कहानी समकालीनः चाँद का मुँह टेढ़ा है-शैल अग्रवाल

चार बजते-बजते चारो तरफ आधी रात-सा घुप अंधेरा था । शिल्पी तैयार थी, नथ, चूड़ी बिन्दी, सभी के साथ, पर सिंदूर की डिब्बी तक जाते-जाते हाथ खुद ही ठिठक गए उसके। सब कुछ नकारते हुए लम्बी सी मांग भर ही ली उसने और माथे पर मांग-टीका भी सजा लिया।

ऐसा नहीं कि पहली बार व्रत कर रही थी वह, परन्तु मन मे तो आज दूसरी ही झड़ी लगी हुई थी । बचने को खुद से कैसे भागे, कहाँ जा छुपे शिल्पी ? ऐसा आखिर क्या हो गया ? क्या बदला है उसके जीवन में ? गया तो गया! वैसे भी, बीस वर्ष पहले ही तो छोड़ आई थी वह उसे । रोज ही कोई-न-कोई मरता है, अनहोनी तो कुछ भी नहीं इसमें। फिर यह दुविधा क्यों और कैसी ? पत्थर की श्रापित अहिल्या नहीं शिल्पी रहना चुना है उसने, तो बुराई क्या है इसमें ! पुनर्जन्म ही था वह उसका।
उहापोह में भूल गई वह कि यास्मिन का उपहार भी ले चलना है। आखिर, पहला करवा चौथ है उसका।

पहला करवाचौथ ! खट्टी मीठी यादों के साथ ही आँखों में एक चमक कौंधी और होठ तक भिंच गए शिल्पी के । ‘पहला करवाचौथ… जब आंखों में पहली बार किसी खूबसूरत व समर्थ साथी के सपनों का काजल लगाए लड़कियाँ चांद तकना सीखती हैं। छोटी सी उम्र से ही छलावे में रहने की, भूख-प्यास की आदत डालने लगती हैं। उसने भी तो किया था यह सब 14 वर्ष की उम्र से , और फिर जिसके साथ फेरे लिए, जिसके बच्चों की मां बनी, मिनटों में ही छोड़ भी दिया उसे, सारे रिश्ते-नाते पल में ही तोड़कर। आज पास के ही शवगृह में राजेश है… वास्तव में कौन है वह, राजेश की विधवा, या फिर अरुण की अर्धांगिनी ? बच्चों के मोह में राजेश से तलाक नहीं ले पाई और अरुण से शादी नहीं की… एक ठंडी दबी सांस बरबस उसके भिंचे होठों से फिसल गई ।

चलते-चलते पलटकर खुद को दर्पण में देखा तो सबकुछ अपनी जगह होते हुए भी वह रूप, वह उमंग प्रतिबिम्ब में नहीं थी, जो हमेशा तैयार होने पर रहती थी, मानो कहीं कुछ छूट और टूट गया हो।

‘ छूटा तो छूटे, टूटा तो टूटे! ’

शिल्पी ने कंधे उचकाए और पायल के पेच कसती, तुरंत ही बाहर हॉल में आ गई, जहाँ पंडित जी पूजा की पूरी तैयारी कर चुके थे। बेटी रूही भी तो लगातार साथ-साथ ही लगी रही थी और साथ में उसी जोश के साथ गुड़िया की तरह सजी-धजी 11 वर्ष की नातिन यास्मिन भी।

रूही के साथ यास्मिन ने भी व्रत रखा है इसबार…क्यों, वह नहीं जानती !

त्रिशंकु सी अपने संस्कार और संघर्ष में अटकी, जानकर भी तो कुछ नहीं जान पाई है शिल्पी कभी। हाँ, यह जरूर जानती थी कि किसी की आस्था पर शक करने का अधिकार नहीं उसे। विश्वास- अविश्वास, आस्था-अनास्था, सारे मन के ही तो खेल हैं। चाहे ये नियम खुद बनाएँ हम या फिर दूसरों पर छोड़ दें!

’पर, क्या इन व्रत त्योहारों का कई अर्थ भी है? ’

‘मनचाहा व्रत त्योहारों से नहीं, हिम्मत और सामर्थ से मिलता है।’ बताना चाहती थी वह यास्मिन को परन्तु घर के कोने कोने में उत्सव मनाने आए औरत मर्दों को देखकर चुप रह गई।

आंगन में पहुंचते ही कई आँखें एक साथ उठीं सजी-संवरी शिल्पी की तरफ, कोने में खड़े अरुण की भी, और कमरे में चुपचाप अकेले बैठे आकाश की भी। अरुण को बहुत प्यारी लग रही थी शिल्पी और आकाश को मां का बनाव श्रंगार बेहद बनावटी और अभद्र, विशेषतः आज, जब उसका पिता पास ही, शवघर में सोया पड़ा था।

‘बेशर्म कहीं की’, मां के लिए होठों तक आए शब्द होठों से बाहर तो नहीं आ पाए, पर अपने ही शब्दों की गूंज से उसके चेहरे की एक-एक मांसपेशी विकृत होने लगी। घड़ी में वक्त देखा तो पता चला अभी तीन चार घंटे तक यह नाटक और बर्दाश्त करना था उसे।

पहले ऐसा नहीं होता था उसके घर में।… आकाश को आश्चर्य़ हुआ खुद पर। कैसे बीस साल पहले छोड़ा वह घर आज भी उसका अपना घर है और यह जिसमें वह बीस साल से रह रहा है ‘मम्मी का घर।‘

वहाँ रुही और मम्मी-पापा और वह, चार जने ही हुआ करते थे त्योहार के दिन । पापा को ऐसे व्यक्तिगत निष्ठा और समर्पण के पल अपनों के साथ ही भाते थे। ज्यादा भीड़भाड़ रास नहीं आई कभी उन्हें।

‘ हो-हल्ले के लिए हजार मौके हैं। क्रिसमस और नया साल या फिर वीकएन्ड आए दिन कुछ-न-कुछ होता ही रहता है- चाहे जितनी भीड़ जमा कर लो।‘ कहा करते थे वह अक्सर, ‘ पर अपनों के साथ मिल बैठकर बांटने के जिन्दगी बहुत मौके नहीं देती। फिर लक्ष्मी और नारी, दोनों स्वभाव से ही चंचला होती हैं। दोनों को ही बड़े जतन से संभालना और साधना पड़ता है।‘

