चिलचिलाती धूप में थके भटके राही की भूख-प्यास मिटाना तो दूर की बात, छाँव तक दे सकें ऐसे भी नहीं थे वे नागफनी के कँटीले झाड़। फिर क्या ज़रूरत थी उन पेड़ों की इस रेगिस्तान में? आश्चर्य की बात तो यह थी कि जाने किस लालच में चन्द तितलियाँ भी मंडराती दिख रही थीं उन इक्के-दुक्के चटक लाल-पीले फूलों के ऊपर!
बर्फीली हवाओं में भी सुनसान रेगिस्तान की थकान देता वह स्वप्न, निश्चय ही बेचैन और सोचने पर मजबूर करने वाला था और उतना ही असह्य भी,जितनी कि खुद कैप्टन कमाल खान की अपनी मनःस्चिति थी उस वक़्त ।
संवेदनशील घाटी में नियुक्ति को अभी पंद्रह दिन ही हुए थे कि उलझनों का एक रेगिस्तान-सा आ पसरा था उनकी आँखों के आगे और दिन में ही नहीं, रात भर सपनों में भी उनका पीछा करता रहता था दुस्वप्न। सारी नेक-नीयत के बावजूद भी हारे और असफल ही दिखते थे उन्हें अपने सभी प्रयास। गोरिल्ला हमले बढ़ रहे थे। नागरिकों पर तो कभी सीमा पर, विशेषकर बेगुनाह तीर्थ यात्रिओं पर तो आए दिन की ही बात हो चली थी।
दुश्मनों को पल-पल की खबर और पनाह देने वाले भी तो निश्चय ही पर स्वयं अपनों में से ही तो थे और अपनों के ही बीच ही रहते भी थे।
मजहबी आतंक का यह पूरा खौफनाक सिद्धांत ही उनकी समझ से परे था। सिवाय बर्बादी और बर्बरता के कुछ भी तो हासिल नहीं। न्याय-संगत नहीं है यह, ना ही मानवीय ही।
मासूम और निर्दोषों की चोट पर उनका मन कराहने लग जाता।
बेगुनाह घायलों की चीखें दिन-रात पीछा करती रहतीं उनका।
कल की ही तो बात थी, जब आकाश तक उठती लपटों में तीर्थ-यात्रियों से भरी बस जल उठी थी। झुलसे लोगों तक पहुँच पाना, मदद कर पाना आसान नही था, फिर भी आधे से अधिक लोगों को बचा ही लिया था उनकी बहादुर टुकड़ी ने।
पर न तो उनकी सपने देखती आँखों ने फलते-फूलते खुशहाल देश के सपने ही देखने छोड़े थे और ना ही अतृप्त इच्छाओं का रेगिस्तान सा फैलता आतंक ही थमने का नाम ले रहा था। रोकने-थामने के प्रयास में अपने ही समाज में नागफनी से कँटीले और परित्यक्त होते जा रहे थे वह। जुमे की नमाज तक में न जा पाते, विशेषतः तब जब पूरी जमात की आँखों में हर नाजायज भी जायज था अब, यदि मजहब का चोला पहना दिया जाए तो…कोई भी हद दरजे का गिरा और घृणित कर्म भी।…
जीवन घायल और कराहता ही तो दिखता था वहाँ उस फल-फूलों से भरी वादी में। खूबसूरत और देवताओं की वादी उग्र और असह्य होती जा रही थी, आए दिन ही खून-सनी भी । पर धरती पर स्वर्ग कही जाने वाली यह वादी नरक में कैसे तब्दील होने दी जा सकती थी !
प्रहरी जैसे खड़े वे नागफनी के पेड़ और उनके भाले से नुकीले कांटे, अंतस में सारी नमी और प्यास संजोए हुए, कितने असहाय और निरर्थक दिखे थे उस स्वप्न में, जैसे कि ख़ुद उनके अपने देश के सभी सुरक्षा कर्मी भी। एक सेंध भरो तो पता चलता है कहीं और से हमला हो गया।
संचय और संरक्षण की यह लड़ाई कठिन थी और लम्बी चलेगी, कई बार महसूस कर चुके थे वह। पर हथियार तो नहीं डाल सकते थे! बात जब अपनों की हो, अपनों पर हो तो आख़िरी साँस तक लड़ता है आदमी! जहाँ-जहाँ नाजुक तितलियों ने कांटों को चूमा होगा, निश्चय ही वहीं पर तो फूल आते होंगे। जैसे हर हार के बाद एक गीली व संकल्पित मुस्कान आ जाती है आँखों में।
इतनी कोमलता और तरलता खून-पसीने सनी लगन से ही तो जनमती है!…
आँखें बन चुके थे अब तो वे नागफनी के पेड़ उनके दृढ़ अंतर्मन के। राह तकते और राह बताते।
इतनी बार देख चुके थे वह सपना कि एक भाईचारा-सा जुड़ता जा रहा था उनका उस रेगिस्तान से, रेगिस्तान में उगी नागफनी से और नागफनी पर उड़ती तितलियों के साथ भी। पी चुके थे शायद कमाल खान प्रहरी-सी खड़ी नागफनी की सारी कर्मठता और जिजीषा को। समझने लगे थे हर हाल में जीवित रहने और रखने वाले उसके अथक संघर्ष को। जल और जीवन दोनों ही संभव है मरु में भी। और अगर जीवन है तो जीने की आस भी। अगर संघर्ष साहस की उँगली न छोड़े तो संभव है सब कुछ। बस, साहस की ही तो बात है सारी।
स्वप्न में ही सही, स्नेह और आदर से भर उठता था उनका मन कड़क धूप में खड़े नागफनी के पेड़ों को देखकर। रंग और राहत से देते दिखते प्रहरी से खड़े पेड़। धूल-भरी बेरंग तस्बीर को मुस्करा उठती और एक ठंडी-सी तृप्ति मिलने लग जाती थी रूखी और जलती आँखों को ।
आश्चर्य की बात तो यह भी थी कि जुबेदा और आठ साल का एलेक्स भी कठिन से कठिन परिस्थिति में भी चेहरे पर आने से पहले ही हर शिकन को पोंछ डालते थे। किसी कष्ट या असुविधा की शिकायत न करते थे। ना ही कोई मांग ही थी उनकी उनसे, मानो कर्तव्य की वेदी में आहुति देते-देते जीना ही भूलता जा रहा था उनका परिवार उस बेचैन माहौल में रहकर। जैसे एक सैनिक दूसरे का साथ देता है, देखभाल करता है, वैसे ही रहता पूरा परिवार एकमत और एकजुट सदा ही।
कभी-कभी सोचते भी कमाल खान कि देश की सुरक्षा और ख़ुशहाली के साथ-साथ परिवार की सुरक्षा और ख़ुशहाली भी तो उनका ही फ़र्ज़ है ! क्यों न जुबेदा और एलेक्स को अम्मी-अब्बू के पास वापस गाँव भेज दिया जाए, परन्तु पत्नी और बेटे का सुख-दुख से परे, सदा उल्लसित चेहरा देखकर पुनः तरोताजा हो उठते। सब कुछ वापस वैसे ही अल्लाह पर छोड़कर अपनी ड्यूटी में दुगने जोश से लग जाते- ‘अल्लाह मियाँ है न कर्तव्य और कुर्बानी की इस राह में उनकी और उनके परिवार की रक्षा करने को, फिर फिक्र किस बात की!’
