18वीं सदी की एक जादुई रात
चुहचुहाते पसीने के बीच दर्द की उठती लहर. बार-बार ऐंठ जाती करमी की पूरी देह! लुग्गा किधर, खुद किधर, पता ही नहीं चल रहा था. बस, बार-बार दरद-पीडा़ से मुँह सूखकर छुहाड़ा हो जा रहा था. सब कुछ अंधेरे में डूबा हुआ लग रहा था. एकाएक सारा गाँव चमक से भर गया. सब तरफ उजियारा ही उजियारा! करमी की देह में उठती दरद की लहर ठहर गई. उसके घर में एक अलौकिक बालक ने जन्म लिया है, यह बात वह उस समय तो नहीं समझ सकी पर जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगा, उसमें एक तेज की झलक मिलती.
उसे कभी घबराहट होती, कभी गरब करती- उसका छौव्वा आउर छौव्वा लोग से अलग है. उस झोपड़े में वृहस्पतिवार को जन्मने के कारण वह बालक बिरसा नाम से प्रचलित! धीरे- धीरे कोंपल मजबूती धारण कर रहा था. बड़ी-बड़ी बोलती आँखें. साँवला सलोना गात. खुले बदन गाय, बकरी की चरवाही करते हुए घंटों बाँसुरी बजाता. न उसे बाघ से भय लगता, न भालू से. आस- पास ही हिरण, सियार, हुंराड, बनैला सूअर घूमते रहते. बिरसा की बॅंसरी की तान में वे भी मस्त. गाँववाले तो दीवाने थे ही. यह देख-देख करमी और सुगना का हिया जुड़ा जाता.
जिस धरती में ‘सेन गी सुसुन, काजी गी दुरंग’ अर्थात ‘चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत’ था वहाँ का लाल नृत्य- संगीत से अलग कैसे रह सकता था. वह टुइला एक वाद्य-यंत्र भी बजाता, फिर वही, जंगल के जानवर-पंछी सब पास डोलने लगते.
उसका काला उघरा बदन सूरज की जगमग रोषनी में नहाता चमकता रहता. वह काला भुजंग छोकरा. जंगल-जंगल, डगर-डगर फिरते हुए धीरे-धीरे वह बड़ा हो रहा था. कभी-कभार माय करमी उसे पोखर ले जाकर रगड़-रगड़ कर निहलाती और खुद भी निहाती. फिर अपने इष्ट को प्रणाम करती. वह अपलक देखता रहता.
जंगल में पहरेदार से खड़े बड़े- बड़़े गाछ के कारण अॅंधियारा छाया था पर आउर छौव्वा मन के साथ आठ बरिस का बिरसा बेखौफ होकर जंगल में हेल गया. उसका बाप सुगना ने उसके अंदर से जंगल के भय को एकदमे निकाल दिया था. घर के छप्पर पर खोंसी गई बाँसुरी उठा वह चल दिया जंगल. पेड़ तले बैठ होंठों से बाँसुरी लगा ली. रस की धार बहने लगी. का सुग्गा, का मैना, का बया-गौरैया, क्या हरियल पंछी सभी उड़-उड़ कर इस डाल से उस डाल बैठने लगे. कोई उड़कर नहीं गया. लगा, संगीत की रसधार में वे भी उभ- चुभ कर रहे हैं. उसने अपनी धोती को जांघों के पास से मोड़ कर बाँधते हुए सर उठाकर देखा. आसमान पर कारे बादर छा रहे थे. निर्मल-नीला आकाश पल भर में मलिन. वह घर जाने के लिए उठ खड़ा हुआ. उसने फेंटा में वंशी को बाँधा. और चल दिया मवेशियों को समेटने.
सुगना को बड़ा शौक कि बेटे को पढ़ा-लिखाकर आदमी जइसन बनाए. ई चरवाही में बिरसा को भी कहाँ मन लगता था. उसे लेकर पैदल ही सुगना चाईबासा पहुँचा. चाईबासा के सलगा नामक सकूल में जब नाम लिखा दिया, तबे उसको चैन पड़ा. पर हुँआ से ही बिरसा का जिनगी में नया मोड़ आएगा, वह बिगड़ जाएगा, यह वह नहीं जान पाया. वहाँ रहते हुए बिरसा जब-तब उ गोरा लोग का ज्यादती की बात सुनता या भेदभाव देखता. उसका खून खौल जाता.
एक दिन तो विचितर बात हो गई. उस दिन बिरसा कुछ सोचते हुए एक रास्ते पर चला जा रहा था कि पैरों के पास बूटों की चमक दिखलाई पड़ी. उसने नज़र उठाई. वह चैकन्ना होकर देखने लगा. अपलक और बेखौफ!
‘‘ ऐई, यह रास्टा किडर को जाटा हाय?’’ एक गोरे ने राह काटकर उससे पूछा.
बिरसा का तरवा का लहर कपार पर. इन गोरी चमड़ी और नीली आँखोंवाले गोरों से उसे बेतरह चिढ़ हो आई थी.
‘‘ ई लोग ही उसके आदिबासी साथियों का मजाक उड़ाता है. ई लोग ही इतना हड़बोंग मचाता है. हमरे देश में आकर हमीं को सताता है. ’’ वह अक्सर कहता.
बिरसा पहले से ही खफा था. उसकी बेखौफ आँखें गुस्से से लाल हो उठीं.
‘‘ हमसे ई छोटे से रास्ते के बारे में मत पूछो. जब हाम बड़ा होंगे, तुमको तुम्हारा असली रास्ता बता देंगे. सात समुंदर पार जाने का रास्ता!’’
किशोर बिरसा की अकड़ से भरी बात. अंगे्रज की तिरछी निगाह उस पर गिरी. इसकी आँखों में चिंगारी. उसकी आँखों में भी. चिंगारियों की टकराहट आगे क्या रूप लेगी, उस समय कहना मुश्किल था. फिर दोनों अपनी-अपनी राह लग गए.
सलगा की धरती पर मिशन स्कूल में पढ़ते हुए उसके अंदर ही अंदर बहुत कुछ सुलगता रहा. बस! वह अपने बड़े होने का इंतजार करने लगा. नित्य अपने पुट्ठे देखता, भीगती मसों को सहलाता. अंदर की धधकती आग से झुलसने लगता उसका तन-मन. संकल्प की तलवार पर धार चढ़ने लगती. उसका चेहरा तमतमा उठता, जब भी वह बग्घी या घोड़े पर सवार चुस्त-चैकस गोरे को देखता. उनके कलफ लगे टंच कपड़ों को वह नफरत से देखता रहता बहुत दूर तक. इस छोटे बालक की नफरत पर निगाह नहीं पड़ती उनकी.
किशोर बिरसा का पंद्रहवाँ साल! कद-काठी में मजबूत! उसके अंदर धधकती क्र्रांति की ज्वाला! धुंध भी! क्या… कैसे…कब की उहा-पोह! लेकिन ज्यादा देर नहीं रही धुँध. कोहरे की चादर फटते ही उसके सामने सब कुछ एकदम साफ.
‘‘हे सिंगबोंगा हम तुमरा कसम खाकर कहते हैं कि जब तक इन अंगरेजों को सात समंदर पार नहीं भेजेंगे, चैन से नहीं बैठेंगे.’’
उसने मन ही मन ठाना. उसने अपनी जिंदगी का लक्ष्य निर्धारित कर लिया था.
सहपाठी कहते – ‘‘उसके अंदर एक उजर आतमा है!’’
सब धर्मों के प्रति आदर! चाईबासा स्कूल छोड़ने के बाद बनगाँव के जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशी ने सहारा क्या दिया, मानो एक नई राह खोल दी. रामायण-महाभारत के किस्सों से, तुलसी-चंदन से उसका नाता जुड़ने लगा. हिंदुओं की पूजा-अर्चना में उसका भी मन रमता. सनातन धर्म के प्रति गजब खिंचाव! वह आनंद पांडेय के द्वार पर जा पहुँचा. उस समय सांध्य का झुटपुटा. वे संझा- बाती करके उठ ही रहे थे कि बिरसा के आगमन की सूचना मिली. उन्होंने तुलसी चैरे पर रखे दीए से आरती ली और बाहर चल पड़े. बिरसा की ख्याति फैलने लगी थी. नाम से अनजाने न थे.
‘‘सनातन धर्म क्यों ?’’
उन्होंने घूरकर आदिवासी नवजवान को परखा. उन्हें बिरसा के बात-व्यवहार में कुछ ऐसा अजूबा दिखा, वे तुरंत तैयार हो गए.
