आज तो हद ही हो गयी थी। घर का माहौल इतना दम घोंटू हो गया था की जूही घबरा कर बाहर निकल गयी। न हाथ में पर्स था न फोन। तेज़ क़दमों से चलते हुए उसका दिमाग ये भी काम नहीं कर रहा था कि कहाँ जाय। गली में तमाशा न बने तो उसने पास से गुज़रती हुई रिक्शा को रोका और झट से उसमें बैठ गयी। दो पडोसी देख लेते तो पूछते ज़रूर, कि क्या हुआ था जूही, तुम रो क्यों रही थी ?तेज़ हवा के साथ आँसू भी पीछे को बह रहे थे ,दुपट्टे से मुंह ढँका और भैया को कहा, बाला जी मंदिर की तरफ लेना। तभी ध्यान आया की पैसे तो हैं नहीं , किराया कैसे देगी ? ये सोच कर रिक्शा रुकवाया और उतर गयी। रिक्शे वाला भाई आवाज़ें देता रह गया पर वो न पलटी। बाला जी मंदिर ही चलूँ , सोचा जूही ने। भगवान् ही सुन ले शायद….. और तो कोई सुनता नहीं।
थक चुकी थी जूही। किशोर होते बेटे की मानसिक दशा बिगड़ती ही जा रही थी। आज तो उसने अपने पिता पर ही हाथ उठा दिया था। वरुण पहले तो हक्के बक्के रह गए थे फिर बेसाख्ता ही पलट उन्होंने भी बलिष्ठ मुक्के जड़ दिए थे विशु को। विशु औंधे मुँह गिरा था और वो विस्फारित नेत्रों से, काँपते हाथों से, भर्राई आवाज़ से बस उनको अलग ही कर पायी थी।
-वो बीमार है वरुण!
-वो बीमार है तो कुछ भी करेगा ? सीमायें लाँघ जायेगा ? और मैं औलाद से मार खाऊं ? तुम चुप ही रहो!
फुंफकारते हुए वरुण बाहर चले गए थे…और विशु ने अपना दरवाज़ा बंद कर लिया था। जूही जानती थी की अब वो शाम तक अपना दरवाज़ा नहीं खोलेगा । बहुत गुहार लगाई उसने पर कोई जवाब नहीं। निढाल सी बैठी रही जूही। दवा भी तब असर करे जब ये दवा खाये। कुछ समझ नहीं आ रहा था । अच्छा खासा मेधावी छात्र विशु , दसवीं के बाद बाद ऐसे डूबना शुरू हुआ कि जूही और वरुण कारण पकड़ नहीं पाए। कई बार जूही ने वरुण से कहा भी , कि किसी डॉक्टर को दिखाते हैं ,पर वरुण ने यही समझाया कि लड़के ऐसे ही होते हैं , मूडी और थोड़े सिरफिरे। तुम इकलौती बेटी हो , तुम्हें क्या पता लड़के कैसे पालते हैं। पर दूर के रिश्ते के देवर ने उन्हें सख्त हिदायत दी थी कि वे मेडिकल टेस्ट करवाएं। विशु कहीं जाने को तैयार ही न होता। डॉक्टर को दुगनी फीस दे कर , एक रिश्तेदार की तरह घर बुलाया था की ताकि वे उसका आकलन कर सकें। दवा शुरू भी हुई पर जूही हैरान हो जाती की अविश्वास और गहन उदासी में डूबे विशु को दवा खिलाये तो कैसे। उसका धैर्य भी छूट जाता और मन की शान्ति भी। वरुण तो काम पर चले जाते , पीछे रह जाती अकेलेपन और द्वंदों के चक्रव्यूह में जूझती निरीह जूही। माँ का मन अनजानी आशंकाओं से घिरा कलेजा मसोस देता। बाहर जाती तो दुनिया के बच्चों को देख कर मन त्राहि त्राहि करता , कि मेरे ही बेटे के साथ होना था ये। गरीबी और अभाव में पले बच्चे कितनी मस्ती की ज़िन्दगी जी रहे है और एक मेरा बेटा है की पतझड़ के पत्ते तरह कुम्हलाता ही जाता है। अंदर आती तो चुप्पी के गहराते साये विशु के कमरे से रेंग कर उसके वजूद को अपनी विष भरी कालिमा में समेट लेते। कभी तो लगता था कि वो ही पागल हो जाएगी।
मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते उसका गला भर आया। भगवान् कुछ तो रास्ता निकालो , कोई राह तो दिखाओ। शेल्फ पर से हनुमान चालीसा उठा कर वो सबसे पीछे बैठ गई। सारी संगत संगीतमय सुरों में चालीसा गा रही थी। बहुत भीड़ नहीं थी। आँचल सर पर डाल कर जूही मन ही मन चालीसा पढ़ने लगी पर आंसुओं से चालीसा भी भीग गयी।ऐसी औलाद से तो बेऔलाद अच्छे। मांग मांग कर बेटा पाया , वो भी ऐसा। वापस ले लो , रो लूंगी एक बार कलेजा चीर कर। रोज़ मरना तो न पड़ेगा। जूही के आँखों के आगे वो दृश्य बार बार आ रहा था। अचानक सर पर किसी का हाथ महसूस हुआ। देखा तो एक वृद्ध महिला थीं , जिन्होंने आँखों आँखों में मानो उससे कहा , सब भगवान् पर छोड़ दो वो ही देखेगा सब। जूही ने सर झुका लिया।
