अध्यापक नियुक्त हो गया था। शुद्धोधन महत्त्वाकांक्षी मनुष्य था। जीवन में आगे बढ़ना चाहता था। शकुंतला ने जिस सुसंस्कृत वर की कल्पना अपनी पुत्री के लिए की होगी, कदाचित वह उसी साँचे में फ़िट बैठता था। शकुंतला ने शुद्धोधन की बलैयाँ लीं।
विधि विधान के अनुसार दोनों का ब्याह सम्पन्न हुआ। गाँव में उठी आवाजें शुद्धोधन की काबलियत के सामने नगण्य हो गईं। शुद्धोधन ने अपने वेतन से पैसे बचाकर बनवाया हुआ सोने का मंगलसूत्र मधुलिका के गले में डाला। मधुलिका के कपोलों पर गुलाबी रंग उभर आया।
गुरबाई में ही किराए पर मकान लेकर नवदम्पति रहने लगे। बाल्यकाल से ही अपने गाँव के विकास की भागीदारी मधुलिका का सपना रहा था। शकुंतला को कभी अकेले न छोड़ने की शपथ भी इस स्वप्न की उपजाऊ भूमि की फसल हो सकती थी। उसने मुहाई गाँव के माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका का पद सँभाल लिया। माँ के परित्याग के प्रतिफल की परिपूर्ति की परिणति इसी प्रकार संभव थी।
गुरबाई से मुहाई तक आना-जाना बहुत श्रमसाध्य था। जब तक बेटी घर में थी, शकुंतला को कभी अपनी वृद्धावस्था का अहसास नहीं हुआ। उद्देश्यहीनता मनुष्य को उसकी शक्तियों से निर्वसन कर दुर्बलता का चोला पहना देती है। मन की अपूर्णता तन की विकलांगता से कहीं अधिक निष्क्रियकर व पीड़ादायक होती है।
शकुंतला की स्थिति ताड़वृक्ष से झुरे खजूर की भाँति हो चली थी। दिन-रात बैल-सी जुती रहने वाली शकुंतला बीमार रहने लगी। माँ की हालत और सहूलियत के अनुसार मधुलिका ने शुद्धोधन से मुहाई में आ रहने की विनती की। शुद्धोधन सहर्ष मान गया। मधुलिका ने ऐसे पति को प्राप्त कर स्वयं को धन्य माना।
(6)
शुद्धोधन रोज़ लगभग पाँच किलोमीटर साइकिल चलाकर गुरबाई विद्यालय जाता और कुछ अतिरिक्त कक्षाएँ लेकर सीधा शाम को घर आता। मकान के किराए के जो पैसे बचते शुद्धोधन उन्हें एकत्र करता जाता। जमाईराज की बचत की आदत शकुंतला को भी खूब भाती। अपनी दुलारी को आँखों के सामने रखना उपचार के समान सिद्ध हुआ। शकुंतला के स्वास्थ्य में वृद्धि होने लगी।
तीन साल में परिवार में दो कन्याओं का जन्म हुआ। पहली नातिन वैष्णवी के होने पर शकुंतला ने दिल खोल कर जश्न मनाया। जीवन-भर की पूँजी जच्चा-बच्चा पर लुटा दी। दूसरी संतान पल्लवी के समय सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। शुद्धोधन की बचत का खाता भी शून्य शेष रह गया था। कन्याएँ घास की-सी गति से बढ़ रहीं थीं। उनकी पढ़ाई का खर्च उठाते हुए मधुलिका सोच में पड़ गई कि साधनहीन शकुंतला किस प्रकार गृहस्थी और उसकी पढ़ाई का व्यय वहन करती होगी। उसे पढ़ाने में शकुंतला ने अपनी अस्थियाँ गला दीं थीं। अब मधुलिका की बारी थी।
