सुर्ख लाल रंग की, कम से कम नींबू के बराबर की बिंदी। बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी कोरें निकाला हुआ काजल, जो छोटी-छोटी आँखों के अतिरिक्त बड़े होने का आभास दे रहीं थीं। बालों को शिव जी की तरह जटा- जूट सा बाँधा हुआ। जिन पर मोतियों की रंगबिरंगी मालाएँ थीं। कानों में कुछ शिवजी के चित्रों नुमा कुंडल। दोनों हाथों में लगभग कोहनियों तक, अलग –अलग रंग के ढेरों कड़े और चूड़ियाँ। बदन पर एक मोरपंखी रंगों वाली सतरंगी मैक्सी। पैरों में फूलोंवाली स्लीपर और कमर पर आगे लटका, एक काला बटुआ। उसका डील-डौल भी आम महिलाओं से अलग, थोड़ी मर्दानी काठी वाली भी कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं। उस दुकान की खिड़की में गणेश जी की अलग- अलग तरह की कई छोटी- बड़ी मूर्तियों को देख सहज ही दुकान में भीतर घुसने का मन बना लिया। भीतर जाने पर जिसके दर्शन हुए वह यही महिला थी। उम्र लगभग 50-55 रही होगी।
दुकान के भीतर तरह तरह के ‘गिफ्ट आयटम्स’ थे। उस दुकान में अगरबत्तियाँ, राजस्थानी सूती कुर्तियाँ, लहंगे लटके थे। बुद्ध, गणपति, ओम, हाथी, शेर, आदि की पीतल, मिट्टी और अन्य धातुओं की मूर्तियाँ, विशेष रूप से तरह- तरह की भारतीय चीज़ें, यहाँ तक कि सुर्ख लाल बड़ी बिंदी का एक पत्ता भी, जिस पर तीन बिंदियाँ थीं । लेकिन उसके साथ भृकुटि चक्र की जानकारी पर्ची पर चिपकी थी। मात्र आठ यूरो। मन ही मन मैंने सोचा, कि ये विदेशी लोगों को कितना पागल बनाते हैं। हाँ तो, यह दुकान एक चौराहे पर थी और दो सड़कों पर खुलती थी। दूसरी तरफ भीतर से ही जाया जा सकता था। इस भाग में केफेटेरिया था, जहाँ फ्रेश कॉफी और छोटे-मोटे स्पेनिश नाश्ते रखे थे। जिनके नामों से मैं वाकिफ़ नहीं थी। वहाँ, काउंटर के पीछे एक 25-26 साल का लड़का खड़ा था। उस हिस्से के बाहर वहाँ की अन्य दुकानों की तरह चार कुर्सियाँ और एक टेबल रखी थी।जिस पर कुछ लोग बैठे सिगरेट धौंक रहे थे।
क्षण भर को मेरी और उस महिला की नज़रें मिलीं। वह मुस्कुरा कर कुछ बोली और उस लड़के से स्पेनिश में कुछ बोलते-बोलते दुकान के कॉफ़ी शॉप वाले हिस्से में घुस गई।
‘ऊ बई या तो लेडी शिवा सी दीखे’, मैं धीरे से बुदबुदा उठी। लेकिन मेरा ‘ऊ बई’ कुछ ज़ोर से ही निकल गया था। वह मेरी ओर पलटी। उसकी नज़र में विस्मय था।
“कुछ कहा आपने”? वह लौटती हुई बोली,
पहले तो वह लेडी शिवा हिंदी में बोल पड़ेगी इसकी कल्पना भी न थी। दूसरे , मन ही मन में डर गई। लेकिन उसकी आँखों से मुझे लगा कि वह नाराज़ नहीं थी।
“आप हिंदी बोलती हैं? “, मैंने आश्चर्य से पूछा।
” हाँ, पर आप क्या बोली थीं ? ”
“म..मैं…क..क कुछ नहीं।” मुझे लगा कि मेरी बेटी मेरे पास खड़ी है
“बेटी, यहाँ तो कोई नहीं”? वह इधर-उधर देख कर बोली।
“आप घूमने आई हैं”, उसने अगला सवाल पूछ लिया।
“नहीं, बेटी यहाँ कॉलेज में पढ़ती है, उसका दूसरा साल है। पहले दो बार आ चुकी हूँ”,
“कहाँ से आई हैं आप”? उसने पूछा।
“इंगलैंड से”
मैं भी किसी बाहर वाले से बात करने को तरस रही थी सो तसल्ली से उत्तर दे रही थी।
‘नहीं, भारत में आपका घर कहाँ हैं’, वह बेचैन लगने लगी।