कल की ही तो बात थी जब खीर-भवानी के मंदिर में दोनों ही क़ौमों के लोगों ने मिलकर देश के रक्षकों और उनके परिवार की सुरक्षा के लिए देवी से प्रार्थना की थी। फिर मजार पर जाकर धागा भी बांधा था सभी ने और कलमा भी पढ़ा था। मज़हब चाहे कोई भी हो, एक सुरक्षित और समर्थ देश ही तो चाहते हैं सभी !
कुछ सिरफिरे हैं जो व्यवस्था को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे, पर जिम्मेदारियों से भरा यह जीवन रेगिस्तान ही तो नही, भटकन और तपन ही तो नहीं, फूलों और तितलियाँ से भरा गुलशन भी तो है यह। इन तितलियों को भला कौन रोक पाया है फूलों पर उग आए महकते इरादों के रक्त-बीजों को दूर-दूर तक फैलाने से- कमाल खान बरबस सावन-भादों हो आई नजरों को बेगम और बेटे से छुपा ले जाते ।
पर कमाल खान या उनके परिवार के पास तो रक्त-बीज सा पुनः-पुनः जीवित होने का कोई वरदान ही नहीं। यही एक जीवन था और इसे ही पूरी काबलियत के साथ, खुद को, परिवार को और देश को आतंकियों से सुरक्षित रखते हुए जीना था उन्हें।
कमाल खान जानते थे कि इतना आसान नहीं था यह काम और ज़िम्मेदारी भी गंभीर थी।
स्थानीय लोगों का भरोसा जीतना भी उतना ही ज़रूरी था। पर कैसे ? सभी तो एक दूसरे से छुपते-छुपाते, भरोसा न करते ही रहते आ रहे हैं बरसों से। किस पर भरोसा किया जाए, किसपर नहीं, कौन शत्रु है और कौन मित्र, बता पाना तक मुश्किल हो चला था अब तो इस ख़तरनाक माहौल में। नतीजा यह कि किसी को भी दोस्त या अपना न मान पाते थे स्थानीय लोग। जो लालच दे, उसे ही मित्र बनाने में विश्वास ऱखने लगे थे।
बेवजह ही इधर-से-उधर भागते, लड़ते-मरते ये लोग कठपुतली ही तो बनकर रह गए थे दुश्मनों के!
इन्हें भी सुलझाया जा सकता है, रास्ते पर लाया जा सकता है, अगर विश्वास जीत लें हम इनका।
सही व सच्ची हमदर्दी से ही संभव है यह, यह भी पक्का विश्वास था कमाल खान का।
….
एक आम सा ही दिन था वह।
पौ फटी नहीं थी अभी, पर कमाल खान की नींद पूरी तरह से उचट चुकी थी।
दिसंबर की ठंड में भी सारा आलस छोड़ तुरंत बिस्तर से निकले और अपने लिए चाय बना लाए। अगले पल ही गरमा-गरम चुस्कियों के साथ अगले दिन की रण-नीति बनाने में जुट गए -‘ आगे क्या अब,कैसे और कहाँ पर?’
सामने मानचित्र और कम्पस के साथ-साथ काग़ज़ों का भी अम्बार फैल चुका था, जिसमें पूरे ही डूब चुके थे कमाल खान।
जाने कबसे चुपचाप बगल में खड़े और आँख मलते बेटे एलेक्स पर नज़र पड़ी तो गोदी में उठा लिया कमाल खान ने उसे। वैसे ही जैसे नन्हे-नन्हे खूबसूरत लाल-पीले फूल दमकते हैं कटीली नागफनी की बाहों में। पिता की परछाँई था बेटा। संग सोता, संग जागता। जितनी देर कमाल खान घर पर रहते साथ ही समय बिताता। चुपचाप बगल में बैठा-बैठा, एकटक अब्बू को देखते हुए, बिना काम में बाधा बने।
फूल खिलते होंगे तितलियों को रिझाने को, कमाल खान के लिए तो बेटे की मुस्कान ही काफी थी थकान और सारा तनाव मिटाने के लिए।
अपने प्यारे अब्बू को एकटक देखे ही जा रहा था एलेक्स। अब्बू भी कभी जरूरी कागजों को उलटते-पलटते तो कभी बेटे का सिर प्यार से थपथपा देते। बेटू जी कहकर नन्हे गालों पर प्यार भरी चुम्मी दे देते । बस इतने से ही एलेक्स के होठों पर कान तक खिंची संतुष्ट मुस्कान आ जाती। पर कमाल खान ने देखा, भोली मुस्कान के साथ आज सितारे सा एक आंसू भी चमक रहा था बेटे की खोई-खोई आँखों में, मानो पूछ रहा हो -क्या पांच मिनट भी आप खेल नहीं सकते मेरे साथ , एक छोटी-सी सैर पर नहीं चल सकते क्या हम दोनों ?