साधा तो बहुत था, पर कितना संभाल पाए, यह असलियत आकाश को घर और पापा से दूर होने के बाद ही समझ में आ पाई थी। किसी चीज से मोह नहीं रह गया था, मानो उन्हे। आँखों की दो पुतलियाँ- रूही और आकाश से भी नहीं। वास्तविकता तो यह थी कि गरीबों की सेवा और दान-दक्षिणा आदि में ही समर्पित रह गए थे पापा अब, मानो जीना ही भूल चुके थे वह।

खैर… बात कर रहा था वह, जब सब ठीक था उसके घर में…मम्मी पापा के बीच में। …मुस्कुराती मां चांद की आरती उतार घर के अंदर कदम रखतीं तो सजी-संवरी साक्षात् कुललक्ष्मी लगतीं। उल्लास की एक लहर आ जाती परिवार में। पैर छूते ही, पापा जेब से निकाल कर कोई कीमती तोहफा देते मां को और फिर सब साथ-साथ खाना खाते। उस खीर पूड़ी और एक सब्जी का स्वाद ही कुछ और होता था, जो आज इस साझे के छप्पन भोग में कहाँ ?

जलन जब बहुत बढ़ गई, तो आकाश ने कमीज की आस्तीन से ही तपते आंसुओं को पोंछ डाला।

माना कि यहाँ इस विदेशी सभ्यता में पला-बढ़ा था, पर उसके सोच और संस्कार- अगर छोटी बहन रूही की मानें, तो वही दकियानूसी और मध्यवर्गीय भारतीयों के ही थे, भलीभंति जानता था वह।

शिल्पी देख रही थी, जहाँ अरुण की आंखों में उसके प्रति प्यार और प्रशंसा थी, आकाश की आंखों में था काले बादलों सा उमड़ता अंधेरा और कई-सुलगते सवाल …एक दबा सा आक्रोश और अवसाद, जो मां से कुछ पूछना भी चाहता था और साथ ही साथ उसे भस्म भी कर देना चाहता था।

पर रूही ऐसी नहीं थी। वह मां को समझती थी छोटी उम्र से ही, जैसे कि एक औरत औरत को समझती है और यही वजह है कि उसने हर परिस्थिति में माँ का साथ दिया। परन्तु 14 वर्ष की उस अबोध उम्र से लेकर, आज बीस साल बाद भी, इस परिपक्व उम्र में भी , आकाश क्यों नहीं समझ पाया कुछ !

मां-बहन क्या …किसी भी त्रिया के चरित्र को ? औरतों से दूर-दूर रहना, मानो आदत सी बन गई थी उसकी..जाने किस अविश्वास और नफरत के तहत !यही वजह है कि चाहकर भी प्रौढ़ हो चले बेटे का घर तक नहीं बसा पाई शिल्पी आजतक। …हाथ धरने दे तो एक-से एक खूबसूरत और सुसंकृत लड़कियों की लाइन लगा दे शिल्पी। क्या कमी है आज उसके पास ! घर में जमा लड़कियों के हुजूम में से हमेशा की तरह एकबार फिर उदास माँ की आंखें बेटे के लिए योग्य बहू ढूँढने लगीं, पर आकाश तो सबसे पीठ घुमाकर वापस हाथ की पत्रिका में डूब चुका था ।

‘ जाने क्या ढूँढता रहता है इन तिलस्मी पत्रिकाओं में! ‘ शिल्पी झुकी और पायल उतारकर पर्स में रख ली। ‘सामखाह आवाज कर रही हैं।‘

शिल्पी को आश्चर्य था खुद पर… कभी पहने या न पहने आज के दिन तो जरूर ही पहनती थी वह इन्हे। यह वही पायल हैं, जो अरुण ने दी थीं उसे। जिसकी वजह से इतना कोहराम मचा था उसकी और राजेश की सत्तरह साल की बसी-बसाई गृहस्थी में। …और तब पूरी बगिया ही उजाड़ ली थी खुद माली ने ही अपने हाथों से। बगिया… जिसे बहुत प्यार और लगन के साथ दिन-रात सींचा था दोनों ने मिलकर।

पर वह उन सुकुमार फूलों को मलिन होते कैसे देख पाती, मां थी आखिर। आ बैठी अरुण के साथ। बसा लिया दूसरी बगिया, दूसरी डाल पर एक सुरक्षित और नया घरौंदा।

‘ चल साथ चल। साथी है मेरा, तो मेरे साथ चल।‘

अरुण ने भी आपत्ति नहीं की थी। बंधे बकरे सा निशब्द चल पड़ा था साथ-साथ।

वह भी तो, अरुण का हाथ पकड़े, बच्चों को लेकर घर से, वैसे ही आंसुओं के अंधड़ में डूबी निकल पड़ी थी, एक अनजान और पथरीली राह पर। उसकी पत्नी, अपनी खास सहेली मीना को वहीं, वैसे ही, राजेश की तरह स्तब्ध बैठा छोड़कर। यह तक ध्यान नहीं रहा था कि मीना के भी दो बच्चे हैं और छुटकी जिसके जापे में उसने मीना की पूरी मदद की थी अभी मात्र चंद महीनों की ही है ।

‘ जंगल राज है दुनिया। जिन्दा रहने के लिए बड़ी मछली को छोटी मछली खानी ही पड़ती है। उसे तो बस तब दूर जाना था। छोड़-छाड़कर सब… राजेश को, इन सारे लड़ाई झगड़ों को। और इसमें सहारा सिर्फ अरुण ही दे सकता था उसे। वही था उसके अंधेरे आकाश का नवोदित सूरज।‘

शिल्पी ने एक बार फिर लंहगे से मैच खाती चटक लाल रंग की तपती पेशानी रेशमी जरी की भारी चुनरी से ही पोंछ डाली। अधिकांश औरतें मंदिर द्वारा बताए गए समय पर अर्क देकर खाना खा लेती हैं, परन्तु शिल्पी नहीं।

औरतों की पूरी भीड़ थी अब आंगन में। चारो तरफ त्योहार और हंसी-मजाक का माहौल भी। चौके से तरह-तरह के पकवानों की महक आ रही थी। अब तो पेट में भी मरोड़ें उठने लगी थीं। ‘जाने कब तक चांद का इंतजार करना पड़े?’, शिल्पी ने मन ही मन सोचा। किसी और वजह से नहीं, मात्र अरुण की अपने प्रति प्रतिबद्धता के जबाव में ही इतना कड़ा व्रत करती है वह। चांद देखे बिना पानी की एक बूंद तक नहीं पीती ।

