बाप का नाम ? ‘
‘ ………!‘
‘ क्या, बिना माँ-बाप के ही पैदा हो गया ! माँ-बाप कोई नहीं हैं!‘
‘ओह! ‘ आधे खुले मुँह से वह अपलक देखते ही रह गए थे।
कैसे भूल सकता है वह, स्कूल में दाखिले के पहले दिन ही हेडमास्टर का अविश्वसनीय आश्चर्य और फिर अक्सर ही उसे देखकर सहपाठियों कि खुसर-पुसर हँसी !
कई मां-बाप के भ्रूण और अंडकोष से विकसित वह मानव इतिहास का पहला प्रयोग था और पूरी दुनिया पर ही खबरों में हेडलाइन बनकर छा गया था। सबकुछ अच्छे से अच्छा उपयुक्त हुआ था उसकी संरचना में, कहीं कोई भूल नहीं, कोई दाग नहीं। सूरज का तेज, हवा की गति और कामदेव के रूप के साथ-साथ हरक्यूलिस जैसा शौर्य भी था उसमें।
कहने को तो सुपर मानव परन्तु सुपर मार्केट से खरीदा-सा एक रेडीमेड और ब्रान्डेड बच्चा जो किसी परिवार का नहीं पूरे मानव समाज का था और जिसके मां-बाप के नाम पर कोई नहीं था। नितान्त अकेला और अभागा, अस्पताल की सीढ़ियों और वार्ड में खेल-खेलकर ही तो गुजरा था उसका बचपन !
सोचता और उदास हो जाता वह।
याद है उसे, कैसे बचपन से ही नदी के किनारे बैठे-बैठे घंटों निकाल देता था वह और तब नदी के बहते पानी से घुंघराले भूरे बालों वाला और सीप सी चमकती नीली आंखों वाला एक बेहद खूबसूरत, परन्तु गुमसुम बच्चा घंटों उसकी तरफ देखता रहता।
‘ कैसा लगता होगा जब माँ-बाप वाकई में गोदी में उठाते होंगे’, सोचता वह और सोचते ही मन एक ठंडी पुलक से भर उठता। फिर अगले पल ही लहरों की उथल पुथल में सब घुलमिल जाता; उसका अपना चेहरा और मां-बाप का वह काल्पनिक अनदेखा चेहरा, सभी कुछ। उसे लगता कि मानो माँ बाप ने ही गोदी में उठा लिया हो उसे। और तब कभी-कभी तो उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा भी देती थी उसकी वह उदास परछांई।
रोज देखता था वह, अजनबियों में माँ बाप को और नदी के बहते पानी में खुद को । अस्पताल के पिछवाड़े में ही तो बहती थी टेम्स नदी। उसे यूँ चुपचाप नदी किनारे बैठा देखकर मैरी रोज ही दौड़ी-दौड़ी आती और टोककर साथ वापस ले जाती – ‘ क्या देखते रहते हो यूँ घंटों अकेले बैठे तुम, दीनू? खेलो, दौड़ो-भागो, हँसो, मुस्कुराओ दूसरे बच्चों की तरह।‘
पर वह दूसरे बच्चों की तरह था ही कब ! यूँ तो बिल्डिंग ब्लौक, लीगो और रंगीन चित्रों से भरी बोलती किताबें, सब कुछ था उसके पास परन्तु इनमें कभी मन ही नहीं लगा उसका।
बस यूँ ही परछाँई के साथ खेलते रहना, कभी उड़ते बादलों के बीच मां बाप को ढूँढना तो कभी बहती लहरों में खुद को पहचानना, बस यही एक सबसे प्रिय खेल था दीनू का और यही थीं उसकी सबसे सशक्त बचपन की यादें ।
