कहानी समकालीनः आखिरी पड़ाव-सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

” पानी का बहाव बहुत तेज है , ज्यादा अंदर मत जाइएगा। ” नेहा ने कठोर शब्दों में ताकीद कर दी।
” रहने दो यार ! तुम तो अब आयी हो मेरी जिंदगी में , पर तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरा तो सारा बचपन ही इसी नदी के आगोश में बीता है। खूब खेला हूँ इसकी मचलती – उफनती हुई लहरों के साथ। खूब झेला है इसकी धारा के तीखे और तीव्र बहाव को। ”
” रहने दीजिये अपनी ये बड़बोली बातें। अब न तो आपके शरीर में युवावस्था की जवानी का वो जोश और मजबूती है और न ही आप अकेली जान हैं । आज मन्दाकिनी अपने पूरे उफान पर है।मैं आपको नदी में नहीं उतरने दूंगीं। मत भूलिए कि अब आपके साथ दो जिंदगियां और भी जुड़ी हुई हैं। आपको कुछ हो गया तो मैं तो जीते जी मर ही जाऊंगीं , जान दे दूंगीं अपनी और हम दोनों ही चले गए तो हमारी नन्हीं सी जान का क्या होगा , सोचा है आपने ? ” नेहा नदी के उफान और धारा की अनियंत्रित गति की तरह बिना रुके बोले जा रही थी।
” नेही ! आज यह क्या हो गया है तुम्हें ? कैसी बहकी – बहकी बातें कर रही हो ? कुछ नहीं होने वाला मुझे। मैं मंदाकिनी की गोद में बचपन से खेला हूँ। इसकी धारा की हर चंचलता का अनुमान है मुझे। ये मेरा कुछ भी अनर्थ नहीं कर सकती। यह मेरी माँ जैसी है यह मैं जानता ही नहीं , मानता भी हूँ।इसलिए तुम निश्चिन्त रहो। ”
” मन्दाकिनी की ऊँची उठती लहरों की उच्चश्रृखलता से मुझे डर लग रहा है। घटाएं भी घिरने लगी हैं। बारिश कभी भी हो सकती है। कोई नहीं नहा रहा। आप प्लीज कपड़े पहन लीजिये। ” नेहा अपने आग्रह पर अडी हुई थी।
अभिनव ने नेहा की लाचार और कातर दृष्टि को देखा। उस पर दया आयी जो थोड़ी देर बाद प्यार में बदल गयी।
” ओ के हमारी जान की जान के लिए आज नदी की सैर केंसिल। बचपन का यह एडवेंचर फिर किसी दिन। ”
इतना कहकर उसने अपनी शर्ट पहनने के लिए उठा ली। शर्ट अभी हाथ में ली ही थी कि नदी के बीच धारा में उसे एक मानव आकृति दिखाई दी जो लहरों के साथ ऊपर – नीचे उतराती हुई बह रही थी। उसके हाथ ऊपर उठने की कोशिश कर रहे थे जो असल में छटपटा रहे थे । टाँगे और पैर बेतरतीब हिल रहे थे। सिर बेढाल होने लगा था। उसकी दयनीय और खतरनाक स्थिति को अभिनव अनदेखा नहीं कर सका क्योंकि अभिनव अब भले ही शहर में इंजीनियर है पर उसका बचपन तो इसी गाँव में मन्दाकिनी की गोद में ही बीता है। उसने मन्दाकिनी में बहुत बार इस तरह के हादसों को होते हुए देखा है।
इस क्षण को किसी भी तरह के सोच – विचार में गंवाया तो उस व्यक्ति का नदी में डूबना और फिर मर जाना तय है।
अगले ही क्षण अभिनव ने स्वयं को नदी की उफनती लहरों के बीच पाया। अपने शरीर की सारी ताकत और पक्की इच्छा शक्ति के बूते वह उस व्यक्ति को नदी के किनारे घसीट लाया।
नदी में डूबता हुआ व्यक्ति लगभग बेहोश था। कुछ पानी उसके पेट में जा भी चुका था।उसने कपड़े तो पूरे पहने हुए थे। बेहोश था पर सांसे बरकरार थीं। हिलने – डुलने की हालत नहीं थी। अभिनव और नेहा ने मिलकर उसे नदी के किनारे रेत पर एक समतल जगह पर उल्टा लिटा दिया और पीठ पर दबाव डालकर उसके पेट में भरे हुए पानी को निकालने की कोशिश करने लगे। कुछ देर के प्रयास के बाद उन्हें लगा कि इस अजनबी की लगभग जा चुकी जान वापस आ गयी है।