हल्की हल्की बूंदाबांदी के उस मौसम में चांद दिखने के भी कम ही आसार थे ।
औरतों के हुजूम को फिरसे देखा उसने। सब उसी की तरह एक-से-एक बढ़कर सजी-धजी थीं। अपने रूप और पति के वैभव के प्रदर्शन की होड़ लगी थी, मानो चारो तरफ।

इतना दिखावा क्यों और किसके लिए- बात समझ में आकर भी समझ के बाहर थी। औरतें शायद होती ही ऐसी हैं, जब लाड़ उमड़ता है तो लड़ने लग जाती हैं और जब लड़ने की जरूरत हो तो चुप हो जाएंगी या रोने बैठ जाएँगी। शिल्पी भी तो एक औरत ही थी। पर सारे दुख और तकलीफों के बाद भी झाँसी की रानी की तरह महसूस कर रही थी आज। वैसे तो कुछ और झांसी की रानियाँ भी मौजूद थीं वहाँ पर, पर शिल्पी जानती थी कि वह खामोश तबका था। मर्दों ने उन्हें छोड़ रखा था और वे नियम से हर वर्ष ही भूखी प्यासी रहकर पति की मंगल कामना करती थीं। चांद को देखकर उसकी लम्बी उम्र के लिए अर्क देती थीं।

शिल्पी इन मूढ़मताओं की मानसिकता से चिढ़ने के बावजूद भी उन्हें सहती और बर्दाश्त करती रही है। अपने इस बेहद व्यवहारिक स्वभाव की वजह से ही तो वह उलटी लहरों पर तैर पाई है। डूबी नहीं है।

शिल्पी ने देखा, उम्र और मौसम को भूल चारो तरफ उमंग भरे मंहगे जरी के आंचल बेसब्र थे अब। पर अभी भी चांद के निकलने में घंटे भर का वक्त और था और सामने बैठी वे औरतें गा-बजाकर अपनी ही दुनिया में मस्त रहने की कोशिश कर रही थीं। किसी को फुरसत नहीं थी कि उसके भावों को पढ़ें या जान पाएँ, पर कल की बात दूसरी होगी, यह भी जानती है वह।

कल जब वे राजेश को दाहगृह में फूंकने आएँगे, कई आंखें, बीस साल बाद भी, उसे ही ढूँढेगी। परिस्थितियों का जी भरकर जायका और जायजा लेंगी। परन्तु, निश्चय ही वह अपनी खुशियों पर, भविष्य पर, कोई काली छाया नहीं पड़ने देगी। आंधियों का रुख बदलना सीख चुकी है शिल्पी। अभी भी बहुत कुछ है उसकी आँखों में, जिसे वह छलकने देना नहीं चाहती।

‘ चलो चलो, कथा सुन लें। चांद के निकलने का वक्त हो आया है।‘

औरतों की समवेत पुकार ने तंद्रा तोड़ दी।

शिल्पी उठी और कपड़े की गुड़िया सी सजी संवरी औरतों के झुंड का हिस्सा बनकर जा बैठी, वैसे ही उन्ही की तरह करवे और दिए के साथ थाल सजाए हुए। मुठ्ठियाँ पूजा के चावल सहेजे और-और भिंचती ही चली जा रही थीं ।

‘अब फिर वही कलावती और सात भाइयों के नकली छल की कथा शुरु होगी। पिछले चालीस साल से सुनती आई है वह इस कथा को। कहाँ नहीं छल…फिर यह कलावती और इसकी परिस्थियाँ क्या आज भी प्रासंगिक हैं ? ‘ शिल्पी की आँखों में अब एक मखौल उड़ाता विद्रूप झंझावत था।

सोच रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। जाने क्यों अपने सारे हठ और आत्मविश्वास के बावजूद, बेहद ठगा और बेचैन महसूस कर रही थी शिल्पी। उसके साथ भी तो भाइयों ने छल ही किया था और चंदा सी खूबसूरत शिल्पी को ग्यारह साल बड़े राजेश से ब्याह दिया था। कुछ भी तो एकसा नहीं था दोनों के स्वभाव और रुचि में। उसकी और राजेश की जोड़ी सदा ही बेमेल लगी थी शिल्पी को। अरुण की बात दूसरी थी। बगल में खड़े होते ही रूप दपदप कर उठता था उसका। उसका ही क्यों, अरुण के चेहरे की रौनक भी तो दुगनी हो जाती थी, उसे देखते ही। मीना तक अक्सर छेड़ती, ‘ बगल-बगल में तो तुम दोनों ही जचते हो। ‘ और हंसकर बात टाल जाती थी, ऐसा कुछ भी तो नहीं था उनके बीच। बस सुख-दुख का साझा था। खुलकर बात कर लेते थे वे आपस में ।

सात बजने वाले थे मंदिर की मानें तो सात पैंतालिस पर चांद दिखे या न दिखे , अर्क देकर औरतें व्रत तोड़ सकती थीं। आकाश सियाह काले बादलों से घिरा पड़ा था । चांद तो दूर, एक तारा तक नजर नहीं आ रहा था। ‘ इन्हें कैसे पता चल जाता है कि आज ही करवा चौथ का दिन है…मौका दो तो सभी भाव खाने लगते हैं? अब चंदा महाराज क्यों न नखरे दिखाएँ, आज इन्ही का तो दिन है।‘ औरतों की सामूहिक खिलखिलाहट से कमरा गूंज उठा। चलो, तबतक गिद्धा ही पा लिया जाए। अब खिलखिलाहट में ठनकती ढोलक की थाप मिल चुकी थी और एकाध ने तो भूख-प्यास भूल, वाकई में ताल पर ठुमकना भी शुरु कर दिया –

‘तू रात खड़ी थी छत पर मैंनू समझा कि चांद निकला। ‘

शिल्पी ने देखा कि गाने के बोल सुनते ही अरुण के मुंह पर एक रहस्यमन मुस्कान थी। ‘यह अरुण भी तो जाने किस मजनू की औलाद समझता है खुद को… दिनभर भूखा प्यासा करवाचौथ का व्रत रखता है आज भी उसके लिए और वह भी पूरी निष्ठा के साथ।‘