जब से यहाँ आए हैं, जिन्दगी एक तेज बहाव में ही तो बही जा रही थी । एलेक्स के लिए वाक़ई में वक़्त ही नहीं था उनके पास।
अधिकांश वक्त घर के बाहर ही तो गुजरता था उनका। फिर बेटा कहाँ और पापा कहाँ?
कभी-कभी तो कई-कई दिन तक एक-दूसरे को देख तक नहीं पाते थे पल-पल ही एक-दूसरे का ही चेहरा देखते रहने वाले दोनों बाप-बेटे।
‘जरूर इसके तो सूरज चंदा भी बस मेरे इंतजार में ही डूबते और उगते होंगे तब?’
सोचकर ही मन भर आया। बेटे को कन्धे पर बिठाया और तुरंत बाहर बगीचे में आ गए ।
अब बाप-बेटे साथ-साथ ताजी हवा में वर्जिश कर रहे थे। जी भरकर चोर-सिपाही खेल रहे थे। दौड़-भाग रहे थे। खुलकर हँस और किलक रहे थे। चिड़ियों की चहक के साथ-साथ उनकी किलकारियों ने सुबह को बेहद ख़ुशनुमा कर डाला था। खुशी से छलकती आँखें पोंछती, जुबेदा कभी संतरे का रस भेजती तो कभी भीगे चनों के साथ घर का ताज़ा निकला मट्ठा।
अब तो खुद भी नाश्ता बाप-बेटे के साथ बाहर बगीचे में ही बैठकर करने का मन बना चुकी थी वह भी। कभी-कभी तो ऐसा मौक़ा मिलता है जब कमाल खान फ़ुरसत में होते हैं।
पर कमाल खान को तो जल्दी ही थी। नौ बज चुके थे। जाना होगा उन्हें तुरंत। वह भी बिना नाश्ते के ही।
खाई में गिरी तीर्थ यात्रियों की बस में से कई ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था। कुछ जो गोलियों से भुने थे अभी भी गंभीर अवस्था में थे।
उनमें कुछ सेना के लोग भी थे। हौसले के लिए पहले उनका हाल-चाल पूछना भी ज़रूरी था।
‘कब तक चलेगा पर यह ताण्डव, ऐसा नहीं होने दे सकते वह अपने देशवासियों के साथ, अपनों के साथ। माहौल वाकई में बहुत तनाव भरा था। और ये जुबेदा और एलेक्स भी तो अम्मी-अब्बू के पास वापस आजमगढ़ जाना नहीं चाहते, उन्हें अकेला छोड़कर! हमेशा के लिए तो नहीं कह रहे, बस तब तक, जब तक चीजें क़ाबू में न आ जाएँ! पर जो चुटकियों में सिलट जाए वह परेशानी ही कैसी ? फिर चैन है भी कहाँ! परेशानियों का अजगर तो दुनिया को ही निगलने को तैयार है, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, कहीं भुखमरी तो कहीं महामारी और ऊपर से यह बेवजह के युद्ध और पैशाचिक उत्पात, बेवजह की बरबादी, वह भी इस बढ़ती मंहगाई में! मूर्ख व झक्की इस पड़ोसी देश ने भी तो अपनी समस्याओं का सामना करने के बजाय, लगातार परेशान करने की ही मानो कसम खा रखी है। अब तो हाल यह है कि जमीन के किस टुकड़े पर कहाँ और कब ये रेंगते कीड़ों से निकल पड़ेंगे, कहना ही नामुमकिन हो चला है! एक नहीं, कई कमाल और कमल को जुट बनाकर लड़ना पड़ेगा इनसे!’
पर युद्ध भी तो नहीं चाहते थे अमन-परस्त कमाल खान।
शांति पूर्ण ढंग से कैसे इस समस्या का हल निकले, सोच ही रहे थे कि अचानक गार्ड़ हैदर उन तक दौड़ता आया और उनकी सुरक्षा के लिए दी गई बन्दूक ही उनके माथे पर तान दी।
हमला अचानक था और उनके अपने ही घर के बगीचे में था। अपने ही कर्मचारी द्वारा था। तैयार नहीं थे इसके लिए कमाल खान। पूर्णतः हकबक थे वह अब।
विश्वास तक कर पाएँ कि वाक़ई में ऐसा हो भी रहा था उनके साथ और सामने वाले ने उन्हें पूरा अपनी गिरफ़्त में जकड़ लिया था।
‘ एक-एक कपड़ा उतार कर सामने रख दो। अगर कोई हथियार साथ है, तो वह भी । जरा भी चूक हुई तो खुदा-कसम गोली चल जाएगी।‘
हैदर की आवाज कड़क और बेहद खूंखार थी।
‘ चाहता क्या है? खानसामा करीम और दूसरे गार्ड कुतुब को जुबेदा ने सब्जी लाने और धोबी से कपड़े लाने एक साथ ही बाहर भेज दिया है, शायद जानता था वह। अकेले और निहत्थे जानकर ही ऐसा करने की सोच तक पाया, वरना इतनी हिम्मत न पड़ती इसकी। या फिर मिली-जुली साज़िश भी हो सकती है तीनों की? कुछ भी कर सकता था पर वह लम्बा-चौड़ा दैत्य-सा दिखता वह इस वक्त तो ! जान है तो जहान है। बचने के मौके भी मिलेंगे ही!वह है न ऊपर बैठा सब-कुछ देखता-समझता। कितनी खाइयों और कन्दराओं से बचाया है उसने पहले भी। ‘
कई अवसरों पर परख चुके थे कमाल खान उस ऊपर वाले को ।