उसके शरीर में हुई थोड़ी सी हलचल को पाकर अभिनव ने उसके शरीर को सीधा कर दिया।
उसका चेहरा देखते ही अब बारी अभिनव की थी। अरे यह तो लखनऊ में उसके मोहल्ले में रहने वाले गुप्ता अंकल हैं। गुप्ताजी को इस रूप में अपने सामने पाकर वह निःशब्द था परन्तु उसे समझते देर नहीं लगी कि लखनऊ से पांच सौ किलोमीटर दूर इस छोटे से गाँव की नदी में गुप्ताजी ने अपने जीवन की लीला को समाप्त करने का निर्णय लिया था पर क्यों ? यह जानने या समझने का यह सही समय नहीं था।
उन दोनों ने बिना देरी किये एम्बुलेंस की व्यवस्था की और गुप्ता जी से बिना कोई सवाल – जवाब किये उन्हें पहाड़ के अपने इस छोटे से गाँव के घर में ले आये।
गुप्ताजी को समय पर नदी में डूबने से न केवल बचा लिया गया था , बल्कि उन्हें उचित उपचार मिल जाने के कारण वे दो दिन में ही बातचीत करने लायक भी हो चुके थे , भले ही उनकी मानसिक स्थिति सामान्य नहीं हो पा रही थी और किसी सदमें की आडी – तिरछी रेखाएं उनके मुख पर लगातार बनी हुईं थीं।
एक सुबह जब गुप्ताजी को चाय सर्व की जा चुकी थी तब उचित अवसर पाकर अभिनव ने गुप्ताजी से कहा , ” अंकल ! वैसे तो मुझे या नेहा को इस बात से कोई परेशानी नहीं है कि आप जितने दिन चाहें हमारे साथ हमारे इस गाँव में रह सकते है क्योंकि मैं भी इस बार एक महीने की छुट्टी लेकर यहाँ आया हूँ परन्तु आप मेरे साथ लखनऊ से इतनी दूर इस हालत में यहाँ हैं , आपके घर लखनऊ में किसी को भी इस बात की सूचना नहीं है। होती तो वे आपसे संपर्क आवश्य करते। इस बीच आपने भी उन्हें सूचित करने की कोई कोशिश भी नहीं की । वे सभी लोग अत्यधिक चिंता और परेशानी में होंगें। यदि आप उचित समझें और बुरा न माने तो आंटी जी और आपके पुत्र को आपके यहाँ पर इस पहाड़ी गाँव में मेरे साथ सकुशल होने की सूचना दे दी जाये।
गुप्ता जी ने बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये हुए बची हुई चाय के प्याले को खाली करके एक ओर रख दिया और कुर्सी पर अपने सिर के पिछले हिस्से को टिका दिया। उसके चेहरे पर गहरी सोच की रेखाएं स्पष्ट दिख रही थीं। विचारों का बवंडर उन्हें मथ रहा था। होठों का कम्पन स्पष्ट कर रहा था कि कहने को बहुत कुछ है उनके पास और वे बहुत कुछ कहना भी चाहते हैं परन्तु वे शब्द उन्हें मिल नहीं रहे जो उनकी तकलीफ या द्व्न्द को सबके सामने ला सकें। उनका पूरा शरीर और भंगिमाएं किसी अनुत्तरित प्रश्न का प्रतिरूप लगने लगी थीं।
अभिनव ने उनकी यह स्थिति देखी तो उसे आत्मग्लानि का भान हुआ। उसे लगा मानवता के आलोक में उसे गुप्ताजी की उस दुखती रग पर हाथ नहीं रखना चाहिए था जिसकी वजह से उन्होंने सदा के लिए अपना परिवार ही नहीं , अपनी देह को त्यागने का भी निर्णय चुपचाप मंदाकिनी के मार्ग के किसी निर्जन स्थान में लिया था। उसका द्रड़ विचार था कि किसी पारिवारिक या अन्य वजह से गुप्ता जी ने इस संसार को हमेशा के लिए छोड़ने के इरादे से स्वयं को मन्दाकिनी की तीव्र लहरों के हवाले जानबूझकर किया है। निश्चय ही उनके जीवन को कुछ ऐसी विकट समस्याओं ने घेर लिया है जिससे निकलना उनके बूते के बाहर हो गया है और वे इस कदर उनमें फंस चुके हैं कि उन समस्याओं का एकमात्र निदान अपनी जीवन – लीला को समाप्त करना ही रह गया है। उसने कहा , ” क्षमा करें अंकल ! आप कुछ मत कहिये। जब तक आप यहाँ रहना चाहें रहें। आपको कोई तकलीफ नहीं होगी। जब आप उचित समझेंगें , हम आपके यहाँ सकुशल होने की सूचना लखनऊ भिजवा देंगें। ”