सच पूछो तो यह सारा हुजूम, उसी के लिए तो जमा करती है शिल्पी भी। किस्मत वाली है वह कि इतना चाहने वाला जीवनसाथी मिल गया उसे।

भूख…शरीर और आत्मा दोनों की ही अब बढ़ती जा रही थी। शिल्पी का मन किया चौके में जाए और चुपचाप भरपेट खाना खाकर सो जाएँ वे दोनों। बैठा रहने दे इन सबको यूँ ही भूखा-प्यासा। करें पूजा-पाठ। जितना जी चाहे नाचे गाएँ। क्या कह ही दे इनसे-‘जाओ अपने-अपने घर जाओ। उसका कोई विश्वास नहीं इन बातों में। अरे, मरकर क्या होगा आजतक कोई नहीं जान पाया है, और ना ही कोई बताने ही आ पाया है। फिर यह जन्म-जन्म का पोथा भला किसने बांचा है! सात जनम के साथ के लिए पूजा पाठ का क्या अर्थ है भला…जब जीवन में ही किसी बात का अर्थ नहीं। पल में पलट जाता है सब। ‘

‘क्या अरुण भी ऐसे ही पलट जाएगा और छोड़ जाएगा उसे एकदिन? ’, ‘नहीं, कभी नहीं।‘ आगे कुछ और सोच तक नहीं पाई शिल्पी!

‘ आ, तू भी एक आध ठुमके ले ले।‘ जसप्रीत ने हाथ खींचा तो ‘ देखूँ, खाने-पीने का इंतजाम ठीक है या नहीं ’ – कहती शिल्पी भीड़भाड़ से दूर चौके में जा छिपी।

शिल्पी की आंखें उन सबसे दूर अभी भी अपने ही अवसाद में डूबी थीं। ‘यह भी, शायद उस ‘दूसरी‘ की ही चाल हो, जो यूँ करवा चौथ के अगले दिन राजेश की अंत्योष्टि चुनी है इसने।
‘हाँ, वही ‘ दूसरी‘ जिसे महीने भर के अंदर ही राजेश पत्नी का दर्जा देकर, घर ले आया था। शिल्पी मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी पर सिर दर्द से फटा जा रहा था।

खुशियाँ कब बर्दाश्त हुई हैं उसकी उसे। प्यार-व्यार का यह नया नाटक खेलते भी तो कई बरस बीत चुके। पर उसकी और अरुण की जिन्दगी फर्क रही है अभीतक…हर आडंबर से दूर। शादी क्या, किसी रजिस्टर पर हस्ताक्षर तक नहीं किए दोनों ने। बस मन-ही-मन वरण कर लिया एक दूसके का, दीन-दुनिया, रस्मो-रिवाज सबको भूल-भुलाकर। मानो भगवान के आगे माथा टेक आशीर्वाद ही नहीं लिया, गंधर्व-विवाह किया हो । ‘ सबसे उंची प्रेम सगाई। ‘ एक क्षीण मुस्कान खुद-ब-खुद कौंध गई शुष्क पड़ते होठों पर।

यूँ साथी बनकर , बिना शादी के ही, जीवन गुजार देना, आंम बात है यहाँ के यूरोपियन समाज में। पर एशियन समाज की खुसर-पुसर आज भी उसे सुनाई दे ही जाती है। कईयों ने तो यहाँ तक कह डाला कि-‘ बेशर्मी की तो हद ही कर रखी है, दोनों ने। देखो कैसे हाथ में हाथ डाले आते-जाते हैं। कोई लाज-शरम नहीं। लगता है सूअर का बाल है दोनों की आँखों में। कम-से-कम अपने पके बालों और कन्धे छूते बच्चों का तो लिहाज करते।‘

शिल्पी की बात दूसरी है। उसे तो आज भी समझ में नहीं आता कि वास्तव में कौन है वह, बेशर्म या जिन्दगी जीने वाली? हार का भी उत्सव मनाया है उसने। राजेश की विधवा तो हरगिज ही नहीं मानती वह खुद को । तो फिर क्या अरुण की व्याहता … ‘हाँ‘ निश्चय ही । फिर अरुण के नाम का सिंदूर लगाते समय आज करवा चौथ के दिन उसके हाथ क्यों कांपे थे,…मन से वरा है उसने उसे, आत्मा रची है उसके नेह से। अतीत की धू-धू जलती अग्नि के इर्दगिर्द ईश्वर के साक्ष्य में सात फेरे लिए हैं उसने । फिर गंधर्व विवाह की अनुमति तो शास्त्रों में भी है। साहस डिगा क्यों था उसका! कायर तो नहीं ही है वह। ‘

सामने खड़ा अरुण मन का एक-एक भाव पढ़ता लगातार उसे ही देखे जा रहा था। शिल्पी की आंखें अनायास ही झुक गईँ। –

‘जाने क्या क्या सोचने लग जाती है वह भी! …अभी भी गाहे बगाहे यह राजेश क्यों यादों में आ जाता है …व्यर्थ ही कहते हैं कि मुर्दे अपनी कहानी नहीं सुनाते। अपना पक्ष नहीं रख पाते।‘

अचानक अगले पल ही अरुण और रूही दोनों एकसाथ ही दौड़ते से उठे और बाँए-दांए सहारा देते, संभालते-से आ खड़े हुए , मानो शिल्पी एक टूटती डाल-सी किसी भी पल ढहने वाली थी । अरुण के हाथ अब उसकी कमर के गिर्द लिपटे थे और रुही का सिर उसके कांधे पर टिका था, मानो दोनों ही कह रहे हों,- ‘हम समझते हैं, तुम्हारे दुख को भी और तुम्हारी उलझन को भी।‘

मैं तुम्हारे साथ हूँ न ,अरुण का स्पर्श सांत्वना दे रहा था उसे।

‘ भूलो मत, मां! अतीत मृतकों की ही बस्ती है।‘ बेटी की आंखें समझा रही थीं उसे।

‘अतीत कहने को बस अतीत होता है, बीतता कब है। वर्तमान से कब अलग हुआ है यह।‘ शिल्पी की बेचैन रुह को आज कोई नहीं बहला पा रहा था।