वैसे भी कुछ ज्यादा सोचने और समझने का वक्त ही नहीं था उनके पास और ना ही आगे-पीछे देखने का ही ।
चुपचाप आत्म-समर्पण कर दिया ।
पर मुश्किलें अभी खतम नहीं हुई थीं उनकी।
हर भरोसे को धता बताता, दूसरा गार्ड क़ुतुब भी लदे-फँदे बादलों-सा अँधेरा फैलात जाने किधर से तुरंत ही आ धमका और सारी रौशनी एक साथ ही लील गया ।
पिशाची नृत्य था अब आँखों के आगे। जुबेदा के माथे पर भी उसकी बन्दूक तनी हुई थी और तीसरा खानसामा करीम भी पीछे-पीछे दोनों हाथों में चाकू संभाले चल रहा था। एक नहीं तीन-तीन आस्तीन के सांप एक साथ ही फुंकार उठे थे। वह भी भरी बन्दूक और चाकुओं से लैस।
कमाल खान हलाल होते बकरे से पूर्णतः निरीह और निहत्थे, मजबूर देखते रहे।
जलती आँखों के आगे निर्वस्त्र बेगम ने शर्म और दुख में हथेलियों से मुंह छुपा रखा था और सहमा बेटा सुबक-सुबककर रो रहा था… वही उनका लाड़ला एलेक्स जिसके एक आँसू ने कुछ मिनट पहले ही, उन्हें इतना विचलित कर दिया था कि वक़्त की मारामारी में भी घटों खेलते रहे थे उवह सके साथ और नाश्ता करना भी ज़रूरी नहीं समझा था। भूखे ही ड्यूटी पर जाने को तैयार थे।
ना तो हैदर को और ना ही क़ुतुब को ही जरा भी रहम आया पर नन्हे एलेक्स पर । ख़ुद अपनी आग बरसाती आँखों को भी खामोश जमीन में ही गड़ाए रखा उन्होंने। जानते थे इसी में भलाई थी तीनों की।
पिस्तौल तक बंधे हाथ-पैरों की पहुँच से बहुत दूर थी और चौके के चाकू तक अब तो गद्दारों के ही कब्जे मे थे।
कभी-कभी कदम आगे रखने के लिए दूसरा पीछे भी रखना ही पड़ता है, टेढ़े-मेढ़े इन रास्तों ने इतना तो सिखा ही दिया था उन्हें।
उलझने का नहीं, संभले रहने का और बेहद सतर्कता का वक्त था वह।
‘ हैदर कैसे ऐसा कर सकता है पर? हैदर तो उसका दोस्त है। संरक्षक है! स्कूल बस तक ले जाता और लाता है रोज! सुबह-शाम क्रिकेट और फुटबाल भी खेलता है, जैसे कि अब्बू खेलते हैं !’
पर नन्हे एलेक्स के सिर में भी तबतक एक धूल-भरी आँधी उठ चुकी थी । अभी भी, रोता हुआ भी वह हैदर को ही आसभरी नज़रों से देख रहा था। पहले भी तो एकाध-बार डरा ही चुका है हैदर उसे। उसे पूरा विश्वास था कि हैदर पलटेगा और कहेगा,‘ डर गए ना बच्चू। खेल रहा था बस मैं तुम्हारे साथ। हा.हा.हा। जाओ, अंदर जाओ अब बाबा। खेल खतम और पैसा हजम।‘
पर उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। तीनों के हाथ और पैर रस्सियों में ही बंधे रहे और भरी बन्दूकें भी माथे पर ही तनी रहीं।
सेना के जनरल जैसी अकड़ में एक और डाकू और लुटेरों जैसी ओछी हरकत की थी उन्होंने। जुबेदा के सारे गहने और कमाल के बटुए से सारे पैसे निकालकर अपनी-अपनी जेबों में ठूंस लिए। यही नहीं चौके में राशन-पानी तक नहीं छोड़ा। जितना ले जा सकते थे.भर लिया और आश्चर्य की बात तो यह थी फ़रीदा, करीम की पत्नी जो घर के काम में मदद करती थी जुबेदा की, उसने ही पूरी मदद की थी यूँ इस डकैती और घर ख़ाली करने में।
सारे गुस्से को थूक की तरह चुपचाप गटक गए कमाल खान। जान की कीमत पैसों और जेवरों से कहीं अधिक थी।
परिस्थितियों की उड़ती रेत की उस अकस्मात आँधी ने उन तीनों का ही नहीं, खुद उनके परिवार का भी पूरा चेहरा बदरंग कर डाला था। फिर भी इस अपमान और अत्याचार की कीमत. देश पर चल रहे अत्याचार से तो बहुत ही कम थी उनकी आँखों में। फिर यदि लक्ष भेदना हो तो आहत-से-आहत हालत में भी लक्ष से नहीं भटका जा सकता, भली-भाँति जानते थे वह।
धोखे की मुठ्ठी भर रेत भी आँख में पड़ जाए तो कसकती तो है ही, पर। अंधा तक कर सकती है यह तो। सब कुछ हटा-बढ़ा दिया था इसने उनका। रूप-रंग ही नहीं, पूरा आत्म सम्मान तक।… शत्रु सेना से जा मिले थे सामने खड़े तीनों या किसी लालच के तहत बगावत पर उतर आए थे नमक हराम? तह तक पहुँचना बेहद जरूरी हो चला था अब उनके लिए।
चुनौती जटिल थी और सही अवसर को तलाश रही थी।
वक्त भी तो एक चंचल नदी ही है, एक-सा नहीं रहता कभी। कभी इस किनारे पर तो कभी उस किनारे पर। कभी न कभी तो यह धार उनकी तरफ़ भी पलटेगी ही। पूरा विश्वास था उन्हें पर इस बात का भी!
