कहानी समकालीनः औरत की जात-विनोद साव

उसने चलती ट्रेन से चढ़ने की कोशिश की थी। उसके सिर पर एक टोकरा था जो भारी रहा होगा। यह चढ़ते समय उसके शरीर के एक ओर झूल जाने से लगा था। अपने एक हाथ से वह टोकरा पकड़े हुये थी। अपना दूसरा हाथ डिब्बे में लगे हैंडल की ओर उसने जब बढ़ाया था तब एक पल के लिए वह डिब्बे के किनारे लटकती सी जान पड़ी थी। उस समय उससे आँखें मिली थीं। आँखों की अपनी एक भाषा होती है जो जरूरत पड़ने पर अपनी बात कह जाया करती है।

अनायास ही मेरे दोनों हाथ बढ़ गए थे और लपककर उसके टोकरे को मैने पकड़ लिया था। इससे थोड़ी निश्चिंतता उसमें आ गई और उसके दूसरे हाथ ने भी टोकरा छोड़कर दरवाजे के दूसरी ओर बने हैण्डल को पकड़ लिया था। अब उसके दोनों हाथों में दरवाजे में लगे हैणडल थे।

दूसरे ही क्षण टोकरा सहित उसका समूचा शरीर डिब्बे के भीतर आ गया था। अब उसकी आँखों में हल्की मुस्कान थी। मुस्कान की भी अपनी भाषा होती है। उसकी मुस्कान में थोढ़ी कृतज्ञता थी।

इस कृतज्ञता के अतिरिक्त और भी जो बात थी वह एक पल के लिए सुन्दर लगी थी। यह शायद आँखों में आ गई मुस्कान के कारण थी। किसी का चेहरा-मोहरा चाहे जैसा भी हो, लेकिन जब आँखों में मुस्कान उतर जाती है तो रूप अपने आप निखर आता है।

किसी की आँखों की मुस्कान से जब भी सामना होता है तब न पूरा शरीर दिखलाई पड़ता है न ही शरीर के ऊपर का चेहरा। तब केवल आँखें ही दिखलाई देती हैं और आँखों के भीतर बिजली की तरह कौंध उठने वाली सुन्दरता का एक विराट रूप। यह शायद आँखों की अपनी भाषा के कारण है।

” वाल्टेयर छूट गई, लेकिन मैं चढ़ गई। ” उसके स्वर में थोड़ा पछतावा था। पर इस पछतावे के बाद भी उसकी आँखों में वह हल्की मुस्कान उभर उठी।

मुस्कान केवल उसकी आँखों में आती थी पर ऐसे लगता जैसे वह पूरे चेहरे में फैल गई हो। जबकि चेहरे में मुस्कान से कोई सिकुड़न नहीं होती थी। फिर भी पूरा चेहरा मुस्कुराता लगता था सिर्फ आँखों में आ गई मुस्कान के सहारे।

उसकी मुस्कान इस मायने में भी अलग थी कि वह किसी सुविधाभोगी चेहरे से नहीं बल्कि संघर्षमयी जिजीविषाओं के बीच से कहीं फूटी थी। एक मेहनतकश रूप उसकी सुन्दरता बढ़ा गया था।

उसने एक बार झुककर सिर पर रखे टोकरे को सिर के ठीक बीचोबीच करते हुए उसे व्यवस्थित किया था। उस समय उसके टोकरे के भीतर रखे हुए केले दिखलाई दिए थे। ज्यादातर पीले और कुछ हरे केले थे।

डिब्बा एक जनरल बोगी था, जिसमें बैठे मुसाफिरों में इतनी विविधता थी कि वह डिब्बा अपने आप में एक छोटी बस्ती की तरह लग रहा था। किसी गाँव के भीतर दिख जाने वाली एक छोटी बस्ती की तरह। उसमें उस टोकरी वाली महिला के घुस जाने के बाद मानो वह बस्ती एक हाट में तब्दील हो गई हो। अब उसमें रखे केले के भावताव होने लगे थे। कहीं-कहीं उसके केले बिकने लगे थे। वह डिब्बे में सवार मुसाफिरों के पास से गुजरती फिर जिससे उसकी नजरें मिलतीं वह उससे केले खरीद ही लेता था।वह जब भी किसी के सामने खड़ी होती तो हर ग्राहक के सामने उसके केले होते और आँखों में उतर आयी उसकी मुस्कान। कहा नहीं जा सकता था कि केले अपने स्वाद के कारण बिकरहे थे या आँखों में उतर आयी उसकी मुस्कान के कारण।

” वाल्टेयर मिल जाती तो मेरे पूरे केले बिक जाते।” उसने शायद मुझसे कहा होगा क्योंकि यह कहते हुए वह मेरी बगल में आ बैठी थी।

मेरे और उसके बीच एक टोकरे का फासला था। औरत को यह फासला पसंद है। वह जहां भी होती है थोड़ा फासला बनाकर रखती है। थोड़ा सा फासला बन जाने से उसे सुविधा होती है।