बरसें ना बरसें, आवारा इन बादलों को उमड़ने से भला कौन रोक पाया है, -यह भी तो भलीभांति जानते ही थे वे! यादों के हर झाड़-झंकाड़ को खुद ही बड़ी बेरहमी से काटा और फूंका था उसने । अब नए झाड़ को नहीं उगने देगी अपने आसपास। नंगे पैर बेहद कंटीली राहों पर चलते, छूटे पदचिन्हों को हथेलियों से रगड़-रगड़ कर अकेले ही मिटाया था उसने इंगलैंड के इस अंधड़-पानी के मौसम में।

राजेश ने अपनी मुंहबोली बहन से शिकायत की थी- ‘मैं भी क्या करता दीदी, शराफत की हर हद से नीचे गिर चुकी थी वह। ‘ और बहन ने भी अपना धर्म निभाते, फोन पर ही कुलटा भौजाई को सैंकड़ो अपशब्द और बद्दुआओं का तोहफा दे डाला था, बिना पूछे या जाने, कि असल बात क्या हुई थी…कम-से-कम इतना तो पूछ ही लेती कि उसकी बदचलनी और पाप की वह हद् क्या थी?

‘…क्या वह एक पायल का तोहफा हर हद से बाहर था ‘ …शिल्पी आज भी तो ढूंढ ही रही है इन शरीफ मर्द और औरतों की बनावटी और कठोर दुनिया में उस अनोखी शराफत भरी हद को, जहाँ से गिर गई थी वह, या गिरने पर मजबूर कर दी गई थी।

औरतें अब पैटियो में सफेद धुली चांदनी पर कतार बद्ध बैठ चुकी थीं। कुछ नई-नवेलियों के साथ उनके पति या पार्टनर भी बैठे हुए थे। माथे पर नए सफेद बुर्राक रूमाल डाले अपनी-अपनी उमंग और श्रद्धा में वे भी किसी नई नवेली से कम नहीं दिख रहे थे। पूरी तरह से जीवनसाथी के प्रति समर्पित और जिन्दगी के साथ हर समझौता किए हुए।-औरत आदमियों की दूरियाँ, रिश्तों की परिभाषा मायने सब बदलते दिखे उसे इस नयी सोच में…साथ-साथ सदियों से चला आ रहा वह पुरुषों का स्त्रियों पर स्वामित्व भी।

अधिकांशतः प्रौढ़ाएं ही थीं वहाँ। अंदर से खोखली और टूटी, परन्तु बाहर से उसी की तरह सजी-धजी और 17-18 घंटे के निर्जला व्रत की यातना का आनन्द और दुस्साहस को पूर्णतः जीते, सहर्ष ओढ़े हुए। उनके चेहरे का वह शहीदाना भाव अब शिल्पी को अपना मजाक उड़ाता-सा प्रतीत हुआ। चाहे-अनचाहे वह भी तो इस मखौल का हिस्सा बन ही चुकी थी। मखौल जिससे कई साल पहले भागी थी वह।

सुबह राजेश की अंत्योष्टि में शरीक हो या न हो…पूरी रात इसी उहापोह में निकल गई ।

‘ ऐसे वक्त तो दुश्मन के यहाँ भी जाते हैं।‘ शिल्पी को रातभर संस्कारी और सहृदय अम्मा बाबूजी की बातें ही याद आती रहीं। थकान इतनी कि बस ऐसे ही सोफे पर बैठी जाने कब सो भी गई थी वह, ना तो कपड़े बदले और ना ही जेवर उतारे । अरुण आया और पैरों से जूतियाँ उतारीं और वहीं आहिस्ता से लिटा दिया उसे सिराहना लगाकर और कम्बल उढ़ाकर ।

शिल्पी को होश नहीं था। दिनभर भूखी प्यासी रहने के बाद मानो अन्न का नशा चढ़ चुका था उसपर।

दो-चार घंटे बाद सोकर उठी तो आठ बज चुके थे-‘ ऐसे ही चली चलेगी वह तो, घंटे भर की ही तो बात है। वैसे भी इन जगहों से तो लौटकर ही नहाया जाता है।‘ -यही निश्चय कर पाई तब वह। दाह दस बजे का था और नौ बजे तक पहुँचना जरूरी था।

ऊपर जा मुँह पर ठंडे पानी के चन्द छींटे डाल, बिना शीशा देखे ही, काले तूश से अपनी भारी सिकुड़ी-सिलटी चमचम साड़ी को छुपाती, नीचे भी आ गई वह। उसे यूँ देखते ही, जाने क्यों आकाश की लाल आंखें अग्नि बरसाने लगीं। रूही आगे बढ़ी और झटपट मां की नाक से नथ निकाल कर पर्स में रख ली। अस्त व्यस्त बालों को ठीक करते, सिंदूर की चौड़ी रेखा भी थोड़ी कम कर दी। ‘ मांग-टीका कहाँ है, माँ? जरूर रात बिस्तर में ही गिर गया होगा। लौटकर रख दूँगी।’, कहते शिल्पी ने अपने बालों पर हाथ फेर लिया, मानो बेटी से पूछ रही हो , ‘सब ठीक तो है?’

रूही मां की उस अनमयस्क मनःस्थिति को समझ चुकी थी। कुछ और कहना या करना बेकार था अब। काली स्कर्ट की सलवटें ठीक करती, रिवायतन एक काला स्कार्फ गले में लपेटे अब रूही भी शोक सभा में जाने को तैयार थी।

चलते-चलते, पलटकर उसने एकबार फिर भरपूर और आलोचनात्मक नजर मां पर डाली- ‘यौद्धाओं के पास कहाँ वक्त होता है औपचारिकताओं के लिए, फिर इन्होंने कब किसी की परवाह की है !‘- सिर झटककर सारे उहापोह को वहीं गिराती, वह तुरंत ही माँ और भाई के साथ कार में जा बैठी।

कार में बैठते ही, पलकों की कोरों तक बेटी के प्रति छलक आया कृतज्ञता का वह मोती व्यर्थ न जाए, इसलिए रेशमी रूमाल के छोटे से कोने में बड़ी सुगढ़ता से सहेज लिया शिल्पी ने। प्रत्युत्तर में रूही भी मां का हाथ बेहद प्यार और परवाह के साथ थपथपाना नहीं भूली।

‘चल जल्दी चल।’ इतना ही कह पाई तब रुंधे गले से शिल्पी। अग्नि-परीक्षा का पल था यह उसके लिए। फिर लगातार उसे ही पढ़ रहे अरुण को भी तो कोई गलत संदेश नहीं देना चाहती थी वह।

