कहानी समकालीनः पूत सपूत तो का…?-डॉ. कीर्ति अवस्थी


मेरे वृद्धाश्रम में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि जिंदा आया जीव, जिंदा ही आश्रम से निकल गया हो। अगर निकलते हैं, तो केवल आने वाले के प्राण और उसके बाद उसकी निष्प्राण देह। आप यह मत सोचिएगा कि मैं मानव अंगों की तस्करी करता हूँ या बूढ़े-बुजुर्गों का खून बेचता हूँ। जी नहीं, मैं एक वृद्धाश्रम का संचालक हूँ और मेरे कहने का मतलब मात्र यह है कि बदनसीब वृद्ध यहाँ आ तो जाते हैं लेकिन उसके बाद उन्हें कोई नहीं पूछता। कुछ एक थोड़े सौभाग्यशाली हैं कि कभी-कभी कोई बेटा-बहू या बेटी-दामाद एक दिन का दिखावा करने आ जाते हैं। बाकी साल के तीन सौ चौंसठ दिन वे बेचारे उदास आंखों से अपना दुख कभी बहा देते, तो कभी बचा लेते। यहाँ पर कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी मर्ज़ी से चले आए। ये सभी यहीं पर मरना चाहते हैं लेकिन आज पहली बार देखा कि बेटा अपने पिता को वृद्धाश्रम से विदा कराकर ले गया। पिता भी ऐसा, जो न अपने आप को संभालने में सक्षम और न पहचानता है कि बेटा कौन है? आमतौर पर वृद्धाश्रम में भेजे गए माता-पिता बच्चों की नज़र में बोझ होते हैं किंतु यहाँ सारा माजरा ही उलटा है। मानसिक रूप से विक्षिप्त राम कुमार का आधा शरीर अपंग भी है। ऐसे में बेटा साथ ले जा रहा है, तो बहुत बड़ी बात है। ऐसा भी नहीं है कि अचानक राम कुमार की करोड़ों की लॉटरी निकल आई और हरे-हरे नोटों ने बेटे की नीयत बदल दी। किस्सा कुछ और है लेकिन पहले आप मेरे बारे में जान लीजिए।
शहर के सबसे बड़े वृद्धाश्रम का मालिक रतन लाल अग्रवाल यानी मैं, अपने इस आश्रम को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय मानता हूँ। कहते हैं कि पुत्र प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है किंतु मेरे मन में उन आस्तीन के साँपों के लिए कोई स्थान नहीं, जिन्होंने जायदाद के लिए मेरे विरुद्ध षड्यंत्र किया। मेरी करोड़ों की जायदाद हड़पने के लिए मेरे तीनों बेटे और बेटी एक हो गए, जिनमें आपस में कभी नहीं बनी लेकिन शायद मेरे अच्छे कर्मों ने मेरा साथ नहीं छोड़ा था। पिताजी ने अपनी गाढ़ी कमाई से इस आश्रम को बनवाया था लेकिन इसकी भनक किसी को नहीं लगने दी। अपने अंतिम समय में जो सीख उन्होंने दी, वह वास्तव में मेरे काम आई। मुझे अच्छी तरह से याद है कि धर्म-परायण पिता ने गंगाजल मुंह में डाले जाने के ठीक पहले मुझे एकांत में बुलाया और काँपती आवाज में बोले,
‘रतन, आज तने मैं कुछ बताऊंगो, ध्याण से सुण बेटा। मैंने अपणे वास्ते वृद्धास्रम बनवा लियो था कि जो तू मने रखने में खुस ना होगा, तो वहीं जाके रहूँगो पर थारी सेवा ने मने झूठो बना दियो। मने ठाकुर जी माफ कनै, जो मैं आपण राम समान बेटा कूं ना पहचाणा। मने माफ करी दे रतन! तू तो सचमुच म्हारा रतन है। पन बेटा तने मैं एक बात कहूँगो, यो कतई जरूरी ना है कि थारे लाल भी रतन होंवे। या बात अपने जी मा दबा के रखियो। कोइयो को ना जाने दियो के थारे पास आस्रम है। पीसा जमा करा कर यफडी करी है, कोयो तकलीफ ना होगी तने। बाप हूँ, चिंता है मने। पन छोरों ने या राज कतई ना बतायो।’