उसकी शिक्षा- दीक्षा शुरु! बिरसा ने जनेउ धारण किया. तुलसी की पूजा भी करने लगा. अपने काले भाल पर जब वह चंदन का टीका लगाता तो पूरा चेहरा दमक उठता. दो सुंदर, बड़ी- बड़ी आँखों के बीच दमदमाता चंदन औरं मन में सनातन धर्म को और जानने की प्रबल इच्छा! वैष्णव पंथ से अप्रतिम लगाव! बढ़ता ही रहा यह जुनून! और इस जुनून ने उसके सोच की धारा बदल दी. उसे अपने समाज की खामियाँ दिखलाई पड़ने लगी. वह उन खामियों को बदलने की फिराक में रहने लगा. स्वाध्याय और मनन-चिंतन बढ़ता गया.
पठार की धमक
छोटानागपुर के पठार में एक अजीब सी खा़मोशी. बिरसा के कदमों की धमक उसके पहाड़ों, जंगलों, खाईयों के भयावह सन्नाटे को भंग का रही थी. केवल पेट के सफर में लीन मुण्डाओं के अंदर एक आग धधकाने का काम बिरसा ने अपने जिम्मे स्वेच्छा से ले लिया. आदिम जातियों में भी शिक्षा का अलख जगाने की आवष्यक्ता है, पर कैसे? वह एकांत में कुछ सोचने की चाह में एक चट्टान पर जा बैठा. बगल की छोटी-सी चट्टान पर पैर टिका लिए.
‘‘क्या किया जाए जो इन लोगों की सोच बदले. ये पढ़ना- लिखना सीखें, बेकार के अंधविष्वास से उनका पीछा छूटे. तनिक आदमी बने सब.’’
वह माथे पर हाथ रखे लगातार सोचे जा रहा था. इन्हें जमींदारों के अत्याचार और प्रकोप से भी बचाना है. वह चट्टान पर ही पसर गया. थोड़ी आँख लग गई. शाम का ललहुन सूरज दूर पहाड़ पर छिपने की तैयारी कर रहा था. जंगल में अंधेरा उतर आया था. थेाड़ी- बहुत लालिमा छन-छन कर आ रही थी. उसी समय उनके सामने इंजोर छा गया.
उसे लगा, वह सिंगबोंगा सूर्य का दूत बनकर आया है. सिंगबोगा ने हर वस्तु दी है. वह इतना शक्तिमान हो गया कि सब कुछ ठीक कर सकता है. हर तरह की प्रताड़ना से अपने लोगों को छुटकारा दिला सकता है. उसे बीमार को स्वस्थ करने की ताकत भी सिंगबोंगा ने दे दी है. दिकुओं-जमींदारों, गोरों से लड़ने की ताकत भी. उसने अपने अंदर एक कल्पनातीत परिवर्तन महसूस किया. उनके मन- तन में उत्साह का ज्वार. उसने काम की शुरुआत करने की ठानी और लगभग दौड़ते हुए जंगल के अंधेरे से बाहर के उजाले की ओर चल पड़ा. बरसात के कारण सब तरफ कीचड़ ही कीचड़! गिरते-संभलते, ढूहों से रपटते हुए जंगल के बाहर आया. उसे इसी तरह राह बनानी है.
उसने अपने परम मित्र से कहा- ‘‘कुछ लोगों को लेकर एक दल बनाया जाए. उस दल में मेहनत से काम करनेवालों को रखा जाए.’’
‘‘ हाँ, यह ठीक रहेगा. ’’
‘‘ सबको मिल-जुल कर जमींदारों की ज्यादती से लड़ना सिखाया जाए. फिर ई अंगरेज लोग को भी मार भगाया जाए. ’’
‘‘ मेहनत काफी करनी पडेग़ी. ’’
‘‘ मेहनत से कौन डरता है? ’’
धीरे-धीरे अन्याय के लिए उठे उनके कदमों को हजारों का साथ मिल गया. दिन-रात सभा- गोष्ठी में ही बीतने लगा. चमचमाते चेहरे की आभा से सभी दंग रह जाते. घुटनों के पास से मोड़कर पहनी गई धोती में सौम्य पर बलि ठ बिरसा. बड़ी-अड़ी आँखें, गठीला बदन, दमकता भाल देखकर ही सब लोग सुध-बुध भूल जाते. बिरसाइतों की संख्या बढ़ने लगी थी.
‘‘ का रे बिरसा ऐही दिन ले हमलोग तुमको जनम दिए थे? ’’
‘‘ अरे तू ई सभा- जुलूस में लगल रहेगा तो कौन हमारा सहारा बनेगा. ’’
माय समझाती, बाप भी. उस पर तो समाज सुधार एवं देशप्रेम का दौरा पड़ा था. कनघ्टियाकर सब सुनता रहता.
‘‘ ई छौड़ा हाथ से बेहाथ हो गया करमी. ’’
‘‘ हाँ रे! ’’
सुगना अलग सर धुनता. बिरसा के लंबे बालों में जुएँ न थीं शायद. माय बाबा की बात मान वह केवल अपने काम से काम नहीं रख सका. उसका उद्देश्य बड़ा. वह अपने समाज के प्रत्येक जन में आत्मसम्मान, गौरव, आत्मविश्वास, देशप्रेम भरना चाहता था.
‘‘ आप काहे नहीं समझते हैं, हमरा जन्म खाली कमाने, खाने और मर जाने के लिए नहीं हुआ है. हम जंगल के सारे वाशिंदों की हर तकलीफ में शामिल रहना चाहते हैं. उनकी बीमारी-हारी सबमें स़ाथ. सबका दुख दूर करना ही हमारा धर्म है.’’
वे दोनों भक्! उसकी ओर ताकने लगे. ऐसा सोचा न था. बेटे के लिए बस एक छोटा-सा सपना ही तो संजोया था.
‘‘ कानू तेरा देखभाल करेगा. ’’ उसने अपने भाई की ओर इशारा किया. उसकी बहनें चंपा, कोम्मा और दसकीर भी माय- बाबा को देख लेंगी, उसे विश्वास था.
वह उठकर किनारे चला गया. पीछे खड़े रह गए माय-बाबा की आँखें लोर से भर गई. वह गिरिजा के बीमार छौव्वा को देखने के लिए आगे बढ़ गया. उसे बहुत-सी निराश आँखों का लोर पोछना था.
हजारों की भीड़! भीड़ का नेता बिरसा. नंग-धडंग लोग भूखे-प्यासे ही उसकी बात सुनने, बात मानने के लिए जुट आए थे. उसकी धीर-गंभीर आवाज गूँज उठी.
‘‘ तुम सब मत घबराना हम हैं. बस हम जैसे बोलते हैं, वैसे अपने रीति -रिवाज, खान-पान, पूजा-पाठ में बदलाव लाओ. हम चाहते हैं, सारा आदिबासी एक हो जाए. जैसे-एक हार में खूब सारा मोती, जैसे एक पलाश का पेड़ में बहुत सारा फूल! जैसे एक डारी पर ढेर सारा पतय! जैसे एक मुनगा में ढेरों सहजन. का समझे ? ’’
‘‘ सब मिल कर अपना कुरीति- अंधविश्वास को दूर करेा. ’’
‘‘ अपना देश को आजाद कराने के लिए अपनी जान लगा देा. हर बात में बदलाव लाना जरुरी है. इसके बिना हमें न अपना देश मिलेगा, न अच्छी शिक्षा, न बीमारी से छुट्टी. हमको दिकू-से भी लड़ना है और गोरों से भी. ’’
बिरसा की आवाज जादू सा कार्य करती.
‘‘ आओ आज हम जंगल का कसम खाते हैं कि जब तक हम…’’
‘‘ …..धरती आबा…धरती का पिता के जय! भगवान बिरसा के जय.’’
पूरा वन पंरातर उनके जयजयकार से थर्रा उठता. देखते-देखते वह कब धरती अबुआ बन बैठा, उसे पता ही नहीं चला. लोग भगवान कहते, उसें अच्छा लगता. भगवान बनकर ही वह लोगों को बचा सकता था. तुरही, सिंगा वाद्य-यंत्रों की आवाज के बीच युद्ध के नगाड़े की भी आवष्यकता महसूस होने लगी थी.
‘‘ई तो हमारा फर्ज है. हमारे उपर अपनी जमीन का कर्ज है जिसे हमको उतारना है.’’