दीनू, यानी डैनियल जौर्ज कोई साधारण बच्चा नहीं था। 30-35 साल पहले दो वैज्ञानिक डैनियल और जौर्ज द्वारा एक टेस्ट ट्यूब में यहीं इसी अस्पताल के लैब के अंदर ही हुई थी उसकी संरचना । मां-बाप की कोई पहचान नहीं। जरूरत ही नहीं थी, बस वह अस्तित्व में आ गया, यही काफी था उनके लिए।
हाँ एक बात और किसी माँ की कोख में नहीं लैब में ही बना और बढ़ा था वह पूरे नौ महीने। विज्ञान का चमत्कार था वह। मानवता के लिए वरदान था वह।
बचपन भी वहीं उसी लंदन के प्रसिद्ध अस्पताल के वार्ड और सीढ़ियों पर ही बीता था उसका और शुरू के पांच वर्षों में वही घर भी था उसका।
पैदा हुआ है उस दिन से आजतक एक अजीब विरोधाभास ही तो रहा है उसका जीवन- हमेशा की तरह उमड़ आई नमी को कमीज की आस्तीन से ही पोंछ डाला उसने।
‘आए दिन ही तरह-तरह की खबरों और सुर्खियों में रहा, हरेक की उसके जीवन में रुचि, पर उसमें किसी की रुचि नहीं। कहने को उसके इस लैब और अस्तपाली परिवार में बीसियों सदस्य , परन्तु वास्तव में उसका अपना कहने को एक भी नहीं। खून का रिश्ता कोई नहीं।‘
बरबस एक ठंडी आह भाप सी उठती अंतस से और उसकी पुतलियों को पथरा देती।
बीमार बच्चों के मां बाप मिलने आते तो उन्हें गोदी में बिठाकर प्यार करते, उन्हें टौफी बिस्कुट और खिलौने देते और वह दूर बैठा देखता रह जाता एक भटकते प्रेत-सा…अदृश्य और महत्वहीन, सभी के लिए और खुद अपने लिए भी। यूँ ही बारबार आँखें छलक आतीं उसकी।
‘वह बीमार तो नहीं, फिर क्यों कोई उससे मिलने आए?’, नर्स मैरी उसकी उलझन व दुख को समझती और जब-तब समझाती भी रहती। और तब बाल मन और मचलता –‘ क्यों नहीं बीमार पड़ता वह और फिर अगर बीमार नहीं है, तो यहाँ पर क्यों रहता है, क्यों उसका कोई अपना घर नहीं है? ‘
दूर बैठी मैरी सब देखती। मन करुणा से भर जाता। अक्सर ही उसके भावों को पढ़ने की कोशिश भी करती । आते-जाते टौफी-चाकलेट भी दे जाती। यही नहीं, कभी-कभी तो सीने से लगाकर या सिर थपथपा कर प्यार भी करती थी। यूँ सिर तो आते-जाते अनजान भी थपथपा देते थे। पर जैसे-जैसे वह बड़ा हो रहा था, एक बेचैनी बढ़ती जा रही थी मन में। अपना अस्तित्व अक्सर उसे एक खूबसूरत मंहगे पपी जैसा ही प्रतीत होता , जो घर में मात्र मनोरंजन के लिए ही लाया जाता है, या फिर उस भिखारी की तरह जिसे हर आते-जाते से ही प्यार के चन्द टुकड़ों की आस होती है।
हाँ, वह बड़ा हो रहा था पर माइक्रोस्कोप के नीचे टेस्ट ट्यूब में कुलबुलाते कीड़े की तरह। साथ खेलने या बात करने तक का वक्त नहीं था किसीके पास क्योंकि वह बच्चा नहीं मात्र एक प्रयोग था…एक बेशकीमती प्रयोग। इतना अकेला बीता उसका जीवन कि समाज से जुड़ना, इसमें रहते हुए एक साधारण और आम जीवन जीना तो दूर, दूसरों के साथ मिलना-जुलना तक नहीं सीख पाया वह।