शिक्षा प्राप्त करने पर जिस ग्रंथि का विकास होता है वह शारीरिक श्रम के विसर्जन को पोषित करती है। कायिक अतिश्रम अनपढ़ व्यक्ति का आश्रय होता है और पढ़े-लिखे का कलंक।
मुहाई जैसे गाँव के विद्यालय में सरकार हो या ग्रामीण जनता; किसी की रुचि न थी। परिणामतः: पगार बहुत कम थी। शुद्धोधन मधुलिका को किसी बड़े विद्यालय में अर्जी लगाने पर ज़ोर डालने लगा। माली हालत मधुलिका से छिपी न थी परंतु वह आश्वस्त थी कि कोई न कोई हल अवश्य निकलेगा। शुद्धोधन द्रुत गति से सुधार की कामना रखता था। उसे परिवार की आमदनी बढ़ाने की सनक सवार हो गई। बच्चों को बेहतर स्कूल में पढ़ाने की धुन हो गई। बच्चों का भविष्य सुधारना तो मधुलिका भी चाहती थी परंतु वह सुख-सुविधाओं की दीवानी नहीं थी। वह ठंडे दिमाग से काम लेना चाहती थी।
ग्राम सरपंच के एक पुराने मित्र श्यामसुंदर त्रिपाठी ‘दुबई हिन्द गुरुधाम विद्यालय’ में अध्यापक थे। उन्हें गाँव में कर्त्तव्यपरायण प्रतिभाशाली मधुलिका का पता चला तो उन्होंने अपने विद्यालय में बात कर मधुलिका को उच्च माध्यमिक कक्षाओं के लिए नियुक्ति-पत्र भिजवाकर बुला भेजा। मधुलिका का मन इतनी दूर जाने की गवाही न देता था।
दुबई में काम करने वाली महिलाओं के लिए उनके पिता या पति से अनापत्ति प्रमाण-पत्र लेना अनिवार्य होता है। शुद्धोधन ने अनुमति दी, प्रमाण-पत्र पर सहर्ष हस्ताक्षर भी किए।
“मान जाओ मधु! जब मैं स्वीकृति दे रहूँ तो तुम्हें क्यों आपत्ति है?”
स्वीकृति शब्द से ही आपत्ति है यह कैसे समझाती मधुलिका।
“एक बार सोचो तो तुम्हारे बिना, माँ और बच्चों के बिना मैं कैसे रहूँगी?”
“जैसे हम रहेंगे, वैसे ही…”
“क्या इतना सरल है शुद्धोधन! एक नई जगह … अकेले … सब कुछ शुरु से करना?”
“दुबई जाकर मेरी नौकरी की बात कर लेना और गणित के वरिष्ठ अध्यापक का पद रिक्त होते ही मुझे दुबई बुलवा लेना।”
“और माँ?”
“कल्पना तो कर के देखो कि बच्चों को भी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ने का अवसर प्राप्त होगा।”
“हिंदी के अपने स्कूल क्या बुरे हैं शुद्धोधन! हम भी तो इन्ही स्कूलों में पढ़े हैं।”
“तभी एड़ियाँ रगड़ रहे हैं। पगली हो तुम! समझ नहीं रही हो उच्च कोटि की शिक्षा-दीक्षा से बच्चों का जीवन सँवर जाएगा और उन्हें अच्छे जीवन के लिए अपने माता-पिता के समान संघर्ष नहीं करना पड़ेगा।”
“और मेरी माँ का संघर्ष?”