चमत्कारों के किस्सों से भर रही थी सबकी झोली! अंग्रेजों के दमन, जमींदारों, इजारदारों बीमारी, अकाल के कोप से कोई बचा सकता है तो वह बिरसा है, ऐसा विश्वास उन बेबसों को हो गया था. उसकी बात मानकर वे अन्य बेांगाओं से भी दूर हट रहे थे. कई-कई बोंगाओं अर्थात वन देवताओं को माननेवालों को वह मात्र एक सिंगबोंगा की आराधना करने के लिए प्रेरित करता.
‘‘ सिंगबोंगा पूरी कायनात का संचालक! यह सर्वोत्तम, सर्वशक्तिमान, सृजनकर्ता तथा जड़-चेतन का का पोषक है. इस प्रकाश के देवता के सिवा किसी की पूजा न करें. ’’
. ‘‘ असंख्य बोंगाओं की नहीं, बस एक ईश्वर की पूजा करना उचित है.’’
‘‘ भैंस, मुर्गा, बकरा किसी जीव का बलि देना पाप है. सभी जीव को जीने का अधिकार है. जीव-हत्या बंद करो ’’
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एक बार जंगल से लकड़ी लेकर जैसे ही सोम मुण्डा लौट रहा था , फुफकारता हुआ एक सांप सामने आ गया. एक पल के लिए तो वह डरा. फिर हिम्मत बाँधी. हुस्स! हुस्स!! और गोटे लकड़ी को उस पर पटक दिया. साप हुँए ढेर!
पर एक दिन बिच्छू से खेलते रहनेवाला सागू उसकी जहर की चपेट में आ ही गया. अपने पूरे हाथ-पैर पर बिच्छुओं को रखे रहता. वे इधर- उधर घूमते हुए उसके शरीर में गुदगुदी भर देते. लेकिन जात तो बिच्छू का. एक साथ पांच-छह बिच्छुओं ने काट लिया. बिख गोटे शरीर में फैल गया. दौडत़े हुए अपने बेटा के आगे आकर गिर गया. आनन-फानन में उसे ओझा से झाड़- फूंक करवाने ले जाया गया. ओझा झाड़-फूंक का लाख उपाय करे, बिख उतरे ही नहीं, चढ़ता ही जाए. अंत में सागू मर गया.
बिरसा बाहर था. लौटकर आया तो सारी बात मालूम हुई.
इसी तरह कुछ दिन पहले जड़ी देकर बुखार चढ़ा था गामा को तो वह अॅंट-शँट बकने लगा था. सबने ‘‘उसको भूत पकड़ लिया ’का.’’ हल्ला मचा दिया.
उस दिन भी संगठन के काम से बिरसा बाहर था. जब लौटकर आया, ओझा की झाड़ू की मार खा-खाकर गामा दम तोड़ चुका था. बिरसा को अचानक याद आया, ऐसे ही एक गरीब दुखियारिन विधवा को लाठी से पीट-पीट कर मार दिया गया था. और लोग चिल्ला रहे थे-
‘‘ कुकी डाइन थी. कुकी डाइन खा गई उसको.’’
उस दिन बिरसा जमकर बरसा.
‘‘ ई डायन-बिसाही सब बेकार बात है. भूत-वूत कुछो नय होता है. सबसे पहले सबको ई बात समझना होगा, तभी कुछो अच्छा काम कर सकते हैं. समझा बुड़बक-बकार सब!’’
‘‘ ओझा-मताइन पर भरोसा मत करेा.’’ वह कब से यह बात कह रहा है.
‘‘ हडि़या दारू मत पियो.’’
आखिर सागू उसका साथी था. उस दिन से ही वह इन आदिवासियों के अंधविश्वास से लड़ने की सोचने लगा था. सागू मुण्डा का चेहरा रह-रहकर उसके सामने आ जाता. मुण्डारी गीत गाते हुए जब सागू नाचता, बिरसा उसे अपलक देखता रहता. वह समझ गया, उसे बहुत लंबी लड़ाई लड़नी है.
‘‘काश ! हम आज गाँव में रहते. जड़ी-बूटी से ही उसको ठीक कर देते.’’
वह चिंतित हो एक आम के पेड़ के नीचे जा लेटा. कैसे सुधारे, कैसे समझाए ? आम के मंजराने के दिन थे. बगल की एक झुकी डाल पर उसने अपना मुरेठा और तीर-धनु टाँग दिया था. साथ में संगठन के एक-दो साथी भी थे. कुछ ही देर में उसका ध्यान सामाजिक समस्याओं से हटकर राजनीतिक समस्या की ओर मुड़ गया.
‘‘ अपना खूॅंटकुटी अधिकार आदिवासियों को छोड़ना पड़ा. जमींदार, दिकू लोग बेईमानी से सिकरी सोनोंग के द्वारा जंगल-झाड़, परती जमीन, मझियस जमीन छीन लिया. सबको सबक सिखाना होगा. गलत नापी से हम जंगली लोगों का जंगल तक छीन गया. ’’
‘‘ हमें अपना हातु बचाना है. कैसे भी.’’
जब मुण्डा लोग असुर लोगों से अलग होकर यहाॅं आए, झाड़- झंखाड़ों को काटकर समतल जमीन तैयार कर वहाॅं रहने लगे. वही हैे खॅंूटकटी हातु. सबका अपना-अपना हातु .
उसकी नाक से एक छोटा टिकोरा टकराकर जमीन पर जा गिरा. उसने उसे उठाकर अपने मजबूत दाॅंतो के नीचे कुचला तो एक कसैला स्वाद मॅंुह में भर गया.
‘‘यह सब जल्दी कुचल देना होगा. सब तरफ धीरे-धीरे आग सुलग रही है. बस, हवा देने की जरुरत है.’’
उसके साथ सबकी नसें फड़फड़ा उठीं. गाछ की डाली पर लटके तीर-धनु को कंधे पर लटकाकर वह पोखरा की ओर चल पड़ा. उसके पैरों की तेजी से कई पाखी फड़फड़ाकर उड़े. फिर वापस अमलतास, षीषम, कुसुम, सागवान, षाल के गाछों पर जा बैठे. अहरा के किनारे बैठे पोड़की टुकुर-टुकुर ताकने लगे. खेतों में लगी फसलों ने सहमकर हवा की ताल पर झूमना बंद कर दिया.
अंग्रेजों के दाँत भी खट्टे हो रहे थे. उनका दमन जितना बढ़ता, विरोध के स्वर उतने ही तीखे!
‘‘ दिन में ही तरेंगन दिखला देंगे, जल-जंगल, जमीन नहीं देंगे.’’
पहले विरोध अहिंसात्मक! साथियों की जिद ठुकराकर अहिंसा की छॅाव तले ही पनपता गया था पहले आंदोलन! फिर दिकुओं-अंग्रेजों के विरोध में छिड़ा अहिंसात्मक युद्ध भयंकर होता गया. बाद में अहिंसात्मक भी. उलगुलान…संपूर्ण क्रांति का बिगुल बज चुका था.
