दोपहर के तीन बजे होंगे।
मार्च के महीने की धूप खिली थी। जो गरम तो थी पर गरमाने वाली नहीं पर फिर भी सौजन्य से लबालब।
धूप ऐसे इतरा रही थी जैसे की थोड़ी नमी लिए अभी-अभी खिला फूल। ये मानिए जैसे सुबह का तटका फूल बगीचे में यूँ इतराता है जैसे पड़ोस के पेड़ में आया लाल फूल भी इसी के पीलेपन की देन है। वो सोचता है माली के पानी की बाल्टी इसी के पंखुड़ी पर बैठे दो ओस की बूँदों ने भरी होगी।
कुछ-कुछ ऐसी ही अभिमान में झुकी-झुकी-सी झरझरा रही थी बासंती हवा लिए मार्च वाली धूप।
तभी बाहर बरामदे के पास से आवाज़ आई। “विनोद कुमार जी … ओ विनोद जी”
मैं अलसाए मन से उठा और गलियारे से बरामदे की ओर बढ़ा। एक बार साईकिल की घंटी बजी। देखा तो लाल साईकिल पर पोस्टमैन था। मुझे देखते ही अपने लम्बे से थैले में हाथ डाला और लिफ़ाफ़ों की एक गड्डी निकाली। फिर अपनी ऊँगलीयों को लिफ़ाफ़ों पर चलाने लगा। दस-बारह सेकंड के बाद उँगलियों की ऊहापोह रुकी और एक ख़ाकी लिफ़ाफ़े को थक्की से अलग कर मेरी ओर बढ़ाया।
“लीजिए विनोद जी” मेरी ओर खिसकाते हुए।
फिर एक बार साईकिल की घंटी बजी और डाकिया किसी और के द्वारे पनघट लगाने चल पड़ा।
वहीं बरामदे में पड़ी कुर्सी खिसकाई और बैठते-बैठते लिफ़ाफ़े को खोला, एक लम्बा-सा काग़ज़ निकाला।
चिट्ठी के ऊपर तीन शेरों के मुँह वाला निशान देखा और ठीक उसके नीचे चिर-परिचित ‘सत्यमेव जयते’ प्रदर्शित था। इतना तो साफ़ था कि कोई राजकारी पत्र है।
पहली कुछ पंक्तियों को चार-पाँच बार पढ़ा और साहसा ही दो-तीन मुस्कुराहट भरी लकीरें मेरे निचले होंठ से फिसलने लगी।
जब मैं ग्रैजूएशन के अंतिम वर्ष में था तब नौकरी पाने की जागरूकता सबसे ज़्यादा उतकंठित थी। उसी उत्सुकता में कई नौकरियों के लिए आवेदन पत्र भरे थे। जैसे की बड़े बैंकों में, चमकदार इमारतों में बसी ऊँची कम्पनीयाँ, भारतीय रेल और भारतीय डाक।
किसी ने शैक्षणिक योग्यता में कमी बताई, किसी ने इंटरव्यू में दुलत्ती मारी तो किसी ने दूसरे दौर के टेस्ट में ध्वस्त कर दिया।
प्रभु कि माया है की भारतीय डाक विभाग ने मेरा आवेदन स्वीकारा और नौकरी की बधाई देते हुए ये पत्र भेजा।
चिट्ठी में रेखांकित की हुई एक पंक्ति में लिखा है कि अगले महीने मतलब पंद्रह अप्रैल तक ट्रेनिंग के लिए मुंबई जाना है। तीन महीने की ट्रेनिंग और फिर पोस्टिंग होगी।
जीवन में एक बार फिर वही हुआ जो मेरी पहली पसंद नहीं थी। शहर के बीचोबीच लकड़ी के कैबिन में बैठ कर बाबु वाली चाय। कोई ऐसी नौकरी मिलती सो तो हुआ नहीं। चमचमाती शीशे की बिल्डिंग में क्लर्क भी ना बन पाया। और न ही गर्व से कह पाया … जी मैं रेलवे में काम करता हूँ।
ख़ैर… होई हैं वही जो राम रची राखा।
प्रभु प्रसाद समझ कर मैंने चिट्ठी माँ के चरणों में रखी। माँ बिना चिट्ठी पढ़े ही जैसे मेरी आँखों की चमक में मेरी पूरी ख़ुशख़बरी देख चुकी थी। मैंने भी माँ की छुअन को अपने सर पे उड़लने दिया।