तलाशी लेने के बाद कपड़े लौटाता हैदर भी पलटा था उनकी तरफ और एक गहरी व कुटिल मुस्कान के साथ बोला भी था, ‘डरो नहीं। मेरी बात ठीक से सुनो और समझो, साहब। आप भी कुरान पढ़ते हो और हम भी। साथ दोगे, तो सुरक्षित जगह पर ले जा सकता हूँ मैं। जिन्दा रह पाओगे तीनों । यह सब इसलिए कह रहा हूँ मैं कि नमक खाया है तुम्हारा। काफिरों का साथ छोड़ो और भोंक दो छुरा पीठ में।‘
माना हैदर की आवाज हमदर्दों जैसी नहीं, रूखी और कड़क थी। पर डरे नहीं कमाल खान जबकि उनके पास तो कुछ भी नहीं था सिवाय हिम्मत और धैर्य के। चुपचाप जो भी कहता रहा, सुन लिया। बिना किसी प्रतिवाद या आक्रोश के।
कौन काफिर है और कौन अल्लाह का प्यारा, यह तो अल्लाह ही जाने, पर कमाल खान को तो हर इन्सान में अल्लाह की सूरत ही नजर आती थी। सब अपने ही लगते थे। किसको और कैसे जिबह कर पाते! हार भी तो कभी नहीं मानी थी पर।
ना ही अपने उसूलों से ही समझौता किया था कभी। ना ही उम्मीद ही छोड़ी थी कभी, जंग चाहे दुश्मन के खिलाफ लड़ रहे हो या फिर गलत इरादों के। जीत हमेशा अच्छाई की ही होती है- यह भी तो घुट्टी में ही पिलाया था उनकी अम्मी ने उन्हें।
अब आगे-आगे हैदर और उसके साथी चल रहे थे और पीछे-पीछे वह और उनका परिवार। चल क्या घिसट रहे थे तीनों एक ही जंजीर में बंधे। जैसी कि तस्बीरें देखी थीं टेलिविजन पर कुछ हफ्ते पहले ही, किसी दूसरे देश के औरत और बच्चों की , जिन्हें पड़ोसी देश में घुसकर अपहरित कर लिया गया था। लहराते झंड़ों के साथ फिर नग्न घुमाया भी गया था ऐसे ही, बिना किसी दुख या मलाल के ।
उलटे जश्न मना था राक्षसों की बस्ती में।
आगे क्या हश्र होने वाला था, नहीं जानते थे वह और जानना भी नहीं चाहते थे। हिम्मत और हौसले के लिए ज़रूरी था यह भी।
‘ बन्धक भले ही हो गए हों शत्रु के हाथों, पर परिवार का, देश का अनिष्ट नहीं होने देंगे!’
मुठ्ठियाँ भिंचती जा रही थीं और दिमाग की घड़ी लगातार टिक-टिक कर रही थी।
अचानक चलते-चलते एलेक्स रुका और जोर-जोर से रोने लगा, मानो बिच्छू या कनखजूरे ने डंक मार दिया हो। देखा तो नंगे तलवे में कांच धंसा हुआ था और खून धार बनकर बह रहा था। कमाल खान ने तड़पकर बंधे हाथों से ही गोदी में उठा लिया बेटे को और दांतों से ही खींचकर कांच तुरंत बाहर कर दिया। अपने ही बेटे के खून का वह स्वाद बेहद किरकिरी आत्म-ग्लानि भर गया मन में। पर आँख में उमड़ आए आंसुओं की तरह ही घोट गए सारा दुख। कमजोर नहीं पड़ना था परीक्षा की इस घड़ी में ।
जुबेदा ने भी तुरंत ही सारी लाज-शरम भूलकर, अकेली चुनरी जो थोड़ी-बहुत लाज ढक रही था, उतारी और पट्टी की तरह कई-कई परतों में कसकर बांध दी बेटे के तलवे पर, इस उम्मीद में कि खून बहना तो बंद हो, असह्य जलन तो कम हो कैसे भी ।
हैदर और उसके साथी ने पलटकर देखने या रुकने की कोई जरूरत नहीं समझी ।
घंटों वैसे ही लिथड़ते-लिथड़ते, एक पतली-सी गली को पार करके वह अब तंबुओं की एक अनजान बस्ती में पहुंचा दिए गए थे। शहर से जाने कितनी दूर थी वह जगह, घने चीड़ के जंगलों से ढकी-छुपी, जान नहीं सके कमाल खान कुछ भी।
कई टेढ़े-मेड़े और अनजान रास्तों से लाया गया था उन्हें वहाँ पर।
तभी उँगली से इशारा करते हुए हैदर बोला, ‘ फिलहाल रात यहीं गुजारनी होगी। भागने की तो कोशिश भी मत करना । ध्यान रहे, मैं बाहर ही तैनात हूँ। ‘
अब तम्बू बाहर से बन्द था और वह तीनों अंदर अपने-अपने निराश अंधेरों में।
भागना क्या हिलना तक नामुमकिन था उनका तो -हाथ-पैर एक दूसरे के साथ सांकल में कुछ ऐसे कसकर बांध दिए गए थे ।
अचानक भेड़ियों के रोने की आवाज सुनाई दी और सरकती बिल्ली की परछांई भी दिखी। देखते ही बुझती मोमबत्ती सी एक उम्मीद जल उठी अंधेरे में भी-‘ इन्सानी बस्ती शायद ज्यादा दूर नहीं। कोई-न-कोई तो देख ही लेगा। उनके अपहरण की खबर तो वैसे भी फैल ही चुकी होगी ! क्या पता सेना और सरकार ढूंढ़ ही ले उन्हें!’
भले ही भागने का फिलहाल कोई रास्ता नहीं था, पर आस भी तो नहीं छूट रही थी। सोचते-सोचते, जागते-ऊँघते एक ओर गठरी से लुढ़के रहे तीनों और बन्दूक लिए हैदर की परछांई रात भर गश्त लगाती रही तीनों की अधसोई आँखों के आगे।
सुबह-सुबह ही तीन रोटी के टुकड़े औॉर टीन के डिब्बे में थोड़ा सा सूप सरका दिया गया उनकी तरफ।
बेस्वाद, फिर भी बड़ा सहारा था भूखों के लिए वह अरुचिकर खाना भी।
अब उन्हें एक ट्रक में बिठाकर कहीं और ले जाया जा रहा था।
मौसम तक बेहद उदास और अंधेरा हो चला था और आँखों पर भी कई-कई परतों की पट्टी बंधी हुई थी इस बार तो।
ट्रकों के हौर्न और बहते पानी की कल-कल से जगहों का अनुमान लगाते-लगाते जब थक गए तो ऊबकर एक हारी-थकी झपकी भी आ ही गई कमाल खान को।
बन्द चूजों सी उस ठसम-ठस यात्रा में पता नहीं कितनी देर तक सोते रहे थे सभी। आँखें खुलीं तो देखा कि ट्रक से उतारा जा रहा था उन्हें। जगह तो नई थी ही, देश भी नया ही लगा , पर लोग अपने से ही थे, भाषा और वेष-भूषा दोनों से ही। वैसे भी उन्हें तो सभी अपने-से ही लगते थे, अपनों को छोड़कर कभी कुछ और सोच ही नहीं पाते थे कमाल खान, कुछ ऐसा प्यार था उन्हें इन्सानों से। बचपन में भी तो हर पड़ोसी चाचू और मामू ही था उनका और हर पड़ोसन आपा या खाला, गाँव के सेठ-साहूकार ही नहीं, धोबी मेहतर तक सभी। आदत पड़ चुकी थी उनकी, सभी को प्यार करने की, सभी पर भरोसा करने की और आदतें कब बदलती हैं?