आज सोचता हूँ कि सच ही कहा था पिताजी ने। बच्चों ने धोखे से सब हथिया लिया। मैं एकदम बेघर, निराश लेकिन मन में यह संतोष था कि पत्नी यह सब देखने से पहले ही चल बसी। अपने इन कृतघ्न बेटों और बेटी से मन इतना भर गया कि शाप तक देने का मन न हुआ। पिताजी की दूरदर्शिता ने न केवल मेरे रहने-खाने का इंतज़ाम किया बल्कि आज मैं कई और मजबूर माँ-बाप को सहायता देने में सक्षम हूँ। ख़ैर मेरी छोड़िए, मैं तो ठीक ही हूँ लेकिन मैं आपको बता रहा था राम कुमार के बारे में। सब समझाने के लिए आपको ज़रा पीछे ले चलता हूँ। ज़्यादा नहीं केवल छः महीने पहले।
मैं अपने आश्रम के ऑफिस में बैठा रोज़ की तरह काम कर रहा था। एक बड़ी आलीशान गाड़ी आकर रुकी और उसमें से एक बेहद सौम्य युवक उतरा। भीतर आकर उसने मुझसे कहा कि उसे मुझसे एक बहुत जरूरी काम है। उसकी बातों से ऐसा लग रहा था कि मानो वह मुझ से भली-भाँति परिचित हो।
‘कहिए मुझसे भला आपको क्या काम है? आप तो ऐसे बात कर रहे हैं जैसे आप मुझे जानते हैं।’
‘जी, सही कहा आपने। मैं तो आपको बचपन से जानता हूँ। आप वही हैं, जो अक्सर हमारी बस्ती में आकर गरीब बच्चों को पढ़ाते थे। आपके पढ़ाने के कारण मुझे कक्षा छः से लगातार स्कॉलरशिप मिली, जो कॉलेज तक जारी थी और उसी के कारण एक कंपनी में उच्च पद पर एक अच्छी तनख्वाह के साथ नौकरी कर रहा हूँ।’
उस समय उसकी बात सुनकर भी मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैंने उसे पढ़ाया होगा लेकिन मैं समय निकालकर बस्ती में पढ़ाने जाता था। यह मुझे याद आ रहा था। अपने आश्रम में आज भी मैं बच्चों को निःशुल्क पढ़ाता हूँ। मन उस युवक को देखकर गद्गद् हो गया कि कम से कम किसी बच्चे का जीवन तो मेरे कारण संवर गया। मुझे लगा कि मेरा धन्यवाद करने के लिए ही आज वह आया है। फिर भी औपचारिकतावश मैंने पूछा,
‘बताओ बेटा, आज मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?’
‘जी, छः महीने के लिए क्या आप मेरे पिताजी को यहाँ रख सकते हैं?’
उसकी बात सुनकर अचानक ऐसा लगा कि जैसे किसी ने मीठे दूध में नींबू की बूंदे डाल दी हों क्योंकि उसके सौम्य मुख से ऐसी बात की उम्मीद नहीं थी। इसके उलट मैं तो उससे धन्यवाद की अपेक्षा कर रहा था। हालाँकि कई बेटे यहाँ ऐसे भी आ चुके हैं, जो अपने माता-पिता को कुछ दिन के लिए रखने या विदेश जाकर लौटने या फिर घर शिफ्ट करके आने को कहकर गए और फिर कभी नहीं लौटे। यह भी उन्हीं में से एक है। बस इस बार सूरत मोहिनी थी और उम्र बहुत ज़्यादा नहीं। मेरे मन में अचानक ही उसके लिए असीम घृणा पैदा हो गई। फिर भी सामान्य बने रहकर मैंने पूछा,
‘बेटा, बुरा न मानो तो क्या मैं इसका कारण जान सकता हूँ?’
