श्रीमती जी कई दिन से कह रही थीं- “उलटी बयार” फ़िल्म का बहुत चर्चा है, देख लेते तो अच्छा था।
देख आने में ऐतराज़ न था परन्तु सिनेमा शुरू होने के समय अर्थात साढ़े छः बजे तक तो दफ़्तर के काम से ही छुट्टी नहीं मिल पाती। दूसरे शो में जाने का मतलब है- बहुत देर में सोना, कम सोना और अगले दिन काम ठीक से न कर सकना लेकिन जब ‘उलटी बयार’ को सातवां हफ़्ता लग गया तो यह मान लेना पड़ा कि फ़िल्म अवश्य ही देखने लायक होगी।
रात साढ़े बारह बजे सिनेमा हॉल से निकलने पर ताँगे का दर कुछ बढ़ जाता है। आने-दो आने में कुछ बन-बिगड़ नहीं जाता लेकिन ताँगेवाले के सामने अपनी बात रखने के लिए कहा- “नहीं, पैदल ही चलेंगे। चाँदनी रात है। ग़नीमत से चार कदम चलने का मौक़ा मिला है।”
उजली चाँदनी में सूनी सड़क पर सामने चलती जाती अपनी बौनी परछाई पर क़दम रखते हुए चले जा रहे थे। ज़िक्र था, फ़िल्म में कहाँ तक स्वाभाविकता है और कितनी कला है? कला के विषय में स्त्रियों से भी बात की जा सकती है, खासकर जब परिचय नया हो! परन्तु स्वयं अपनी स्त्री से, जिसे आदमी रग-रोयें से पहचानता हो, बहस या विचार ‘अदल-बदल, लेन-देन’ विनिमय का क्या मूल्य?
श्रीमती को शिकायत है, दुनिया भर के सैकड़ों लोगों से बहस करके भी मैं उनसे कभी बहस नहीं करता। मैं उन्हें किसी योग्य नहीं समझता। इस अभियोग का बहुत माकूल जवाब मैंने सोच डाला-
“जिस आदमी से विचारों की पूर्ण एकता हो, उससे बहस कैसी?”
इस उत्तर से श्रीमती को बहुत दिन तक संतोष रहा कि चतुर समझे जाने वाले पति के समान विचार के कारण वे भी चतुर हैं। परन्तु दूसरों पर बहस की संगीन चला सकने के लिए पति नाम के रेत के बोरे पर कुछ अभ्यास करना भी तो ज़रूरी होता है इसीलिए एक दिन खीझ कर बोलीं- “बहस न सही, आदमी बात तो करता है। हम से कभी कोई बात ही नहीं करता।”
सो पति होने का टैक्स चुकाने के लिए, अपनी स्त्री के साथ कला का ज़िक्र कर चाँदनी रात का खून हो रहा था। मैं कह रहा था और वे हूं-हूं कर-कर हामी भर रही थीं। अचानक वे पुकार उठीं… “यह देखा!”
