कहानी समकालीनः उसका बेटा-नासिरा शर्मा

अस्पताल के सामने बूढ़े बरगद के नीचे रोज़ की तरह आज मूँगफली वाला नहीं बैठा था। उसकी दुकान की जगह सूनी थी । जहां वह बोरी बिछाकर मूँगफली का ढेर लगाता था वहाँ ज़मीन साफ़ और चिकनी पैवंद जैसी अलग से दिखाई पड़ रही थी। कुछ देर मैं खड़ा रहा, फिर निराश हो अस्पताल के गेट के अन्दर चला गया, जहाँ वार्ड के सामने वाले मैदान में पेड़ के नीचे बैठी नीता मेरा इंतज़ार कर रही थी । ख़ाली हाथ मुझे आता देख भूख से उसकी अंतडियाँ ऐंठने लगी थीं, जिसका दर्द उसकी आँखों से झलक आया था। होंठ प्रश्न की मुद्रा में कुछ खुल–से गए थे। दो दिन से हम बेटी की बीमारी में बदहवास कुछ खा–पी नहीं पाए थे। घर बहुत दूर नहीं था, मगर जब तक पांच साल की आशा का कुशल समाचार न मिले तब तक घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। घर से हमारे लिए खाना–चाय लाने वाला कोई दूसरा नहीं था।

मुझे अपना यूँ ख़ाली हाथ लौटना बहुत बुरा लगा। तभी पीछे से किसी ने पुकारा, “बाबू जी !” मुड़कर देखा तो दूसरे कोने में पड़ी बेंच पर वही मूँगफली वाला बदहवास–सा बैठा था। मैं उसके पास जाकर खड़ा हो गया। वह उसी तरह बेदम बैठा मेरी तरफ़ देखता रहा। वह ख़ासा बदल गया था । उसे पहचानना मुश्किल था।

“क्या है भाई ? आज दुकान नहीं लगाई? बेचारे मरीज़ों के घर वाले निराश लौट रहे हैं।”

“बाबू जी, कल रात से बेटे की हालत ख़राब है। गाँव से वे सब उसे ले आए हैं, यहाँ मगर…” वह रोने लगा।

“कहाँ है?” मैं उसके क़रीब गया।

“वहीं सामने वाले कमरे में…” सुबकते हुए बोला।

“घबराने की कोई बात नहीं है। मेरी बेटी आशा भी वहीं भर्ती है जिसको तुम रोज़ चार मूँगफली हाथों में थमाते थे।” कहते–कहते मेरे होंठ काँप–से गए।

“अरे दइया रे, भगवान सबके रक्षक हैं।” कहकर वह संभलकर बैठ गया, जैसे उसके टूटे हाथों के नीचे किसी ने बैसाखी का सहारा लगा दिया हो।

“तुम बैठो, मैं अन्दर पूछकर आता हूँ।” उसके कंधे को थपथपा मैं नीता के पास होता हुआ वार्ड के सामने वाले कमरे की तरफ़ मुड़ गया।

मूँगफली वाला हर रोज़ आशा के स्कूल ले जाने वाले रास्ते में ढेरी लगाए बैठा नज़र आ जाता था। जाड़े में मूँगफली और गर्मी में ककड़ी ,खीरा मसालेदार नमक के साथ बेचता था।इससे पहले मैं उसकी तरफ़ ध्यान भी नहीं देता था जबकि मेरे ऑफ़िस का रास्ता भी इस अस्पताल के सामने से ही जाता था।

आशा जब पहले दिन स्कूल जाने के लिए लाल रिबन लगा, फूलदार फ्रॉक पहन,मेरी उंगली पकड़कर निकली थी तो मूँगफली वाले ने बहुत लहककर उसके हाथ में चंद मूँगफली थमाई थीं। जब दूसरे दिन उसने ऐसा किया तो मैंने मना किया, पर वह नहीं माना। मगर तीसरे दिन मैं अड़ गया कि यदि वह इनके पैसे लेगा तो बेटी मूँगफली लेगी वरना नहीं। इतना सुनकर वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया ।

“आप हमारे माई–बाप हैं…साहब, बुरा न माने…बिटिया के हाथों बोहनी करता हूँ…जब से बिटिया रानी इधर से गुज़री हैं,सारा ढेर शाम तक बिक जाता है। इसलिए मना न करें साहब!”
“ठीक है, ठीक है।” मैं हँस पड़ा था और प्यार से आशा के सिर पर अपना हाथ रख उसे लेकर आगे बढ़ गया था।