अरुण अब घर में अकेला था और उसे तेज बुखार-सा घटनाओं का हैंगोवर था।

वैसे रात खाने के बाद दिन भर की थकान मिटाने को तीन-चार पैग भी ले ही लिए थे उसने।

सबकी निगाहों में बसे चोरी के इल्जाम को सहने की और ताकत नहीं थी उसमें। राजेश बचपन का लंगोटिया यार, और सीधी-सादी व समर्पित पत्नी मीना का भला कैसे सामना कर पाता वह? बिना कुछ कहे ,बिना मुड़कर देखे ही तो छोड़ आया था उन्हे। बरसों की बसी-बसाई गृहस्थी मिनटों में तजकर । पंद्रह वर्ष की व्याहता मीना। …राजेश , शिल्पी, अरुण और मीना, चारो जो गहरे और अभिन्न मित्र थे, आज वक्त के हाथों कैसे तिनके-तिनके बिखर चुके हैं। एक ठंड़ा आंसू अकेले कमरे में उसके गाल पर ढुलका और पूरा-का-पूरा डुबो गया उसे। एक शाम तक तो एक दूसरे के बिना न गुजरती थी कभी उनकी।

कहते हैं दोस्त जितने गहरे हों, दुश्मन भी तो उतने ही जबर्दस्त बनते हैं। भले ही वह और शिल्पी उस दुनिया से निकल आए हों , मुड़कर न देखा हो पर मीना तो जरूर ही होगी वहाँ आज राजेश के अंतिम संस्कार में। उसके घर के हर सुख दुख के मौसम में आज भी उसी ने तो मदद की है राजेश की। कांटों पर भी गुलाब-सी खिली वफा अच्छी तरह से निभाना जानती है मीना। उस तक से तो शिकायत नहीं की मीना ने कभी, ना ही कोर्ट-कचहरी ले गई । बस तिनका-तिनका घोंसला फिर से संवारने में जुट गई चुपचाप अकेले ही। अरुण का सिर अक्सर ही श्रद्धा से झुक जाता है मीना के प्रति।…-काश् मीना की शादी उससे नहीं, किसी और से ङुई होती या फिर शिल्पी पर उसकी आँख नहीं पड़ी होती। या फिर राजेश थोड़ा और लचीला और उदार होता… अरुण रातभर उलट-पुलट कर तकिए को कभी सिर के नीचे तो कभी सिर के ऊपर रखने के बावजूद भी पलभर भी नहीं सो पाया था। विश्वास ही नहीं हो रहा था उसे अपने मन के इस हाहाकारी द्वंद पर। …

विश्वास तो शिल्पी को भी नहीं हो रहा था। पांव मानो जम गए थे। वहीं बैठी कार की खिड़की का कांच नीचा किए देखे जा रही थी वह उस आदमी को, जो उसका पति था कभी। राजेश की बहन जीजा और पंडित के अलावा कोई और नहीं था वहाँ पर उस वक्त, उसके पास। तभी वह दिखी फूलों की माला का थाल उठाए । शिल्पी ने देखा, उपस्थित हर हाथ में एक एक माला दे दी थी उसने। शिल्पी ने भी मन-ही-मन हाथ जोड़कर विदा ले ली राजेश के शव से और खुद को पूर्णतः अपराध बोध से अलग कर लिया। हाँ, माफ नहीं कर पाई। स्वामित्व के भाव से न वह मुक्त हुआ और ना ही उसे होने दिया दासता से। जीवन की सारी खुशियाँ मानो फिरौती पर रख ली थीं उसने उन्नीस वर्ष की छोटी सी ही उम्र से…ऐसा करो, तभी वैसा..सब कुछ उसकी मर्जी से ही तो होता था उसके घर में।

अब सब कुछ उस ‘दूसरी‘ के मनमाफिक ही हो रहा था। वह अंतिम संस्कार से पहले की तैयारी और विदा बिना भीड़भाड़ के चाहती थी इसलिए घर पर बस परिवार था और मीना थी। शेष सभी मित्रों और परिचितों को विद्युत दाहगृह में ही सीधे बुलाया गया था।

वह तो वैसे भी अब उनके लिए किसी भी श्रेणी में न थी, न मित्रों की और ना ही परिचितों की। रिश्ते-नाते का तो कोई बन्धन ही नहीं था अब उनके बीच। फिर भी जाने क्यों शिल्पी पथराई आँखों से एकटक सब देखती ही जा रही थी।

राजेश को नहला-धुलाकर कौफिन में लिटाया जा चुका था। औरों की तरह, बच्चे भी बाप के पैरों के पास ही चुपचाप खड़े थे। सारा काम पंडित और ‘दूसरी‘ ने ही किया। हाँ मंत्रोच्चारण के साथ घी की पहली चम्मच आकाश ने ही डाली थी पिता के माथे पर, फिर ही किसी और ने। बाप-बेटों के रिश्तों के बीच अंतिम कड़ी और संस्कार था यह।

शिल्पी देख रही थी, आकाश का दोहरा बदन अभी भी बाप पर झुका हुआ था और रहरहकर कांप रहा था…शायद रुलाई न रोक पा रहा हो। पंडित ने मंत्र पढ़े और फिर सोने के एक टुकड़े को रखने की मांग की। मृतात्मा के अगले संपन्न और सुखी जीवन के लिए एक टुकड़ा सोना साथ जाना जरूरी था।

सब एकदूसरे का मुंह देखने लगे-सोने का टुकड़ा …वह भी इस वक्त, कहाँ से और कैसे इन्तजाम हो? व्यर्थ ही दाहगृह में जलवाने के लिए किसी के पास फालतू का जेवर नहीं था। ‘दूसरी‘ के पास भी नहीं। गंगाजल और शॉल तो बहन जीजा ले आए थे पर यह इंतजाम नहीं किया गया था।

अचानक कोने में अकेली खड़ी रूही आगे बढ़ी और पर्स खोलकर वह नथ पापा के चरणों में रख दी।

शिल्पी की आंखें अपनी बेटी की परिपक्वता पर स्तब्ध थीं। हीरे की होने की वजह से पुराने कपड़ों की तरह विसर्जन नहीं कर पाई थी वह नथ का।