स्त्री के सामने कला की बात करने की अपनी समझदारी पर दांत पीस कर रह गया। सोचा वह बात हुई- ‘राजा कहानी कहे, रानी जूं टटोले।’ देखा:-
हलवाई की दुकान थी। सौदा उठ चूका था। बिजली का एक बल्ब अभी जल रहा था। लाला दुकान के तख्त पर चिलम उलट कर दीवार से लगे औंघा रहे थे। नीचे सड़क पर कढ़ाई ईट के सहारे टिका कर रक्खी गई थी। उसे माँजने के प्रयत्न में एक छोटी उम्र का लड़का उसी में सो गया था। कालिख से भरा जूना उसके हाथ में थमा था और उसकी बाँह फैली हुई थी। दूसरा हाथ कड़े को थामे था। कढ़ाई को घिसते-घिसते लड़का औंघा गया और फैली हुई बाँह पर सिर रख सो गया।
एक कुत्ता कढ़ाई के किनारे बच रही मलाई को चाट रहा था। मैं देख कर परिस्थिति समझने का यत्न कर रहा था कि श्रीमती जी ने पिघले हुए स्वर में क्रोध का पुट दे कर कहा- “देखते हो ज़ुल्म!… क्या तो बच्चे की उम्र है और रात के एक बजे तक यह कढ़ाई, जिसे वह हिला नहीं सकता; उस से मँजाई जा रही है।”
मेरी बाँह में डाले हुए हाथ पर बोझ दे वे कढ़ाई पर झुक गईं और लड़के की बाँह को हिला उसे पुचकार कर उठाने लगीं।
लड़का नींद से चौंक कर झपाटे से कढ़ाई में जून के रगड़े लगाने लगा परन्तु श्रीमती जी के पुचकारने से उसने नींद भरी आँख उठा कर उनकी ओर देखा।
मेरी इस बात को अपने समझने योग्य भाषा में प्रकट करने के लिए वे बोलीं- “हाय, कैसे पत्थर दिल होते हैं जो इस उम्र के बच्चों को इस तरह बेच डालते हैं। और इस राक्षस को देखो, बच्चे को मेहनत पर लगा खुद सो रहा है।” फिर बच्चे को पुचकार कर साथ चलने के लिए पुकारने लगीं।
इस गुल-गपाड़े से लाला की आँख खुल गई। नींद से भरी लाल आँखों को झपकाते हुए लाला देखने लगे पर इससे पहले कि वे कुछ समझें या बोल पायें, श्रीमती जी लड़के का हाथ थाम ले चलीं। फिल्म और कला की चर्चा श्रीमती जी की करुणा और क्रोध के प्रवाह में डूब गई।
कानूनी पेशा होने के कारण कानून की ज़द का ख़्याल आया। समझाया- “कम उम्र बच्चों को उसके माँ-बाप की अनुमति के बिना इस प्रकार खींच ले जाने से पुलिस के झंझट में पड़ना होगा।”
राजा और समाज के कानून से जबरदस्त कानून है स्त्रियों का। पति को बिना किसी हीलो-हुज्जत के स्त्री के सब हुकुम मानने ही पड़ते हैं। श्रीमती जी ने अपना कानून अड़ाकर कहा- “इसके माँ-बाप आकर ले जायेंगे। हम कोई लड़के को भगाये थोड़े ही लिए जा रहे हैं। लड़के पर इस तरह ज़ुल्म करने का किसी को क्या हक है? यह भी कोई कानून है?”
लाला आँख झपकाते रहे और हम उस लड़के को लिए चले आये। लाला बोले क्यों नहीं? कह नहीं सकता। शायद कोई बड़ा सरकारी अफसर समझ कर चुप रह गए हों।
लड़के से पूछने पर मालूम हुआ कि दरअसल उसके माँ-बाप थे नहीं। मर गए थे। कोई उसका दूर का रिश्तेदार उसे लाला के यहाँ छोड़ गया था।
दूसरे रोज़ लाला बँगले के अहाते में हाज़िर हुए और बोले कि यों तो आप माई-बाप हैं लेकिन यह मेम साहब की ज़्यादती है। लड़के के बाप की तरफ लाला के साठ रुपये आते थे और वह मर गया। लाला उल्टे और अपनी गाँठ से लड़के को खिला-पहना कर पाल-पोस रहे थे। लड़के की उम्र ही क्या है कि कुछ काम करेगा? ऐसे ही दुकान पर चीज़ धर-उठा देता था सो मेम साहब उसे भी उठा लाईं। लाला बेचारे पर ज़ुल्म ही ज़ुल्म है। उन्हें उनके साठ रुपये दिला दिए जायें, सूद वे छोड़ देने को तैयार हैं। या फिर लड़का ही उनके पास रहे।
बरामदे के फ़र्श पर जूते की ऊँची एड़ी पटक, भौं चढ़ा कर श्रीमती जी ने कहा- “ऑल राइट।” इसके बाद शायद वे कहना चाहती थीं साठ रुपये ले जाओ!