गुप्ता जी कुछ देर तक चुपचाप भावहीन मुद्रा में अभिनव की ओर यूँ देखते रहे जैसे उनकी दृष्टि किसी निर्वात पर टिकी हो।
अभिनव थोड़ा अन्मयस्क हो गया और घबरा भी गया। गुप्ता जी को उसकी मनःस्थिति का भान हो गया क्योंकि वे एक भरे- पूरे परिवार के जिम्मेदार और प्रौढ़ व्यक्ति थे। सरकार की अच्छी पोस्ट से रिटायर हुए थे।
उन्होंने अभिनव की ओर मुखातिब होकर धीमी आवाज में कहना शुरू किया , ” बेटा अभिनव ! सबसे पहले तो मुझे उस ईश्वर का धन्यवाद कर लेने दो जिसने तुम जैसा फरिश्ता उस पल मेरे जीवन में भेज दिया जब मेरे जीवन का अंत सुनिश्चित हो चुका था। इस नश्वर संसार की कोई शक्ति मुझे मन्दाकिनी की गोद में समाने से बचा नहीं सकती थी। यह उस ईश्वर का चमकार था कि तुम्हारे माध्यम से मेरा पुनर्जन्म हो गया। मैं जब से तुम्हारे पास इस घर में इस रूप में आया हूँ मैं ईश्वर के उस रहस्य को जानने या समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि आखिर वो वजह क्या थी जो उस अदृश्य शक्ति ने मुझे पहले तो मन्दाकिनी की जानलेवा धारा के हवाले कर दिया और जब मेरे चेतन को यह अनुमान हो गया था कि मेरी जिंदगी की यात्रा का अंतिम पड़ाव आ चुका है , तभी उस शक्ति ने एक चमत्कार किया और उस भयावह स्थिति में मैंने स्वयं को तुम्हारे बलिष्ट कन्धों पर पाया। ”
” पर अंकल आपने तो स्वयं ही स्वयं को किसी खास इरादे से नदी के हवाले किया होगा। जब आपको तैरना नहीं आता तो आप नदी में उतरे ही क्यों ? जबकि आप जानते हैं कि पहाड़ी ढलान पर नदी के जल की गति अत्यधिक मारक होती है। उस जलधारा की गति का सामना कर पाना आपकी आयु में लगभग असंभव है , भले ही आप तैरना भी जानते हों । ” अभिनव ने शंका प्रकट की।
” तुम्हारा कहना ठीक है बेटा। परन्तु वैसा नहीं है जो तुम सोच रहे हो। ” गुप्ताजी ने प्रतिकार किया तो अभिनव की जिज्ञासा और अधिक बढ़ गयी।
गुप्ताजी को लगा , इस अनहोनी के रहस्य से पर्दा उठाना आवश्यक है। अभिनव की शंका का समाधान करना उनका कर्तव्य है।
उन्होंने कहना शुरू किया , ” तुम्हें पता होगा कि मुझे सरकारी सेवा से रिटायर हुए पांच वर्ष हो चुके हैं। संतान के रूप में मेरे पास एक बेटी और एक बेटा है। बेटी बड़ी है और दोनों के बीच आठ वर्ष का अंतर है। मेरी पत्नी शुरू से ही घर का कामकाज देखती है। ”
” सबकुछ तो ठीक है अंकल , घर खर्च के लिए आपको पेंशन मिलती ही है। आर्थिक तंगी है नहीं। फिर आपने यह निर्णय क्यों लिया। ” अभिनव बीच में बोल पड़ा।
” शायद तुम ठीक कह रहे हो कि सबकुछ ठीक चल रहा है। परन्तु हमेशा वो सच नहीं होता जो सबको दिखाई देता है। जीवन सरल हटी से चल रहा हो , तब भी इसे जटिल राह पकड़ते भी देर नहीं लगती। नियति बड़ी बलवान होती है और ईश्वर कभी – कभी , किसी – किसी की परीक्षा लेने से नहीं चूकता। वह ऐसा शायद इसलिए करता है क्योंकि हरेक की नियति एक सी नहीं होती और ईश्वर ने हरेक की नियति स्वयं तय की होती है। ”