यह भी एक नियति का ही सुयोग था कि मैरी मिली उसे देखभाल के लिए। मैरी …एक सहृदय भारतीय परिचारिका…वह न होती तो आज जाने वह जिन्दा भी होता या नहीं! मैरी जो खुद बचपन से ही मातृविहीन थी और जिसकी मौसी ने ही उसे पाला-पोसा था। मौसी जो पिता से व्याह के बावजूद भी, मां नहीं मौसी ही कहलाना पसंद करती थी। केरला से थी अनब्याही मैरी और बच्चे के जीवन में मां के अभाव को भलीभांति महसूसा और जिया था उसने । मैरी के सीने में भी तो एक अतृप्त मां का दिल था जिसका सारा ममत्व अक्सर ही उस पर उड़ेल देती थी वह। डैनियल नाम को संक्षिप्त करके दीनू नाम भी उसी ने दिया था उसे। ममत्व में नहा जाता था वह, जब दीनू नाम से पुकारती थी। देखते-देखते सभी जान-पहचान वाले भी दीनू ही कहने लगे थे उसे। डैनियल नाम तो बस फाइल और फार्मों पर ही रह गया था जो कि हजारों की संख्या में थे।
उसके खाने-पीने और देख-रेख की सारी जिम्मेदारी मैरी पर ही थी। वह ठीक से बड़ा हो रहा है या नहीं, उसका हृदय और मस्तिष्क साधारण रूप से विकसित हो रहे हैं कि नहीं… हंसना, रोना, उसकी हर प्रतिक्रिया पर तालिका में सही गलत के सारे निशान लगाने में ही मैरी का पूरा वक्त निकल जाता।
मैरी ने ही ऐसे किसी आत्म-विश्लेषण के अकेले और उदास पल में समझाया था कभी उसे कि वह टेस्ट-ट्यूब से निकला कोई फ्रैंकेस्टाइन नहीं, एक आम मानव है, जिसके अन्दर एक बेहद संवेदनशील हृदय धड़कता है, सोचता-समझता-जानता मस्तिष्क है। और यह भी कि वह जीवन में चाहे जो कर सकता है…बन सकता है। पर, कुछ भी तो नहीं बन पाया वह , क्योंकि कुछ चाह ही नहीं पाया कभी। बस अस्तित्व के अनजाने रहस्यों में सुलगते-सुलझाते ही निकल गया उसका तो सारा वक्त।
मैरी ही वह वजह थी शायद जिसकी वजह से वह अब अनदेखे भारत और भारतीयों से बेहद नजदीक और जुड़ा-जुड़ा-सा महसूस करने लगा था, वरना अपनी तो कोई पहचान ही नहीं थी उसकी। …देश, धर्म, जात, भाई-बन्धु, कुछ भी नहीं। शिकायत नहीं कर रहा, पर इस ‘ नौट बिलौंगिंग’ भाव की पीड़ा को, अभाव को कैसे जड़ से उखाड़े , जो फांस बनकर अड़ गयी है मन में? …कितना बड़ा घाव है यह, कोई उससे पूछकर तो देखे! कभी उबर नहीं पाया वह। पनप या फल-फूल तक नहीं सका।
धीरे-धीरे उन रचयिता वैज्ञीनिकों की भी रुचि खतम होती गई थी उसमें । वे जान चुके थे कि प्रयोग सफल रहा है। उनकी रुचि तो सिर्फ प्रयोग के परिणाम में थी, उसमें नहीं। मन और विचार पक्ष के बारे में…उसके जीवन के बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं समझी कभी किसी ने। और इस तरह से असाधारण रूप से पैदा हुआ दीनू, एक साधारण जीवन और जीवन वृत्त भी नहीं, एकाकी और दुरुह जीवन जीने को ही तो अभिशप्त है आज भी।