अबुआ राइज एटे जना, दिकू राइज टुंडू तना
नगाड़ा!…एक बड़ा सा नगाड़ा बज रहा था……ढम!…..ढम!…..ढम! लोग जमा होने लगे। भीड़ बढ़ती गई।
‘‘ अबुआ राइज एटे जना, दिकू राइज टुडू तना…..हमरा राज आ रहा है, दिकू राज खत्म होनेवाला है।’’
सबके अंदर एक अजीब तरह की खुशी। बिरसा के हजारों चेलों के अंदर विश्वास की गहरी पर्तें ! जिन साथियों के साथ धूल-धुसरित हो वे पले-बढें, जिनके साथ कई बार साल, सेमल महुआ, पलाश के गंध से सराबोर हुए। जिन कंकरीली-पथरीली रास्तों पर मगन हो खाली पैर दौड़कर जंगली राहों की दूरियाँ नापी थी, आज उन्हीं लोगों के आगे सूरज भगवान की तरह चमक रहा था। सब चेला चपाटी धनुख को उठा जब तीर चलाता, क्या मजाल जो एक भी दुश्मन बचकर निकल जाए।
एक दिन अपनी तलवार की म्यान पर हाथ रखते हुए गरजा एक अंग्रेज अधिकारी –
‘‘ये बिड़सा गॉड कैसे हो गया। वह मैडमैन… उसको सब गॉड बोलटा। उ काला आडमी! उसे पकड़ना मांगटा। नाय टो ई हमारा हानि कर सकटा हाय।’’
उसके साथियों ने भी बिरसा का यह ताकत और साहस महसूस किया था। ‘‘इसने सबको टैक्स देने नहीं डिया। ब्रिटेन का शासन मानने से इंकार करटा। सारा आडिवासी उसके टरफ हाय। उ जंगल में आग लगाने का ताकट रखटा हाय। उसको अरेस्ट करने को जरुरट हाय। ’’
‘‘आब हमारा हुकूमट उसका अरेस्ट का कब ऑर्डर देगा? डेर करने से उ मैडमैन को पकड़ना कठिन होगा।’’
दूसरे ने हाँ में हाँ मिलाई। सबकी नजरों में बिरसा चमत्कारी व्यक्ति था। अंग्रेज उसे पागल साबित करने पर तुले थे। अति आधुनिक हथियारों के आगे उलगुलान के वीरों के वे परंपरागत हथियार क्या कहर ढा सकते हैं, इसका अंदाज अंग्रेजों को करा दिया गया था। डरे हुए आतताईयों ने बिरसा की गिरफ्तारी का फरमान जारी कर दिया। उसको गिरफ्तार करने के लिए फौज की टुकड़ी जंगल-जंगल, गाँव-गाँव मारी-मारी फिरने लगी। कंदराओं की खाक छानी जाने लगी। दमन का चक्का तेज गति पकड़ने लगा। कितने मासूम-निर्दोशों को जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। भय की कुहेलिका में डूब गए सब। मन के भीतर भी जंग छिड़ गया।
बिरसा ने अपनी धोती को सदा की तरह उलटकर घुटने से उपर बाँधी, मस्तक पर चंदन का टीका लगाया. अपने सफेद मुरेठा पगड़ी को कसकर सर के चारों तरफ लपेट उठ खड़ा हुआ. आज लोगों को समझाना जरुरी. अनुयायियों की हिम्मत पस्त हो सकती है. उसके कंधे पर धनु की डोर लटकने लगी और कंधे पर तरकश. कुछ ही देर में वह साथियों को संबोधित कर रहा था-
‘‘ भय मत करो. मेरा शासन आरंभ हो गया है. उनकी बंदूकें काठ में बदल जाएँगीं. गोलियाँ पानी के बुलबुले बन जाएँगीं. अंग्रेज मेरे राज को धमकी दे रहे हैं, देने दो. बिना डरे उन्हें सबक सिखाओ.’’
उसने पहलू बदला. कमर पर हाथ रख कहता गया- ‘‘सभी चीजें आदिवासियों की हैं. लगान क्यों दे हम? कोई लगान नहीं देगा.’’
कुहू…कुहू… कोयल की कूक! पूरे जंगल में एकदम सन्नाटा छाया था. अनगिनत आदमियों के रहते बस उसकी आवाज गूँज रही थी. चिडि़या, कोयल, गौरैया, सुग्गा की महीन मीठी आवाजें उसका साथ दे रहीं थी. मोर भी गोल-गोल घूमे जा रहे थे. उसके खूबसूरत नृत्य में मानो हामी छुपी थी. मोरनी अलग मगन!
‘‘तुम लोग डटे रहो. इन गेारों से अपना राज छीनने के लिए. अपनी सब कमी से लड़ते रहने के लिए भी.’’
रात में थक कर बिरसा बहुत दिनों बाद गहरी नींद सोया. कई रातों से उसकी आँखें झपकी तक नहीं थीं. उसे बाघ-भालू से भी लड़ना पड़ रहा था, मसीहदास एवं दाउद नामों से भी. बिरसा के पिता ने इसाई धर्म कबूलकर अपना नाम मसीहदास रख लिया था, बिरसा को भी लड़कपन में ही धर्म परिवर्तन करा दाउद नाम दिया गया था. कई लोग इससे चिढ़े हुए थे. धर्मांतरण के कारण आदिवासियों की नजरों में अलग खटकता रहा था उ और उसका बाप! सिंगबोंगा की पूजा करते हुए, ईसाइयत से विरत, जनेउ धारी वह वैष्णव लड़का सरना धर्म को अपनाने के चलते ईसाइयों के दिलों का काँटा भी था.
‘‘ ई छौंड़ा भगवान धर्म अपना लिया हय. इसका बात कउन सुनेगा. आउर अइब खुदे भगवान बन गिया हय. ’’
अंदर ही अंदर गुस्सा सुगबुगा रहा है, यह बात बिरसा समझता है.
पर अब उसके सामने एक बड़ा लक्ष्य है. अपने इलाके को फिरंगियों से आजाद कराना ही उसका असली मकसद है. वह क्र्र्रांति की बातों के अलावा और किसी बात पर ज्यादा सोचना नहीं चाहता.
‘‘आजादी पाना है. अंगरेजों को मार भगाना है, हमरा पहला उद्देष्य यही है. अब ई जैसे मिले.’’
‘‘ हमको हमारा मकसद में कामयाब करो.’’
सिंगबोंगा के आगे उसके हाथ खुद-ब-खुद जुड़ गए. आकाश में ललहुन सूरज की चमक से उसकी काली देह जगमगा उठी.
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‘‘अइब कउन है जे हमरा रासता रोकेगा. ई बढ़हर, आम, केरा, सखुआ, सेमल, कुसुम गाछ के एक-एक डारी पर हमरा हक है, हमरा…ई उड़द मों, कुरथी मों, गोंदली मों, धान मों गेहुम मों सब पर बस हमरा अधिकार!’’
भरमी मुण्डा सबसे कहता.
‘‘ बिरसा हमरा तकलीफ दूर करने आया. हम मुण्डा को बहुत सता लिया सब. अब कोई नहीं. बिरसा का एक-एक ताली का अरथ गोटे जानवर-पाखी, जंगल का हर जीब समझता है. गाँव का हर आदमी समझता है. ऐही हमरा लोग के लिए सबकुछ कर सकता है.’’
साँवला भरमी, बिरसा का एक विशेष साथी. संगठन का महत्वपूर्ण सदस्य. खाली बदन, खाली पैर ही मंजिल की ओर पूरे दम-खम से बढ़ते हुए जब शैल रकाब पहॅुंच गया, तब उसका ध्यान उन सब बातों से हटा. साथियों की जिद टाल पाना उसके वश में नहीं रहा. सशस्त्र क्रांति की मांग को अहिंसक बिरसा टाल नहीं पा रहा था. नहीं भूलता भरमी वे दिन.
मुण्डाओं की विशाल भीड़ में बिरसा ने शैल रकाब डोम्बारी बुरु में सशस्त्र क्रांति का आहवान किया. वे एकदम तैयार. कपिल मुनि की गाय कामधेनु के खुरों से सशस्त्र मुंडाओं का जन्म हुआ था. वीर मुंडा तीर-धनु के साथ ही पैदा हुए थे. सारे मुंडाओं ने तीर-धनुख हाथ में उठाकर बिरसा का साथ निभाने का पक्का संकल्प लिया. बिरसा ने सबको बताया-
‘‘खूंटी से राँची तक एक साथ चढ़ाई करनी है. सबका तीर पर सान चढ़ा है न?’’
‘‘ हाँ! हाँ!! ’’ हजारों आदिवासियों का हथियार कुठार, भाला, पत्थर एवं लाठियाँ भी तीर-धनुख के साथ लहरा उठीं.
नंगे बदन, सिर पर सफेद पगड़ी और घुटनो तक धोतीवाले तीर-धनुख से सजे वीरों ने लड़ने एवं मरने की ठान ली. अब तक गुप्त बैठकों के जरिए बननेवाले कार्यक्रम खुलेआम सामने आ गए. विरोध का स्वर आक्रमण में बदल गया. और सब जगहों पर एक साथ किए गए आक्रमण ने अंग्रेजों को उस पागल की ताकत का अंदाजा दे दिया. तीरों-कुल्हाडि़यों, फरसा की मदद से जोश परकाष्ठा पर. 24 दिसम्बर 1899 की रात को राँची क्लब में क्रिसमस मनाते अंग्रेजों की बोलती बंद. चर्चों, मिशनरियों, क्लबों पर एक साथ आक्रमण. कितने घरों की होली जला दी वीर मुण्डाओं ने.
‘‘ हेन्द्रे रान्ब्रा केचे केचे.’’ …..काले क्रिस्तान को काट फेंको.
‘‘ पुंड्री रान्ब्रा केचे केचे. ’’…..सफेद क्रिस्तान को काट फेंको.
हाहाकार! घनघोर हाहाकार!!
‘‘ उसकी गिरफटारी अंतिम उपाय हाय. नाय टो ये हमाड़ा डंका बजा डेगा.’’
‘‘ उसको अरेस्ट करके खूंटी में खुला अदालत लगाओ. सबके सामने पनिशमेंट दो. तब ई जंगली लोग मानेगा, बिड़सा भगवान नाय, एक साढारन मैन हाय.’’