आशा जब स्कूल के हाते में दाख़िला होने लगी तो मैंने उसके चेहरे को ग़ौर से देखा और प्यार से गाल थपथपाया। मेरा मन हलका हो उठा था, शायद उस मूँगफली वाले की बात से, वरना आशा के जन्म से घर में सियापा पड़ा था। माँ ने दस बातें नीता तो सुनाई थीं। मेरा मन भी आतंक से मुरझा गया था कि अब धेला–धेला इसकी शादी के लिए जमा करो। मगर आज वह कसैलापन जाने कैसे धुल गया था। बार–बार मन पुलकित हो उठता कि बेटी की छाया से किसी की दुकानदारी चल पड़ी है और उसका परिवार सुखी हो उठा है तो इससे बड़ा पुण्य , इससे बड़ा शगुन क्या है? “यहाँ खड़े मत हो, उधर जाकर बैठो।” अन्दर से निकलती नर्स ने मेरा चेहरा देखते ही कड़कड़ाती आवाज़ में कहा और तामचीनी की ट्रे में दवाओं की शीशियाँ संभाले आगे बढ़ गई। हारे मन से मैं दालान की सीढ़ी पर बैठ गया।

“इधर भीड़ मत बढ़ाओ!” दूसरी नर्स डांटती गुज़र गई।

“सिस्टर, यह तो बताइए,मेरी बेटी को हुआ क्या है?” आख़िर मैंने झुंझलाकर पूछ लिया।

“डॉक्टर आने वाला है, उसी से पूछ लेना ।”

“वह ठीक तो है?”

“बक –बक क्यों करता है मैन…जाकर उधर बैठेगा–वार्ड में दो सौ बच्चे हैं, किस–किसको हम याद रखेगा?”
नर्स कहती गुज़र गई |

शाम की आहट सुनकर नीता ने सिर से शॉल लपेट ली थी। सूरज पेड़ के छींके पर लटक गया था और अब ठंडी हवा चलने लगी थी। कुछ अनमना–सा थोड़ी देर मैं खड़ा रहा, फिर एकाएक फ़ैसला कर आगे बढ़ा और नीता का हाथ पकड़ दरवाज़े से बाहर निकल गया। आशा डॉक्टरों–नसों के बीच है, मगर नीता इस ठंड में भूखे पेट है। उसके पास मां का दिल है,मुंह खोलकर अपनी ज़रूरत की बात कहेगी नहीं, इसलिए मुझे ठंड से उसे बचाना होगा।

सड़क पार कर कुछ दूरी पर खड़े ठेले के पास जाकर मैं रुक गया और पानी के बताशे और बैगनी खाकर हम दोनों ने पेट की आग बुझाई। इतना बड़ा अस्पताल मगर आधे किलोमीटर तक न कोई दुकान थी और न बाज़ार। बस बड़े–बड़े नए बने मकान थे, जहां भूले–भटके फेरी वाले आ जाते थे। खा–पीकर जब हम लौटे तो वार्ड के सामने काफ़ी चहल–पहल–सी नज़र आई । मिलने वालों की भीड़ नाश्तेदान और बास्केट लिए तेज़ी से सीढ़ी चढ़ रही थी।

खाने से बदन में गर्मी आ गई थी । चुस्ती से सीढ़ी चढ़ मैं सीधे डॉक्टर के सामने जाकर खड़ा हो गया।
“डॉक्टर,साहब,आशा कैसी है? उसकी उल्टी रुक गई?” मैं एक सांस में कह गया।

“वह लड़की …अब खतरे से बाहर है, आप मिल सकते हैं।” डॉक्टर ने गहरी नज़रों से मुझे देखते हुए कहा और मुड़कर नर्स से बात करने लगी।

“बेड नं. चौदह,” इतना कह नर्स ने मुझे रास्ता दिखाया। जाने कब नीता मेरे पीछे आन खड़ी हुई थी। हम दोनों वार्ड में जाकर आशा को ताक रहे थे जो गहरी नींद में पड़ी सो रही थी।