यही नियति है उसकी, मान चुका था वह और नियति से कोई नहीं लड़ सकता-यह भी जानता था वह। हाँ. यदि अवसर मिला तो एकदिन भारत घूमने अवश्य जाएगा । दूर देश में वह भी शायद साधारण मनुष्य की तरह महसूस कर सके, जी पाए… यह छद्म पहचान पीछा छोड़ ही दे उसका ! पर वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा कब किसे क्या मिल पाया है- वह इंतजार करेगा सही वक्त का।
…कहीं कोई और बात तो नहीं उसके मन में…! कहीं उसका यह क्षोभ और आक्रोश ही तो खलनायक नहीं उसके जीवन का, जो उसे किसी से जुड़ने नहीं दे रहा ।
पर कौन है जो उसके पास आया है या जिसने साथ निभाया है उसका।
मैरी जब पहली बार साथ लेकर इस घर में आई थी, अधिकारिक तौर पर गोद ले चुकी थी, तो इसी पेड़ के नीचे पड़ी बेंच पर बैठकर ही तो समझाया था उसे – ‘ देखो दीनू, यही तुम्हारा घर है अब। तुम चाहो तो सिस्टर की जगह मुझे मां भी कह सकते हो।‘ जहाँ तक याद आता है यही पहली किसी से अंतरंग बात-चीत थी उसकी। ऊपर फैला नीला आकाश और मुस्कुराता मैरी का चेहरा, पूरी दुनिया ही अपनों से भरी-पूरी लगी थी अभिन्न उस एक पल में।
पर दीनू ने तब भी उसे सिस्टर ही कहा था। माँ शब्द गले में ही कहीं मझली के कांटे-सा अटक गया था। आँसुओं से भीगे गले के साथ निगल ही नहीं पाया था वह इस अप्रत्याशित प्यार को। मैरी ने उसके दर्द को समझा था और आगे बढ़कर बिना कुछ बोले ही गले लगा लिया था। और फिर कभी आग्रह नहीं किया था उस संबोधन के लिए। आज मैरी नहीं, लूसी नहीं, और वह बेंच भी नहीं, पर यह पेड़ है उसके पास…उसके अतीत का साथी और साक्षी ।
ऐसे भावुक पलों में तनी कमर स्वतः झुक जाती है और तब इसी पेड़ के तने का सहारा लिए वह घंटों खड़ा रह जाता है, कभी नीले आकाश को बेमतलब घूरता तो कभी उंगलियों से उसके खुरदुरे तने को सहलाता। आज भी आंखों में आई नमी को कमीज की आस्तीन से तुरंत ही पोंछ डाला है उसने। आकाश में बादल घिर आए हैं । पोखर से समेटी चन्द पत्तियों को मुठ्ठी में पकड़े वह घर के अंदर आ गया है, पर बेचैनी ने पीछा नहीं छोड़ा है। धुंधला आए चश्मे को कुरते से पोंछकर उसने जब खिड़की के बाहर देखा तो नजर फिर से उसी प्रिय पेड़ की ओर चली गई। एक चिड़िया झुकी फुनगी पर बैठी, बेहद शान्त और संतुष्ट भाव के साथ पोखर से पानी पी रही थी, देखते ही उसका भी मन संतोष से भर गया।
…ऐसा ही तो है यह पेड़ सबके काम आता अंतिम सांस तक… उसका ही नहीं, जाने कितनों के दादा-परदादा और अनगिनित पक्षियों का सहारा बना है यह। जाने कितनों के बचपन और एकाकी पलों को समेटा है इसने। सबकी मदद करता और किसी से कोई शिकायत नहीं। फिर वह क्यों संतुष्ट नहीं अपने जीवन से !