अन्य भारतीयों के बीच भी चर्चा आम-
‘‘ उसने जल-प्रलय होने की बात की है. वह मुण्डा-राज की घोषणा सरेआम कर रहा है….’’
‘‘ वह एक न्यु रिलीजन ‘बिरसा धर्म’ चला रहा है. लोग खेती का काम छोड़-छोड़कर उसका दर्शन करने जाते हैं.’’
‘‘ हाँ! मैंने सुना है कि उसने बिरसा-धर्म के सि़द्धातों का प्रतिपादन भी किया है.’’
एक दिन डोम्बारी परबत की ओर बढ़ते बिरसा के नंगे पाँव गिरे हुए महुए पर पड़े.
‘‘ ऐ तुम मता जाएगा. ई गाछ तरे से जे निकसता हय, मता जाता हय. उधर से नय जा सकता हय?’’
महुआ बिछती हुई कई औरतों में से एक बोली.
‘‘ और तुम सब नहीं मताओगी! ’’
बिरसा ने मुस्कुराकर जवाब दिया. उसके कठोर चेहरे पर भी कभी-कभी हास्य की लाली दौड़ा करती. विश्वास की भी. फिर एक किनारे रखीं मौनियों में से उसने एक मौनी से भर अॅंजुरी महुआ उठा लिया. सब फिक् से हॅंस दी.
वह बढ़ता ही रहा. सामने दहकते पलाश के गाछों से पलाश के कई फूल टपके जैसे उसकी आगवानी कर रहे हों. पीछे संगठन के साथियों का हुजूम! लाल-लाल पलाश-फूल की दहक सबकी आँखों से झाँक रही है. कोमल बासंती धूप जितना पलाश को अंगारे का रुप दे रही है, उतना ही उनकी आँखों में संकल्प का अंगार भर रही है. काले चेहरे धूप की दहक से बैंगनी आभा बिखेर रहे हैं. पलाश की टहनियाँ दहकते पलाश-पुष्पों से ढंक गईं हैं, पत्ते तो पहले ही उनके लिए रास्ता बना चुके हैं. एक भी पत्ता नहीं दिखलाई पड़ता, जब अंगारे बने फूल गाछ को घेर लेते हैं. अंगारे बने महाबली के रास्ते से खुद-ब-खुद कायर हटते जा रहे हैं. साथ हैं तो केवल जाँबाज.
डोम्बारी की पथरीली राह पर चलते हुए एकाएक बिरसा के साथी भरमी ने कान से हाथ लगाकर कुछ सुनने की कोशिश की. नगाड़े की भारी आवाज कान पर पड़ी. वे समझ गए, मंजिल पास है. सभी लोग जमा होकर उनका इंतजार कर रहे हैं. उलगुलान-संपूर्ण क्रांति के साथी बिरसा की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
डोम्बारी बुरु, चलकद, बीरबाँकी, पोड़ाहाट, गोइलकेरा, चकरधरपुर तथा सोनुआ का जंगल-पहाड़ सब में ‘‘जंगल-जमीन हमारा है.’’ की आवाज गूंज रही है. अंग्रेजों के खिलाफ गोलबंद हो चुके हैं सभी.
अंगेरजों के अंदर और भय भरने लगा. उसकी गिरफ्तारी के लिए जगह-जगह छापामारी ! जंगल-पहाड़ रौंदे जाने लगे. बीर-बुरू सब बेहाल. बिरसा के कार्यस्थल चलकद पर भी ब्रिटिश शासन की गाज गिरी.
‘‘धरती आबा को हाम जेहल जाने नहीं देंगे. जान दे देंगे पर उनको कुछो नय होने देंगे.’’
सोमा मुण्डा जैसे धार्मिक नेता ने अपने साथियों से कहा. सब राजी ही थे.
लेकिन उन भोले-भाले गाँववासियों को पता चलने से पहले ही सोये हुए बिरसा भगवान अंग्रेजों के छल-बल से राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिए गए. 26 अगस्त 1895 की भयावह रात थी वह.
‘‘ इके तुम नय ले जा सकता है. पहिले हमको जेहल में डालो, तब भगवान को छू सकता है.’’
साथी दोन्का मुण्डा की गरज से एक पल को ठिठके गोरे पर सब बेकार!
बनगाँव के जमींदार जगमोहन सिंह और पुलिस की चालाकी रंग लाई. कई सहयोगी भी पकड़ लिये गए.
‘‘राते में पकड़ लिया. ’’ ‘‘ कैसे? ’’ ‘‘ कउन ?’’- चर्चा आम.
‘‘ सरकार हमको जेल में बंद नहीं रख सकती.’’ कभी कहा था बिरसा ने.
राँची जेल में घुसते ही जेल की एक दीवार गिर गई. उसके चमत्कार का शोर गहरा उठा. गोटे गाँव-धर, जंगल में खबर आग की तरह फैली. 50 रूपये का जुर्माना या सश्रम कारावास की सजा भी नहीं झुका सकी उस मैडमैन को. हजारीबाग सेंट्ल जेल बिरसा और बिरसाइतों से आबाद हो गया.
बिरसाइतों ने संगठन और विद्रोह की आग जलाए रखा. प्रशासन बारूद की ढेर पर बैठा था. 1897 में आदिवासियों को प्रसन्न करने का प्लान भी फेल! बारूद फटने को हर पल तैयार!
धरती आबा उस क्षण को कभी नहीं भूल पाता, जब खूंटी में खुली अदालत में लगाकर उसे सजा देने की बात उठी थी. सब खूंटी की ओर चल पड़े थे. हातुमुंडा, कीलों याने कबीला के प्रमुखों, तथा पड़हा राजा के इशारों पर गाँव के गाँव उमड़ पड़े. गतिऔरा अर्थात युवागृह से भी युवक-युवतियाँ भागे चले आए. कुछ मुण्डारी नृत्य-गीत की तैयारी में व्यस्त थे, वे भी खूँटी में हाजिर!
‘‘धरती आबा! भगवान बिरसा !’’ आसमान फट पड़ा था.
जहाँ, जिधर देखो मूड़ी ही मूड़ी! औरत-मरद, छौव्वा-पुता सब! कैसे लगती अदालत? वह भी खुले में. हिंसक भीड़ कुछ भी कर सकती थी. चीखती- चिल्लाती हिंसक भीड़! आग उगलती निगाहें! आग में घी डालती हथियारों की लपलपाहट! भाले-लाठियाँ! गोरेां का दावा बेकार. खुली अदालत संभव नहीं हो सकी.
धानी मुण्डा बिरसा की सच्ची अनुयायियों साली और परमी की मदद से बिरसा के सिद्धांतों से लोगों को अवगत कराता रहा. उपर से प्रलक्षित शांति! लेकिन अंदर ही अंदर धानी और दोन्का ने मशाल थाम ली थी. बिरसा के प्रारंभिक अहिंसात्मक आंदोलन को कई साथियों की जिद ने पहले ही बदल डाला था. फादर हाफमैन बेहद घबरा उठा. एक रात धानी भी बंदीगृह के हवाले. फूल-फल बेचनेवाली साली पर पुलिसिया निगाहें. एक अंधियारी रात ने अचानक सुना कि धानी चकमा देकर जेल से फरार!
‘‘साली! क्या जेल से भागा हुआ धानी मुण्डा तुम्हारे घर में है? पूरे पच्चीस रूपये का इनाम उस पर है. तू उसे पकड़ा दे और इनाम ले ले.’’
‘‘हा!….हा!!….हाँ, रात में मेरे घर में ही था वह दरोगा जी. फिर भाग गया बिन बतलाए.’’ हॅंसी साली.
साली के सर पर बेर से भरी टोकरी थी. गर्भ भार से दुहरी होकर चलती हुई साली को जा घेरा था भरत नामक दारोगा ने. दोनों ओर बड़े-बड़े गाछ, बीच में पतली-सी पगडंडी. उसी पर बढ़ी जा रही थी वह. जंगल की शुरूआत थी. लाल किनारे की इकलौती धोती में लिपटी साली के प्रति दारोगा ने एक अलग खिंचाव महसूस किया. गठीली और खूबसूरत थी साली. एकाएक उसने अपने पेट को थामा और दर्द से ऐंठकर वहीं बैठ गई. दारोगा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. साली दर्द से बेहाल होती रही.
‘आह!…उह!….परमी को बुला दो. वही हमरी दरद हर सकती है.’