उसका चेहरा उतर गया बड़ी देर तक सोचने के बाद वह बोला,
‘दरअसल मेरे पिताजी का इस दुनिया में मेरे अलावा कोई नहीं है। उस गंदी बस्ती में रहकर बड़ी मुश्किल से उन्होंने मुझे पाला। ऐसे कई दिन गुज़रे, जब वह खुद भूखे रहते लेकिन मेरे लिए रोटी का इंतज़ाम जरूर करते। मेरे बड़े होने पर जब मुझे नौकरी मिली, तो सबसे पहले मैंने उनके लिए घर ले लिया। सब कुछ अच्छा था, अब पिताजी मेरी शादी के सपने देखने लगे। एक दिन अचानक ही जाने कैसे तबीयत बिगड़ी? धीरे-धीरे उनकी मानसिक स्थिति इतनी खराब हो गई कि वह सब कुछ भूल गए।’
इतना बोलते-बोलते उसकी आँखों में आँसू आ गए। अपने बच्चों से चोट खाए हुए इंसान पर अब इस तरह के आँसुओं का असर नहीं होता। मैं तटस्थ बैठा रहा। फिर चपरासी को पानी लाने के लिए कहा। उसने आगे कहा,
‘वे न केवल सब कुछ भूल गए बल्कि आधे अंग में लकवा मार गया। अब तक मैं पूरी तरह से सक्षम हो गया था, तो इलाज करवाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। अंत में खाना-पीना, नहलाना-धुलाना सब कामों के लिए नौकर रखना पड़ा। ऑफिस से आने के बाद मैं खुद उनके सभी काम करता हूँ। छुट्टियों और संडे को भी मैं ही देख लेता हूँ। एक दिन नहलाते वक्त मैंने देखा कि उनकी पीठ पर लाल निशान थे। मुझे कुछ शक हुआ, तो मैंने घर में कैमरे लगवा दिए, जिसके बाद मुझे सच्चाई पता चली। पिताजी के असमय कपड़े गंदे कर देने पर वह नौकर डंडे से उनको मारता और उन पर चिल्लाता था। वह जानता था कि वह सब कुछ भूले हुए थे इसलिए उसकी हिम्मत बढ़ी कि शिकायत करने वाला कौन है? उसकी असलियत जान कर मेरी आँखों में खून उतर आया। एक बेचारे बूढ़े, अपाहिज और भूले इंसान के साथ इस तरह का व्यवहार करना कहाँ तक उचित है? उस दिन मुझे यह लगा कि पैसा इंसान तो खरीद सकता है लेकिन उसमें भाव नहीं भर सकता। इसके बाद मैंने उसे नौकरी से निकाल दिया। अब मुझे इस दुनिया में किसी पर विश्वास नहीं है लेकिन मेरी मजबूरी यह है कि कंपनी में नौकरी ज्वाइन करते समय मैंने एक बांड भरा था कि बिना अपना प्रोजेक्ट पूरा किये मैं इस्तीफा नहीं दे सकता और यदि मैं ऐसा करता हूँ तो मुझे हर्जाने के रूप में एक बड़ी रकम चुकानी होगी। मेरी समय सीमा छः महीने बाद खत्म हो रही है। तब तक के लिए आप अगर उन्हें यहाँ रख लें, तो मुझ पर बड़ा एहसान होगा क्योंकि सुबह-शाम तो मैं उन्हें देख सकता हूँ मगर दिन भर के लिए उन्हें किसकी निगरानी में छोड़़ू? आप मुझे कोई काम भी सौंप दें जैसे सफाई, मालीगिरी, हिसाब-किताब या कुछ भी। मैं यहीं रहकर पिताजी की देखभाल कर लूँगा और आपका दिया काम भी। मेरा प्रोजेक्ट पूरा होते ही उन्हें ले जाऊँगा। हम बाप-बेटे घर पर एक साथ रहेंगे, हमेशा। मैंने जो घर खरीदा है, उसी में परचून की दुकान खोल लूँगा। आखिर हम दो प्राणियों के जीवन-यापन भर का तो मैं कमा ही लूँगा क्योंकि इस्तीफा देने के बाद जिंदगी चलाने के लिए कुछ तो करना होगा। आपसे विनती है कि मात्र छः महीने के लिए आश्रय दे दीजिए। आप चाहें, तो मैं इन महीनों में मिलने वाली पूरी तनख्वाह आपको देने को तैयार हूँ।’