“ये दवाएं लेकर आओ, इधर एक आदमी को रुकना पड़ेगा।” इतना कहकर नर्स दूसरे मरीजों में उलझ गई। नीता बेटी के पैर पर हाथ रख अपने आँसू रोक रही थी। मैं हाथ में पकड़ा पर्चा लेकर बाहर की तरफ़ भागा ताकि दवा वक्त से ले आऊं।
बाहर भीड़ में मुझे मूँगफली वाला दो–तीन मर्दों और एक औरत के साथ घिरा बैठा दिखा। मैं रुककर पूछना चाहता था उसके बेटे की कुशल–क्षेम,मगर बाज़ार की दूरी के खयाल से इरादा बदल मैं क़दम बढ़ाता बाहर की तरफ़ भागा।
जाड़े की रात, सनसनाती हवा के बीच अपने चारों तरफ़ कंबल तंबू की तरह लपेट कर भी मैं कांपता रहता था। आशा को कब क्या ज़रूरत पड़ जाए और नीता को वार्ड से बाहर निकल कब मुझे कुछ बताना पड़ जाए, इस इंतज़ार में रात कट जाती थी। नीता बाहर मेरी हालत देख कई बार रो चुकी थी । अपनी सौगंध देकर घर जाने को कहती, मगर मैं आशा को अब खोना नहीं चाहता था। उसके जन्म के बाद बहुत कुछ अच्छा घटा था जिसका ध्यान मुझे कभी नहीं आया था। माँ को बताना चाहता था जो पोती को देखने इस नाज़ुक हालत में भी नहीं आई थीं।

“देखो जी! यह नर्स ठीक नहीं है।” नीता ने दवाओं का पैकेट हाथ में थामते हुए कहा।

“क्या हुआ?”

“डॉक्टर कुछ बताकर जाती है, मगर यह मनमानी करती हैं। दिल चाहा तो ठीक वरना पूछने पर झिड़क देती हैं।
आशा के पास वाले बेड पर जो लड़का है न,उसकी हालत ठीक नहीं है,मगर …”

“रास्ते से हटो!” घुड़कती हुई तीन–चार नर्सों की टोली सामने से गुज़री।

“ठीक है !” मैंने इशारे से नीता से कहा और दिल–दिल में ही उस मूंगफली वाले को याद करने लगा कि उसका लड़का जाने किस हाल में है। इधर–उधर बेचैन नज़रें घुमाई मगर वह कहीं नज़र नहीं आया।

कई दिन गुज़र गए। आशा पूरी तरह निरोग हो चुकी थी। उसकी आँखों की चमक और गालों की लाली वापस आ गई थी। सच, बच्चे फूल की तरह खिलते हैं और ज़रा –सी गर्म हवा से कुम्हला भी जाते हैं। कल आशा को छुट्टी मिलने वाली थी । मैंने बाज़ार से कुछ साग–सब्ज़ी–फल ख़रीदकर घर में रखा और जैसी–तैसी सफ़ाई मैं कर सकता था घर की, कर दी। तकिया, गिलाफ़, चादर बदल जब मैं नहा–धोकर लेटा तो पंद्रह दिन की दौड़–धूप जैसे बदन के अंग–अंग को घायल कर गई। लेटते ही नींद आ गई।

आधी रात को जाने किस शोर से आँख खुल गई। घबराकर उठ बैठा। नींद का खुमार अब कम हुआ तो रात के सन्नाटे का अहसास हुआ और महसूस हुआ कि ज़रूर मैंने कोई सपना देखा होगा और सपने में सुने शोर से नींद टूटी होगी। करवटें बदलते–बदलते सुबह हो गई, मगर एक बार नींद टूटी तो फिर मैं नहीं सो पाया। तरह–तरह के विचार मन–मस्तिष्क में बनते–बिगड़ते रहे।

जब मैं अस्पताल में पहुँचा तो वार्ड के सामने ही नीता को खड़े पाया। उसका मुँह उतरा हुआ था। आँखों में आँसू तैर रहे थे। मुझे देखकर वह आगे बढ़ी और मेरे दोनों हाथ अपने कांपते हाथों में पकड़ खामोशी से मुझे घूरती रही, फिर धीरे से बोली, “सुनो, पास वाले बेड का बच्चा गुज़र गया रात के आख़िरी पहर। अंदर उसके माँ–बाप रो रहे हैं।”

“आशा कहाँ है?”

