उसने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि मन के आँगन के किसी कोने से मस्ती का एक सोता फूट निकला है. अब धीरे-धीरे वह शिराओं में आकर बहने लगा है. शरीर में परिवर्तन होने लगे हैं. उसके गाल चटक लाल, ओंठ गुलाबी व लजीले हो आए हैं. आँखें नशीली होने लगी हैं. सांस-प्रस्वांस में मलयाचल प्रवाहित होने लगा है. कानों में हजारों-हजार नूपुर एक साथ झंकृत होने लगे है. देह चन्दन-सी सुवासित होने लगी है और मन किसी रेशमी रूमाल की तरह हवा में लहराने लगा है.. अब वह अपने प्रिय का समीप्य पाने के लिए अधीर हो उठी थी.
आदमकद आईने के सामने विवस्त्र बैठी राधा, अपने शरीर में अचानक आए परिवर्तनों का सुक्षमता से निरीक्षण कर रही थी. अपने आप में गुम थी राधा तभी उसके कानों से कुछ कर्कश स्वर आकर टकराने लगे. उसने सहजता से ही अन्दाजा लगा लिया था कि टेरने वाला और कोई नहीं बल्कि बुआ जी थीं.
बुआ उर्फ गंगा देवी, ठाकुर दौलत सिंह जी के स्वर्गवासी पिता की मुँह बोली बहन. हवेली में आने जाने की इन्हें मनाही नहीं है. वे कभी भी, किसी भी वक्त, बिना रोकटोक के आ-जा सकती हैं. पारिवारिक मामलों में दखलंदाजी भी कर सकती हैं. अपनी सलाह के साथ हुक्म भी दे सकती हैं. इस घर में किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है कि वह इनकी आज्ञा टाल सके. विशेषकर, जब ठाकुर साहब घर पर नहीं होते हैं, तब इनकी चौकसी और भी बढ़ जाया करती है.
वह थोड़ा संभल ही पाई थी कि बुआ जी तूफान की चाल चलते हुए सोफे में आकर समा गई और बिना समय गंवाये कहना शुरू कर दिया- ” हमउं ने तो हवेली को कोना-कोना छान मारो, अउर महारानी है कि हइयाँ बइठी हुईं हैं. सुनो…बिहारी की अम्मा आइ रहन, न्योता डार गइ है, आजे संझा को वाकी बहू की गोद भराई हय. तुम तइयार रहिओ..हमउ चार-पांच बजे की बिरिआ आवेंगीं तुमाय को लिवा लाने.के वास्ते….समझीं.
प्रत्युत्तर में वह कुछ कहना चाह रही थी. उसके होंठ फडफ़ड़ाए भी थे, तब तक तो वे कमरे के बाहर जा चुकी थीं.
राधा ने गौर से देखा उनकी सांसें फूली हुई थीं और वे बराबर हांफ भी रही थीं, तिस पर भी वे कितना कुछ बोल चुकी थीं. एक तूफान के गुजर जाने के बाद की शांति, अब चारों ओर पसरने लगी थी.
उसने तन पर जैसे-तैसे साड़ी लपेटी. टेबल पर पड़ी कुंकूम की डिब्बी उठाई. माथे पर एक बड़ा-सा सूरज उगाते हुए, मांग भरने जा ही रही थी कि आईने में बनने वाला उसका अक्स बोल उठा—
” राधा,…. बिहारी की शादी हुए एक साल ही बीता है और वह बाप बनने जा रहा है. तेरी शादी हुए तो तीन साल बीत गए. तू कब माँ बनेगी ? तेरी कोख कब हरी होगी? ”
प्रश्न सुनते ही लगा, जैसे उसने धोखे से बिजली का नंगा तार छू लिया हो. पूरा बदन झनझना उठा था. उसकी आँखों के सामने अंधियारा-सा छाने लगा था. देह थर-थर कांपने लगी थी. माथे पर पसीने की मोटी-मोटी बूंदें छलछला आईं थीं. हलक गहरे तक सूख आया था. लगा कि मिट्टी की कच्ची दीवार की तरह भरभरा कर गिर ही पड़ेगी.
उसने अपनी बिखरी हुई शक्तियों को समेटने का उसने पुरजोर प्रयास किया, पर लगा कि वह उसके बूते की बात नहीं रह गई है. जैसे तैसे उसने अपने आपको संभाला और लडख़ड़ाते कदमों से चलते हुए बरामदे में पड़े झूले पर आकर पसर गई. झूले से जुड़ी लोहे की कडिय़ों से निरन्तर चर्र-मर्र-चर्र-मर्र की आवाज उत्पन्न होने लगी, जो उसकी दहशत को बढ़ा रही थीं. ज्ञात डर को और गहरा कर जाती थीं.
