बचपन का शौक अलग ही रंग का होता है या तो वह जिद होती है या तो उतावलापन । कैसे पूरी करें यह जिम्मेदारी मां पिता की या उतावलापन की । एक वाकया याद आता है 10 साल की होऊँगी मैं ,सीमित साधनों के घर में सब कुछ मिल रहा था कुछ कम नहीं था, फिर एक बार सहेलियों के साथ खेलते हुए आपस में तय हुआ कि हम सब मेहंदी लगाएंगे, मुझसे भी बहुत पसंद थी मेहंदी ।
लेकिन मेंहदी घर पर नहीं थी ,मैंने मां को कहा ,मां मुझे मेहंदी लगानी है ,पर मां ने यह कह कर टाल दिया कि अभी क्या जरूरत है ? कोई त्यौहार है या शादी ! कोई जरूरत नही है अभी ,पर मेरा मन कहां रुकने वाला था।
बस अपनी ज़िद थी मेरी ,पर किसी पर असर नहीं हुआ , दिन भी किसी तरह बीत रहा था ये सोचते सोचते, कि क्या कहूंगी सहेलियों को,और सब मज़ाक बनाएगी मेरा ! मुझे बहुत शर्म आएगी। हम सभी के घर एक ही बाड़े में थे, दिन भर साथ रहते थे हम सब ,कभी किसी के घर तो कभी किसी के ।
मम्मी ने बुला कर कहा, जाओ सामने वाली आंटी को यह कुछ सामान दे आओ । हमें तो बहाना ही चाहिए एक दूसरों के घर में जाने के लिए । बस मैंने दौड़ लगा दी ,उनको सामान थमाया और लौटने लगी, तभी मेरी नजर खिड़की पर पड़ी , अपने आप को नहीं रोक पाई ,ये देखकर कि वहां एक पैकेट में मेंहदी रखी है ,मां तो लाकर नहीं देगी और यह शायद मेरे लिए ही है , और उसमें से चुटकी भर मेहंदी हथेली में भर ली और चुपचाप आकर घर में कहीं रख दी। थोड़ी देर बाद जाकर मां को बोला ,मुझे थोड़ी सी मेंहदी मिली है क्या मैं लगा लूं ? उन्होंने कहा- मिल गई है तो लगा लो ।
मैंने तुरंत उसको तैयार किया और हाथों में लगा कर मैं बहुत खुश थी। लेकिन ये खुशी यहीं तक थी ।और तभी आंटी जी की बेटी घर पर आई , तो उन्होंने कहा आप पहले अपनी बेटी को बुलाइए, मां ने मुझे आवाज लगई और मैं फुदकती हुई आकर खड़ी हो गई । मैंने आंटी की बेटी को देखा तो मुझे नहीं समझ आया कि वह किस वजह से यहां आई है । पर वह बहुत गुस्से में थी उन्होंने गुस्से
में मुझसे पूछा ,यह मेहंदी तुम्हारे हाथ में जो लगी है वह तुम कहां से लाई हो ?
मैंने कहा मेरे घर पर ही थी मेंहदी । वो बोली तुम झूठ बोल रही हो पुड़िया में रखी थी मेरे घर पर। यह मेहंदी तुम चुरा कर लाई हों हमारे घर से ! क्योंकि उस पुड़िया में तुम्हारी उंगलियों के निशान हैं ,तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था ,मांग लेती तो क्या हम मना कर देते ! मैं चुपचाप खड़ी रही और वो वापस चली गई ।
मैं अपने झूठे सच को संभाल नहीं पाई । उनके जाने के बाद मां ने अपने हिस्से का हक अदा किया और ढेर सारी डांट के बाद थोड़ी देर तक मेरे मन को बहुत बुरा लगा। पर वह बचपन का चंचल मन था! थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद फिर अपने पछतावे को किनारे कर, पहुंच गई अपनी सहेलियों की झुंड में,सबके बीच अपनी हथेलियां नचाती हुई ,मेहंदी का रंग दिखाती हुई ,पछतावे
का अहसास बचपन में उस पल कुछ नहीं जैसा ही था । कई सालों बाद भी मुझे वह चुटकी भर मेहंदी का वाकिया बहुत अच्छी तरह याद रह गया ।
समय अपनी ही धुन में बीतता रहा। समय के साथ बीतते गए हम भी । जिम्मेदारियों में ढकता गया वजूद भी। लेकिन चुटकी भर मेहंदी की ख्वाहिश आज भी जिंदा है । घर पर मेरी शादी को लेकर बातें आती रहीं औरजाती रही, पर रूकती कोई नहीं थी । क्योंकि बड़े भाई भाभी और छोटी बहन को कोई पसंद नहीं आता था पर माता-पिता के लिए तो सारे ही बच्चे एक से ही होते हैं । लेकिन उन तीनों के आगे उनका बस नहीं चल पाता था।