फिलहाल हम दोनों के बीच रखा टोकरा न केवल एक फासले को तय कर रहा था बल्कि एक ओट का भी काम कर रहा था। औरत को थोड़ी-सी ओट भी पसंद है। चाहे वह दीवार की ओट हो या पेड़ की या किसी पत्थर या सामान की ओट हो। इस ओट में वह सुविधा और संरक्षण का अनुभव करती है।

पति भी हर औरत के लिए एक ओट का काम करता है। घर से बाहर जाने वाली स्त्री पति से ओट का काम लेती है। वह पति की ओट में चलती है। पति की ओट न मिलने से वह किसी दूसरी ओट का सहारा लेती है तब वह ओट दीवार या पेड़ या पत्थर कुछ भी हो सकता है। जैसे मेरे और उसके बीच इस टोकरे की ओट थी।

टोकरे की इस ओट में वह बड़ी सुविधा महसूस कर रही थी। टोकरा उसके बदन को दो भागों में बाँटे हुए था। सीट के नीचे उसके दोनोंपाँव झूल रहे थे जो उसके सुविधाजनक स्थिति में होने का प्रमाण था।

टोकरे के ऊपर उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा दिख रहा था जिसमें उसकी कमर के आसपास उसकी साड़ी का पहनावा, जिसमें उसकी नाभि या लपेटी हुई करधनजो कुछ भी रहा हो वह सब टोकरे की ओट में छिपा हुआ था। उस हिस्से के छिपे होने से वह बेतकल्लुफ लग रही थी।

अपनी बगल में आ जाने के बाद जब मैने उसे पहली बार देखा तब उसका बायाँ हाथ उसके दाहिने हाथ की भुजा को पकड़े हुए था। अपने दाहिने हाथ की हथेली पर उसने अपनी ठुड्डी और गाल को टिका रखा था। वह तिरछी आँखों से मेरी ओर देख रही थी। शायद उसे सीधा देखने के बदले में तिरछा देखने में ज्यादा सहूलियत हो रही थी।

तिरछा देखने के कारण उसकी आँखें अपेक्षाकृत बड़ी और आकर्षक लग रही थीं। जैसे किसी फोटोग्राफर ने फोटो खींचते समय उससे कहा हो ” थोड़ा तिरझा देखिये।”

मुझे लगा कि वह केले बेचने के बाद मेरी बगल में शायद इसलिए आकर बैठ गई हो क्योंकि उसे छूटती ट्रेन पर चढ़ते समय मैंने ही थोड़ा सहारा दिया था।

” बाल्टेयर मिल जाती तो मेरे पूरे केले बिक जाते। लेकिन मैं बैठ गई हूँ।” उसने यह वाक्य दुबारा कहा था।

” कहाँ से आती हो? ” मैने केवल औपचारिकता के लिए पूछा था जिसका उसके लिए कोई औचित्य नहीं था।

उसने किसी गाँव का नाम बताया जो मेरे प्रश्न का केवल उत्तर था और जिसका मेरे लिए कोई औचित्य नहीं था।

” सवेरे घर का कामधाम निपटाकर केला बेचने निकल जाती हूँ। अँधेरा होने पर वापस घर पहुँचती हूँ। तब जाकर खाना बनाती हूँ। दूसरे दिन से फिर केले का टोकरा लेकर निकल जाती हूँ।” उसने अपने रोज का काम बतलाया जो दो तीन वाक्यों में तो पूरा हो गया पर जिसे निपटाने में उसे कितना मरना-खपना होता होगा, यह कल्पना सिहरा देने वाली थी।

मैने उसकी आँखों से दृष्टि हटाकर अबकी बार उसे ध्यान से देखा। वह अपनी मटमैली साड़ी और प्लास्टिक की पतली चप्पल में भी सुघड़ स्त्री लग रही थी। अभाव ने उसके शरीर में थोड़ी झोल पैदा कर दी थी वरना एक समय वह सुन्दर तन्वगी नारी रही होगी।

” चार बेटियाँ जनमी हूँ। बड़ी का ब्याह हो गया है। तीन बेटियाँ साथ हैं। खाली बेटियाँ जनने वाली औरत को उसका आदमी पसंद नहीं करता।” उसने मुझे अपनी ओर देखते पाकर बोलना जारी रखा था-” औरत की जात चाहे जितना मरे खटे उसके काम का कोई मोल नहीं होता।” बोलते समय उसकी तिरछी आँखें कभी-कभी सीधी हो जाती थीं जैसे बीच में वे विश्राम पाना चाहती हों।

उसकी आँखों के नीचे झाँई थीं जो समुचित आहार या विटामिन की कमी के कारण हुई होंगी। पर आँखों में उतर जाने वाली मुस्कान बरकरार थी। मानो मुस्कानके लिए किसी विटामिन की दरकार न थी। उसके लिए उसकी जिजीविषा ही काफी थीऔर उसकी मुस्कान उसकी जीवट जिजीविषा के बीच से कहीं फूटी थी।