उसकी विस्फ़ारित नजरें अब भी छत की दीवार से चिपकी थीं. अब वह अपने आपसे ही पूछने लगी थी. ” क्या दर्पण भी कभी झूठ बोलता है? सच ही तो है कि उसकी शादी को हुए तीन साल बीत गए, अब तक उसके गर्भ नहीं ठहरा है. वह तो पूरे प्राणपन से माँ बनने को तैयार बैठी है. कितने ही देवी-देवताओं को वह अब तक नवस चुकी थी, तिस पर भी अगर वह माँ नहीं बन पा रही है तो उसमें उसका क्या दोष है?
वर्तमान की त्रासदी और भविष्य की भयावहता की परिकल्पना से वह सिहर-सिहर उठती. भयानक गर्त में डूब जाने के डर से, वह अपने पर बचाने का प्रयास करते हुए, कोई समाधानकारक हल खोजने का प्रयास करती. पर मन की अथाह गहराईयों तक समा चुका डर, अब रूप बदल बदलकर, सामने खड़ा होकर, उसले डर को और गहरा कर जाता. वह डरावने सच के खूनी पंजों से बचने के लिए पैंतरें बदलती, फिर भी खरोंच के निशान उभर आते और देह से खून टिपटिपा कर बह निकलता.
वह सोचती. इन तीन सालों में कितना कुछ बदल गया है. यह सच है कि उसने कभी महलों का ख्वाब देखा था. अकूत धन-दौलत की कामना की थी. आज सब कुछ है उसके पास. जैसा जो भी कुछ चाहा था उसने, उसे भरपूर मिला है. हाँ, उसने उस समय माँ बनने की कल्पना तक नहीं की थी. बच्चों की माँ बनेगी, ऐसा ख्याल कभी मन में भी नहीं आया था. माँ बनने की तब वह सोच भी कैसे सकती ?. बस केवल और केवल धन की लालसा ही उसके मन में हिलोरें ले रहीं थी उस समय. उसने गरीबी देखी है,काफ़ी करीब से. विपन्नता में जीवन जीना कितना कठिन होता है, उससे बढ़कर और भला कौन जान सकता था. काश बापू धन्ना सेठ होते तो शायद ही वह धन-दौलत की कामना करती”.
सपनों के अनुरूप हवेली भी मिल गई थी. नौकर-चाकर भी मिल गए थे. पर पास में जो संतोष धन का अमूल्य खजाना था, वह कहीं खो गया था. बात-बात पर खिल-खिलाकर हंस देने वाली राधा आज पाषाणी प्रतिमा बनकर, दिन भर उदासी ओढे बैठी रहती है. अब तो वह दूसरों की बजाय स्वयं से ही बातें ज्यादा करने लगी है. महिलाओं की टोली से बचने का प्रयास करने लगी है. जानती है वह कि वे उससे कौन-सा प्रश्न पूछेगी. क्या वह जवाब दे पायेगी? सच है, उसके पास कोई जवाब नहों था. वह अपने आपसे प्रश्न पूछती और खुद ही उसका उत्तर खुद को देती रहती. प्रश्न तो बहुतेरे हैं उसके पास, पर उनके उत्तर उसे नहीं मालूम. जब वह स्वयं ही उत्तर नहीं जानती, तो भला किसी के पूछे जाने पर क्या जवाब देगी?
उसे लगने लगा था कि वह प्रश्नों के जलते रेगिस्तान में खड़ी है. दूर कहीं दूर, उसे आशा की एक किरण दिखलाई देती. वह हांफती-दौड़ती. उस तक पहुँचती, तब तक रोशनी अचानक गायब हो जाती. इस अकारण की दौड़-धूप में उसके तलवों में गहरे जख्मों ने जगह बना ली थी. जख्मों से अब मवाद रिस-रिस कर बहने लगा था. वह लगातार चलते रहना चाहती है, पर जानती है कि पैर उठाये उठ नहीं रहे हैं. वह धम्म से नीचे बैठ जाती. जानती है वह कि जलते रेगिस्तान से कभी भी आंधी उठ खड़ी होगी और उसका सारा वजूद, सारा वर्चस्व, गर्म रेत के नीचे दब जायेगा….. दफन हो जायेगा… सदा-सदा के लिए,….हमेशा के लिए. उसका मन अब बरगद की शीतल ठंडी छाँह तले बैठकर आराम करना चाहने लगा था. तभी मन के किसी कोने से एक झीनी सी आवाज सुनाई दे जाती कि राधा बरगद की ठंडी छाँव तो तुझे तब ही नसीब होगी, जब तेरी कोख में बीज का अंकुरण होगा, जब तू बच्चे की माँ बनेगी.