पर यह हालात तो दूसरे ही थे। भरोसा नहीं, सावधानी और सतर्कता बरतनी थी। अपने से दिखते वे सब अजनबी ही थे और वातावरण भी बेहद ख़लिश़ और खतरों से भरा हुआ। अपने हों या पराए क्या फर्क पड़ता है? सावधान तो रहना ही पड़ेगा।
संभल-संभलकर आगे बढ़ रहे थे सभी।
कुछ अन्य और लोग भी थे वहाँ पर, जो उनकी तरह ही बन्दी बनाकर लाए गए थे।
सभी की पीठ पर एक नंबर की मोहर लगी हुई थी, जैसे कि कसाई खाने में रखे भेड़-बकरों पर छापी जाती है । कमाल खान को देर नहीं लगी परिस्थिति को समझने में। इसके पहले कि कोई जायज या नाजायज अनहोनी हो, कुछ-ना-कुछ तो करना ही था उन्हें, वह भी बिना किसी विलंब के।
राहत की बात बस एक यह हुई कि बेटे को एक हम उम्र बच्ची मिल गई, जिसके साथ उस घुटन भरे माहौल में भी खेल नहीं, तो मुस्करा तो अवश्य ही सकता था एलेक्स।
थोड़ी ही देर में बातें भी करने लगे थे दोनों बच्चे। पर खुद वह या बेगम अगल-बगल बैठे किसी व्यक्ति से कोई संवाद नहीं कर पा रहे थे। किसी अन्य से क्या आपस में भी कुछ नहीं कह और बता पा रहे थे वह तो। सभी डरे हुए थे, शंकित और उद्विग्न थे। और उन्ही की तरह तीन-तीन या चार-चार के समूह में जंजीरों से बंधे हुए थे।
ऐसे में कोई हालचाल पूछे भी तो क्या? जरूरत ही नहीं थी किसी को किसी हमदर्दी की।
पर भूखे-प्यासे रहकर भी तो जिन्दगी चलती ही रहती है और जिन्दगी के साथ-साथ इच्छाएँ भी । इच्छाओं के साथ सपने और इरादे भी। दुख जो यूँ बींधता और मथता है, कुछ कर गुजरने का साहस भी तो दे ही देता है कभी-कभी। ताकत बनाना होगा इसे ही, ऐसी ताकत जो उर्जा देती है कुछ भी सहने की, आक्रामक होने की। दुश्मन को जीतना है, ख़ुद टूटना नहीं।
कैसे भी तोड़नी थी कमाल खान को वह साजिश अब ।
…
अचानक ही और अगली सुबह ही, बुजुर्ग-सा दिखता खिचड़ी बालों वाला वह शख़्स, जिसकी आँखें बिना किसी रौशनी के भी लगातार जल-बुझ रही थीं, और जिसकी आँखों से अक्सर आक्रोश की लपट-सी उठती देखी थी कमाल खान ने, एक ओर को लुढ़का और तुरंत ही प्राण-पखेरु उड़ गए उसके। शायद निर्मम घटनाओं का वह सिलसिला बहुत ज़्यादा था उसकी रूह के लिए।
आनन-फानन उठाकर भी ले गए दो आदमी उसे वहाँ से ।
अब कमाल खान के आसपास खुसर-पुसर अफवाहें थीं कि पास ही में एक बड़ा फ्रीजर है चौके के साथ की कोठरी में, जहाँ शव रख दिए जाते हैं, भेड़-बकरे और मुरगों के साथ-साथ ही और उन्ही की तरह ठूँस कर भी।
आती उबकाई को रोकते कमाल खान आगे कुछ और न तो सुन ही पाए और ना ही सुनना ही चाहते थे। पर एक फायदा हुआ इस दुखद जानकारी और घटना से। उसी पल कुछ जायकेदार और पौष्टिक पकने लगा था उनके दिमाग में।
जानते थे कि खतरा बड़ा था पर लेना तो होगा ही। वरना तो वह फ्रीजर ही अंत था वहाँ पर सभी का!