परिस्थिति नाज़ुक देख बीच में बोलना पड़ा- “लाला, जो हुआ, अब चले जाओ वरना लड़का भगाने और ‘क्रुएल्टी टू चिल्ड्रन’ (बच्चों के प्रति निर्दयता) के जुर्म में गिरफ़्तार हो जाओगे।” अहाते के बाहर जाते हुए लाला की पीठ से नज़र उठाकर श्रीमती जी ने विजय गर्व से मेरी ओर देखा। उनका अभिप्राय था- देखो तुम खामुखाह डर रहे थे। हम ने कैसे सब मामला ठीक कर दिया। तुम कुछ भी समझ नहीं सकते!
लड़के का नाम था हरुआ। श्रीमती ने कहा- यह नाम ठीक नहीं। नाम होना चाहिए, हरीश। लड़के की कमर पर केवल एक अंगोछा-मात्र था, शेष शरीर ढका हुआ था मैल के आवरण से। सिर के बाल गर्दन और कानों पर लटक रहे थे।
लाइफ ब्यॉय साबुन की झाग में घुल-घुल कर वह मैल बह गया और हरीश साँवला-सलोना बालक निकल आया। दरबान के साथ सैलून में भेज कर उसके बाल भी छंटवा दिए गए। बिशू के लिए नई कंघी मंगाकर पुरानी हरीश के बालों में लगा दी गई। बिशू के कपड़े भी हरीश के काम आ सकते थे परन्तु लड़कों में चार बरस का अंतर काफी रहता है। खैर, जो भी हो, हफ्ते भर में हरीश के लिए भी नेवीकट कॉलर के तीन कमीज और नेकर सिल गए। उसके असुविधा अनुभव करने पर भी उसे जुराब और जूता पहनना पड़ा। श्रीमती जी ने गम्भीरता से कहा- “उसके शरीर में भी वैसा ही रक्त-मांस है जैसा कि किसी और के शरीर में!” उनका अभिप्राय था, अपने पेट के लड़के बिशू से परन्तु इस का कारण था कि बिशू आखिर पुत्र तो मेरा भी है।
उन्होंने कहा- “उस के भी दिमाग है। वह भी मनुष्य प्राणी है और उसे मनुष्य बनाना भी हमारा कर्तव्य है।” हरीश के कोई काम स्वयं कर देने पर प्रसन्नता के समय वे मेरा ध्यान आकर्षित कर कहतीं- “लड़के में स्वाभाविक प्रतिभा है। यदि उसे अवसर मिले तो वह क्या नहीं कर सकेगा। हाँ, उस मज़दूर का क्या नाम था जो अमेरिका का प्रेजिडेंट बन गया था? मौका मिले तो आदमी उन्नति कर क्यों नहीं सकता?”
चार वर्ष की आयु ऐसी नहीं जिसमें अधिकार का गर्व न हो सके या श्रेणी विशिष्टता का भाव न हो। अपनी जगह पर अपने से नीची स्थिति के बालक को अधिकार जमाते देख, अपनी माँ को दूसरे के सिर पर हाथ फेरते देख और हरीश को अपनी सम्पत्ति का प्रयोग करते देख, बिशू को ईर्ष्या होने लगती। रोनी सूरत बनाकर वह होंठ लटका लेता या हाथ में थमी किसी चीज़ से हरीश को मारने का यत्न करने लगता। श्रीमती जी को सब बातों में गरीबी और मनुष्यता का अपमान दिखाई देता। गम्भीरता से वे बिशू को ऐसा अन्याय करने से रोकतीं और हरीश का साहस बढ़ा कर उसे अपने आप को किसी से कम न समझने का उपदेश देतीं।
हरीश बात-बात में सहमता, सकपकाता। पास बैठने के बजाय दूर चला जाता और बिशू के खिलौनों के लोभ की झलक दिखाई देती रहती। श्रीमती जी उसे संतुष्ट कर, उसका भय मिटाकर उसे बिशू के साथ समानता के दर्जे पर लाने का प्रयत्न करतीं। कई दफे उन्होंने शिकायत की कि मेरे स्वर में हरीश के लिए वह अपनापन क्यों नहीं आ पाता जो आना चाहिए, जैसा बिशू के लिए है? इस मामले में कानून का हवाला या वकालत की जिरह मेरी मदद नहीं कर सकती थी इसलिए चुप रहने के सिवा चारा न था।