“बेटा.. जीता रह। तेरे नाना भी बीकानेर में डाक बाबु ही थे” – कहकर माँ ने दोबारा मुझे पुचकारा।
माँ का दुलार तो होता ही ऐसा है जैसे जेठ के महीने में किसी ने आसमान में सुराग कर ठंडे पानी की फुहार कर दी हो। मेरे अंतःमन तक को तर-बतर कर देने वाली नमी उनकी मुस्कुराती आँखों से टपकने लगी।
माँ, अपने तखत से उठी और सामने मेज की तरफ़ बढ़ने लगी। मेज पर पापा की तस्वीर और उसपर सूखे गुलाब-सी दिखने वाली लाल रंग की माला थी। मेज की बाईं ओर की खिड़की से ठहरी-ठहरी हवा उनकी माला को सहज रूप से हिला रही थी। माला पापा के नीचले होंठों के पास आकर फिर से अंदर की ओर मुड़ी थी और उसपर जब मासूम-सी चलने वाली हवा लगती तो ऐसे हिलती जैसे पापा मुझसे कुछ बोल रहे हों। जैसे मेरे पास नए पहाड़ बने हों और उनमें से हौसलों और साहस के झरने सीधे मेरे मस्तक को धो रहे थे।
माँ, ने नौकरी का ख़त तस्वीर के सामने रख दिया। थोड़ी झुकी और साड़ी के दाहिने छोर को पल्लू-सा बनाकर अपने सर पर रख लिया। अब मेरे सामने आसमान और धरती दोनों हमेशा की तरह एक बार फिर एक-दूसरे को निहार रहे थे। दोनों के बीच में रखा किसी देवदार सरीखे पेड़ की फुनगी पर ये पत्र उनकी अनुकंपा की श्याहि से शराबोर हो रहा था।
“मुझे कल सुबह मुंबई के लिए रवाना होना होगा। वहाँ तीन महीने की ट्रेनिंग है उसके बाद कहीं किसी जगह पोस्टिंग होगी।” – माँ ने अपने उसी गुमसुम अंदाज़ में मेरी बात सुनी और रसोई में चली गई।
गाँव के निकटतम स्टेशन से कानपुर के लिए पैसेंजर ट्रेन सुबह सात बजे की है इसका मतलब घर से सवेरी निकलना पड़ेगा। यही सोचते-सोचते बड़े वाले कमरे की
अटारी पर से सूट्केस उतारा और कपड़े जचाने लगा। मैंने अपनी प्रिय पुस्तक गीता और डिग्री का बस्ता सब अंदर लगा दिया।
“विनोद, ओ विनोद … बेटा खाना खा ले” – रसोई से आ रही ख़ुशबू ने मानों दोबारा खटखटाया कर बताया कि किसी माँ ने अपने बेटे को खाने को बुलाया है।
“बेटा वो इमतरदान उतार दे, थोड़ा आम का अचार है… ला तेरे लिए बांध दूँ। तेरे रास्ते के लिए पूड़ियाँ और आलू की सूखी सब्ज़ी दे दूँगी कहीं बैठ के चाय के साथ खा लीओ।”
मैं चौंके में रखे पाटले पर बैठ गया। माँ ने मेरी ओर खाने की थाली सरकाई। उस थाली में मेरा पसंदीदा घी-बुरा जैसे मेरी ओर देख कर इठला रहा था। रोटी ऐसी जिसके स्वाद के लिए इंद्र भी इंद्रासन छोड़ दे। माँ के हाथ का खाना जैसे किसी समुद्र-मंथन से निकला अमृत का कटोरा … मानों दोनों एक रूप ही होंगे।
सुबह जल्दी जल्दी तैयार हो कर चौपाल के सामने से बस में बैठ गया। कोई दो घंटे में कानपुर स्टेशन पहुँच गया। हालाँकि बीच में रमईपुर के पास ड्राइवर ने पिछले पहिए भी बदले। पर राहत की बात थी कि अब मैं कानपुर स्टेशन की टिकट खड़की पर पहुँचा।
“जी ये मुंबई की गाड़ी कितने बजे है?”