अगले दिन शाम के छह बजे के करीब जब शोरबा और रोटी बँट रहे थे, अचानक ही कमाल खान भी वैसे ही बेजान लुढ़क गए एक ओर। रुकी हुई सांस और उलटी आँखें, झाग फेंकती जीभ पूरी तरह से बाहर थी, उनकी भी।
सब कुछ इतनी जल्दी और अचानक हुआ कि जुबेदा और एलेक्स की चीख तक उनकी अपनी मुट्ठी और मुँह में ठुसी चुनरी में ही क़ैद होकर घुट गई। फटी आँखों से देखते ही रह गए दोनों और उनके आगे ही कमाल को भी वैसे ही बोरे में भरकर दो व्यक्ति ले चले। ज़िन्दा हैं या मुर्दा, यह तक जानने की ज़रूरत नही समझी गई।
अभी आधे रास्ते ही पहुंचे होंगे कि अचानक ही पीछे घिसटता वह बोरा पलटा और कमाल खान उछल कर बाहर आ गए।
दोनों कर्मचारी संभले इसके पहले ही कमाल खान की बलिष्ठ भुजाओं ने दोनों लड़कों का दम घोट दिया।
बड़े ही धैर्य और सतर्कता के साथ फिर दोनों बेजान लाशों को फ्रीजर तक भी अकेले ही पहुंचया कमाल खान ने।
गहराते अँधेरे ने बड़ी सहायता की । किसी को कानों-कान ख़बर तक न लगी इस वारदात की। सब कुछ वैसे ही खामोश और गुमसुम ही रहा, जैसा कि इस तरह की जगहों पर आमतौर पर रहता है सदा।
एक जो कद काठी में उनके जैसा ही था उसका काला पठान सूट खुद पहनकर अब कमाल खान ने उसे फ्रीजर में लिटाने के पहले अपने कपड़े पहना दिए। फिर अल्लाह के रहम पर छोड़ते हुए, वैसे ही पगड़ी के फेटे से मुंह ढके तुरंत ही बाहर भी निकल आए कमाल खान।
रात के काले अँधेरे में काले साये को उस दिशा में जाते देखना रोज़ की ही बात थी। सभी चौकीदार और काम वालों के लिए वही एक ख़ुफ़िया रास्ता था। किसी को कोई सक-सुबहा नही हुआ ।
चौकी पर बैठे गार्ड ने तो सलाम भी ठोका और उन्होंने भी बिना मुड़े ही दोस्ताना अंदाज में हाथ हिला दिया, जैसे कि एक परिचित दूसरे से विदा लेता है।
सांप-सी लहराती दो चार पगड़ंडियाँ पार करते ही सामने नीली झील लहलहा रही थी। विश्वास नहीं हुआ ख़ुशी से छलकती आँखों को कि शहर के इतने पास थी वह डरावनी जगह, जहाँ दुश्मनों की सारी खुफिया और अमानवीय कार्यवाही चल रही थी!
बिना स्थानीय सहयोग के संभव ही नहीं यह सब।
पर कैसे हुआ कि उन्हें या किसी और को खबर तक नहीं लग पाई, जबकि उनका अपना हेड क्वार्टर भी तो कुछ ही कदमों पर ही था ! इसी को तो कहते हैं आँखों के नीचे से सुरमा चुरा ले जाना। दगाबाज सुरक्षा-कर्मी बने यूँ खुले घूमते, हमसे ही तनख्वाह लेते और हम पर ही गोली तानते, जाने कितने लम्बे और कहाँ तक फैले हैं इनके जाल! खतरे में चीते-सी फुरती ही काम आती है और ख़तरा अभी भी मुँह फाड़े खड़ा था उनके सामने।
खुद उनके अपने बीबी और बच्चे सहित कम-से-कम बीस-पच्चीस बन्दे कैद थे अभी भी वहाँ पर और लोगों की जान ही नहीं, देश की सुरक्षा भी तो खतरे में थी ही इनसे।
अधिक सोचने-समझने का वक्त नहीं था ।
पर मुश्किल लगता मिशन आसान होता-सा समझ में आने लगा था थोड़ा-थोड़ा।
….
ख़ुद अपने सरकारी बंगले से भी ज्यादा दूर नहीं थे वह, पर बंगले की बजाय हेड-क्वाटर पहुंचना ही अधिक उचित समझा उन्होंने।
यह भी किस्मत ही थी कि ड्यूटी पर राज गोपालन था, कमाल खान का सबसे अधिक भरोसे मन्द सिपाही।
उस पठानी वेशभूषा में भी देखते ही पहचान लिया उसने और सैल्यूट के साथ स्वागत किया उनका।
‘कहाँ थे सर ?‘ पूछ तक पाए इसके पहले ही उन्होंने उंगली के इशारे से चुप करा दिया उसे।
दफ्तर को अंदर से बंद करते हुए तुरंत ही कपड़े बदले और साथ ही अपनी पहचान भी।
अब वह फिर से कैप्टन कमाल खान थे, वर्दी में लैस और भरी पिस्तौल के साथ। हर संभावना और मुकाबले के लिए पूर्णतः तैयार भी और सक्षम भी।
मिनटों में ही बीस सैनिकों की टुकड़ी को आदेश जारी कर दिया गया और सुबह के चार भी नहीं बज पाए होंगे कि कमाल खान एक बार फिर उसी तम्बुओं की बस्ती में वापस पहुँच गए।
पर वहाँ तो उनकी फटी आँखों के आगे एक नया ही नजारा था अब। तम्बू उखड़ चुके थे और शादी जैसा माहौल व सजावट थी । एक तरफ दावत चल रही थी ओर दूसरी तरफ ठुमरी और दादरा की महफ़िल।
गाना चल रहा था -फुल गेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट। पास ही कुछ औरत -मर्द ठुमके ले रहे थे और सामने सोफे पर दुल्हे-दुल्हन भी मौजूद थे।
नाटक और स्टेज दोनों ही करीब-करीब सच से ही लग रहे थे ।
पर यह कैसे…कमाल खान पलभर को तो भ्रमित हुए, कि कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए वह ?
फिर जब खुद को संभाला तो पारखी आँखों ने तुरंत ही ताड़ लिया कि दुश्मन को पूरी खबर लग चुकी थी। साथ ही यह भी कि अभी ज्यादा दूर तक नहीं भाग पाए होंगे धूर्त !
हेड औफिस को फोन करके वहाँ से जाते सभी रास्तों पर सेना पहुँचवा दी। और आगे जाती सीधी सड़क पर जीप लेकर चल पड़े कमाल खान। क्या पता इसी बहाने दुश्मन के अन्य खेमों का भी पता चल जाए ! अल्लाह की मर्जी पर पूरा भरोसा था उन्हें!