फिर एक बार भाई और भाभी एक रिश्ता ढूंढ कर या कहो उनके हिसाब से उठाकर लाए थे । लड़के की उम्र मुझसे 15 बरस बड़ी थी। माता-पिता ने विरोध किया पर उनकी चलती कब थी, और मैं तो बस इस सब में एक समान की तरह इधर-उधर उठाकर पटक दी गई । शादी भी बहुत ही साधारण तरीके से कोर्ट में हुईं। मां ने भाभी को कहा कि आज हम कुछ नहीं कर रहे तो क्या थोड़ी सी शगुन की मेहंदी तो लगवा ही सकते हैं बेटी को , क्या ऐसे सूंने हाथ भेजेंगे! तो भाभी का तीखा सा जवाब आया रहने भी दो जबरदस्ती में ₹500 ले लेगी मेहंदी वाली शादी के खर्च में से कहां एडजस्ट करूं ? मां छलक गई और मेरी सूंनी हथेलियों को पकड़े बैठी रहीं।
माता-पिता की हर बात काट रहे थे तीनों मिलकर । पिताजी बोले अरे मैं थोड़ा सा गृहस्ती का सामान ही जुटा दूं बेटी के लिए, इस पर भाई चिल्ला कर बोला- कमाती हुई बेटी तो दे रहे हैं सामान की जरूरत ही कहां है । और उनके पास कमी ही क्या है । इन सबके बीच कब शादी हो गई पता ही नहीं चला और मेरी वह- चुटकी पर मेहंदी- की ख्वाहिश मन में ही रह गई ।
बहुत अच्छे इंसान थे तिमिर ,और इस बात से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मैं अपनी नौकरी की कमाई का क्या कर रही हूं ,बल्कि वो तो मेरी नौकरी छोड़ देने के पक्ष में थे । वह चाहते थे कि मैं घर पर आराम से रह कर गृहस्थी को संभालूं और उसको इंजॉय करू । फिर कुछ समय बाद मेरा प्रमोशन हो गया ,और मैं ज्यादा व्यस्त हो गई ।
जिंदगी बढ़ रही थी और मैं भी ,इसका पता मेरे मायके तक लग गया ।
पहले जब तब किसी बहाने से पैसों की मांग चलती थी ,तो मैं बेहिचक दे देती थी और तिमिर ने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा ! पर कुछ समय से हम दोनों की व्यस्तता को लेकर जरूर बहस छिड़ गई थी, वो चाहते थे कि मैं नौकरी छोड़ दू , और बच्चों के बारे में सोचू। मैं सब संभाल लूंगी पर हमारी बहस बढ़ती गई और इसकी आवाज़ पता नहीं कैसे मेरे मायके तक पहुंच गई । फ़िर क्या था सभी अगले ही दिन मेरे घर पर थे उन्हें डर था कि इतनी सोने के अंडे देने वाली मुर्गी ऐसे कैसे हाथ से छोड़ दें, सभी डरने लगे कि मैं नौकरी ना छोड़ दूं । मैं भी तिमिर की बात से कुछ -कुछ सहमत होकर कुछ समय के लिए नौकरी से ब्रेक लेने के लिए तैयार हो गई थी। लेकिन सबके आने के बाद मैं और तिमिर इस मुद्दे पर ज्यादा बात ही नहीं कर पा रहे थे । और इस बात का फायदा मेरे भाई भाभी और बहन ने खूब उठाया । ऐसा भी कहीं होता है तेरा पति बेवकूफ है , तेरे पति को तो अकल नहीं है , नौकरी कौन छोड़ता है ,तुझे क्या जरूरत है किसी की , तू तो खुद अपनी मालकिन है । मैं उनके साथ मायके आ गई थी । वो सब खुश हो
रहे थे , तिमिर ने बहुत कोशिश की समझाने की,पर मुझे समझने का मौका ही नहीं दिया गया था ।
दो महीने गुजर गये , तलाक फाइल कर दिया गया था ,मन से तैयार नहीं थी पर करना पड़ रहा था। मेरे मन में भी आ गया था की तिमिर मुझे हाउसवाइफ बना के रखना चाहते हैं , न कि उनकी बराबरी पर काम करती पत्नी की तरह ।
उस दिन तबियत कुछ ठीक नहीं थी मैं ऑफिस से छुट्टी लेकर घर आ गई ,घर के बाहर तक हंसने की आवाज आ रही थी । छोटी बहन की भी आवाज थी, मैं उत्साहित हो कर तेज कदमों से अंदर जाने लगी थी ,लेकिन रुक गए कदम वहीं पर उनकी बाते सुनकर। बहन कह रहीं थी कि मैं तो बस 1 दिन के लिए ही आई हू ,आज तो दीदी का सैलरी डे है मेरे घर के लिए नया सामान लाना है । 5,00000 में हो जाएगा सब कुछ। तभी भाभी बोली हमें भी तो बेटी के मेडिकल में एडमिशन की फीस देनी है, सारा तुम ही ले जाओगी तो हम कैसे दे पाएंगे फीस। भैया भाभी को चुप करा लो, इतने महीनों से आप ही कर रहे हो, ना ऐश , मेरा भी हिस्सा है या नहीं ?