हँसते-मुस्कुराते, हाथ पाँव चलाते, चपल-चंचल बच्चे की तस्वीर उसकी आँखों के सामने नाचने लगती. बच्चे की कल्पना मात्र से लगता कि बसंत लौट आया है. चारों ओर हरियाली छाने लगती है. हजारों-हजार रंग-बिरंगी तितलियाँ हवा में फुदकने लगती हैं. बस यही तो वह सब कुछ चाहती है. इन्हीं सपनों के साकार होने की प्रतीक्षा में उसके मन-प्राण विकल और बेचैन होते रहे हैं.
कल्पनाओं के गहरे सागर में उतरकर वह डूबती-उतराती रही थी. तभी एक बवण्डर-सा उठ खड़ा हुआ. जोरदार धमाके के साथ उसके सपनों का रंग महल, तिनका-तिनका होकर बिखर गया. कल्पनाओं के कल्पतरू धराशायी हो गए. अंदर अब सब कुछ क्षत-विक्षत था. चारों ओर सिर्फ़ गहरा काला अंधियारा, और धूल मिट्टी के गुबार के अलावा कुछ भी नहीं बचा था.
सब कुछ शांत होने के बाद, एक आशा की एक किरण फ़िर झिलमिलाती-सी दिखलाई देती. आशाएँ फ़िर बलवती होने लगतीं. मन में एक उत्साह का संचरण होने लगता. सलोने सपने फिर सजने लगते.
आशा और निराशा की लहरों पर हिचकोले खाते हुए वह देर तक डूबती-उतराती रही. तभी नींद का एक हलका-सा झोंका आया. उसने उसे कब अपने आगोश में ले लिया, पता ही नहीं चल पाया.
नींद खुली. उसने महसूस किया कि उसके पोर-पोर में ऐंठन के साथ, एक विचित्र किस्म का आलस भी रेंग रहा है. एक लंबी अंगड़ाई लेते हुए उसने दूर-दूर तक अपनी नजरें दौड़ाईं. देखा. दीवार की ओट से हरिया अंदर तांक-झांक कर रहा है. आखिर वह क्या देख रहा होगा? अंदर आने की हिम्मत वह कैसे कर सकता है? तरह-तरह के प्रश्न उसके दिमाक को मथने लगे थे. वह उसे डांट कर भगा देने वाली थी, तभी एक ख्याल कौंधा कि आखिर पता तो लगाया जाए कि आखिर वह इस तरह छिप-छिपकर तांक-झांक क्यों कर रहा है?. उसने झूले पर पड़े-पड़े ही चारों ओर नजरें दौड़ाई. ऐसा तो कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है. वह स्वयं से कह उठी थी. तभी उसकी नजरें अपने जिस्म पर पड़ी. उसकी विवस्त्र देह झूले पर झूल रही थी. ब्लाउज के बटन भी खुले हुए थे और उरोज उचक कर बाहर निकलकर तांक-झांक कर रहे थे. बात समझ में आई. उसे स्वयं ही अपनी संगमरमरी देह को देखकर शर्म-सी महसूस होने लगी थी. वह इस स्थिति में भी नहीं थी कि झट से साड़ी लपेट पाती.
नारी की अनावृत देह देखकर ऋषि मुनि भी विचलित हो जाते हैं. तपस्वियों के तप भंग हो जाते हैं, तो भला हरिया हाड-मांस का एक जीता जागता इंसान है. उसमें भी एक दिल धड़कता है. नारी के अनावृत्त देह के सौंदर्य को देखकर वह अगर विचलित हो ही गया हो तो, इसमें उस गरीब का क्या दोष? उसने अपने आपसे प्रश्न किया. अगर वह उसकी जगह होती तो?. संभव है…..सारी मर्यादाओं को तोड़कर वह कभी की कुछ न कुछ कर बैठती. संसर्ग की कल्पना मात्र से उसका हृदय धड़कने लगा था. साँसें तेज चलने लगी थीं. आँखों में रंगीन सपने झिलमिलाने लगे थे. शरीर का पोर-पोर झंकृत हो उठा था.