“कहाँ बताऊँ, बड़ा कठिन सवाल है? इंदौर मायका, पुणे ससुराल।” मैं मुस्कुराते हुए बोली।
वह उछल पड़ी! बोली, “मैं तभी जान गई थी, आपने जब ‘उ बई’ कहा था.. मैं भी इंदौर की हूँ” वह अति उत्साहित हो गई।
उत्साहित तो मैं भी हो गई। सदूर परदेस में, सिर्फ हिंदीभाषी भारतीय नहीं, बल्कि मेरे इंदौर, मेरे अपने शहर की किसी ‘उ बई’ जैसे ठेठ इंदौरी जुमले को समझनेवाली का मिलना तो अकल्पनीय ही था। मैं गदगद हो गई। बेटी को अनजाने देश में अकेले छोड़ने की चिंता मुझे खाये जा रही थी, मैं बहुत चिंतित रहती थी, मुझे ऐसा लगा कि भगवान ने मेरी सुन ली
“अरे मैं केंद्रीय विद्यालय इंदौर में पढ़ी हूँ।” वह उत्साह से बोली।
“अच्छा क्या नाम है आपका, किस बैच में , मेरा 10वीं का बैच 1984 थी।” मैंने भी उत्साहित होकर जवाब दिया।
“नाम….मेरा ! माया… नहीं… रजनी। यहाँ सब माया के नाम से जानते हैं…. मेरा बैच…..मेरा शायद 79 का होगा…।”
“ओह, तब हो सकता है कि आप शायद मेरी बड़ी बहन के साथ रही होंगी… ”
“क्या नाम… ओह कुछ याद नहीं आता… ” फिर स्मृति पर ज़ोर डालकर एक दो नाम जो बताए मैं नहीं जानती थी। मैं जानती भी कैसे? पाँच साल का अंतर बड़ा होता है और फिर वैसे भी उसे यहाँ आए न जाने कितना समय हो गया होगा, मैंने सोचा।
उसकी बातें बहुत रोचक लगीं । उसका इंदौर का होना और केंद्रीय विद्यालय में उसका पढ़ना, हमें जोड़ने के लिये काफ़ी था।
तभी सुरभी, मेरी बेटी आ गई। माया ने सुरभी को देखते ही गले लगा लिया। “मेरी बेटी, मेरी बेटी… ”
सुरभी भौंचक्की। मैंने भी अत्यंत आत्मीय भाव से कहा , “बेटा ये इंदौर की हैं, मेरे ही स्कूल की। मौसी बोलो इन्हें।”
“हाँ ओर क्या , में मासी हूँ” वह ठेठ इंदौरी लहज़े में प्रेमपगे स्वर में बोली।
फिर सुरभी से बोली, “बेटा अपने को किसी चक्कर में नहीं पड़ना, पढ़ाई करना और मम्मी की बात मानना….. और कुछ भी लगे तो मेरे पास आना, मासी हूँ तेरी…… ” कहते कहते वह कहीं खो-सी गई।
फिर मेरा हाथ पकड़ कर कैफेटेरिया वाले हिस्से में खींचते हुए बोली, “चाय कॉफी क्या लोगी? ” ऐसे नहीं जाने दूँगी। उसने मुझे और सुरभी को पकड़ कर बिठा लिया । दुकान भी खाली थी और वह मुझे किसी भी तरह नहीं छोड़ना चाहती थी।
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बस, मानो बरसों से बँधे बाँध का पानी आज एकाएक खोल दिया हो। उसने मेरे बगैर पूछे ही अपना मन मेरे सामने खोल कर रख दिया।
“…जीजी, मुझे कुछ नहीं रोक पाया। न पापा की छाया, न मम्मी का प्यार, बहन से तो हमेशा 36 का आंकड़ा ही बैठता था। क्योंकि वह एक अच्छी लड़की थी, मैं नहीं।”
वह मुझे बार-बार जीजी कह रही थी, तो इसलिये नहीं कि मैं उससे बड़ी थी या मेरा नाम लेना कठिन था। संभवतः वह मुझे बार बार जीजी कहकर उन संबंधों की गर्मी को महसूस करना चाह रही थी जिनके होते हुए भी वह कभी जी नहीं पाई।
जोसे के बारे में बई के अनेक अनेक सवालों के जवाब में जो मैं कहती थी उसका सार…
“वो बहुत अच्छा है। मेरा ख्याल रखेगा”
“हमारी संस्कृति का सम्मान करता है, वह धोती कुर्ता पहनता है”
“क्या धोती कुर्ता पहनना हमारी संस्कृति है”