” बात कुछ भी हो अंकल , आपको यह स्टेप नहीं उठाना चाहिए था। ”
” पहले मेरी बात को पूरा हो जाने दो। ”
” जी ! कहिये। ”
” अब से लगभग सात वर्ष पहले मैंने अपनी बेटी का विवाह अपने जैसे एक मध्यम वर्गीय परिवार में कर दिया। लड़का सरकारी मुलाजिम था। भले ही उसकी सेलेरी कारपोरेट सेक्टर जैसी नहीं थी परन्तु इतनी कम भी नहीं थी कि घर -गृहस्ती की गाडी न चला सके। मैं सोचता था कि मैंने भी तो अपने घर के खर्चों का वहन इसी तरह किया है। हाँ यह रंज मुझे रिटायरमेंट के बाद हुआ कि अपने कार्यकाल में मैं ऊपर की कमाई के किसी भी अवसर को छोड़ता नहीं था , पता नहीं वो मेरा लालच था या मज़बूरी । खैर उस बात को जाने दूँ तो फिर से अपनी बेटी के विवाह की बात पर आता हूँ। मेरी बेटी ने न जाने किन संस्कारों के वशीभूत होकर अपने ससुराल में अपने किसी भी कर्तव्य का निर्वहन तो दूर , ससुराल के किसी भी सदस्य का सम्मान न करना ही अपनी दिनचर्या बना ली। घर में बिना बात के झगड़े शुरू हो गए। धीरे – धीरे उसने अपने पति का विशवास भी खो दिया और विवाह के दो साल के अंदर वो मेरे घर वापस भेज दी गयी। मुझे उसकी यह अवस्था जहर के घूँट की तरह स्वीकार करनी पड़ी। परिस्थितिओं से समझौता कर इसे ही नियति मानकर मैं फिर से जिंदगी की गाडी को पकड़ने की कोशिश में लग गया। अब मेरा ध्यान बेटे की पढ़ाई पर था। जिंदगी को लेकर मन में बुरे ख्याल आते भी तो उन्हें यह कहकर झटक देता कि जान है तो जहान है। दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। मैं और मेरा परिवार तो उनसे बहुत बेहतर हालत में है । बेटी भी कभी न कभी फिर से सेट हो ही जाएगी। जीवन में सफलता – असफलता तो चलती ही रहती है। ”
” आपने ठीक कहा और सोचा , अंकल। तो फिर !”
” फिर क्या ! अभी जिंदगी के इम्तहान ख़त्म कहाँ हुए थे। हुआ यह बेटा कि अचानक मेरी तबियत बिगड़ गयी। मुझे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। वहाँ मेरे कुछ क्लिनिकल टेस्ट हुए और मुझे बताया गया कि मेरे दोनों किडनी फेल हो चुके हैं। मेरी आयु अधिक से अधिक मात्र छह माह शेष है। जिंदगी को लम्बा करना है तो किडनी ट्रांसप्लांट के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। यदि मैं अधिक समय तक जीवित रहना चाहता हूँ तो मुझे किसी किडनी डोनर कि व्यवस्था करनी होगी और वह कोई और नहीं , या तो मेरा बेटा होगा या फिर मेरी बेटी। मेरे लिए इसकी स्वीकृति देना असम्भव था क्योंकि मेरी खुद की जिंदगी दांव पर लग चुकी थी , अपने लिए मैं अपनी संतान को मृत्यु के द्वार पर खड़ा नहीं कर सकता था । ” गुप्ताजी की आँखों में अब तक आंसू आ चुके थे।
” इसलिए आपने निर्णय किया कि अपनी जीवन लीला को ही असमय समाप्त करके , जीवन में सभी प्रकार की दुविधाओं से मुक्ति पा ली जाय । ”
” तुम्हारा यह सोचना गलत नहीं है परन्तु ऐसा था नहीं। मुझे शरीर छोड़ना ही होता तो मैं परिवार से दूर नहीं भागता। वहीँ इस काम को चुपचाप कर गुजरता। मैं जानता हूँ कि मेरे जाने के बाद कुछ दिन रोने – धोने के बाद सभी चुप लगा जायेंगें । ”