“लखनऊ-मुंबई एक्सप्रेस, साढ़े बारह बजे आएगी और एक बजे रवाना होगी, प्लैट्फ़ॉरम नम्बर आठ से।”
रेल्वे अधिकारी का पूरा मुँह अंदर से लाल था जैसे सूरज को दबा रखा हो लेकिन कानपुर वालों के लिए दबा कर पान खाना जैसे साँस लेने के बराबर है।
मैंने झटपट एक हज़ार का नोट निकाला – “एक मुंबई की टिकट चाहिए”
वैसे जीवन का बोझ अभी कुछ ख़ास नहीं था सो एक बैग दाएँ काँधे पर और दूसरा हाथ में लिए आसानी से प्लैट्फ़ॉर्म आठ पर पहुँचा।
यहाँ का दृश्य बहुत हद तक एक सामान्य था जैसे कुछ परिवार एक साथ बैठे गप्पे मार रहे थे। परिवार बड़ा लग रहा था, शायद किसी शादी में शिरकत की तैयारी होगी।
वहीं एक कोने में मस्त एक बैडिंग पड़ा था, जिसे सिरहाना लगाए कोई फौजी था। फौजी की तो आँख लगी थी लेकिन उसके फ़ौजी वाले मोटे सोल के जूते ऐसे तने थे जैसे बॉर्डर पर दहाड़ रहे हों।
प्लाट्फ़ोर्म की सीढ़ियों पर लाल रंग की यूनीफार्म पहने कुछ कुली बैठे हैं।
वैसे कुलियों को जब भी देखता हूँ हर बार उनमें एक नया पात्र दिखाई देता है। कुली जब सर पर दूसरों का बोझ उठाता है तो कोई संत-सा प्रतीत होता है। कुली जब लाल धारी भेष में खड़ा होता है तो कोई मदद को आतुर सैनिक लगता है। कुली जब ग़ैरों का बोझ उठाय किसी यात्री को उसकी मंज़िल वाली ट्रेन पकड़वाता है तो मसीहा सरीखा लगता है। और जब थककर वहीं बैठ जाता है और हर आती जाती ट्रेन से मन ही मन बातें करता है, निहारता है तो कोई पुजारी लगता है।
मैं बड़ी आतुरता से समय सारिणी के बोर्ड पर अपनी ट्रेन की जानकारी पढ़ रहा था की तभी किसी सज्जन का पाँच-छः सूटकेस और दो झोला उठाय एक कुली से मुझे धक्का लगा। मेरी पानी की बोतल गिर गई और पीछे वाले के पाँव के नीचे पड़कर पिचक भी गई।
वैसे जिस बाबु का सामान था उसका एक हाथ पॉकेट में और दूजे में मोबाइल फ़ोन लहरा रहा था। अगर ज़नाब कुली को एक बैग कम भी देते और ख़ुद ढो लेते तो भी चलता! लेकिन आख़िरकार कुली को पैसे दिए होंगे सो पूरा वसूलना भी तो था।
यकायक एक उद्घोषणा (announcement) हुई कि मेरी वाली गाड़ी दो घंटे देरी से आएगी। वैसे तो कोई चिंता वाली बात थी नहीं क्यूँकि मैं रविवार की सुबह मुंबई पहुँचने वाला था सो अब दोपहर सही।
प्लैट्फ़ॉर्म पर पानी की टोंटी के पास नैसर्गिक रूप से एक चाय की दुकान दिखाई पड़ी।
“बाबु चाय स्पेशल या चालू?”
“कोई भी दे भाई लेकिन कड़क बनाना”
लगभग डेड़ बजने वाले थे। जठरागिनी अपना रूप दिखाने लगी थी। चाय वाले से दो मट्ठी ली और आगे बढ़ा।
कुल्हड़ का आनंद लेते लेते मैं किताबों के ठेले पर रुक गया, आख़िर रास्ते का सफ़र भी तो काटना था।
सामने कुछ विशिष्ट लेखकों की अभूतपूर्व रचनाएँ रखी थीं – कोई कविता, कोई ग़ज़ल, चुटकुले, लघु कथा, उपन्यास। मैंने हिंदी के लेखक तेजेंद्र शर्मा जी की कहानियों की किताब उठाई और उसी के पीछे दबी मुंसी जी की ‘गबन’। हालाँकि ‘गबन’ पहले पढ़ी थी लेकिन मन दोबारा पढ़ने का हुआ। जैसे गीता-रामायण जितनी बारी पढ़ो कुछ नया मिलता है ठीक वही बात मुझे गोदान और गबन सरीखी किताबों में मिलती है।
“कितने हुए बंधू?”