“सत्संग में सब कहते हैं कि हम दोनों साथ में अच्छे लगते हैं…. ”
“सत्संग वाले तेरे अपने हैं, तेरे सुख –दुख से उनका क्या संबंध? ”
“वह माँस भी नहीं खाता”
“झूठ लंबे समय नहीं चलता बेटा और सच कड़वा होता है।”
“तू कुछ समझती नहीं बई##
“हाँ, इसका निर्णय तू करेगी, तू क्या समझती है”
“सास की मार खाई है मैंने, तू माँ का थप्पड़ नहीं खा सकती।”
“बई ने खूब समझायो –छोरी देख, मैं थारे बचपन से जाणू हूँ, यो कईं चाकलेट , गोली नहीं है दरी, ”
“थारी जिंनगी को सवाल है, बेटा मान जा तू पछतागी। म्हरो दिल केवे, यो ठीक नी हुई रियो। ”
बई ने अंत में यह भी कहा था कि देख अपने जीवन की शुरुआत कोई का दिल तोड़ के मत करे बेटा, थारे दिल तो तोड़नोज है तू सोच ले बेटा अनजान आदमी का वास्ता अपने बई, पापाजी, और भाई-बेन का दिल तोड़े। एक का पीछे थारो देस, घर बार सब छूट जावेगो।
देख बेटा, कुवाँरी कन्या का हज़ार वर होवे है। बात 10 जगै चले, कदी सब जम जावे, फिर भी रिश्ता न होये। देख न अपनी भाषा, थारे कईं हुई गिया तो हम कईं करांगे। इत्ती दूर हवईजाज में जानो पड़े, नी होय , पैसा लगे तो बी दे दूँ कदी गयाच नी इत्ती दूर। तू समझ ले फिर मायको खतम थारो। हमारे कने तो इत्तो पईसो बी नईं।”
मेरे पास बई के हर सवाल का जवाब था। मेरे ऊपर जोसे का गाढ़ा रंग चढ़ा था । उसका ऐसा असर था मुझ पर कि पहले तो सिर्फ भाई –बहन ही दुश्मन लगते थे लेकिन अब बई भी मुझे बहुत स्वार्थी नज़र आती थी।
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पहले साल सब कुछ ठीक-ठाक ही था। मेरी जवानी थी या मेरे ऊपर प्यार की गहरी खुमारी थी। लेकिन धीरे -धीरे जोसे का चरित्तर सामने आने लगा। वह जब-तब मारपीट करने लगा। उसका पहलेवाला रूप कहीं खो गया नशा शुरु करने के बाद तो स्थिति और बिगड़ती ही गई। अब जोसे मेरे लिए पूरा तरह एक अपरिचित , एक दूसरा आदमी बन चुका था, जिसे न मेरी परवाह रही और न मेरी भावनाओं से कोई सरोकार रहा। उसका व्यवहार वहशियाना होने लगा कि मुझे अपनी जान का खतरा स्पष्ट महसूस होने लगा। अब वापस जाना मुश्किल था। सबसे पहले बई की याद आई, । लेकिन अब तो तीर छूट चुका था, वैसे भी पूरे घर की घोर नाराज़ी लेकर किए विद्रोह के बाद अब किस मुँह से वापस जाती मैं? पर हिम्मत नहीं हारी मैंने। उसके बाद बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं,जीजी। बस एक ही काम अच्छा हुआ था कि अपने शौक के कारण मैंने यहाँ आते ही स्पेनिश भाषा सीख ली थी।
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सुरभी भी उसकी कहानी सुन रही थी पर सुरभी को बैंक में अकाउंट खुलवाना था, उससे फिर मिलने की बात कह मैं चलने लगी तो उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये। ऐ जीजी, खाना खा कर जाना। लेकिन हमने बैंक में समय ले रखा था तो उसने वचन लिया कि अगली शाम, मैं खाना उसके साथ खाऊँ। सुरभी की भी पहले साल के विद्यार्थियों की कोई पार्टी थी तो मैंने सोच लिया कि सुरभी अपनी पार्टी से मेरे पास ही आ जायेगी।