भाभी और भाई दोनों की आवाज और तेज हो गई थी।
भाभी ने तेज आवाज में कहा ,तलाक के लिए सारी मेहनत हमने की ,तिमिर जैसा बेवकूफ आज तक नहीं देखा ,सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को कौन छोड़ता है! और तो और नौकरी छोड़ने को बोल रहा था ! कितना नुकसान करा रहा था हमारा । और हमारी बहन तो है ही बेवकूफ आसानी से आ गई हमारी बातों में ,अब और नहीं सुन सकती थी मैं । बहुत पछतावा हुआ कि मैं कैसे बातों
में आ गई सबकी ,मैंने तुरंत ही एक फैसला किया और बाहर आ गई ,लग रहा था कि कहीं देर ना हो जाए। मैंने तुरंत तिमिर को फोन किया।
इन दो महीने में उसने तो कई बार फोन किया था पर मैंने किसी एक का भी जवाब नहीं दिया था । पर मेरे कॉल करने पर उसने तुरंत ही फोन उठा लिया और पूछा ,क्या हुआ, तुम ठीक हो, सब ठीक है ना, ऑफिस के समय फोन कैसे
कर रही हो? उसकी आवाज में घबराहट थी ,चिंता थी।
मैंने कहा- सब ठीक है ,मुझे अभी आपसे मिलना है ,आप अभी आ सकते हैं ? मैं बाहर ही खड़ी हूं आप के ऑफिस के नीचे । तिमिर बोला तुम यहीं हो मैं अभी आता हूं ,और 10 मिनट में मेरे सामने खड़ा था । मैंने कहा कहीं बैठकर बात कर सकते हैं ? हां जरूर एक मंदिर है पास जिसकी सीढ़ियों में बैठ कर हम कुल्हड़ की चाय पिया करते थे ।
हम चल दिए पैदल ही साथ-साथ। तिमिर ने पूछा- बताओ क्यों परेशान हो ? तो मैं पिघल गई , बह गई और रोक नहीं पाई अपने आंसू को ,और खुद को।
तिमिर ने पहले की ही तरह बिना संकोच मुझे बाहों में संभाल लिया था। मैंने तिमिर की तरफ देख कर कहा मैं कहीं नहीं जाऊंगी आपको छोड़कर ,ऐसे ही रहना चाहती हूं आपके साथ , आपके पास हमेशा ।आप चाहेंगे तो नौकरी भी छोड़ दूंगी । अरे नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं वो घर अब भी तुम्हारा इंतजार कर रहा है । और नौकरी छोड़ने ना छोड़ने का फैसला तुम्हारा है ,चलो इस नए
कदम की शुरुआत भगवान का आशीर्वाद लेकर करते हैं और दोनों मंदिर में भगवान को माथा टेक कर लौटने लगे। तभी पंडित जी ने कहा- बेटी माता रानी का सिंदूर है इसे लगा लो।
मैंने तिमिर की तरफ देखा। उसने चुटकी भर सिंदूर सजा दिया मेरे माथे पर । मंदिर से उतर कर पैरों में चप्पल पहन ही रही थी
की तभी एक औरत आई ,और बोली दीदी मेहंदी लगवा लो कल तीज है, मुझे भी दो पैसे मिल जाएंगे । मैं कुछ बोल पाती ,इसके पहले तिमिर ने हाथ आगे कर दिया मेरा ,और उसकी मुस्कुराहट सब कह गई। आखिर मेरे हाथों का शौक पूरा हो गया था बचपन में हुआ जो छोटा सा वाकया मुझे आज से जोड़ रहा था
,चुराई गई नहीं थी ये चुटकी भर मेंहदी; किसी के प्यार से लगाई गई थी।
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निरुपमा सिन्हा वर्मा
इंदौर (म. प्र.)
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सहायक संपादक- हस्ताक्षर पत्रिका