“अरे! तुम कोई हमेशा के लिए थोड़े ही जा रही हो। छुट्टी मिलते ही आ जाना।”
अपने परिवार को, विशेषकर माँ को छोड़कर इतनी दूर जाना मधुलिका के लिए सरल न था। शुद्धोधन की उच्चाकांक्षाओं का मूल्य अपनी इच्छाओं-भावनाओं की कुर्बानी देकर चुकाना उसे भा नहीं रहा था। माँ के लिए उठाया एक संकल्प पूरा करने में ही क्यों हर बार अड़चनें पैदा हो रही हैं, समझने में असमर्थ थी वह। ग्लानि का अहसास उसके पैरों में बेड़ियाँ बनकर लिपट जाता था।
पति-पत्नी के मध्य के संवाद शकुंतला सुन चुकी थी। एक और आहुति का समय आ गया था। चित्त कुछ चाहता था और चिंतन कुछ और। जामाता की इच्छा के आगे उसने अपने जी को कलेजे में दबा लिया जैसे कोई बहुमूल्य रत्नों को धरा में गाढ़ देता है। समझती थी कि उसी के कारण मधुलिका के पैर आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। अपनी पुत्री की तरक्की की राह में वह कैसे रोड़ा बन सकती थी। अपने कलेजे पर पत्थर रखकर मधुलिका को समझाया कि वह अकेली नहीं है। शुद्धोधन, वैष्णवी और पल्लवी तो उसके पास हैं ही।
मुहाई विद्यालय से त्यागपत्र सत्र की समाप्ति पर स्वीकृत हो गया। ग्रीष्मावकाश समाप्त होते-होते दुबई जाने की सारी तैयारियाँ पूरी हुईं तब सूचना मिली कि अभी
दुबई में ग्रीष्मावकाश शुरु हुआ है। दुबई में जुलाई-अगस्त अत्यधिक गर्मी के कारण विद्यालय बंद रहते हैं। अत: दो माह के बाद जाना उचित है। चार मास बिना वेतन घर की सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई। आर्थिक असंतुलन के कारण हुए विक्षोभ से अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियों को पढ़ाने में भी जी न लगता।
माँ ने अपना आखिरी गहना, गले में पड़ी चेन उतार कर दे दी दुबई की टिकट खरीदने के लिए। परिवार के उज्ज्वल भविष्य के लिए ही पति के प्रेम, माँ की छत्रछाया और बेटियों के स्नेह से अपनी ममता को वंचित किया था। वैष्णवी और पल्लवी को माँ के हवाले कर घर से बाहर विदेश की ओर कदम बढ़ाया था। जी कड़ा कर धड़कते दिल से वह दुबई के एयरपोर्ट पर पग धरा था। नियति साथ ही डग भर रही थी। यहीं से एक नया अध्याय लिखा जाना था।
(7)
सितम्बर माह के प्रारम्भ में मधुलिका दुबई हिन्द गुरुधाम विद्यालय पहुँची। बुरी खबर भी साथ ही पहुँच गई। हृदयाघात से श्यामसुंदर त्रिपाठी के निधन की सूचना मिली। एकमात्र आसरा उजड़ गया।
यात्रा के पहले पड़ाव से ही राह दुष्कर रही। कदम-कदम पर उसे उपेक्षा, अवहेलना और अपमान के ज़हर का घूँट भरना पड़ा। पहले दिन ही उसे विज्ञान की विभागाध्यक्ष मृणाली से मिलवाया गया। दम्भी मृणाली ने सभी कर्मचारियों के मध्य ‘नो ड्रैस सैंस’ कह मधुलिका के कपड़ों का मज़ाक उड़ाया। उसकी गूँथी हुई वेणी, उसकी चप्पलें, उसका घरेलु-सा बैग सभी के लिए हास्य का मसौदा बना रहा।