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माया की बातों ने दिल में उथल-पुथल मचाकर रख दी थी। सो अगली शाम मैं माया के पास जा पँहुची। दिन में एक बार उसका फोन भी आ चुका था। सुरभी को उसके कॉलेज की पार्टी में छोड़ते हुए उसके घर पँहुची तो शाम के आठ बजे थे। उसी लड़के ने दरवाज़ा खोला। माया भी पीछे ही थी उसने देखते ही मुझे आलिंगन में भर लिया। मैं उसके लिये एक चॉकलेट का डिब्बा और इंदौरी सेव का एक पैकेट ले गई थी। सेंव देखते ही वह भावुक हो गई, बोली लगभग 25 साल बाद मैं इंदौरी सेंव देख रही हूँ।
पीछे घर और आगे उसका वह उसका छोटा-सा होटल था। बोली, आज इक्का–दुक्का ग्राहक ही होंगे। शुक्र से रविवार तक व्यस्तता बहुत रहती है । सोमवार को तो बिल्कुल ही नहीं। माया उस लड़के को एरोन कह कर पुकार रही थी। मैंने पूछा कि क्या यह उसका बेटा है. वह हँस पड़ी , नहीं मैंने इससे पिछले साल शादी की है। कह रही थी ,मैंने तो इसे बहुत समझाया था , ये बापड़ा माना ही नहीं। मुझे आश्चर्य हुआ, मैं चुप रही, और भीतर से असहज हो गई । पर वह नहीं। बहुत बेबाकपन से बता रही थी कि जोसे से उसके एक बेटा और बेटी हुए लेकिन फिर जोसे का मन उससे भर गया। उसने उसे छोड़ दिया और बच्चों को अपने साथ ले गया।
हाँ तो जीजी, तुम्हारी माया कोई बैठनेवाली नहीं थी, चारा भी नहीं था। सो, तुम्हारी माया ने खुद की आयुर्वेद मालिश की दुकान खोल ली, वह चल निकली तो भारत के नाम पर उसने हल्दी चंदन, मुलैठी आदि हर्बल वस्तुएं बनाकर बेचना शुरु कर दिया। किस्मत ऐसी कि तुम्हारी बहन की दुकान चल गई।… तो उसने योगासन इत्यादि सिखाकर इतनी प्रसिद्धि हासिल कर ली कि वह बहुत आरामदायक जिंदगी जीने लगी।
जीजी, मेरी बेटी चौबीस और बेटा 25 साल का बेटा है मेरा, न कभी बेटा मिलता नहीं है और न बेटी, बाप ने न जाने क्या सिखा दिया है। अपने बच्चों और जोसे के सामने कितनी रोई गिड़गिड़ाई हूँ। लेकिन फिर जी कड़ा कर लिया। दोनों अमेरिका में हैं, अच्छी नौकरी में हैं, अपन को और क्या चाहिए? मिलते तो नहीं, पर खुश हैं अपनी दुनिया में। मेरे पास तो उनका पता तक नहीं है। वैसे भई जीजी, मैंने जीवन से यह सीखा है कि जिसे अपनी कदर नहीं अपने को उसकी कदर नहीं। कभी आ जाएँ तो मेरी खुशी का पार न होगा। क्या पता, किसी दिन तुम्हारी ही तरह आ जाएँ-घूमते घूमते। क्षण भर के लिए उसकी आँखों में एक अनोखा उल्लास और चमक कौंधी।
उसने बहुत प्यार से मुझे पहले अपने हाथ के समोसे बना कर खिलाए, फिर खाने में दाल- चावल आलू-बैंगन की सूखी सब्जी, पूरियाँ ,खीर इत्यादि के साथ-साथ तरह तरह अचार पापड़ और चटनियाँ रख दीं। सुरभी आई तब रात का ग्यारह बज रहा था, पता ही नहीं चला। सुरभी को भी उसने ज़िद कर के समोस और खीर खिलाई। माया का निश्छल, बेबाक और प्रेम से लबालब व्यक्तित्व मेरे दिल में उतर गया। मैं जब चलने लगी तो उसने मुझे और सुरभी को गले लगाते हुए कहा, कि कोई भी जरूरत हो तो यहाँ तेरी मासी है यहाँ, आ जाजे।
मैंने कहा , माया दीदी अब तो तुम खुश हो ना।