हरीश के प्रति सहानुभूति, उसे मनुष्य बनाने की इच्छा रखते हुए भी मैं श्रीमती जी को इस बात का विश्वास न दिला सका। हरीश के प्रति उनकी वत्सलता और प्रेम मेरी पहुँच से एक बालिस्त ऊँचा ही रहता।
श्रीमती जी को शिकायत थी कि हरीश आकर, अधिकार से उनके पास क्यों नहीं ज़रूरत की चीज़ के लिए ज़िद्द करता? उन्हें ख़्याल था कि इन सब का कारण मेरा भय ही था।
एक दिन बुद्धिमानी और गहरी सूझ की बात करने के लिए उन्होंने सुना कर कहा- “पुरुष सिद्धान्त और तर्क की लम्बी-लम्बी बातें कर सकते हैं परन्तु हृदय को खोल कर फैला देना उनके लिए कठिन है।” सोचा- श्रीमती जी को समानता की भावना के लिए उत्साहित कर उन्हें अपना बड़प्पन अनुभव कराने के लिए मैं अवसर पेश नहीं कर पाता हूँ, यही मेरा कुसूर है।
एक रियासत के मुकदमे में सोहराबजी का जूनियर बनकर केदारपुर जाना पड़ा। उम्र बढ़ जाने पर प्रणय का अंकुश तो उतना तीव्र नहीं रहता पर घर की याद जवानी से भी अधिक सताती है। कारण है, शरीर का अभ्यास। समय और स्थान पर आवश्यकता की वस्तु का सहज मिल जाना विदेश में नहीं हो सकता और न शैथिल्य का संतोष ही मिल सकता है।
केदारपुर में लग गए चार मास। औसत आमदनी से अढ़ाई गुना आमदनी के लोभ ने सब असुविधाओं को परास्त कर दिया। घर से सम्बन्ध था केवल श्रीमती जी के पत्र द्वारा। कभी सप्ताह में एक पत्र और कभी सप्ताह में तीन आते। बिशू को जुकाम हो जाने पर एक सप्ताह में चार पत्र भी आए। आरम्भ के पत्रों में हरीश का ज़िक्र भी एक पैराग्राफ रहता था और दूसरे पैराग्राफ में उसके सम्बन्ध में थोड़ी-बहुत चर्चा। सोचा- मेरी गैरहाज़िरी में मेरी अनुदारता से मुक्ति पाकर लड़का तीव्र गति से मनुष्य बन जाएगा।
कुछ पत्रों के बाद हरीश की ख़बरों की सरगर्मी कम हो गई। फिर शिकायत हुई कि वह पढ़ने-लिखने की ओर मन न लगा कर गली में मैले-कुचैले लड़कों के साथ खेलता रहता है। बाद में खबर आई कि वह कहना नहीं मानता, स्वाभाव का बहुत जिद्दी है। बहुत डल (सुस्त दिमाग) है। हर समय कुछ खाता रहना चाहता है। इसी से उसका हाजमा ठीक नहीं रहता।
लौटकर आने पर बैठा ही था कि श्रीमती जी ने शिकायत की- “सचमुच तुम बड़े अजीब आदमी हो! हम यहाँ फ़िक्र में मरते रहे और तुम से खत तक नहीं लिखा जा सकता था! ऐसी भी क्या बेपरवाही! यहाँ यह मुसीबत कि लड़के को खांसी हो गई। तीन-तीन दफे डॉक्टर को बुलवाना था। घर में सिर्फ दो तो नौकर हैं। वे घर का काम करें या डॉक्टर को बुलाने जायें! इस लड़के को देखो” हरीश की ओर संकेत करके, “ज़रा डॉक्टर बुलाने भेजा तो सुबह से दुपहर तक गलियों में खेलता फिरा और डॉक्टर का घर इसे नहीं मिला। डॉक्टर जमील को शहर में कौन नहीं जानता?”