अलग-थलग की जीवन शैली ने बेहद अंतर्मुखी और भावुक कलाकार बना दिया था उसे। चीजों को गहराई से देखना और महसूस करना ही नहीं, उन्हें तरह-तरह के आकार देना भी सीख लिया था उसने बचपन से ही। तरह तरह की कलाकृतियों और स्केच से भरा रहता उसका कमरा । अद्भुत क्षमता थी निपुण उंगलियों में। चेहरों-पर-चेहरे उकेरता जाता था वह खुद अपनी ही सोच से सुन्न पड़ते पलों को जीवंत रखने के लिए। देखा जाए तो ये स्केच ही तो मित्र थे उसके और एकाकी पलों में इन्ही से तो घंटों बातें करता रहता है वह। कुछ जाने, कुछ अनजाने चेहरे, सभी इसी ओक की टहनियों और शाखों की छाल पर ही उकेरे गए हैं, या फिर इन सूखी टहनियों को तराश कर बनाए गए हैं। इसी शौक ने थोड़ा बहुत नाम और पहचान भी दे दी है अब तो उसे और भटकते जीवन को एक उद्धेश्य भी। भूखा नहीं वह नाम और शोहरत का पर उसकी दीवानगी को सदैव ही सराहा है कलाप्रेमियों ने। कहते हैं मन का सारा रीतापन इंद्रधनुषी रंग ओढकर उभर आता है उसकी कला-कृतियों में।
लूसी ने तो चढ़ना भी सिखा दिया था उसे इस पेड़ पर…लूसी उसकी चहेती बिल्ली। छोटी और उसकी ही तरह बिल्कुल अकेली। जाने कहाँ से भटकती, एक दिन यूँ ही बगल में आ बैठी थी, इसी पेड़ के नीचे। और तब अपना पूरा दूध का कटोरा बेहद लाड़ से गोदी में बिठलाकर पिला दिया था दीनू ने उसे। फिर तो ऐसी सहेली बनी कि रोज ही आने लगी। पड़ोसन जिसकी बिल्ली ने चार-चार बच्चे दिए थे, उनका याराना देखकर सहर्ष पकड़ा गई थी लूसी को उसे। तब पहली बार लूसी कहकर पुकारा था उसने उसे। वह भी तुरंत लपक कर गोदी में आ बैठी थी। मैरी ने भी तो पहले दिन ही कमरे में उसके बिस्तर के बगल में ही लूसी की बास्केट रख दी थी। लूसी अब पूरी तरह से उसकी जिम्मेदारी थी। लूसी ने भी तो कमरे को ही नहीं, उसके सारे खिलौनों तक को भी तुरंत ही अपना मान लिया था। उसकी प्रिय नीली रबर की बॉल से खेलना शुरु कर दिया था। दीनू ने भी बुरा नहीं माना था। नई साथी की नटखट हरकतें उसे खुशी से भर देतीं।
फिर तो ऐसी सहेली बनी लूसी कि मरते दम तक साथ नहीं छोड़ा उसका।
लुका छिपी के खेल और भागदौड़ लूसी के साथ ही खेले हैं। उसे देख-देखकर, पीछे-पीछे चलकर ही तो नन्हा दीनू पेड़ों पर चढना सीख पाया था। पहली बार ऊपर की फुनगी तक पहुंच कर जब उसे छुआ था, तो वह उत्तेजना, वह ठंडी हवा की स्फूर्ति आज भी तो भुलाए नहीं भूलती, मानो एकाकी बचपन को अचानक ही पंख मिल गए थे एक ही पल में। फिर तो रोज ही का खेल था वह। लूसी गिलहरी-सी सरसर करती पेड़ की सबसे ऊंची टहनी पर पहुंच जाती और पीछे-पीछे दीनू भी हवा की सी फुर्ती से जा पहुँचता, पकड़ लेता उसे। पहली बार जब देखा उसे ऊंची डाल पर बिल्ली को गोदी में लिए बैठे, तो मैरी के दिल ने तो मानो धड़कना ही बन्द कर दिया था।
‘ गिर पड़ेगा कमबख्त, नीचे उतर। मेरा तो आराम ही हराम कर रखा है तूने’…वगैरह वगैरह, जाने क्या-क्या बोलती चली गई थी वह गुस्से और भय के आवेग में कांपती-सी। पर दीनू को तो गुस्से से भरे वे शब्द भी कितने मीठे और अच्छे लग रहे थे।