“अंदर है। अभी सो रही है।”

“उसे अकेला छोड़कर तुम यहां…?” कहता मैं वार्ड में दाख़िल हुआ। नीता मेरे पीछे–पीछे किसी भेड़ की तरह सिर झुकाए दबे पांव दाख़िल हुई।

कोने वाले बेड के पाये के पास एक मर्द और एक औरत का बदन घुटनों में सिर दिए बैठा था। उनकी हिचकोले खाती काया को देख महसूस हुआ कि आत्मा की गहराई से उठता रुदन उनके बदन को ज़ोर–ज़ोर से झिंझोड़ रहा है। मैं व्याकुल–सा आगे बढ़कर सामान समेटने लगा ताकि जितनी जल्दी हो अपनी बेटी को इस मनहूस वातावरण से दूर ले जा सकूं। वार्ड के बाक़ी औरत–मर्द भी उदास आँखों से सब कुछ देखते अपने–अपने बच्चों की देखभाल कर रहे थे।

“सुनो…सुनो तो…”नीता की आवाज़ कांपी।

ॉ“इनका लड़का रात ही मर गया था। डॉक्टर ने ऑक्सीजन लगाने को कहा था। नर्सों ने ध्यान नहीं दिया,बैठी बात करती रहीं। जब रात को बेटा छटपटाया तो मां नर्स को बुलाने कई बार गई। जब तक नर्स आई तो बेटा ठंडा हो चुका था। अब नर्स ने कुछ देर पहले ऑक्सीजन सिलेंडर मुर्दा बच्चे के मुँह में लगाया है। डॉक्टर का राउंड होने वाला है न… तुम कुछ करो… कह दो डॉक्टर से सब कुछ।” नीता की भरी आँखें बरस पड़ीं।

मैं अवाक कभी उसका मुँह और कभी उस ग़रीब फटेहाल मुर्दा बच्चे को देख रहा था जिसकी उम्र मुश्किल से सात साल होगी। नीता के आग्रह के दबाव और भावनात्मक तनाव में आ मैंने उस बेड पर लटकती तख्ती को पढ़ा, जहां पर सिलेंडर लगाने का टाइम रात दस बजे लिखा था। मैंने निराश होकर नीता को देखा, जैसे कहना चाहा हो कि नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की पहुँच कहाँ होगी?

“क्या है?” नीता का भोला सवाल था।

“कुछ ख़ास नहीं…तुम अपना सामान समेटो, मैं डिस्चार्ज स्लिप लेकर आता हूं।”

“तुम कुछ कहोगे नहीं क्या?” नीता उसी तरह जमी खड़ी रही।

“उसके माता–पिता आवाज़ उठाएं तो मैं सहायता करूं, मगर वे तो कुछ एतराज़ कर नहीं रहे हैं।”

“वे बेचारे अनपढ़ देहाती कुछ समझ ही नहीं पाए हैं सुभाष…!” नीता ने प्रतिरोध के स्वर में कहा।

“अच्छा, सामान तो समेटो, जब डॉक्टर आएंगे तो मैं बात कर लूंगा।” इतना दिलासा देकर मैं मुड़ा ताकि उस बच्चे के माँ–बाप से कुछ कह सकूं, मगर वे दोनों अब भी गठरी बने हिल रहे थे। एक आंतरिक पीड़ा से तड़पकर मैं वार्ड से बाहर निकला ताकि ज़रूरी खानापूरी ख़त्म कर सकूं। आशा को सोते में ही घर ले जाने का इरादा मैंने कर लिया था ताकि वह हमारे बीच फैली सनसनाहट को महसूस न कर सके।

थोड़ी देर बाद जब मैं लौटा तो डॉक्टर राउंड पर आ चुके थे। उन्होंने डेथ सर्टिफिकेट बनाने को कहा, फिर अफ़सोस से गर्दन हिलाई और धीरे से कहा कि शाम को बड़ा इंप्रूवमेंट था, यकायक यह हुआ कैसे? ऑक्सीजन भी समय पर दी गई फिर…?” मैं आगे बढ़ा ताकि कुछ बता सकूं, नीता फटी आंखों से मुझे देखकर हाथ नकारात्मक मुद्रा में हिला रही है। मैं उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया।

“बेकार है कुछ कहना, नर्सें तो उलटे माँ–बाप को ही दोषी बता रही हैं कि “तुम कुछ मत कहो। वैसे भी कहने से क्या फ़ायदा? उसका लड़का तो अब वापस आने से रहा।” नीता के चेहरे पर एक साथ कई भाव आए और गए।

जब हम आशा के साथ भरे–पूरे खुश–खुश लौट रहे थे उस समय माँ ,बेटे की लाश को गोद में लिए सीने से लिपटाए विलाप कर रही थी। उसे घेरे कई मर्द–औरत गठरी बने मुँह ढांके उस पेड़ के नीचे बैठे थे। उनके दुःख को देखकर मन के कोने में एक संतोष फड़फड़ाया कि हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ। सब कुछ चलचित्र की तरह गुज़र गया।