हरिया को डांटकर भगा देने का ख्याल अब उसके मन से तिरोहित हो गया था. लापरवाही से उठते हुए उसने अपनी साड़ी समेटने की कोशिश की. अब वह कुछ इस तरह का अभिनय करने लगी थी, जैसे उसने कुछ देखा ही न था.
तन पर साड़ी लपेटते हुए वह अपने कमरे की ओर बढ़ने लगी थी. चलते समय उसने पलटकर यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या हरिया अब भी वहाँ खड़ा है या भाग खड़ा हुआ है. उसकी नजरे बराबर हरिया को खोज रही थीं. उसे वह कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ा. शायद उसे जागता देख वह दीवार की ओट में दुबक गया होगा या फ़िर भागकर अपनी खोली में जा छिपा होगा.
हवेली से काफी दूर हटकर, नौकरों के लिए अलग-अलग खोलियां बनी हुई थीं। इन्हीं एक खोली में हरिया भी रहता है. एकदम शांत सीधा-सादा हरिया, अपने काम में दिन भर रमा रहता. सुबह-शाम गाय-भैंसें दुहता. चारा-पानी देता और उसके निर्देशों का तत्परता से पालन करता. लकडिय़ाँ फाड़ते हुए उसने उसे कई बार देखा है. गठी हुई देह यष्टि, चौड़ा सीना, कसी हुई भुजाएँ. जब वह कुल्हाड़ी का भरपूर वार लकड़ी के लठ्ठे पर करता है तो, सैकड़ों मछलियाँ उसकी भुजाओं में उछलने लगती हैं.
साड़ी लपेट लेने के बाद भी उसे ऐसा लगने लगा था कि समूची देह पर हरिया की आँखें चिपकी हुई हैं और वे उसे लगातार घूरे जा रही हैं. शर्म से वह दोहरी हुई जा रही थी.
उसका बदन गर्म तवे सा तप रहा था. उसने नहा लेने का मन बनाया. सीधे वह बाथरूम में पहुँची. मल-मल कर शरीर धोया. शरीर को अच्छी तरह सुखाकर पाउडर छिड़का. बार्डर वाली नीली चमचमाती-सी साड़ी लपेटी और बाहर आकर बुआ का इंतजार करने लगी.
बुआ का अब तक कहीं अता-पता नहीं था. बैठे-बैठे उसे कोफ्त-सी होने लगी थे. ऊँची-ऊँची दीवारों को लांघकर ढोल-मंजीरों और महिलाओं के मिश्रित स्वर अंदर तक आ रहे थे. शायद कार्यक्रम शुरु हो चुका था. बुआ के इंतजार में वह अधीर हुई जा रही थी. उससे अब और नहीं बैठा गया. नौकरानी को आवश्यक निर्देश देकर वह घर से निकल पड़ी. एकबारगी मन हुआ, कार निकाल ले, पर मन ने मना कर दिया. आम औरतें शायद यह न सोचने लगें कि अमीरी का ठस्का दिखाने के लिए वह गाड़ी पर चढ़ कर आई है. वह पैदल ही हो ली.
बिहारी की माँ ने उसका भरपूर स्वागत किया और बिराजने को कहा. उसे आया देखकर ढोल-मंजीरे बजने अचानक बजने बंद हो गए. उसने देखा. लगभग सारी औरतें उसे घूर-घूरकर देख रही थीं. उसके बैठते ही ढोल-ढमाका फिर शुरू हो गया. पूरी मस्ती के साथ औरतें गाने-बजाने लगी. बीच-बीच में वे उसकी तरफ देखते हुए कुटिल मुस्कान बिखेरतीं. कभी एक दूसरे के कानों में खुसुर-पुसुर भी करती जातीं थीं..
एक बड़ा सा चौक पूरकर पटा बिछा दिया गया. पानी से भरे लोटे को कलश बनाकर उस पर दीप भी जला दिया गया था. बिहारी की बहू को पटे पर लाकर बिठा दिया गया. औरतें बारी-बारी से गोद भराई करतीं.. आशीशें देतीं और फ़िर अपनी जगह पर आकर बैठ जाया करतीं थीं. ढोलक की थाप पर महिलाएं अब पूरे जोश के साथ गाने-बजाने लगी थीं.