जंगल में चमगादड़ उड़ रहे थे. उल्लू रोशनी में अंधे बने बैठे थे. दारोगा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उसे दया आ गई. वह जल्दी से पगडंडी छोड़कर जंगल के और अंदर हेल गईं. परमी आई तो जंगल के अंदर साली को बेर खाते देख चैंकी. उस गहरे जंगल में हेलने की जुर्रत अकेला भरत दारोगा कर ही नहीं सकता था. जंगल की भयावहता सुरक्षा कवच था उन सबके लिए. साली मजे से एक पाकड़ गाछ के नीचे बैठकर बेरों को रस ले-लेकर खाए जा रही थी. जंगल में अॅंधेरा उतर आया था. उसके चेहरे पर शैतानी आभा थी. परमी ने इधर-उधर देखा. नवजात का नामोनिशान नहीं. वह सब समझ गई.
फटाफट दोनों ने उसके पेट पर बॅंधे तीरों को अलग किया. गर्भभार से छुटकारा मिला उसे. उल्लू की आँखें बंद ही रहीं. दारोगा कहीं पीछे छूटा रह गया. सारे तीर पलभर में टोकरी के अंदर और बेर उपर.हमेशा की तरह. अॅंधेरा घिर गया था. खुशी-खुशी गर्भभार से मुक्त साली तथा परमी जंगल के अॅधेरे में खो गई.
धानी देखते ही चैंक उठा.
‘‘ कइसे आई रे? ई तीरों का फल तू ही ला सकती है. हम तो सोचे थे कि ई बेर तू नहीं ला सकेगी. ’’
‘‘ फिन आएँगे कल यही फल लेकर. कल फिन पेट पर….’’ उसने पूरे विश्वास के साथ कहा. चेहरे की शैतानी आभा हॅंसी में बदल गई… खिल….खिल….खिल….पूरा जंगल हॅंस पड़ा. खिल….खिल…. अॅंधेरे जंगल में चंपा के फूल खिले. जुगनू चमके. देर तक वन के अंदर बने झोपड़े में उन तीनों की हॅंसी तीरों पर धार चढ़ाती रही. ‘‘ सार दरोगा. ’’
परमी और साली ने बखूबी उलगुलान का साथ दिया था. गया मुण्डा की पत्नी मकी, बेटियों तथा पतोहुओं का दिल भी जीत चुका था बिरसा. उसके जेहल जाने से सब दुखी थीं. संकल्प से भरी हुई भी.
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जेहल में विचारमग्न बिरसा! ‘हमको जियादा दिन तक बाँधकर ई गोरा लोग नहीं रख पाएगा.’
अपने घुटने पर रखे हाथों को उठाकर भगवान बड़े विश्वास के साथ बड़बड़ाते. सश्रम कारावास की सजा बिरसा के लिए भारी न थी. कठिन श्रम तो जीवन का हिस्सा. डहर-डहर, जंगल-जंगल घूम कर जीविका चलानेवाले आदिवासियों के लिए फूलों के बिछौने में ही काँटों सी चुभन. उलगुलान की मशाल ने तिल-तिल जलना सिखाया था. पत्थर तोड़ना या सब्जी उपजाना क्या भारी पड़ता. उसकी चिंता तो यह थी कि उलगुलान की मशाल की लौ ठंढी न पड़ जाए.
पहली बार वह दो साल तक जेहल में बंद रहा. महारानी विक्टोरिया ने लंदन में 1897 में हीरक जयंती मनाई. सभी बंदियों के साथ बिरसा को भी रिहा किया गया. बिरसा जेल से निकलते ही सीधे अपने अकालग्रस्त गाँव पहुँचा. उसके साथियों ने उलगुलान की आँच बुझने नहीं दी थी. धरती आबा इससे बहुत खुश. उसने खुश होकर जेल से निकलते ही ऐलान किया-
‘‘ सोमा मुण्डा सामाजिक का्रंति का प्रमुख और दोन्का मुण्डा, तुम राजनीतिक क्रांति का मुखिया रहेगा. ’’
1898 के अकालग्रस्त चलकद में चेचक-हैजा की महामारी में बिरसा का अद्भुत रूप. लोग दंग. सबके बीच काम, सबकी सेवा.
‘‘ हमरा भगबान हमरे साथ हमेशा रहेगा. हारी-बीमारी, सुखाड़ सब में उ हमके नहीं छोड़ेगा कभी. ’’
‘‘ हम बार- बार यही कहते हैं कि हडि़या दारु मत पियो. उ हमर जी और देही दोनों को बिगाड़ता है. मति, ओझा पर विश्वास मत करो जो एक- दूसरे को लड़ाता है. चोरी मत करो. झूठ मत बोलो. मांस- मछली पर रोक लगाओ. उसे मत खाओ. ई हमको हिंसक बनाता है.’’
बिरसा की आवाज फिर जंगल, पहाड़ सब में गूँज रही है. सभी ध्यानमग्न होकर सुन ही नहीं रहे है, उस पर अमल करने की कसम भी उठा रहे हैं.
‘‘ हम अपने जमीन पर इन फिरंगियों का दमन चलने नहीं देंगे. वे हमको जेल में डाले या गुफा में बंदकर पत्थर से ढंक दे, हम इसको भगाकर ही दम लेंगे. ’’
‘‘हिंया सिरफ अपन जन के राज चलेगा. अपन राज में कोई बड़का-छोटका नहीं होगा ,बस! अब सब अपना तीर धनुख को सजा लो. और तेज हमला होगा. ’’
जनवरी 1900 में तपे हुए कुंदन में और चमक! गुप्त रुप से सारी तैयारी की गई. फिर हमला पर हमला! जगह-जगह सरकारी चीजों, दफ्तरों पर आक्रमण से अंगे्रजों के छक्के छूटे. साम-दाम-दंड-भेद बेकार! 7 जनवरी को खूँटी पर हुए आक्रमण से ब्रिटिश राज आतंकित. अगले दिन ही राँची के उपायुक्त , एच0 सी0 स्ट्रीटफिल्ड, आयुत फारबिस सेना की दो बड़ी टुकडि़यों के साथ खूँटी आ धमके. युद्ध स्तर पर की गई तैयारी से उलगुलान को दबाने की कोशिश जारी. खाने-पीने का सामान लेकर बिरसा तथा उनके साथी डोम्बारी बुरू और शैल रकाब जा पहुँचे. पर….
‘‘ अंग्रेजी सेना के सामने हमारा संगठन बहुत छोटा है. अभी लड़ना बेवकूफी होगी. इधर का सारा रास्ता बंद कर दिया गया है. हम चारों ओर से घिर गए हैं.’’
‘‘ उनके पास बहुत आधुनिक हथियार भी है. हम एकदम घिर गए हैं. अनेक मुण्डाओं के मरने के बाद भी कुछ हासिल होना कठिन है.
पहाड़ी पर बैठे बिरसा की आवाज गॅूंज रही थी. लोग समझ नहीं पाए, वह यह सब कह क्यों रहा है.
‘‘ मेरा समर्पण ही बर्बादी से बचने का एकमात्र रास्ता है. ’’
‘‘ हमसे कोय गलती? हम मरने के वासते तइयार हैं. ’’
‘‘ मरना समाधान नहीं है. मजबूत बने रहना जरूरी है. हम केवल तीर-तलवार, कुठार, ढेलबांस आदि से उनका सामना नहीं कर सकते. ’’
‘‘ हम केवल अॅंधेरे में तीर नहीं चला सकते. तुम सब समझने की कोशिश करो. अभी मेरा आत्म-समर्पण ही औरों को बचा सकता है.’’
उसने पक्का इरादा कर लिया था. पहाड़ की तरह अटल उसके इरादे कों पलट पाना संभव नहीं था. लेकिन तब तक… तड़!…तड!!….तड़!!! धाँय…!धाँय!!…धाँय!!!
समर्पण के ऐलान से पहले ही फायरिंग का आदेश! औरतों-मर्दों, बच्चों की लाशों से कराह उठा पहाड़. वीरों ने मोर्चा संभाल लिया….सर पर बॅंघे कफन को और कसकर लपेट लिया. पीठ पर बेंतरा में आपन छौव्वामन को थामे हुए मुण्डानियों ने भी तीरों को घनुख पर सजा लिया.
फूलों की तरह वतन पर शहीद होते रहे आदिवासी देषभत् ! गोलियों की तड़तड़ाहट…. लाशों के ढेर…. चीख-पुकार से दहल उठी छोटानागपुर की मासूम धरती. पूरा पठारी इलाका काँप उठा. वीर गिरते रहे कटे पेड़ों के तरह.