हरीश बिशू को गोद में लिए श्रीमती जी की ओर सहमता हुआ मेरे समीप आना चाहता था। इस उम्र में भी आदमी इतना चालाक हो सकता है? हरीश को बिशू से इतना अधिक स्नेह हो गया था या वह उसे इसलिए उठाये था कि उसे सम्भाले रहने पर उसे खाली खेलते रहने के कारण डाँट न पड़ेगी।
उसकी ओर देख श्रीमती जी ने कहा- “अरे उसे खेलने क्यों नहीं देता? तुझे कई दफे तो कहा, गुसलख़ाने में गीले कपड़े पड़े हैं उन्हें ऊपर सूखने डाल आ!”
हरीश महफिल से यों निकाले जाने के कारण अपनी कातर आँखों से पीछे की ओर देखता चला गया। कुछ ही देर में वह फिर आ हाज़िर हुआ। उसकी ओर देख श्रीमती जी ने कहा- “हरीश जाओ देखो, पानी लेकर खस की टट्टियों को भिगो दो! सुनो, यों ही पानी मत फेंक देना। स्टूल पर खड़े होकर अच्छी तरह भिगो देना।”
मेरी ओर देखकर वे बोलीं- “जिस काम के लिए कहूँ, कतरा जाता है।”
“इसे पढ़ाने के लिए जो स्कूल के एक लड़के को चार रुपये देने के लिए तय किया था, वह क्या नहीं आता?” … मैंने पूछा।
बिशू के गले का बटन लगाते हुए श्रीमती जी बोलीं- “खामुखाह पढ़े भी कोई, यह पढ़ता ही नहीं; पढ़ चुका यह! बस खाने की हाय-हाय लगी रहती है। कोई चीज़ संभालकर रखना मुश्किल हो गया है।”
हरीश कमरे में तो दाखिल न हुआ लेकिन दरवाजे से झांककर चक्कर ज़रूर काट गया। वह संदेह भरी नज़रों से कुछ ढूंढ रहा था। फल की टोकरी से कुछ लीचियाँ निकालकर श्रीमती जी ने बिशू के हाथ में दीं। उसी समय हरीश की ललचाई हुई आँखें बिशू के हाथों की ओर ताकती हुई दिखाई दीं!
श्रीमती जी खीझ गईं- “हरदम बच्चे के खाने की ओर आँखें उठाए रहता है। जाने कैसा भुक्कड़ है! इन लोगों को कितना ही खिलाओ, समझाओ, इनकी भूख बढ़ती ही जाती है… ले इधर आ!” दो लीचियाँ उसके हाथ में देकर बोलीं, “जा बाहर खेल, क्या मुसीबत है।”
उसी शाम को एक और मुसीबत आ गई। जो कपड़े हरीश ने सुबह सूखने डाले थे, वे हवा में उड़ गए। श्रीमती जी ने भन्ना कर कहा- “तुम्हीं बताओ, मैं इसका क्या करूँ? वही बात हुई न कि ‘कुत्ते का गू न लीपने का न थापने का।’ अच्छी बला गले पड़ गई। समझाने से समझता भी तो नहीं।… इसकी सोहबत में बिशू ही क्या सीखेगा? कोई भला आदमी आये, सिर पर आकर सवार होता है। स्कूल भिजवाया तो वहाँ पढ़ता नहीं। लड़कों से लड़ता है। अपने आगे किसी को कुछ समझता थोड़े ही है। तुमने उसे लाट साहब बना दिया है, कम-जात कहीं अपनी आदत से थोड़े ही जाता है?”