राधा को अब अपनी बारी का इंतजार था. उसने गौर से बहू की ओर देखा. डील-डौल-काठी में वह उसके ही जैसी तो दिखती है. संभव है, उसके ही हमउम्र रही होगी या साल दो साल छोटी होगी. उसकी कोख में एक बच्चा पल रहा है और वह अब तक इस सुख से वंचित है. एक ईर्ष्या का भाव मन के किसी कोने में अंगड़ाई लेने लगा था. धड़कते दिल के साथ उसे एक बात और उद्वेलित कर रही थी कि क्या वह आशीर्वचनों के साथ पूतो फलो-दूधो नहाओ का आशीर्वाद देने का अधिकार रखती है, जबकि उसकी स्वयं की कोख अब तक खाली है. वह मन ही मन, अपने से ही बात कर ही रही थी. तभी एक अधेड़ औरत ने जुमला उछालते हुए पूछ ही डाला- ”काहे बिन्ना-… अपनो नंबर कबे आन वारो है ? का हम लोग यहीं से उठकर सीधी हवेली चला चलें”…. बात सीधी-सादी थी, पर उसने उसके पूरे वजूद को हिलाकर रख दिया था.
जिस बात को लेकर वह भरी-भरी सी थी….. डरी-डरी सी थी, वही बात सामने आकर खड़ी हो गई थी. उसे कोई उत्तर सूझ नहीं पड़ रहा था. आँखें डबडबा आईं थीं. उसे अब मितली-सी भी होने लथी थी. लगा कै हो जायेगी. वह तमतमाकर उठ खड़ी हुई और औरतों के झुण्ड को लगभग लांघते हुए, बहू के पास पहुँची. एक सौ का एक नोट उसके आँचल में डाला और बिना कुछ कहे, मुँह पर हाथ रखकर, कमरे के बाहर निकल गई.
तेज गति से चलते हुए उसे लगा कि औरतों के कहकहे… फूहड़ हंसी और तीखे नुकीले व्यंग्य उसका पीछा कर रहे हैं. तेज चाल चलते हुए वह पसीना-पसीना हुई जा रही थी.
रास्ता चलते हुए उसने सोचा -” मेरी एक सौतन दमयन्ती भी तो यहीं पास में रहती है, चलकर मिल आने में क्या हर्ज है? उससे मिलकर वह केवल इतना भर जानना चाहती है कि पाँच साल तक ठाकुर की पत्नि बनकर, ठाठ से महलों में रहने के बाद भी वह एक बच्चा तक नहीं जन पाई?. आखिर वह कौन-सी वजह थी कि जिसके चलते वह माँ नहीं बन पायी? और उसे किस बात से नाराज होकर ठाकुर साहब ने धक्के देकर महल के बाहर कर दिया था?
दरवाजा अंदर से बंद था. उसने कालबेल की बटन दबाया. थोड़ी देर में दरवाजा खुला. उसने देखा. एक कृष्काय महिला सामने खड़ी है. देखने में तो वह बड़ी उम्र की नहीं लगती, लेकिन उसके चेहरे पर झुर्रियों ने जाला बुन दिया था. केश असमय ही सफ़ेद हो गये थे. आँखों के नीचे गहरी कालिमा घिर आई थी. एक परित्यक्ता महिला किस तरह घुट-घुट कर जीती रही होगी, किस तरह वह तिल-तिल कर अन्दंर ही अंदर जलती रही होगी. और किस तरह अपने दुख की गठरी के भार को ढोती रही होगी?. उसने सहज में ही इस बात का अंदाजा लगा लिया था. उसने इस बात का भी सहज ही अंदाजा लगा लिया था कि थी अपनी भरपूर जवानी के दिनों में वह कितनी सुन्दर रही होगी. सुंदर न होती तो शायद ही ठाकुर साहब की पत्नि होती.
उसने शिष्ठाचारवश हाथ जोडकर प्रणाम किया और अपना परिचय दिया. परिचय पाकर दमयन्ती के सूखें होंठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट की किरण चमकी.
“आओ राधा…आओ…तुम्हारा स्वागत है. मुझे पक्का यकीन था कि तुम एक न एक दिन जरुर आओगी मेरे पास…आओ बैठो”
” आपने कैसे यकीन कर लिया था कि मैं आपके पास आऊंगी ही”.
“बड़ी भोली हो राधा तुम….इत्ती-सी बात भी तुम्हारी समझ में नही आई. यदि तुम हवेली में खुश रहतीं, तुम्हारे बाल-बच्चे हुए होते तो तुम उनके साथ व्यस्त रहतीं. जीवन के ऐश्वर्य के सुखों का उपभोग करतीं. यदि यह सब होता तो फ़िर तुम कहाँ समय निकाल पातीं मेरी चौखट पर आने की. मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा न !.” दमयन्ती ने उसकी दुखती रगो को छॆड़ दिया था.