बेंतरा में बॅंधे बच्चों को माँएँ छाती से लगा भी नहीं सकीं. वे पीठ पर ही होते रहे ढेर . सारी धरती लालम-लाल. काले-काले पत्थर तक लाल! संगीनवाले बंदूकों का सामना झाड़-झंखाड़ के पीछे से तीरों से किया जा रहा था.
पीठ पर अधमरा बच्चा टाँगे हुए एक मुण्डानी भी गोलियों की जद में आ गई. बेंतरा में बंधे बच्चे के साथ ही फारबिस के सामने लुढ़कते हुए आ गिरी. अधमरा बच्चा उसकी ओर टुकुर-टुकुर ताके जा रहा था. उसकी आँखों की ताब….उफ! पहली बार उसके दिल में कुछ चुभा….
फारबीस ने घबराकर आँखों पर हाथ रख लिया. वह बच्चे की ओर देख नहीं पा रहा था. कहीं उसके अंदर भी कुछ कुलबुल- कुलबुल करने लगा. शायद मानवता सुगबुगाई.
‘स्टॉप!….स्टॉप!….स्टॉप फायरिंग!!’
पर उसकी उजली कमीज, शानदार वर्दी पर लाल-लाल धब्बे पड़ चुके थे. वर्दी के कोने पर उस अबोध की दो अधखुलीं आँखें जा चिपकीं थीं.
सारा शैल रकाब और डोम्बारी बुरू रात तक सन्नाटे के आगोश में ! उल्लू भी बोलने से हिचक रहे थे. विलाप भी थम गया था. आहें-चीत्कारें सब सहमी हुईं.
पठार का जंगली फूल
चंद अनुयायियों के साथ बिरसा को चाईबासा के बीहड़ जंगलों में शरण लेनी पड़ी. साथ में परमी और साली भी. उसकी साँसों में बहुत दिनों तक बेकसूरों के शवों की गंध भरी रही. वनों-कछारों पर साथियों की बिखरी पड़ी लाशों को उसने सियार-भेडि़या को खाते देखा था. श्रृगालों को लाशों को खींचकर नदी की ओर ले जाते हुए देखा था. ठिठककर रोकने की कोशिश भी की थी. वे विलाप? व आहें? वे चीत्कार क्या कभी कोई भूल सकता है? बिरसा भी नहीं भूल पा रहा था.
उस जीत ने अंग्रेजों का मनोबल बढ़ा दिया था. उनकी प्रताड़ना बढ़ रही थी. अंतत दोन्का मुंडा और मंरण्या मुंडा ने 32 विद्रोहियों के साथ आत्म समर्पण कर दिया.
इस भगवान के भी कई विरोधी तो थे ही. अंग्रेजों के द्वारा दिया गया पाँच सौ का लालच भी कम न था. कईयों का ईमान डोल गया. और एक रात फिर…..
सेंतरा के पश्चिमी जंगल में आग का धुंआँ उठता नजर आया.
‘‘ उ देखों. हुँआ…’’
बिरसा के पीछे लगातार लगे रहनेवाले लालच में से एक ने कहा ‘‘ चलें?’’
‘‘ हाँ! चलो.’’
दबे पाँव वहाँ पहुँचे सब. अपने एक बाजू पर सर रखकर बिरसा सोया था. चारों ओर अॅंधेरा घना. उसकी दोनों तलवारें उसके बाजू में सुस्ता रहीं थीं. गाछों के पीछे से झाँकते लालाच को पहले तो हिम्मत ही नहीं पड़ी. फिर घात लगाकर उन्होंने उसे जकड़ लिया. 500 रुपये का कद काफी उॅंचा हो गया.
‘‘ बिरसा भगबान को फिन सिपाही पकइड़ लिया. सिपाही उके हथकड़ी से बाँध कर ले गया.’’
‘‘ नय….नय हम देखे, उसको डोरा से बाँधा था. ’’
जितने मॅुह, उतनी बातें!
‘‘ उसका कई संगी-साथी भी पकड़ा गया. अइब का होगा? ’’
राँची का सेंट्रल जेल नंग-धड़ंग आजादी के परवानों से भर गया. जेलर तक बिरसा को देखने को उत्सुक.
‘‘ ई जाहिल-जपाट कहाँ से नेता बनकर पैदा हो गया? क्या संगठन क्षमता है. बाप रे! मान गए. वनों में भी ऐसी दीवानगी….’’
‘‘ ऐसी एकता! ये झाड़- झंखाड़वाले कहाँ से इतना ग्यानी- ध्यानी हो गए. ’’
वह हमेशा किसी न किसी से इसकी चर्चा करता. जेल के मोटे- मोटे सींखचों के पीछे बैठा बिरसा अक्सर बाहर निकलने के बाद गोरों से निपटने के प्लान में उलझा रहता. उससे लोगों को कम ही मिलने दिया जाता.
‘‘ वह भूखा शेर अब बेबस है, रणनीति का चतुर सेनानी अब कुछ नहीं कर पाएगा.’’
ऐसा कहकर कभी-कभी किसी से मिलने दिया जाता. वे फुसफुसाते तो जेलर के कान खड़े हो जाते.
‘कइसन हय? जेहल में भगवान बिरसा कइसे रहते है? जरुर कोई लीला दिखाने गए हॅंय. उसको पकड़ना आसान बाइत है का!’
उस दिन जेल में बिरसा से मिलकर भरमी लौटा. उसके कानों में गूँज रही आवाज,
‘देख भरमी, अइब हामर जिनगी कर कोनो ठिकाना नहीं है. तुम हार मत मानना. तुम लोग चिंता मत करना. हमने तुमको हथियार दे दिया. अब उससे लड़ना. हम तुममें आतमविश्वास भर दिया. खुद अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए सिखा दिया, अब तुम मत हारना.
‘‘ हम फिर आएँगे. हर लड़ाई में हम साथ हैं.’’
‘‘ टाइम खतम, चलो वापस.’’
एक कड़क स्वर गूँजा. एक वर्दीधारी के हाथ का तेल पिया डंडा चमका. भरमी भरे मन से वापस हो लिया. उलट-उलटकर अपने धरती अबुआ को देखता जाता. धरती के पिता के चेहरे से अब भी तेज टपकता हुआ नजर आया. वह धीरे से जेहल के बाहर आ गया. जेल के परकोटे पर एक गिद्ध बैठा दिखाई दिया. पता नहीं क्यों, उसे बहुत डर लगा.
‘अइब इके नही भेंटाएँगे मिलेंगे का?’ जेल की दीवारें उसे सब ओर से दबोचती हुईं लगीं. वह बड़े फाटक से बाहर आकर सामने के तालाब के किनारे पैर लटकाकर बैठ गया. कैसे गाँव-घर जाके सबसे मिले, कैसे बताएँ कि आब बिरसा…..
दिनोंदिन उसकी घबराहट बढ़ रही थी. वह किसी से बताने से डर रहा था. कोई बिरसाईत या कोई आदिवासी इस अभाव को झेल नहीं पाएगा, उसे एहसास था.
उस दिन पाकड़ पेड़ के फुनगी पर कौआ उचर रहा था- काँव… काँव… काँव! भरमी ने अपने झोपड़े के कोने में बैठे-बैठे सुना. वह धोती से मुँह पोंछते हुए बाहर आया.
वह सबको मना करता रहा है.
‘‘ मइत उड़ाया कर. इकर आबाज बताता है कि कोई पाहुन आएगा.’’ अभी भी उसे लगा कोई पाहुन आएगा और कहेगा-
‘‘ बिरसा भगबान आ रहा है. पापी सब का बंधन काट कर आ रहा है. ’’
कौवे ने फिर काँव-काँव की. वह हड़बडा़कर अपने झोपड़े से बाहर आया. पर वहाँ कोई नहीं था. आजकल अक्सर उसको ई भरम हो जाता है. कुछ दिनों बाद ही जंगल में आग की तरह फैली खबर-
‘‘ धरती आबा नहीं रहा.’’