मृणाली ने पहले ही दिन अर्धवार्षिक परीक्षा प्रश्न-पत्र बनाने का कार्य मधुलिका को सौंप दिया। विद्यार्थियों के अतिरिक्त यह मधुलिका की भी पहली परीक्षा थी। मधुलिका अपनी खूबसूरत लिखाई में प्रश्न-पत्र बनाकर अगले दिन ही मृणाली के पास गई तो उसके प्रश्न-पत्र की खिल्ली उड़ाई गई।
“यह भारत का कोई पिछड़ा हुआ गाँव नहीं है। दुबई है दुबई। हाथ से लिखकर नहीं, प्रश्न-पत्र टाइप कर के बनता है।”
मधुलिका इस प्रतिक्रिया से जड़ हो गई। मृणाली द्वारा फेंके गए कागज़ों में अपने दुर्भाग्य की लिखावट पर बेहद क्षोभ हुआ। मृणाली को संदेह नहीं था बल्कि पूर्ण विश्वास था कि यह गाँव से आई गँवारु औरत न पढ़ाना-लिखाना जानती होगी न टाइपिंग-शाइपिंग। कम्प्यूटर से दूर-दूर तक वास्ता न होगा। गाँव में कैसा कम्प्यूटर, बिजली तक तो होगी नहीं इसके गाँव में।
अवकाश नहीं था किस्मत पर आँसू बहाने का तो उस दिन विद्यालय से घर जाने की बजाय मधुलिका कम्प्यूटर लैब में बैठकर शाम तक प्रश्न-पत्र टाइप करने में लगी रही। मधुलिका का मातृ प्रेम भले ही उसे गाँव से निकलने नहीं दे रहा था, परंतु यह भी सच था कि वह प्रतिदिन नाशिक की शहरी दुनिया देखकर-जीकर आती थी। प्रश्न-पत्र की एक प्रति प्रिंटर से निकाल ली। अगले ही दिन मधुलिका ने टंकित प्रश्न-पत्र जमा कराया। अचंभित मृणाली ने मुँह बिचकाया। पूरी पलटन ने सिर से पैर तक मधुलिका का एक्स-रे अपनी पुतलियों में उतारा और खिसियानी हँसी उँडेल दी। खीज से भरी मृणाली ने ‘साप्ताहिक रिपोर्ट’ बनाने का जिम्मा मधुलिका को सौंप दिया। वह उसे भी शाम तक समाप्त कर अगले दिन दे आई। यह ख़त्म तो कुछ और कार्य, यही सिलसिला चलता रहा।
कई सप्ताह समाप्त हुए परंतु मधुलिका की परीक्षा नहीं। मधुलिका की शारीरिक क्षमता क्षीण हो जाती। घर में कम्प्यूटर न होने के कारण रोज चार-पाँच अतिरिक्त घंटे स्कूल में बिताने से वह व्यथित हो उठी। शिकायत-शिकवा करती भी तो किस से। कोई अपना नहीं था। राह में आने वाली हर मुश्किल का चट्टान की-सी मजबूती से अब तक सामना किया। शुक्रवार, शनिवार सप्ताहांत भर इस समस्या का हल निकालने की उधेड़-बुन में उलझी रही।
मंगलसूत्र को उँगली पर लपेटती, फिर खोलती अपने छोटे-से कमरे में चहलकदमी करती रही। बेध्यानी में मंगलसूत्र का ध्यान हो आया। एक द्वंद्व छिड़ गया, प्रयोजन और परिजन के मध्य। समय की माँग ने सांत्वना दी कि पतिव्रत तो तन-मन से है। आभूषण फिर गड़वा लेगी अगर नौकरी सलामत रही। शनिवार शाम को एकमात्र स्वर्ण आभूषण मंगलसूत्र के बदले लैपटॉप खरीद लिया। वह बहुत उत्साहित थी कि लैपटॉप से उसकी सारी समस्याओं का निदान हो जाएगा। अगले दिन रविवार को काम पर पहुँची तो विभागाध्यक्षा को सूचित किया कि 2000 दिरहम का नया लैपटॉप खरीद लिया है कार्य की सुविधा के लिए।
“इतने की तो मैं साड़ी खरीद लेती हूँ … हर सप्ताह।” मृणाली ने अपनी सखियों को कनखियों से देखा। सबने ज़ोरदार ठहाका लगाया। मृणाली के वर्ग की अन्य स्त्रियों ने हिकारत से मधुलिका को देखा। वह जैसे निर्वस्त्र हो गई।