अजीब सी घिसटने की आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा। एक युवक अपने दोनों हाथों में लकड़ी के हैंडल से पकडे , उन्ही के सहारे घिसट घिसट कर आगे बढ़ रहा था। युवक को देख कर जूही का कलेजा मुंह को आ गया। इतना सजीला रूप और टाँगें बेकार !शांत हाव भाव वाला वो युवक घिसट घिसट कर गर्भ गृह तक पहुंचा और दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगा। पुजारी जी भी उठ कर उसे प्रसाद व् चरणामृत देने आये। फिर उसने उन्हीं लकड़ी के हैंडलों के सहारे परिक्रमा भी की। उसकी माँ उसके पीछे पीछे मंथर गति से चल रही थी। जूही ने देखा बाकी लोग उसे वैसे नहीं देख रहे हैं जैसे वो देख रही थी। शायद वो सभी उसे जानते थे। परिक्रमा के पश्चात ,उस युवक ने मंदिर के दरवाज़े का रुख़ किया। कौतुहल वश ,उसे देखने के लिए ,जूही भी प्रणाम कर के धीरे धीरे बाहर निकली। बाहर का नज़ारा और था। उस युवक को उसकी माँ पानी पिला रही थी और अपने गीले पल्लू से उसका चेहरा पोंछ रही थी। युवक अपनी माँ के इस दुलार से थोड़ा परेशान सा लग रहा था,और संतुष्ट भी। वैसे ही धीरे धीरे घिसटते , वह मंदिर के निकास द्वार की तरफ बढ़ रहा था। जूही हतप्रभ सी वहीँ बैठ गयी। वही वृद्ध महिला भी निकल चुकी थी और जूही को देख कर ठिठक कर खड़ी हो गयी।
-ठीक हो ?
-जी। .. वो लड़का ….. ?आप जानती हैं उसे ?
-हाँ हाँ ! अर्जुन है वो। रोज़ आता है इसी समय मंदिर में अपनी माँ के साथ। बड़ा भला बच्चा है। बस बीमारी ने चलने की शक्ति ले ली।
-उसकी माँ …….. ? कितनी दुखी होगी वो……
कहते कहते जूही चुप हो गयी।
-माँ की छाती धरती होती है बेटा , सब झेल लेती है।
एक वो है , जिसका बेटा अपाहिज है और एक मैं हूँ ! कोई शिकन नहीं थी उसकी माँ के चेहरे पर। चेहरे की सौम्यता ने जूही को कई अनकही बातें बता दीं। विचलित तो वो भी हुई होगी कभी पर आज तो शांत और तटस्थ थी। जूही का मन ग्लानि से भर गया। उसे उसी के सवालों का जवाब मिल गया था।
एक वो ही तो नहीं , और भी हैं दुनिया में। भगवान ने ये दृश्य दिखाने के लिए ही शायद उसे यहाँ बुलाया था। उसके कानों में वृद्ध महिला की बात गूंजने लगी -माँ की छाती धरती होती है,सब झेल लेती है
मंदिर की चौखट को प्रणाम करके चल पड़ी वो , निकाल लेगी वो अपने विशु को इस चक्रव्यूह से।भगवान् ने जीवन दिया है तो रास्ता भी वही दिखायेगा। मन कड़ा कर के वो लौट चली , शांत रहेगी पर क्लांत नहीं।
-सुनीता राजीव
सुनीता राजीव एक समर्पित शिक्षाविद रही हैं जो कहानी , कविता व गीतों के माध्यम से , जीवन के बहुरंगी आयामों की अभिव्यक्ति करती हैं। कहानी वाचिका के तौर पर इनकी यू टयूब पर ‘सुनो कहानी ‘श्रृंखला , देश की अमूल्य सांस्कृतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक धरोहर को भावी पीढ़ी के लिए प्रस्तुत करती है। ‘गीता राघवन अवार्ड’ , ‘रचनात्मक शिक्षक सम्मान’ तथा राष्ट्रीय संस्था ELTAI द्वारा ‘बेस्ट इंग्लिश टीचर’ अवार्ड से सम्मानित,ये पर्यावरण संरक्षण , चाइल्ड प्रोटेक्शन व शिक्षक ट्रेनिंग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देती रही हैं। तीन सांझे प्रकाशन – ‘प्रीत के रंग’ , ‘आहट समय की’,महिमा श्री राम की’ में इनकी कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं।
ईमेल- sunitarajiv1963@gmail.com