अब मेरी आँखें उसकी आँखों की नमी से भर गईं। पानी का गिलास जो उसके लिए रखा था, मैंने उठाकर अपने गले को तर किया। हर बार हर एक बेटे की चिकनी-चुपड़ी बातों में मैं आ जाता था लेकिन इस बार सच की गवाही मेरी आत्मा दे रही थी।
किसी तरह उसने छः महीने बिताये। कभी भी, कोई भी काम कर लेता। सुबह उसकी कंपनी की गाड़ी उसे लेने आती तो वह सूट-बूट, टाई लगाकर जाता और वापस आकर एक कमीज, पायजामा और कंधे पर अंगौछा आ जाता, एकदम देसी अवतार। समय पूरा होते-होते उसने परचून का सामान अपने घर में इकट्ठा कर लिया। आज इस्तीफा देकर आया तो कहने लगा ‘यहीं रह जाऊँ तो…..?’
मुझे अच्छा लगा यह सुनकर, जी भी किया कि रुकने को कहूँ। फिर लगा कि कोई तो बाप है इतना सौभाग्यशाली, जो वृद्धाश्रम से अपने बच्चे के साथ जा रहा है। आजकल माता-पिता को साथ रखने वाले बच्चे होते कहाँ हैं? मैंने उसे समझाया कि उन्हें साथ ले जाए, उनके साथ रहे। यहाँ आश्रम में कौन देखने आ रहा है कि एक बेटा अपने बूढ़े बाप की सेवा करने के लिए किस हद तक बलिदान कर सकता है? दुनिया-समाज में रहेगा तो लोगों को शायद सीख मिल जाए। इन सब बातों में मैंने आपको उसका नाम तो बताया ही नहीं। ख़ैर, छोड़िए नाम जानकर क्या कीजिएगा? उसका काम जान लिया इतना काफी है……..’पूत सपूत तो का……..?’

डॉ कीर्ति अवस्थी
दूरभाष: +916386057470
———————————————————————————————

जन्मतिथि : 07 मई,1981
जन्म स्थान: ग्राम बैंती, तहसील शिवगढ़, जिला रायबरेली, उत्तर प्रदेश, इंडिया
शिक्षा: एम. ए. (अंग्रेजी, शिक्षाशास्त्र एवं हिंदी) बी.एड., पी-एच.डी. (अंग्रेजी)
प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘सुबह का चाँद’ (2019)
विभिन्न राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र, स्तरीय साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों का प्रकाशन
सम्मान: प्रज्ञा साहित्य सम्मान (2019)
मुसन्निफ़ ए अवध सम्मान (2020)
संप्रति: अध्यापन (अंग्रेजी), बाल विद्या मंदिर सीनियर सेकेंडरी रेजिडेंशियल/डे स्कूल, चारबाग लखनऊ, उत्तर प्रदेश, इंडिया
संपर्क: 6 सी, पार्क हाऊस, ला मार्टिनियर कॉलेज कैंपस, पार्क रोड, लखनऊ 226001 उत्तर प्रदेश, इंडिया
दूरभाष: +916386057470
ईमेल: awasthikirti90@gmail.com
यूट्यूब चैनल: Story Table कहानी हमारी आपकी

error: Content is protected !!