“भैया जी, डेड़ सौ और दो सौ। आपका हुआ साड़े तीन सौ।” अब देखिए दो घंटे की फ़िल्म का आज के ज़माने में हज़ार रुपय और दो शानदार कहानियाँ सौ-दो सौ में।
मैंने पाँच सौ का हरा नोट बढ़ाया।
“भैया जी हमारा छोटा भाई यहीं स्टेशन के पीछे गरीब-गुरबा का बच्चा सब को दो-तीन घंटा अंग्रेज़ी और मैथ पढ़ाता है। अगर कुछ सहयोग होगा तो उपकार मानेंगे”
“हाँ, ये तो मस्त काम करता है तुम्हारा भाई। सौ रूपैया मेरी तरफ़ से कॉपी-पेन दिलवा देना बच्चा सब को”
दोनो किताबों को छोटे बैग में डाल कर जैसे ही कुल्हड़ उठाया तो देखा कि चाय का आनंद मक्खी ले रही थी। इतनी अच्छी चाय का बेड़ागरक हुआ लेकिन इलायची की ख़ुशबू अभी भी आ रही थी।
अब दो बजने वाले थे। तभी वहाँ से एक श्रीमान आते दिखाई पड़े। काली पतलून पर सफ़ेद शर्ट और ऊपर से लटका काला कोट, हाथ में बड़े बड़े काग़ज़ों का पुलिंदा। देखते ही समझ में आ गया। आधी लटकी नेम प्लेट पर उनका नाम अटका था – आर॰ के॰ त्रिपाठी।
“त्रिपाठी जी नमस्कार, लखनऊ-मुंबई एक्सप्रेस में आप ही रहेंगे?” मैंने बड़ी सावधानी से पूछा।
त्रिपाठी जी का वही चिर-परिचित कानपुरिया मुँह खुला। जो पूरी तरह पान के रस से सराबोर।
मुँह को थोड़ा ऊपर को ऐंगल देते हुए उन्होंने जवाब दिया “जी कौनों ऐतराज? ट्रेन आने वाली है। सीट है ना जी?”
“सफ़र लम्बा है। देखिए RAC है अगर बर्थ मिल जाती तो … “
त्रिपाठी जी थोड़ा-सा बड़े अफ़सर वाला हाव-भाव दिखाते हुए – “हमम्म… ठीक है, आप कितने नम्बर बोगी में हैं भैया?”
मैंने झट से जेबों को टटोलते हुए ब्लेज़र के अंदर वाली पोकेट से टिकट निकाला – “ये दो नम्बर 62R”
“हाँ तो ठीक है आगरा में आता हूँ फिर आपकी बर्थ इंतेज़ाम करते हैं”
“थैंक्स सर” बोल कर मैं प्लाट्फ़ोर्म के दूसरे चोर की ओर चल पड़ा।
आख़िर प्रतीक्षा समाप्त हुई – ट्रेन आयी। 62R भी मिली लेकिन कोई ज़नाब पैर पर पैर धरे और एक सींक से दांत कुरेदते हुए मेरी सीट पर विद्यमान थे।
“ओ चच्चा ये बासठ नम्बर सीट मेरी है। आपको तकलीफ़ दूँगा – प्लीज़”
“हाँ तो आओ। ख़ाली पढ़ी रही हमने सोचा हमई बैठ जाबें।”
ज़नाब की सीट पर उनकी बेगम सो रही थीं। बड़े आदर से उन्होंने उनके पैर को खिसकाया और बैठ गए।
मेरे ठीक सामने वाली सीट पर एक मैडम बैठी थीं। मेरी सीट के नीचे उन्हीं का सामान पसरा था। सामने tray पर iPad से निकल कर earphone की तार मैडम के झुमके के नीचे अटकी थी।
संकुचाते हुए पूछ ही लिया – “हैलो मैडम, क्या ये सामान आपका है?”
“O Yes, extremely sorry. Let me arrange this”
और फिर उसने अपने iPad को साइड में रखा, कानों में से earphone की लीड निकाली और लगभग हड़बढ़ाते हुए अपनी चप्पल पहनने लगी।
मैडम के अंग्रेज़ी और मॉडर्न हाव-भाव को देखते हुए मुझे पहली बार लगा की मैं बड़े शहर मुंबई जा रहा हूँ।
“अरे मैडम जी Don’t worry I’ll rearrange and make some space”
“Are you sure?”
“Ya ya it’s okay”
सब सेट वेट कर के पानी की बोतल निकाली और और आधी गड़क गया। थोड़ी देर में आख़िर इन्तेज़ार की घड़ी ख़तम हुई और ट्रेन का बड़ा-सा हॉर्न सुनाई दिया अंततोगत्वा मेरी Train मुंबई की ओर सरपट भागने लगी।
आशीष मिश्रा
आशीष मिश्रा, हिंदी कविताएँ व कहानियाँ लिखते हैं। वे गत 12 वर्षों से ब्रिटेन में रहते हैं और एक software architect हैं।
उनका एक काव्य संग्रह “मेरी कविता मेरे भाव” 2019 में प्रकाशित हो चुका है, दो साँझा काव्य संग्रह, एक साँझा कहानी संग्रह।
उनके काव्य लेखन को 2017-2018 में भारतीय उच्चायोग, लंदन द्वारा सम्मानित किया गया है।
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा “हिंदी प्रज्ञा” सम्मान, साहित्य सेतु परिषद द्वारा “साहित्य श्री”, “काव्य वैभव” सम्मान।