अगले सप्ताह सड़क पार करके जब मैं आशा की उंगली पकड़े पुराने बरगद के पास पहुँचा तो देखा,अरसे बाद मूँगफली वाला वहाँ बैठा है।

“कहो भाई,कैसे हो?” उसकी नज़र जैसे ही मुझपर पड़ी,मेरे मुँह से निकल गया।

“गुज़र रही है अच्छी–भली!” थकी–सी आवाज़ उभरी,फिर बुझी नज़रें आशा पर पड़ गईं और उनमें झक से रोशनी की लौ जल उठी। आगे बढ़कर उसने मुट्ठी–भर मूँगफली उठाई और आशा के दोनों हाथों में थमाने लगा। उसका दुलार देख मैंने भी औपचारिकतावश पूछ लिया।

“तुम्हारा बेटा कैसा है?”

मेरी बात सुन उसका हाथ थम गया। आँखें ठिठक गईं। मैंने बिना कुछ सोचे–समझे दूसरा वाक्य बोल दिया, “उसे स्कूल पढ़ने भेजते हो या फिर अपनी तरह रेहड़ी पर बिठाओगे?”

“वह तो तभी गुज़र गया था साहब जी!” उसके मुँह से निकला। उसका सारा अस्तित्व करुणामय हो उठा और मुझे ठंडे लोहे की छुअन से झुरझुरी–सी आ गई।

आशा को लेकर मैं आगे बढ़ने लगा, जो बड़े चाव से मूँगफली खा रही थी। चंद क़दम चलकर जाने किस बेचैनी से मुड़कर मैंने देखा, दृश्य वही पुराना था,बूढ़े बरगद के नीचे बैठा मूँगफली वाला ग्राहकों को पैकेट थमा रहा था और अस्पताल के बड़े दरवाज़े से लोग रोज़ की तरह दाख़िल और ख़ारिज हो रहे थे।

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नासिरा शर्मा
जन्म : 22 अगस्त १९४८ इलाहाबाद। परिवार के प्रति समर्पित और समाज व सरोकारों के प्रति गहन व संवेदनात्मक दृष्टि रखने वाली आधुनिक हिन्दी की प्रमुख लेखिका हैं। सृजनात्मक लेखन के साथ ही स्वतन्त्र पत्रकारिता में भी उल्लेखनीय कार्य किया है। ईरानी समाज और राजनीति के अतिरिक्त साहित्य कला व सांस्कृतिक विषय, सभी विषय आपकी कलम के नीचे आए हैं । अब तक आपके दस उपन्यास, छह कहानी संकलन, तीन लेख-संकलन, सात पुस्तकों के फ़ारसी से अनुवाद, ‘सारिका’, ‘पुनश्च’ का ईरानी क्रांति विशेषांक, ‘वर्तमान साहित्य’ के महिला लेखन अंक तथा ‘क्षितिजपार’ के नाम से राजस्थानी लेखकों की कहानियों का सम्पादन। ‘जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं’ के नाम से रिपोर्ताजों का एक संग्रह प्रकाशित। इनकी कहानियों पर अब तक ‘वापसी’, ‘सरज़मीन’ और ‘शाल्मली’ के नाम से तीन टीवी सीरियल और ‘माँ’, ‘तडप’, ‘आया बसंत सखि’,’काली मोहिनी’, ‘सेमल का दरख्त’ तथा ‘बावली’ नामक दूरदर्शन के लिए छह फ़िल्मों का निर्माण।

उपन्यास
सात नदियाँ एक समन्दर- १९८४

शाल्मली- १९८७

ठीकरे की मँगनी – १९८९

जि़न्दा मुहावरे – १९९३

अक्षय वट – २००३

कुइयाँजान – २००५

ज़ीरो रोड – २००८

पारिजात – २०११

अजनबी जज़ीरा – २०१२

कागज़ की नाव – २०१४

अल्फ़ा- बीटा- गामा-

कुछ रंग थे ख़्वाबों के – 2024

पुरस्कार-सम्मान
२००८ में अपने उपन्यास कुइयाँजान के लिए यू॰के॰ कथा सम्मान से सम्मानित।
सन् 2014 में ” डॉ राही मासूम रजा साहित्य सम्मान “से अलंकृत किया गया ।
नासिरा शर्मा को वर्ष २०१६ का साहित्य अकादमी पुरस्कार उनके उपन्यास पारिजात के लिए प्रदान किया गया।
नासिरा शर्मा को वर्ष 2019 का व्यास सम्मान उनके उपन्यास कागज की नाव पर प्रदान किया गया

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