गूंगा जैसे गुड़ खाकर मूक रह जाए, ऐसे ही बस देखता ही रह गया था वह मैरी की तरफ।
पहली बार किसी ने यूँ उसे संबोधित करके इतना कुछ कहा था। और तब हलकी-सी प्यार भरी एक चपत लगा कर मैरी खुद भी तो उठकर दूसरे कमरे में चली गई थी। रिश्ता कोई भी हो प्यार भी तो वक्त मांगता है, तभी तो इसे सहने और इसमें डूबने की आदत पड़ पाती है।
फिर तो यह रोज की ही कहानी थी। कितना डांटा और समझाया था मैरी ने उसे। पूरे दो दिन तक बात नहीं की थी जब अगले दिन फिर वहीं उसी पेड़ पर वापस लूसी के साथ उसे देखा था, वहीं सबसे ऊँची शाख पर। मन की कतई बुरी नहीं थी मैरी और मन के किसी कोने में उसे प्यार भी करने लगी थी, वाकई में परवाह करने लगी थी, पर लूसी का खिलंदड़ी स्वभाव सबकुछ भुलवा देता …अपनी सुरक्षा को भी और मैरी की हिदायत को भी। मैरी तो अक्सर ड्यूटी पर रहती परन्तु लूसी पूरे वक्त साथ थी उसके सूने घर में।
अभी पाँच साल पहले ही तो विदा ली है लूसी ने। उसकी भी तो कनपटियाँ सफेद हो चली हैं। वक्त सबकुछ बदल देता है। अपनी ही अबूझ चाल है इसकी। धीरे-धीरे एक-एक करके सब विदा ले चुके हैं, यूँ ही अकेला प्रेत-सा भटकने को छोड़कर- वे वैज्ञानिक भी जिनका प्रयोग था वह…प्रयोग जिसने उन्हें अभूतपूर्व सफलता दी थी, मानव इतिहास की उपलब्धियों में उनका नाम दर्ज कर दिया था।
रिश्तों की यह दौड़ भी कितनी अजीब होती है जाने कहाँ, कब कैसे और किस-किस से जुड़ जाती है। उसके साथ तो बचपन से ऐसा ही होता रहा है। झट से जुड़ जाता है वह और जिससे भी जुड़ा बस जुड़ा ही रह गया… पुराना एक आंख का टेडी, मैरी का पीछे छूटा चश्मा और बाइबल और उनसे भी अधिक घर के पिछवाड़े खड़ा यह सूखा सैकड़ों साल पुराना ओक का पेड़… अब बचा-खुचा अंतिम अवशेष मात्र, पर उखाड़ा या फेंका नहीं है उसने इसे भी, अनगिनित आग्रहों के बाद भी, नहीं।
मैरी का भी अब कोई अता-पता नहीं जबसे केरला रिटायर होकर वापस गई है। शुरु में तो एकाध चिठ्ठियाँ आई थीं, फिर वह सिलसिला भी टूट गया। सच पूछो तो उसकी ही समझ में कभी नहीं आया था कि क्या लिखे वह उन जबावी चिठ्ठियों में-सबकुछ ही तो बनावटी लगता था।
प्यार का इजहार…विछोह का दुख…हर बात लिखी भी तो नहीं जा सकती। बहुत कुछ मन में ही दफन रह जाता है। यह मन भी तो यादों का एक कब्रिस्तान ही है।
वैसे भी लूसी ही तो एक अकेली थी, जिसने जीते-जी साथ नहीं छोड़ा था और मज़ा यह कि लूसी से उसका संवाद एकतरफा था। यही वजह है कि बातें करना , खुद को अभिव्यक्त करना आ ही नहीं पाया उसे। यूँ तो कैथलीन भी आई थी कुछ महीनों को जीवन में…कैथलीन एकमात्र सहपाठिनी और सहेली, जिसे लेकर साथ पढ़ने वाले बच्चों तक ने मजाक बनाना शुरु कर दिया था उसका। रस ले-लेकर वे उनकी बातें सुनते, उनकी तरफ देखा करते। पर बातों-बातों में जब कैथलिन ने उसके जन्म की कहानी सुनी तो एक अजीब ठंडापन भर गया था रिश्ते में भी और कैथलीन के मन में भी, जिसे चाहकर भी सामान्य नहीं कर पाया था वह कभी।