गुप्ताजी का यह उत्तर पाकर अभिनव चौंक गया और उसकी निगाहें फिर एक सवाल में बदल गयीं।
गुप्ताजी कुछ देर तक रुकने के बाद फिर से बोलने लगे , ” डाक्टर द्वारा अपने शरीर की दयनीय हालत जानकर मेरी मानसिक स्थिति डांवांडोल हो गयी। जीवन के प्रति लगाव से मैं विरक्त हो गया। नीरसता और अवसाद ने मेरी सामर्थ्य को पंगु बना दिया। डोनर मिलना मुश्किल था और अगर मिल भी जाता तो इलाज की लम्बी प्रक्रिया के साथ दर्द और तकलीफ को झेलना मेरे लिए असम्भव था। यदि मैं इस त्रासद अवस्था से लड़ने का निर्णय कर भी लेता तो भी जो धनराशि मुझे खर्च करनी पड़ती , उसे जुटाने के लिए मुझे अपनी सारी जमा पूंजी को फूंकने के बाद भी एक बड़े कर्ज की व्यवस्था करनी पड़ती। इन सब उपायों के बाद भी मुझे जिंदगी के कितने साल मिल पाते , इसकी कोई गारंटी किसी के पास नहीं थी। ”
” अंकल इसीलिए आपने सभी कष्टों से मुक्ति के लिए इस निर्जन गाँव में मन्दाकिनी को चुना। ” अभिनव ने एक बार अपनी बात को दोहराया।
” नहीं बेटा। मैं हताश जरूर था , अवसाद में भी घुल रहा था परन्तु एक बात मेरी फेवर में जा रही थी कि न जाने किस शक्ति के वशीभूत होकर मैं लगातार स्वयं से प्रश्न कर रहा था कि क्या कारण है कि मेरे शरीर के एक महत्वपूर्ण अंग ने मेरा साथ देने से मना कर दिया है जबकि स्वस्थ रहने के सभी प्रयास मैंने हमेशा किये हैं ? मुझे अपने इस प्रश्न का कोई उत्तर कहीं भी मिल नहीं पा रहा था। बहुत सोचने के बाद भी मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तब अचानक मुझे लगा कि यह शरीर प्रकृति की देन है। क्यों न अपने प्रश्न का उत्तर प्रकृति से ही लेने की कोशिश करूँ। तब मैं घर में बिना किसी को बताये इस स्थान की निर्जन और पवित्र स्थान की पहाड़िओं के लिए चल पड़ा , जहाँ मैं असीम शांति के कुछ पल पा सकूँ । यहाँ आने से पहले मैंने अपने शरीर और उसमें कार्यरत अंगों के दान का करार एक मेडिकल कालेज से कर दिया है। मैं चाहता हूँ कि मेरी जिंदगी के अवसान के बाद मेरा शरीर और उसमें कार्यरत अंग उस मेडिकल कालेज को सौंप दिए जाएँ । ”
” अंकल आपने तो वास्तव में नियति को भी मात दे दी है। परन्तु आप तो मन्दाकिनी में बह गए थे। अगर ऐसा हो जाता तब आपके बाद आपकी इच्छा कैसे पूरी होती ? ”
” हाँ बेटा ! तुम ठीक कह रहे हो। मेडिकल कालेज में शपथ पत्र देने के बाद मैं शांति की खोज में यहाँ आया था परन्तु मन्दाकिनी के किनारे जब मैं चिंतन कर रहा था तब अचानक एक तीव्र जलधार ने मुझे नदी के अंदर फेंक दिया और उसके बाद क्या हुआ , यह तुम जानते हो। ”
अभिनव के पास अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे। वह तय नहीं कर पा रहा था कि गुप्ता अंकल को लेकर वह क्या करे या कहे। क्या इसे गुप्ताजी द्वारा लिया गया इच्छा मृत्यु का निर्णय समझ ले और वह भी मानवजाति के लिए।

सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
डी – 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन
साहिबाबाद ( ग़ज़िआबाद ) : उत्तर प्रदेश – भारतवर्ष – पिन : 201005

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