क्या उत्तर देता? बात टाल गया। फिर दूसरे समय श्रीमती जी ने बिशू को उठाकर गोद में दे दिया। वे देखना चाहती थीं कि बिशू मेरी गोद में बैठने से कैसा जान पड़ता है? उस समय हरीश भी दौड़कर आया और बिलकुल सटकर खड़ा हो गया। पोज़ का यों बिगड़ जाना, श्रीमती जी को न भाया। सुनाकर बोलीं- “बन्दर को मुंह लगाने से वह नोचेगा ही तो! इन लोगों के साथ जितनी भलाई करो, उतना ही सिर पर आते हैं। यह कोई आदमी थोड़े ही हैं।”
कह नहीं सकता हरीश कितना समझा और कितना नहीं, पर इतना वह ज़रूर समझा कि बात उसी के बारे में थी और उसके प्रति आदर की नहीं थी। इतना तो पालतू कुत्ता भी समझ जाता है। गले का स्वर ही यह प्रकट कर देता है। हरीश कतराकर चला गया और मुंडेर पर ठोढ़ी रख गली में झाँकने लगा।
कोई ऐसा ढंग सोचने लगा कि अपनी बात भी कह सकूं और श्रीमती को भी विरोध न जान पड़े। कहा- “जानवर को आदमी बनाना बहुत कठिन है। उसे पुचकार कर बुलाने में बुरा नहीं मालूम होता क्योंकि उसमें दया करने का संतोष होता है परन्तु जब जानवर स्वयं ही पंजे गोद में रख मुंह चाटने का यत्न करने लगता है, तो अपना अपमान जान पड़ने लगता है।”
आवाज़ गरम कर श्रीमती जी बोलीं- “तो मैं कब कहती हूँ…”
उन्हें बात पूरी न करने देता तो जाने कितना लम्बा बयान और जिरह सुननी पड़ती, इसलिए झट से बात काटकर बोला- “ओहो, तुम्हारी बात नहीं, मैं बात कर रहा हूँ यह सरकार और मजदूरों के झगड़े की !”
मन में भर गए क्रोध को एक लम्बी फुफकार में छोड़ उन्होंने जानना चाहा, मैं बहाना तो नहीं कर गया। इसलिए पूछा- “सो कैसे?”
उत्तर दिया- “यही सरकार मज़दूरों की भलाई के लिए कानून पास करती है और जब मज़दूरों का हौंसला बढ़ जाता है, वे खुद ही अधिकार मांगने लगते हैं, तब सरकार को उनका आंदोलन दबाने की ज़रूरत महसूस होने लगती है।”
श्रीमती जी को विश्वास हो गया कि किसी प्रकार का विरोध मैं उनके व्यवहार के प्रति नहीं कर रहा। बोलीं- “तभी तो कहते हैं, ‘कुत्ते की पूँछ बारह बरस नली में रक्खी, पर सीधी नहीं हुई।’ हाँ, उस रोज़ वो लाला साठ रुपये की धमकी दे रहा था। बनिया ही ठहरा! कहीं सूद भी गिनने लगे तो जाने रकम कहाँ तक पहुँचे? इस झगड़े में पड़ने से लाभ?”
श्रीमती जी का मतलब तो समझ गया परन्तु समझ कर आगे उत्तर देना ही कठिन था इसलिए उनकी तरफ विस्मय से देखकर पूछा- “क्या मतलब तुम्हारा?”
“कुछ नहीं” … श्रीमती जी झुंझला उठीं। उन्हें झल्लाहट थी मेरी कम समझी पर और कुछ झेंप थी जानवर को मनुष्य बना देने के असफल अभिमान पर।
मैं जानता हूँ- बात दब गई, टली नहीं। कल फिर यह प्रश्न उठेगा परन्तु किया क्या जाए? कुत्ते की पूँछ एक दफे काट लेने पर उसे फिर से उसकी जगह लगा देना कैसे सम्भव हो सकता है? और मनुष्यता का चस्का एक दफे लग जाने पर किसी को जानवर बनाये रखना भी तो सम्भव नहीं।
यशपाल
(३ दिसम्बर १९०३ – २६ दिसम्बर १९७६)