उसके हंसने, प्यार करने, हर बात को बहुत गौर से देखने और तौलने लगी थी कैथलिन। शायद तसल्ली करना चाहती थी कि वह सामान्य इंसान है भी या नहीं। और यूँ आजीवन खुद को प्रमाणित करने का खेल, कुलबुलाते कीड़े सा उसे दूरबीन के नीचे रखने की दूसरों की आदत ने पूरी तरह से तोड़ दिया था उसे। और भी एकाकी बना दिया था। अतीत का वह प्रेत चाहे-अनचाहे सदा ही पीछा करता रहा उसका…सामान्य नहीं रहने दिया उसे कभी भी।
हाँ, लूसी ने कोई भेदभाव नहीं किया न उसके साथ और ना ही उसकी भावनाओं के साथ ही…सामान्य रूप का सामान्य मित्र ही समझा और जाना उसे। यहीं तो दफनाया है उसने लूसी को इसी पेड़ के नीचे।
इस ठूँठ की लम्बाई और चोड़ाई खुद उसने भी तो कई-कई बार नापी है, खुद अपनी लम्बाई और चौड़ाई के साथ-साथ ही। छह फीट चार इंचः यानी¬ उसकी लम्बाई से छह इंच ज्यादा। काट कर फेंकने की क्या जरूरत ? जो अपना हो, साथ दे, उसे कभी नहीं त्यागते- इस जरूरत को, इस कमी को आजीवन समझा और महसूस किया है उसने । आराम से सो सकता है वह एकदिन वक्त आने पर इसी की गोद में… उसने तो अपने लिए एक शिलालेख भी बना लिया है…पता नहीं आपको कैसा लगे…समझ भी पाएंगे या नहीं, कि क्या कहना चाह रहा है वह- ’ हियर लाइज डैनियल जौर्ज हूज लाइफ स्क्रिप्ट वाज रिटेन नौट इन हिज मदर्स वूम्ब बट औन द वाटर ओनली।‘ ‘ यहाँ सो रहा है डैनियल जौर्ज जिसका जीवन मां की कोख में नहीं पानी पर लिखा गया था। ‘
अतीत आज बारबार काले बादलों सा उसकी आंखों के आगे उड़ रहा था और मन के साथ-साथ आत्मा तक को घटाघोप कर रहा था। क्यों दिया गया उसे यह अभिशप्त एकाकी जीवन? जितनी शिकायतें हैं उसे अपने रचयिता से थीं, उतनी ही शायद समाज से भी थीं !
एक सवाल जो उसके द्वारा लिखे हर शब्द के साथ मन में उमड़-घुमड़ रहा है…धुंए सा उठ-उठ कर बारबार आँखों में चुभ रहा है, आज उसके आँसुओं की कीमत मांग रहा है, क्या मदद करेंगे उत्तर ढूँढने में आप उसकी ;
माना कि सही है कि वह और उसका अस्तित्व करोड़ों की लागत से किया गया एक मंहगा और मानवता के हित में वैज्ञानिक प्रयोग था और विज्ञान की पहली और अद्भुत जीत भी । सही है कि वे एक ऐसे सुन्दर, आदर्श और हृष्ट-पुष्ट मानव को बनाने में सफल हो गए थे, जिसके जीन्स में कोई विकार नहीं। विरासत में मिली किसी बीमारी का खतरा नहीं उसे, पर क्या सही और सहज है, संभव भी है किसी इंसान के लिए बिना माँ की गोद के शैशव और बिना पिता के नेह व आश्रय के, जीने के लिए जरूरी आत्म-विश्वास और पहचान पैदा कर पाना ! गिनी पिग नहीं, मानव है वह। एक सक्रिय मस्तिष्क और संवेदन शील मन के साथ जीता-जागता इन्सान। प्रयोग ही करना था तो शरीर के हिस्से बनाते, जीन्स और उनके म्यूटैन्ट बनाते, सैलाब सी बढ़ती जनसंख्या में एक और खुद में ही भटकता असुरक्षित मानव और उसका एकाकी जीवन किसके हित का और किस लिए ? यदि आधुनिक सोच और मानव स्वास्थ की उपचार तकनीकियों के लिए सही भी है उसका अस्तित्व, तो भी क्या यह अकेलापन खुद एक निर्मम अपराध और अत्याचार नहीं उसके प्रति ।
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शैल अग्रवाल
आणविक संकेतः shailagrawal@hotmail.com