” आदमी?” मुझे नहीं मालूम मेरे होठ कभी हिले थे पर मेरे कानों ने इस शब्द को सुना था।

” दारू पीता है और कभी हम लोगों की मार कुटाई करता है।” उसने कम शब्दों में कहा था जैसे उसके आदमी का बस इतना ही काम है।

” सब किस्मत का खेल है भैया।” उसके मुँह से भैया पहली बार निकला था। यह किसी रिश्ते से जुड़ा शब्द कम केवल बोलने के अभ्यासक्रम में आया था, ” बाप रेलवे में नौकरी में था। माँ के मर जाने के बाद उसने दूसरी औरत रख ली। दूसरी औरत ने बाप को मारकर उसकी नौकरी हथिया ली और अब दूसरा आदमी बनकर राज कर रही है।”

” बाप के मरने के बाद नौकरी तुम्हें भी तो मिल सकती थी।”

” आजकल नौकरी देते समय रूप-रंग को भी तो देखते हैं।” उसने ऐसे कहा जैसे नौकरी में भरती का यह भी कोई तकनीकी पक्ष हो।

वह टोकरा उठाकर खड़ी हो गई थी तब मुझे पता चला कि ट्रेन की रफ्तार धीमी हो गई है। उसने नीचे झुककर टोकरे को अपने सिर पर आदतन व्यवस्थित किया और बोल पड़ी-” भगवान, चाहे कुछ भी बना दे पर औरत की जात न बनाये।”

यह बोलते समय भी उसकी आँखों में वही मुस्कान उतर आई थी जो छूटती ट्रेन में चढ़ते समय थी। उसके अंतिम शब्द किसी गाली के समान लगे जो मर्दों को दिए गए हों।

(लेखक के पहले कहानी संकलन- तालाबों ने उन्हें हँसना सिखाया-से साभार)

विनोद साव

20 सितंबर 1955 को दुर्ग में जनमे विनोद साव समाजशास्त्र विषय में एम.ए.हैं। वे भिलाई इस्पात संयंत्र में निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। हिंदी व्यंग्य के सुस्थापित लेखक विनोद साव अब उपन्यास, कहानियां और यात्रा वृतांत लिखकर भी चर्चा में हैं। उनकी रचनाएं हंस, पहल, अक्षरपर्व, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ और समकालीन भारतीय साहित्य में छपी हैं। उनके दो उपन्यास, तीन व्यंग्य संग्रह और संस्मरणों व कहानियों के संग्रह सहित अब तक कुल बारह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें वागीश्वरी और अट्टहास सम्मान सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं। छत्तीसगढ़ माध्यमिक षिक्षा मंडल के लिए भी चित्र-कथाएं लिखी गई हैं। वे उपन्यास के लिए डॉ. नामवरसिंह और व्यंग्य के लिए श्रीलाल शुक्ल से भी सम्मानित हुए हैं।

प्रकाशन: हंस, अक्षरपर्व, पहल, वसुधा, ज्ञानोदय, वागर्थ
पुस्तकेंः दो उपन्यास-चुनाव, भोंगपुर-30 कि.मी.।
तीन व्यंग्य संग्रह-मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय, मैदान-ए-व्यंग्य और हार पहनाने का सुख।
संस्मरणों का एक संग्रह-आखिरी पन्ना
यात्रा-वृत्तांत-मेनलैंड का आदमी प्रकाशित
पुरस्कार: अट्टास सम्मान: श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन के लिए यह सम्मान 28 मार्च 1998 को रवीन्द्रालय, लखनऊ में प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल द्वारा दिया गया।
वागीश्वरी पुरस्कार: श्रेष्ठ उपन्यास लेखन के लिए यह पुरस्कार 16 जुलाई 1999 को मुल्ला रमूजी भवन, भोपाल में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा उपन्यास ’चुनाव’ के लिए प्रसिद्ध समालोचक डॉ. नामवरसिंह के हाथों दिया गया।
जगन्नाथरॉय शर्मा स्मृति पुरस्कार: 24 दिसंबर 2003 को जमशेदपुर में प्रसिद्ध समालोचक खगेन्द्र ठाकुर एवं डॉ. शिवकुमार मिश्र द्वारा दिया गया।
स्पेनिन हेसल एवार्ड: वर्ष 2007 की श्रेष्ठ कृति के रुप में उपन्यास ’भोंगपुर-30 कि.मी.’ को 6 सितम्बर 2008 को रांची के प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्थान द्वारा ग्यारह हजार रुपयों का पुरस्कार दिया गया।
उनका पता है: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001
मो. 9407984014 ई-मेल: vinod.sao1955@gmail.com

error: Content is protected !!