अपने कड़वे यथार्थ को सुनते ही राधा को लगा कि बर्र मक्खियों ने अचानक उस पर हमला बोल दिया है और उनके दंश के निशान शरीर पर उभर आए हैं. जिस्म थर-थर कांपने लगा था. आँखें डबडबा आई थीं और घना अंधकार आँखों के सामने ताण्डव करने लगा था. उसने यह भी महसूस किया कि अब कलेजा ही फ़ट जायेगा.
देर तक स्तब्ध बैठी रही राधा अब धीरे-धीरे होश में आने लगी थी. थरथराते शब्दों में वह इतना ही कह पाई थी-” आपको कैसे मालुम कि मेरे कोई औलाद नहीं हुई?”
“औलाद हो ही नहीं सकती, इतना तो मैं जानती हूँ”
इतना सुनते ही धक्क से रह गई थी राधा. उसका हलक सूखने लगा था. शब्द जैसे गले में आकर अटक गए थे. फ़िर भी किसी तरह हिम्मत बटोरते हुए उसने पूछा-” औलाद नहीं हो सकती, ऐसे कैसे कह सकती हैं आप?.”
“सचमुच तुम बहुत भोली हो राधा और अनजान भी. अरे, पांच साल गुजारे है मैंने तुम्हारी हवेली में….तुम्हारे पति के साथ…कितनी ही रातें मैंने मछली की तरह तड़प-तड़प कर काटी हैं…क्या-क्या जतन नहीं किए मैंने माँ बनने के लिए…कितने ही देवी-देवताओं की मन्नतें मांगी थी मैने…बावजूद इसके मैं माँ नहीं बन पाई. जब माँ नहीं बन पाई तो मुझ पर बांझ होने का ठप्पा लगाकर, तुम्हारे पति ने मुझे अपनी जिन्दगी से बाहर निकाल फ़ेंका.
इतना सुनते ही राधा फ़बक-फ़बक कर रोने लगी थी. देर तक सिसक-सिसक कर रोने के बाद उसने पूछा-“आप माँ क्यों नहीं बन पाईं, इस पर आपने कुछ बतलाया नहीं?.
” सुनना ही चाहती हो तो कलेजा पक्का करके सुनो…है इतनी हिम्मत..तुममें..?.
” अंधेरे में भटकते रहने और दीवारों से सर टकराने से तो बेहतर है कि हकीकत से रुबरु हो लिया जाए, यही ज्यादा श्रेयस्कर होगा मेरे लिए”- राधा ने सोचा. फ़िर धीरे से कहा-“..कहिए…मैं जरुर उस रहस्य को जानना चाहूंगी….आप निश्चिंत होकर मुझसे कहें.”
“तो सुनो…….एक करोड़पति बाप की बिगड़ैल औलाद को तुम विगत तीन सालों में कितना जान पाई हो, मैं नहीं जानती. लेकिन जितना मैं जान पाई हूँ, तुम्हें बतलाती हूँ. तुम्हारे ठाकुर साहब को शराब और शबाब से गहरा लगाव है. रातों को रंगीन बनाने के चक्कर में वे अक्सर ऐसे क्लबों में जाते हैं जहाँ जिस्म का खुल कर सौदा होता है. इसके लिए वे अक्सर शहर से बाहर ही होते हैं. बाहर रहकर वे पानी की तरह पैसा बहाते हैं उनका दिल जब भर जाता है, तब जाकर वे घर की ओर लौटते थे. अपने वैवाहिक जीवन की शुरुआत में मैंने उन्हें यह सोचकर कभी नहीं टोका कि ऐसे शौक तो अक्सर रईस लोगों के होते ही है. मर्दों के लिए ऐसा किया जाना स्टेट्स सिंबल भी माना जाता है.
एक बार घर से निकलते तो फ़िर कब लौटेंगे, कोई नहीं जानता. हाँ, जब लौटने को होते तो फ़ोन जरुर करते. मैं पलक पाँवड़े बिछाकर उनके आने का इन्तजार करती. अपने को खूब सजाती-संवारती. फ़िर वो रात भी आती, जिसका मैं अधीरता से इंतजार करती रहती थी. नशे में धुत्त, वे मेरे जिस्म से जी भर के खेलते. यह क्रम दो-तीन दिन चलता, फ़िर वे किसी बाज की तरह फ़ुर्र से उड़ जाते किसी नए आशियाने की तलाश में.