वह एक विद्रूप –सी हँसी हँसी। सच कहूँ जीजी, बई की एक- एक बात सच पहले साल में ही सच निकल गई थी। आज 32 साल हो गये मुझे यहाँ। बई को गुज़रे बारह साल हो गये। जीजी, वह एकदम गाँव की थी,लेकिन बहुत मॉडर्न थी उसकी सोच। काश मैं तब समझ पाती। तब मेरी आँखों पर स्वार्थ की गहरी पट्टी चढ़ी थी। मैं ऊपर कितना भी खुश दिखूँ, लेकिन जीजी रोज़ मरती हूँ। काश, बई की बात मान लेती। जोसे के साथ यहाँ क्यों ….. आ गई। वापस भी नहीं गई कभी। क्या मुँह लेकर जाती।
कहते कहते उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े,गला रूंध गया। वह मेरे गले से लग गई, बड़ी देर तक। ……………….
मैं सोच रही थी कि एक गलत कदम इंसान को ऐसी गर्त में धकेल देता है कि वह उससे चाह कर भी बाहर नहीं निकाल पाता। लेकिन फिर अचानक मुझे उस पर गुस्सा आया कि इसे सारी दुनिया में अपने बराबर का आदमी नहीं मिला जो अपने बेटे की उम्र के लड़के से…….गुस्सा बहुत पर क्षणिक था। दिल के किसी कोने में मुझे उससे गहरी सहानुभूति हो गई थी। अकेलेपन से उसकी लंबी लड़ाई को मैंने उन कुछ घंटों में अनुभव कर लिया था। अक्सर समाज से ठुकराए लोग ही एकदूसरे का दुख समझ सकते हैं, कौन जाने, एरोन उसके अपने समाज से हार कर माया के साथ से स्वयं को स्थापित कर रहा हो।
रोकर उसके लिपटने ने बरसों की बेबसी बयान कर दी। मेरा मन उसके दुख से विकल-व्यथित हो उठा। भीगे मन और भीगी आँखें लिए मैं लौट आई।
सुरभी जब तक रही, मैं माया से मिलती रही। लेकिन माया 30 साल बाहर रहकर भी मायके जाने की तड़प लिए ही कोविड में परलोक सिधार गई। परिस्थितियों को धता बता कर परदेस में अपनी जगह बनानेवाली माया। उसका चेहरा, उसकी बड़ी गोल बिंदी, फक्कड़ मिजाज़ फर्राटेदार स्पैनिश और ठेठ इंदौरी लहज़ा आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर अंकित हैं।
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डॉ. वंदना मुकेश
वॉलसॉल, इंग्लैंड
डॉ. वंदना मुकेश
जन्म- भोपाल 12 सितंबर 1969 (पंजीकृत)
शिक्षा- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से स्नातक, पुणे विद्यापीठ से अंग्रेज़ी व हिंदी में प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर एवं हिंदी में पी.एचडी की उपाधि। इंग्लैंड से क्वालिफ़ाईड टीचर स्टेटस एवं CELTA
2002 से इंग्लैंड में निवास।
लेखन- छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत। 1987 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहली कविता ‘खामोश ज़िंदगी’ के प्रकाशन से अब तक विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे गगनांचल, साहित्य अमृत, वागर्थ, वीणा. ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, अक्षरा, हरिगंधा, गर्भनाल, आधुनिक साहित्य, पुरवाई (यू.के.), चेतना(कनाडा), विभोम स्वर (अमेरिका) आदि और साहित्यिक-समीक्षात्मक पुस्तकों, वेब पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों में विविध विषयों पर कहानियाँ, कविताएँ, संस्मरण, समीक्षाएँ, ललित निबंध, लेख, एवं शोध-पत्र प्रकाशित।
प्रकाशन-
1. कहानी संग्रह- ‘वंदना मुकेश –संकलित कहानियाँ’, नेशनल बुक ट्रस्ट 2021
2. ‘मौन मुखर जब’ (काव्य संग्रह) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद 2015