यह वही नथ थी जिसे पहली बार उतार कर राजेश ने स्वामित्व का आधिपत्य किया था उसके कुंवारे तन और मन पर। अब बरसों की त्रासदी की बू आने लगी थी उसे इस नथ से। जो काम शिल्पी पिछले पंद्रह बरसों में न कर पाई थी, रूही ने पल भर में ही कर दिखाया था। वाकई में छोटे होकर भी, यहाँ पश्चिम में पले-बढ़े बच्चे उनसे कहीं अधिक परिपक्व होते हैं।

नथ उसकी पराधीनता का प्रतीक, अपनी सही जगह पहुंच चुकी थी । तो, यह आखिरी कड़ी भी टूट ही गई ।

इस कठिन माहौल में भी संतुष्ट मुस्कान थी रुही के कसे होठों पर।

परिक्रमा की गई, शव के ऊपर कुछ और फूल चढ़ाए गए और ताबूत का ढक्कन अंतिम बार के लिए बन्द कर दिया गया। राजेश चल पड़ा था अपनी अंतिम यात्रा पर।

पुरुष सदस्यों ने ताबूत में लेटे राजेश को कन्धों पर उठा लिया था और ओम नमः शिवाय के उच्चारण से हॉल गूँज उठा। बाहर चार-पाँच लिमजीन और केयर-टेकर पहले से ही काले लम्बी चोंच वाले कोट में घर वालों से भी ज्यादा गंभीर मुंह बनाए इंतजार कर रहे थे। माहौल न चाहते हुए भी ऊदे-झुके बादलों-सा ही भारी और नम हो चला था।

आगे वाली कार में कौफिन के साथ-साथ सारे फूल भी रख दिए गए। पीछे की कारों में एक-एक करके सब बैठ गए, उसके अपने बच्चे भी। मिनटों में ही काफिला चल पड़ा। वहाँ पर उसके रुकने की वाकई में अब कोई जरूरत नहीं थी। शिल्पी ने कार स्टार्ट की और वापस अपने घर को मुड़ गई…उसे पता था कि औरों के साथ साथ , खुद उसके अपने बेटे आकाश की आंखें भी उसे ही ढूंढेगी, बुरा-भला सोचेंगी और समझेंगी भी। शिल्पी को परवाह नहीं थी अब।

रुही समझदार है । एक सुचारु घर तो बसा ही लिया है उसने स्टीव के साथ। आकाश से भी कह ही देगी कि उसकी जिम्मेदारी नहीं वह अब। बड़ा हो गया है। मां का चाल-चलन पसंद नहीं, तो अलग इंतजाम कर ले।

….

सुबह-सुबह तो कभी नहीं पीते थे वे, पर उस दिन दोनों ने पसंदीदा काकटेल जिन और टौनिक के दो-दो बड़े पैग लिए और साथ में मंहगा हवायन सिगार भी। सब धुँआ-धुँआ कर डालने का इरादा हो मानो । वैसे भी कोई नहीं था वहाँ, सिवाय शिल्पी और उसके प्रेमी के । शिल्पी पूरी तरह से निवृत थी अतीत, वर्तमान, भविष्य, सभी से, हर ग्लानि और हीन भाव से ।

नहाई-धोई, ढीले-ढाले काफ्तान में तरोताजा और प्रसन्नचित, अरुण की फैली और आमंत्रण देती बांहों में खो जाने को पूर्णतः तैयार शिल्पी उस आज और अभी के बेहद निर्णायक पर उद्वेलित पल में सब जीत लेना चाहती थी। सामने लेटे प्रेमी और अपने मन के विषाद, सभी को। जल्दी इतनी कि दरवाजा लुढ़काना तक भूल गए दोनों। दीन-दुनिया से बेखबर जाने कितने पल यूँ ही उस आनंदमय उन्माद में एक-दूसरे में बिंधे-गुथे ही बीत गए।

दरवाजे पर घंटी बजाते आकाश को सुन और समझ पाना अब बेसुध शिल्पी और अरुण के बस में नहीं था। इसबार भी सयानी रुही ने ही परिवार की इज्जत बचाई, अपने बटुए से ताली निकालकर तुरंत ही न सिर्फ दरवाजा खोल दिया, अपितु आकाश की आग्नेय आँखों से बचने के लिए कमरे का दरवाजा भी लुढ़का दिया।

‘एक चाभी तुम्हे भी कटवा ही लेनी चाहिए। कब तक यूँ दूसरों के भरोसे रहोगे?’

वक्त की निर्ममता से आहत आकाश वैसे भी सुनने-समझने की स्थिति में नहीं था । कुछ भी उसके पल्ले नहीं पड़ा। कानों में लगातार वही शिवधुन गूंज रही थी। शीशे-सी पिघलती और पूर्णतः बहरा करती । बौखलाए आकाश को एक बात जो बिल्कुल ही नहीं समझ में आ रही थी- वह थी कि यहाँ घर पर भी लगातार वही शिव धुन क्यों बज रही थी। मानो शिवधुन नहीं तिलिस्मी मंत्र हो जिसके द्वारा उसके बाप के प्रेत को निकाला और मिटाया जा रहा था इस दुनिया से। मानो प्रलयंकारी उस पल में साक्षात शिव-ताणडव चल रहा था चारो तरफ, उसके मन और मस्तिष्क में भी।

यही ओम नमो शिवाय की धुन बज रही थी वहाँ मरघटे में जहाँ उसका बाप जलाया जा रहा था और उस हॉल में भी जहाँ हजारों की भीड़ खा पी रही थी। हंसी-ठहाके ले रही थी। …और यहाँ इस कमरे में भी, दोनों के आपस में गुंथे-बिंधे ऊंचे खर्राटों पर थिरकती, नाचती । मानो सब भूल चुके थे कि क्या हुआ था अभी, अभी-अभी क्या करके, किसे फूंककर लौटे हैं वे दोनों। लगता है, किसी को जरूरत ही नहीं थी उसके बाप की।