एक दिन की बात है. बड़ी सुबह हम चाय के टेबल पर थे. बुआ जी भी साथ थी. गर्मा-गरम चाय का घूंट भरते हुए बुआ जी ने इन्हें टॊंका- “काहे राजा बाबू…..अबइ से फ़ेमिली प्लानिंग करन चाहत हो का? एक-दो बाल-बच्चा तो हो जान देते…फ़िर प्लानिंग के बारे में सोचते. हम आस लगाए बइठे हैं कि अपने पोतहू-पोतियों के संगे जी भर के खेलेंगे..कूदेंगे…इसी आसा में हमरे पांच साल तो बितई गए… का हमरे मरने के बाद बच्चा पइदा करोगे का?”. बुआ जी की बात ने मुझे शर्मसार कर दिया था और वे उठकर बाहर निकल गए थे. इसके बाद से अक्सर हमारे बीच नोंक-झोंक होती. वे कहते-” मैं तो पूरी कोशिश कर रहा हूँ, शायद तुममें ही कोई कमी होगी. इतना बड़ा इल्जाम भला एक औरत कैसे सह सकती थी?.मैंने पलटकर जवाब दिया-” सुनो….मैं मां बनने की पूरी क्षमता रखती हूँ. दरअसल तुम मर्द होकर भी मर्द नहीं हो. कारण जानना चाहते हो तो सुनो…..”तुम्हारे वीर्य में स्पर्मों की कमी है, जो बच्चा पैदा करने में सक्षम होते हैं. बजाय बहस-मुबाहिसों के हमें किसी योग्य डाक्टर से अपना परीक्षण करवा लेना चाहिए. डिफ़ेक्ट कहाँ है पता चल जाएगा”.
बस मैं इतना ही कह पाई थी कि उनके क्रोध का पारावार बढ़ गया और उन्होंने लगभग चीखते हुए कहा-“बंद करो तुम्हारी बकवास…खबरदार…जो एक शब्द भी आगे कहा तो.तुम्हारी खैर नहीं….तुम मेरे पैरों की जूती हो, जूती ही बनी रहो…सिर पर चढ़ने की कोशिश कभी मत करना, नहीं तो बड़ा मंहगा पड़ेगा तुम्हें…..और लगे मुझे लात-घूंसों से पीटने. मुझ पर अचानक, इतना बड़ा पाश्विक हमला हो सकता है, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी.
” राधा……क्या औरत महज मर्दो के पैर की जूती होती है? और कुछ नहीं” इस एक शब्द ने मुझे मेरी औकात.बतला दी थी कि मैं इस बिगड़ैल रईस की नजरों में सिर्फ़ एक जूती हूँ और कुछ नहीं हूँ” एक स्त्री जाति का इतना बड़ा अपमान? भला मैं कैसे सह सकती थी. मैंने भी तत्काल पलटकर कहा-” औरत की इज्जत करना सीखो ठाकुर साहब. मैं कोई उठाईगिर नहीं, तुम्हारी पत्नि हूँ. पत्नियाँ कभी पति के पैरों की जूती नहीं होतीं, वह उसकी अर्धांगिनी कहलाती हैं. जिन स्त्रियों का उनके घर में सम्मान न हो, उन्हें तत्काल उस घर को छोड़ देना चाहिए. मैंने अपनी अंजुली मे पानी लिया और कहा-” मैं दमयन्ती …..ईश्वर को साक्षी मानकर अभी और इसी समय तुम्हें पति मानने से इन्कार करती हूँ और तुम्हें अपने दिए गए वचनों के बंधनों से भी मुक्त करती हूँ”. मैं अभी और इसी समय तुम्हारी हवेली छोड़कर जा रही हूँ. मुझे तुम्हारी दौलत में से एक छदाम भी नहीं चाहिए.
“राधा….हवेली छोड़ देने के बाद, मैंने उसी स्कूल में आकर अध्यापन करना शुरु कर दिया,जिसे मैंने अपने विवाह के पश्चात छॊड़ दिया था. चुंकि मैं पढ़ी-लिखी थी, अपने पैरों पर खड़ी थी, इसलिए मैं अपने आपको को संभाल पायी. तुम तो पढ़ी-लिखी भी ज्यादा नहीं हो और न ही तुम्हारा कोई मजबूत आधार है. तुम शायद ही इतना बड़ा फ़ैसला ले सकोगी. तुम जीवन भर उसी हवेली में रहना चाहती हो तो तुम ठाकुर साहब को एक संतान दे दो, फ़िर शेष जिन्दगी आराम से गुजारती रहो. तुम्हें नियोग का सहारा लेना होगा. अब यह तुम्हारे ऊपर है. तुम किस भद्र पुरुष का चुनाव करना चाहत्ती हो. यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है. सुनो.. महाभारत काल में भी इस विधि का प्रयोग किया गया था. मैं नहीं समझती कि जीवन बचाने के लिए इससे अच्छा और सरल तरीका तुम्हारे लिए और कोई नहीं हो सकता है. जब जीवन संकट ही में हो पाप-पुण्य की बात करना बेमानी होगी, फ़िर तुम खुद समझदार हो’.