अंदाजा सही ही निकला । ट्रक करीब अस्सी मील आगे घने जंगलों में खड़ी मिली।
वैसा ही तम्बुओं का छोटा सा एक जमावड़ा खड़ा हो चुका था वहाँ भी।
सेना की उस लड़ाकू टुकड़ी की कतारबद्ध जीपों की हेडलाइट पड़ते ही हड़बड़ी सी मच गई वहाँ।
सारी बत्तियाँ तुरंत गुल कर दी गई थीं। कुछ हथ-गोले भी फेंके गए उनकी तरफ। परन्तु शीघ्र ही समर्पण करना पड़ा अत्याचारियों को उनकी जाँ-बाज़ सैन्य-टुकड़ी के आगे।
ज्यादा वक्त नहीं लगा निरपराध कैदियों को आजाद कराने में, वह भी बिना किसी अतिरिक्त खून-खराबे के।
सेना को देखते ही गद्दार हिम्मत छोड़ चुके थे और जान बचाकर इधर-उधर भागने लगे।
जान से ज्यादा अब उन्हें पकड़े जाने का ही अधिक भय था ।
भेद और पहचान खुलने की आशंका थी।
सारा खेल ही बिगड़ता नजर आ रहा था। विदेशी संबंधों के खुलासे का भय तलवार-सा आ लटका था सिर पर। और पटाके और फुलझड़ियों की तरह ही जो नित नई चरस-सी उत्तेजना दे रहा था उन्हें, उसकी भी तो चिंता थी ही उन्हें ! खाली समय का नशा और लत ही तो थे सारे ये अवैध और अपराधी षडयंत्र उनके लिए।
करीब-करीब सभी पकड़े गए। हैदर, कुतुब और करीम भी ।
बाकी सारे भी वही लौंडे-लपाटे थे, जो आए दिन ही पत्थरबाजी करते देखे थे कमाल खान ने गली-नुक्कड़ पर।
एकाध बार तो जेल की हवा भी खा आए थे लूट और अपहरण के अपराध में कई।
‘ किसकी शह पर करते हैं पर यह सब ये, सरगना कौन है इनका और क्या लालच दिया जाता है इन्हें ?’
जड़ में पहुँचना, पता लगाना बहुत जरूरी था अब कमाल खान के लिए। और यही अब उनका अगला मिशन भी था। घायल नागिन ज्यादा खतरनाक होती है, जल्दी ही फन कुचलने होंगे। क्यों ये दुश्मनों की कठपुतली और जासूस बने, जाने बगैर समस्या नहीं सुलझाई जा सकती थी। इन युवाओं को नौकरी या कारोबार ही जोड़े रख पाएगा वतन से। जान चुके थे वह कि भरोसा जगाना जरूरी था।
पूरी रिपोर्ट बनाकर शीघ्र ही भेजेंगे वह केन्द्रीय और स्थानीय सरकार के पास।
अगले दिन आदमखोर गद्दारों के साथ-साथ उस अमानवीय फ्रीज की भी तस्बीरें थीं देश-विदेश के अखबारों और टेलिविजन पर। आधी कटी इन्सानी टांगों और बांहों से ही नहीं , धड़ों से भी भरा मिला था सेना को वह कुख्यात फ्रिज।
जानना तो दूर, कमाल खान अब सोचना तक नहीं चाहते कि उस दिन जो उस टीन के डिब्बे में सूप पिलाया गया था, उसमें क्या रहा होगा!…
हाँ, उस रात बेटे को सीने से लगाकर सोते कमाल खान को फिर वही डरावना और बेचैन करता रेगिस्तान वाला सपना जरूर आया था।
फिर वही धूल उड़ाता, तपता रेगिस्तान पसरा पड़ा था आँखों के आगे।
रखवाली करते नागफनी के पेड़ भी थे ।
पर अब एक-दो नहीं सैकड़ों रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे और उन फूलों से भी दुगनी-तिगनी संख्या में कोमल और नाजुक रंग-बिरंगी तितलियाँ भी मंडरा रही थीं उन पर, उन्मुक्त और निर्भीक।
विस्मित आँखों ने यह भी देखा कि उन उड़ती तितलियों में से कइयों के पंख छिले हुए थे। खून की बहती धारें भी थीं वहाँ, जिनमें डूबी तड़प भी रही थीं कुछ तितलियाँ।
और तब देखते-देखते ही उन नुकीली कांटों से बिंधी, तड़पती तितलियों के चेहरे नन्हे-नन्हे बच्चों के चेहरों में तब्दील हो गए।
बच्चे जो उनके परिचित थे, उन्हें प्यारे थे। एलेक्स और उसके साथी जोया व मोहन ही नहीं, उसके स्कूल के कई और संगी-साथी भी थे वहाँ।
देखा न गया तो पसीने से लथपथ हाँफते-से उठ बैठे तुरंत ही कमाल खान।
यह कैसा सपना था अब ?
आँखें अभी भी आँसू भीगी ही थीं- निश्चय ही एक नहीं कई-कई सेल होंगी गद्दारों की। जितनों को बचा सकें, तुरंत बचाना है। देश पर लगा यह घाव और गन्दगी तो साफ करनी ही होगी।
सोते बेटे के सिर को प्यार से सहलाकर बगल के कमरे में झांका तो खेमे से बचाए गए दोनों बच्चे जोया और मोहन भी बेफिक्र और गहरी नींद ही सो रहे थे अभी तक । हर काम साथ-साथ करते थे तीनों, पल भर को भी आँखों से ओझल न होने देते एक दूसरे को। गजब का जुडाव हो चुका था बच्चों में, जुड़ाव जो भरोसे से आता है। भरोसा जो प्यार की कोख से जनमता है, ज़रूरत चाहे कितनी ही आपदकालीन क्यों न हो।…
चुपचाप दबे पैर वापस लौट आए कमाल खान।
दुख की आंच भी तो कुंदन-सा ही निखरती है । बहुत कुछ देख लिया था अनाथों ने। यहीं रखेंगे अब वह इन दोनों को तो, अपने पास और अपने साथ ही। बेटे एलेक्स के लिए ही नहीं, उनकी रूह की शांति के लिए भी ज़रूरी था यह!
आँखों में अब नई चमक थी आस की- घायल भले हो जाएँ, पर तितलियाँ मरती नहीं, सपने वाली तो हरगिज ही नहीं।
सम्मोहन जैसा समर्पण था उनका भी देश के प्रति और संदेश थीं सारी तितलियाँ घुटन और बेबसी की नहीं, खुशी की, आजाद उड़ान की।…
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शैल अग्रवाल
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