3. ‘नौंवे दशक का हिंदी निबंध साहित्य एक विवेचन’ शोध प्रबंध- भावना प्रकाशन, दिल्ली 2002,
सहलेखन- मॉम, डैड और मैं (लघु उपन्यास-संकल्पना–संपादन उषा वर्मा 2016,)
संपादन-
1. ब्रिटेन की चयनित रचनाएँ 2023
2. जाकी रही भावना जैसी (डॉ. केशव प्रथमवीर अभिनंदन ग्रंथ) 2021
3. ‘परि भारत में किसान न बनइयो’ (निबंध संकलन) डॉ. केशव प्रथमवीर 2018
4. ‘मन के मनके’ रामनारायण सिरोठिया, (काव्य संग्रह) 2016
प्रसारण- य़ू.के. में स्थानीय टी.वी. चैनल पर काव्य पाठ, बी.बी.सी. वैस्ट मिडलैंड्स रेडियो, आकाशवाणी पुणे से काव्य-पाठ एवं वार्ताएँ प्रसारित। वेब वार्ताओं ,काव्य गोष्ठियों, मुशायरों में सहभागिता।
विशिष्ट उपलब्धियां-
छात्र जीवन से ही अकादमिक स्पर्धाओं में अनेक पुरस्कार, भारत एवं इंग्लैंड में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रपत्र वाचन, सहभाग और सम्मान।
विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ताज प्रतियोगिता 2023 में तृतीय, अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता 2019 में भौगोलिक क्षेत्र यूरोप-यू.के. में प्रथम स्थान
रविंद्रनाथ टैगोर युनिवर्सिटी, भोपाल द्वारा आयोजित विश्वरंग कार्यक्रम में प्रपत्र- पाठन, सहभाग एवं सम्मान 2023, 2020 तथा 2019
पब्लिक रिलेशंस सोसायटी भोपाल द्वारा साहित्य सम्मान 2019, 2023
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा आयोजित डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र पर आधारित संस्कृति श्रृंखला-7 में फरवरी 2018 में कोलकाता में वक्ता के रूप में सम्मानित
विश्व हिंदी साहित्य परिषद, दिल्ली द्वारा ‘सृजन भारती’ सम्मान 2016
भारतीय उच्चायोग लंदन द्वारा डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी अनुदान-सम्मान 2014
यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011, में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये भारत सरकार द्वारा विशिष्ट सम्मान
भारत सरकार एवं गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011 की संयोजक सचिव।
22वें अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन 2006 में प्रपत्र वाचन में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था,
गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषीय सम्मेलन 2005 की संयोजक सचिव ।
इंटीग्रेटेड काउंसिल फ़ॉर सोश्यो-इकनॉमिक प्रोग्रेस दिल्ली द्वारा ‘महिला राष्ट्रीय ज्योति पुरस्कार’ 2002
1997 से सतत भारत एवं ब्रिटेन में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कवि- सम्मेलनों का संयोजन-संचालन
2004 से गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सदस्य।
संप्रति- इंग्लैंड में प्रयोजनमूलक अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका
केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय परीक्षा विभाग में परीक्षक एवं हिंदी में स्वतंत्र लेखन
संपर्कः 0044-7886777418, vandanamsharma@hotmail.co.uk
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