उसे जीवन जीने का एक सूत्र मिल गया था. उसने दमयन्ती के चरण छुए और घर की ओर लौट पडी.
रास्ते में सन्नाटे के साथ अंधियारा भी चारों तरफ पसरा पड़ा था. हवेली के बल्ब फ्यूज हो गए थे अथवा नौकरानी ने जलाए ही नहीं, यह वह नहीं जानती और न ही उसने लाईट जलाने के लिए स्विच बोर्ड की तरफ हाथ ही बढ़ाया. अंधेरे में कुर्सी टटोलते हुए वह उस पर जा बैठी. आहट पाकर जैकी भूंका जरूर था.
विचारों की श्रृंखला अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी. प्रश्न अपने आपको दुहराने लगता. वह अपने आप से पूछती— ”क्या वह ठाकुर साहब को सन्तान दे पायेगी? अगर ऐसा न हुआ तो क्या वह भी अपने माथे पर बांझ होने का ठप्पा लगवाना पसंद करेगी?
माँ न बन पाने की व्यथा औरत को तिल-तिल करके जलाती तो है ही, समाज भी यदि उसे बांझ कहकर पुकारने लगे, तो व्यथा और भी बढ़ जाती है. उसका समूचा अस्तित्व ही अब धू-धू करके जलने लगा था.. वह सोचने लगी थी-“क्या वह इस धधकती अग्नि में अपने-आपको झोंक पायेगी”? तरह-तरह के प्रश्नों के जहरीले नाग उसके बदन को कसने लगे थे. लगा कि शरीर की सारी हड्डियां चरमराकर चूर-चूर हो जायेंगी.
भावविह्वल होते हुए दमयंती दीदी ने उसके सामने वह सच भी उगल दिया था कि ठाकुर की पहली दो पत्नियों ने भी इसी गम को अपने गले से लगा लिया था, और तिल-तिल गलते हुए दुनिया से रुखसत हो गई थीं. तीसरी बारी उनकी अपनी थी., जब उसे घर से निकाला गया था, तब उनकी आत्मा मर गई थी और शेष रह गया था शरीर मरने के लिए. दीदी ने तो यह भी बतलाया था ठाकुर साहब जैसे रईसजादों के बिस्तर पर जवान औरतों को चादर की तरह बिछाया जाता है और जब चादर मैली-कुचली हो जाती है तो उन्हें फेंककर नई चादर बिछा दी जाती है.
उसकी समझ में आ चुका था कि ठाकुर दौलतसिंह जी यानी उसके पति, जिसकी नजरों में औरत की कीमत एक जूती के बराबर होती है. वह कभी भी जूती बनना कभी पसंद नहीं करेगी. ठाकुर साहब को आखिर चाहिए क्या…. सिर्फ एक औलाद….एक वारिस ? उसके जब औलाद पैदा होगी, तभी वह संपूर्णता के साथ जी सकेगी. मन का आकाश खुशियों से झूम उठेगा. उसका नन्हा, राजदुलारा जब तुतलाती मीठी जुबान में बोलेगा— माँ कहकर पुकारेगा तो उसके साथ दसों दिशाएं एक साथ खिल उठेंगी. उसका रोम-रोम मीठे-मीठे गीत गाने लगेगा. उसके सारे संताप-सारे दु:खदर्द, सारी कुंठाएं उसकी मीठी बोली की चाशनी में घुल जाएंगी.
घड़ी ने रात के बारह बजे का ठोंका लगाया. ढोल-मंजीरों के स्वर अब भी हवा में तैर रहे थे. वह उठ खड़ी हुई. पैरों में चप्पलें डालीं और बाहर निकल पड़ी.
सन्नाटे से भरे अंधियारे पथ में, उसके कदम हरिया की खोली के तरफ बढ़ चले थे. शायद एक सूरज की तलाश में जो उसका जग आलोकित कर सके.
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गोवर्धन यादव
कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
480001
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