मधुलिका लड़खड़ा-सी गई। पाँव उखड़ने लगे। समर्पण, सदाचार, सहनशीलता की यह कीमत? आँखों के झरनों द्वारा तप्त मन को शौचालय में छिपकर शांत किया। आकर स्टाफ़ रूम में बैठ गई। निहारिका वहीं बैठी थी। प्रसूति अवकाश के पश्चात निहारिका ने आज ही विद्यालय में हाजिरी लगाई थी। मधुलिका को इतना उदास और किसी गहरी सोच में डूबे देख निहारिका ने उसके काँधे पर हाथ रखा। मधुलिका नज़र उठाने का साहस न कर पाई। निहारिका ने अपनी कुर्सी मधुलिका के निकट सरकाई और उसके काँपते हाथों को अपने गुनगुने हाथों में ले लिया। निहारिका के थामते ही अकेलेपन से व्यथित मधुलिका के साथ घटित दुर्व्यवहार और तानाकशी की बातें निहारिका तक ऐसे पहुँच गईं जैसे जेल की सख्त सलाखों को मोड़कर कैद से अकुलाए कैदी भागकर बाहर पहुँचते हैं।
निहारिका के रूप में मधुलिका को ज़ख्मों पर मरहम लगाने वाला एक हमदर्द, एक दोस्त मिल गया। निहारिका के मशवरे भी उसे बहुत संबल प्रदान करते। मधुलिका के काम में अनावश्यक नुक्ताचीनी की जाती तो कभी व्यर्थ के काम उसे सौंप दिए जाते। समय-समय पर तानों उलाहनों से वह बिंध जाती। मधुलिका निहारिका को बताकर दिल हलका कर लिया करती। कितनी ही कटु बातें सुनने को मिलीं हों, वह अटल अविचल शिला सम अपने कर्त्तव्य पथ पर अडिग डटी रही। शुद्धोधन की इच्छाओं की पूर्ति करने की चाहत उसे सतत प्रेरित करती रही। माँ से विछोह भी इस कारण सहा।
ज़ख्म एक जैसे दिखते हैं पर होते नहीं। उनकी गहराई पीड़ित ही नाप सकता है। परायों से मिले ज़ख्म समय आने पर भर जाते हैं। अपनों से मिले घाव शरीर से हृदय तक बेध जाते हैं। गैरों से मिले त्रास से मधुलिका टूटी भी तो फिर अपने टुकड़ों को बटोर खड़ी हो गई। कार्यक्षेत्र के सहयोगी के रूप में असहयोगी उसके जीवन का अंग बनने की सामर्थ्य कहाँ रखते थे।
दो वर्ष इस विद्यालय को अपना जी-जान समर्पित किया, उलाहनों, आलोचनाओं और तिरस्कारों को पीछे छोड़ आगे निकल अपना एक अलग स्थान बनाया। दुबई हिन्द गुरुधाम विद्यालय में अपनी कार्य-कुशलता से उसने आज विद्यालय को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। बोर्ड की परीक्षाओं में उसके विद्यार्थियों ने रिकॉर्ड तोड़ सफलता हासिल की।
जिसकी महत्वाकांक्षाओं की क्षुधा ने उसे यहाँ तक पहुँचने पर मजबूर किया, उसके द्वारा लगाए गए लांछन मधुलिका को भीतर तक तोड़ गए। अपमान का यह ज़हर पिलाने वाला अपना ही था। ‘बेस्ट टीचर ऑफ़ द इयर’ का यह फड़फड़ाता प्रशस्ति-पत्र उसे साँप के उठे हुए फन की भाँति काटने को दौड़ रहा है। इनाम की यह राशि उसे बबूल के काँटे सी चुभ रही है।
(8)