सामने कमरे में मां और उसका प्रेमी अभी भी एक दूसरे से लिपटे बेसुध सोए पड़े थे।

‘ कम-से-कम आज तो नहीं’…आकाश का मन विष्तृणा से भर उठा। अब कोई सावित्री सत्यवान को यमराज के घर से वापस नहीं लाती , जरा सी तिलमिलाहट में तुरंत दूसरा ढूँढ लेती है। पता नहीं इस धुन के सहारे अपने पापों की माफी मांगी जा रही थी या आगे के जीवन की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की जा रही थी, अब तो आकाश का मन जानना भी नहीं चाहता था कुछ। जरूरत ही नहीं रह गई थी। मां-बाप के विछोह के बाद सालों-सालों भटका था वह हिमालय की दुरूह और एकाकी राहों पर। साधू और अघोड़ियों के साथ धूनी रमाई थी। चरस सुड़की, काला जादू तक किया था। महीनों खोपड़ी में भर-भर पानी पिया, पर कुछ हाथ न लगा, कोई हल न निकला। न तो बाप ही वापस लेने आया उसे और ना ही माँ पलटकर घर की तरफ ही लौटी।

वाकई में किसी को जरूरत नहीं थी।….वैसे भी जरूरत कब और किसे रहती है किसी की भी ? यह रिश्ते नाते सब जरूरतों पर ही जितनी आसानी से बनते हैं, उतनी ही आसानी से तोड़ भी तो दिए जाते हैं। पंद्रह-सोलह की कच्ची उम्र में ही जान और समझ चुका था आकाश यह सब। एक हद तक ही तो सब जुड़ता और बदलता है, बाकी सब तो दिखावा ही है। यही तो दुनिया है…पूर्णतः अपनी ही धुरी पर घूमती। और तो और भगवान तक को अपने स्वार्थ के लिए सदा ही बहलाने फुसलाने पर आमदा ।

…कौन है वह, जिसका शोक अकेला-अकेला मनाए जा रहा है वह? सही है- बाप खोया है उसने, पर ऐसा बाप जिसने बीस साल से उसका एक आंसू तक नहीं पोंछा कभी आकर, एक निवाला तक नहीं डाला उसकी भूखी आत्मा में, खिलौने, किताब या और, उसकी किसी जरूरत पर कोई ध्यान नहीं दिया। बात करना, चिठ्ठी लिखना तो दूर, एक कहानी तक नहीं पढ़कर सुनाई। पलट कर भी नहीं देखा कि मरा या जिया आकाश अपनी इन बेहद व्यावहारिक और कुशल मां बहनों के साथ, जिन्होंने अपने अलावा किसी और के बारे में न कभी कुछ सोचा और ना ही जिया ।

किसी सीता का अपहरण नहीं हुआ यहाँ। यह आज की सीता तो खुद ही रावण के घर आ बैठी है और कोई राम भी बेचैन नहीं इसके लिए। …फिर वही क्यों इतना परेशान हो रहा है, रोक लेगा इन बहते आंसूओं को। खुद वही गुम हो गया है । अपनी जवानी , अपनी खुशियाँ…खुद का अपहरण कर रखा है इस छलावे में भटककर। आंखें ही नहीं मन तक बारबार भरा जा रहा था अब उसका।

वो कोई बारात हो या वारदात अब/ किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां- वाले इस देश में लगातार दोनों ही घरों में उत्सव चल रहा था…लोग खा पी रहे थे, ठहाके लगा रहे थे । कल मिलजुलकर अपनी-अपनी लूट का बटवारा भी करेंगे। जाना तो सभी को है एकदिन, सबकुछ यहीं छोड़कर। उसे भी । फिर यह उदासी और रोना-धोना क्यों! जब मौत तक उत्सव है तो मूर्ख ही है वह, जो जीवन तक का उत्सव न मना पाया। उत्सव की तरह न जिया। आज से उसके जीवन का भी हर दिन उत्सव ही होगा और रात दिवाली। वह भी जिएगा अब।

सामने एक गिलहरी आने वाले दिनों के लिए गढ्ढे खोद-खोदकर खाना छुपा रही थी। डाल-डाल पर बड़े ही साहस के साथ उलटी-सीधी लटककर मनचाहा जमा कर रही थी। अचानक गिलहरी का चेहरा माँ के चेहरे में बदल गया और वे सारे कष्ट भरे पल जो मां ने अकेले ही आंसू पीकर निकाले थे उसकी आंखों के आगे कौंध गए। जो मन में खुशी दे, हिम्मत दे, सहज हो, वही तो साहस है। और मर्दों की इस दुनिया में बेहद साहस के साथ जीती आई है उसकी मां, हर नफरत को हंस-हंसकर झेलते हुए एक आरामदेह घरौंदा बनाया है उसने। कितना गलत समझता रहा उसे। आज उसने मां-बाप, दोनों को माफ कर दिया। दोनों ही तो मनमाफिक जिए, मनमाफिक रास्ता चुनकर। खामखाह वह ही दो पाटों के बीच पिसता रहा।

एक ठंडी सांस ओठों से निकली तो आंसू भीगी आंखों में एक नयी ही चमक बनकर जा बैठी- ‘यही जीने की शक्ति है, असली दुनिया है। जीने का तरीका है बस‘जीओ और मस्त रहो। हर दिन एक नया दिन …एक नया उत्सव। कभी सैकड़ों, तो कभी गिने चुने खास…तो कभी बस अकेले अपने ही चोले में मस्त।
मन चंगा तो कठौती में गंगा…आकाश पलटा और पीछे सब छोड़ता बाहर निकल आया।
अक्तूबर के पाले पड़े लॉन पर रोज पत्थर का गोला-सा दिखता चांद आज अपनी ही रौशनी में थिरक रहा था। गौर से देखा तो चांद का मुंह कुछ-कुछ टेढ़ा जरूर लगा उसे, मानो टुन्न हो चुका था वह भी दावतों के इस दौर में।

‘ तो क्या इसने भी जी भरकर पी रखी है आज ! सबके बीच वही एक अकेला तो बेवकूफ रहा ! बस्स, अब और नहीं !
’ गुडबाई डैड, बी हैप्पी वेयर एवर यू आर। एंड लेट मी बी हैप्पी औलसो।’
बात जो सालों पहले बाप के साथ कर लेनी थी आज उसने कह ही दी। उसकी आत्मा तक हलकी थी अब। अगले ही पल वह जोर-जोर से गा रहा था , ’ ऐ चांद जरा संभल जा…’
बीसियों साल में पहली बार, यूँ कभी ठहाके लगाते तो कभी गाते आकाश को देख कर माँ और उसका प्रेमी ही नहीं, पूरा-का पूरा-का पूरा अड़ोस-पड़ोस ठिठका खड़ा था अब तो,…

शैल अग्रवाल
बरमिंघम, यू.के
आणविक संकेतः shailagrawal@hotmail.com

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