पिछले कुछ महीनों से शुद्धोधन के ख़त पर ख़त आ रहे थे। शब्द कुछ भी रहें, संदेश एक ही होता- ‘वापस आ जाओ या मुझे वहाँ बुलाओ।’ दोनों में से कुछ भी संभव न हो सका। चिट्ठी में लिखे शब्द ‘क्या अकेले ज़्यादा मन लग गया है’, ‘मेरे साथ नहीं रहना चाहती हो क्या?’, ‘मुझसे जी ऊब गया तुम्हारा?’ या फिर ‘छुटकारा चाहती हो?’ मधुलिका पर वज्र की तरह गिरते। गणित के वरिष्ठ अध्यापक का पद शुद्धोधन के लिए खाली करा लेना मधुलिका के हाथ में तो था नहीं।
इधर गाँववालों की कानाफ़ूसी की शकुंतला आदी थी किंतु शुद्धोधन नहीं। इसका असर भी शुद्धोधन पर पड़ा-
“अरे, यह लड़की तो शुरु से ही बड़ी बंड थी। आवारागर्दी का शौक था।”
“माँ को काम में झोंक खुद सुबह से ही सैर-सपाटे को निकल जाती थी। जाने कहाँ-कहाँ किस-किस के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी दिन भर। रात को सती-सावित्री बन माँ के आँचल में दुबक जाती थी।”
“पहले ख़सम कर लाई, दो बच्चे जन दिए। अब उन्हें भी माँ पर पटककर बहुत दूर चली गई जहाँ उसकी अय्याशी में ख़लल न पड़े।”
“अब भुगत रही होगी शकुंतला। देख लिया लड़की जात को इतना सिर पर चढ़ाने का नतीजा।”
“जमाई भी भला है जो लुगाई पर शिकंजा न कस सका। बेलगाम घोड़ी सी कुलाँचे भर रही है जाने कहाँ।”
“वह बेचारा यहाँ खटता रहता है। देवीजी मौज उड़ा रही हैं।”
शुद्धोधन शकुंतला को जली-कटी सुनाने में कोई कसर न छोड़ता। जब से मधुलिका ने मंगलसूत्र बेचा था, क्रम तभी से चालू था। शुद्धोधन की महत्वाकांक्षा अब कुटिल मानसिकता का रूप ले चुकी थी।
शकुंतला ने अपनी बेटी के चरित्र के, सतीत्व के बहुतेरे प्रमाण दिए, परंतु मधुलिका को मिले प्रशस्ति-पत्र ने आग में घी का सा काम किया। गत माह गुरबाई विद्यालय में भी एक चाटुकार स्त्री को यही इनाम दिया गया था। उसके बारे में पूरे विद्यालय में चर्चा थी कि ख़िताब की कीमत पहले से ही तय होती है, कोई उसे अपने बटुए से भरता है तो कोई अपनी कामुकता से। स्त्री के पास तो हुस्न की बेशुमार दौलत होती है, आराम से अदा की जा सकती है। इस घटना से शुद्धोधन के सब्र का चरमराता बाँध पूरी तरह ढह गया।
आख़िरकार वह पत्र आ ही गया जिसमें मधुलिका को वापस आने का आखिरी मौका दिया गया था- ‘क्या समझ रखा है तुमने कि तुम वहाँ अय्याशी करो और मैं यहाँ बच्चे सँभालूँ। अब भी वापस आ जाओ तो शायद मैं इतने सब के बाद भी तुम्हें अपना लूँ। तीन दिन के अंदर वापस नहीं आईं तो अब अगला ख़त नहीं मिलेगा तुम्हें, तलाक के कागज़ात मिलेंगे।’
रो-रोकर बेहाल औंधी पड़ी मधुलिका के दोनों हाथों में दो पत्र थे- एक प्रशस्ति-पत्र और दूसरा तलाक का धमकी-पत्र।
अगले दिन मधुलिका स्कूल पहुँची तो भी प्रधानाचार्य को जमा कराने के लिए उसके हाथों में पुन: दो पत्र थे- एक प्रशस्ति-पत्र और दूसरा त्यागपत्र। उसकी जीवन भर की साधना का प्रशस्ति-पत्र घर में विजय-पताका बना गढ़ा हुआ था।
-डॉ. आरती ‘लोकेश’
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