‘‘ कइसे मरा? ’’
‘‘ नय पता…पर उ मरा कहाँ, उ तो छपित हो गया. ’’
‘‘ ई भुईंया भूमि पर हेतना इतना पाप हय, उ इसी से छपित -गायब- हो गया. ’’ जेतना मुँह, उतना बात! कोई कहे-
‘‘ उके जहर देके अंगरेज मोरा दिया. ’’
कोई कहे-‘‘ उसको पेट झरी हो गया था. जेहल में कोय धियान नय देता था. गू-मूत में पड़ल रहता था. कहता है, हैजा से मरा. ’’
‘‘ उकर साथी बताया कि गू- मूत में लिथड़कर सड़ा दिया उसे. उ गोरन मन के देही में कीड़ा पड़े. हामर धरती आबा को हेतना दरद- पीरा दिया. हामर आबा पर इतना जुलुम, ई आगी मूता उ मन….सिेगबोंगा सबको जराए देगा. ’’
मुण्डाओं का मसीहा 9 जून 1900 को काँटों से बिंधकर धरती माँ की गोद में जा गिरा. मातृभूमि ने बढ़कर उसे गले लगा लिया. सब फूट- फूटकर रोए. सुदूर जंगल से सियारों-हुराड़ों के रोने की आवाज आ रही थी. पाकड़, बेर, इमली, नीम या पीपर गाछ के नीचे खड़े लोग पहाड़ के बीच बनी उस पगडंडी को देखने लगे, जिधर से धरती आबा अक्सर आता था. अब कौन उनको रास्ता दिखाएगा, यही नहीं समझ पा रह थे वे. रात की काली अंधियारी चादर जैसे उन पर डाल दी गई थी.
धरती को बचाने के लिए सुरुज की एक किरण बिरसा ने दिखलाई थी, अब उन्हें उसी में राह नजर आ रही थी.
डलगुलान की लौ जलाए रखने की बहुत कोशिश की वीरों ने. पर नहीं चल पाया ज्यादा दिन तक उलगुलान! अनुयायियों की कोशिश पर दमनकारियों का पलड़ा भारी था. ब्रितानी शोषण के आगे हार माननी पड़ी. नेतृत्व का अभाव भी कारण रहा.
मजारों के मेले
कई-कई साल बाद! … बिरसा घी,, बिरसा किराना दुकान. बिरसा फलाना, बिरसा ढेकाना, बिरसा बाटा, बिरसा जूता का बिगुल बजने-सजने लगा. जेल के भंगियों द्वारा जिस जगह पर लावारिश के जैसा शव को ठिकाने लगाया गया था, उस जगह पर पर गूह-मूत त्याग की बेमिसाल खुली व्यवस्था सालों तक रही.
एक बिरसा जयंती पर बिरसा की यादों ने नवजात राज्य को इतना सताया, इतना सताया कि आनन-फानन में वहाँ पर भव्य समाधि बनाई गई. अब वहाँ पूरे शान से सब्जी बाजार, मछली बाजार, मीट दुकानों के लिए गाडि़याँ पार्क की जाने लगीं. हर पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी और पंद्रह नवंबर को समाज अब भी उगलने से नहीं चूकता-
शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले.
वतन पर मरनेवालों का बाकी यही निशां होगा
महात्मा गाँधी, भगत सिंह, चंद्रषेखर आजाद की तरह भगवान बिरसा की भी आत्मा देखती-सुनती है, सब समझती है और चुपचाप चल देती है किसी नए प्रतिष्ठान के साईनबोर्ड पर चिपकने या चैक-चैराहों पर मूर्ति बन जाने के लिए.
इस बात से कोफ्त-सी होती है सौ साल के बिरसाइत रांगो मुण्डा को. वह जब कभी घर-गाँव से बाहर खूँटी शहर की तरफ आता है. लेकिन राँची आने का उसका कभी. सौभाग्य नहीं हुआ. उसकी बड़ी इच्छा है राँची शहर देखने की. राँची से भी जियादा बिरसा की समाधि देखने की. वह अपनी काँपती उॅंगलियों से काँची नदी की रेत पर न जाने क्या-क्या लिखता रहता है….अस्फुट अक्षर! पर बिरसा के चंद उपदेश पढे़ जा सकते हैं. हॅंडि़या दारू मत पियो….मति ओझा पर विश्वास मत करो…हम आएँगे….हम आएँगे.
आजकल उसे लगता है, अब वह नहीं बचेगा. अब तो समाधि देख ले. बाबा- भैया मुन्नू-छुन्नू कहकर वह कई लोगों को साथ चलने के लिए मनाता है. वह बिरसा की समाधि देखने की ख्वाहिश को एकदम नहीं रोक पा रहा है. मरने से पहले एक बेर…बस! एक बेर…..एक सुबह अपनी लाठी थामकर चल देता है राँची के लिए गाड़ी पकड़ने. सामने बस के दरवाजे के पास खड़ा एक युवक जल्दी से उसके पास आ जाता है.
‘‘ का बाइत हेकई ? केने चलबईं ? ’’
आखिर वह युवक उसे लेकर राँची के लिए खुलनेवाली सुबह की गाड़ी पकड़ लेता है. तजना नदी, तजना पुल, हटिया, बिरसा चैक होते हुए गाड़ी उसे ओवरब्रिज ले आती है फिर बस स्टैंड! उसे कोकर के डिस्टिलरी पुल के पास पहॅुंचाकर वह युवक हाई कोर्ट की ओर हड़बड़ाते हुए निकल जाता है.
‘‘ देख, उ सामने है समाधि. थोड़ी देर बैठना चाहता है, बैठ ले. फिर बस स्टैंड दिखलाए थे न ? वहाँ आ जाना. कुछ खा-पी लेना हम वहीं आ जाएँगे. ’’
वह इधर-उधर देखता है. चारों ओर सन्नाटा और अॅंधेरा उतरा हुआ है. बादल- पानी के कारण. आकाश से बूँदें टपकने लगीं हैं .साइत थोड़ी देर में झड़ी लग जाए. वह वहीं मीट दुकान की शेड के नीचे रूक जाता है. आधे घंटे बाद पानी थोड़ा थमता है तो कीचड़ में ही पाँव जाते हुए पैर आगे बढ़ाता है.
धीरे- धीरे उजाला क्षितिज से धरती की ओर बढ़ रहा है. उसकी लाठी काँप रही है. वह चलना नहीं छोड़ता. सामने डिस्टिलरी तालाब पर बना हुआ पुल दिखाई पड़ रहा है. बस थोड़ी – हिम्मत और!. वह और पास आ गया है. सामने ही समाधि का बांउंड्री-वॉल! उसके पैरों में गजब की ताकत आ जाती है. पर उसके पाँव धोती में फॅंस रहे हैं.
ठक! ठक!! ठक!!! नहीं होती. लाठी की आवाज बारिश ने खा ली. उसने समाधि के पास लाइन से बैठे हुए लोगों को देख लिया है. अभ्यस्त लोग बूँदों के बड़े होते जाने से भी नहीं घबराते. वहीं जमे हैं. बॅंूदें अपना धर्म निबाह रहीं हैं.
‘‘ ‘आपन षहीद का भी हम आदर नय कर….’’
वह फुसफुसाता है. उसे जोर से गुस्सा आता है. वह चिल्लाना चाहता है. चीख-चीखकर आकाष-धरती को सर पर उठा लेना चाहता है.
‘ ….अरे पगलों! किसकी समाधि पर धार गिरा रहे हो , समझते हो. झाड़ा फिरने को आउर कोय जगह नय मिला.’
वह जोर से चिल्ला पड़ता है. वे सब एकबारगी चैंककर उसकी ओर देखने लगते हैं. फिर समवेत स्वर में उसकी लाचारगी पर हॅंसते हैं और पूर्ववत…..उनकी नजरों में तिरस्कार है, बुढ़ापे के लिए भी, समाधि के लिए भी. वे बस कौतुक और तमाषे की लालसा संजोनेवाले बच्चे हैं. वह उनकी आगत जवानी को कोसने लगता है.
वह उन्हें खदेड़ने के लिए लाठी उठा लेता है. खुद लड़खड़ा जाता है. अब गिरा कि तब. उसे अपनी और अपनी लाठी कीे बेचारगी पर रोने की इच्छा होती है. वह चिल्ला-चिल्लाकर रोना चाहता है. लाठी से मार-मार कर उन्हें भगा देना चाहता है. लाठी का वह दम कहाँ गया?. इसी लाठी की मार से बाघ, सियार-हुँराड़ तक का भूइत भागता था. वह हिसाब लगाता है, बिरसा को गुजरे हुए लगभग एक सौ साल से जियादा हो गिया. भरल जवानी में बिरसा शहीद हो गया.
उसके पैर नहीं बढ़ते. हाम कब तक केवल दुकान – मकान में बिरसा भगबान को सजाते रहेंगे?
तभी वह देखता है- एक छोटा सा बच्चा बाउॅंड्रीवॉल के अंदर जा रहा है. बच्चा कीचड़- पानी से लथपथ है. वह अंदर जाकर समाधि को छूकर प्रणाम कर रहा है. वह वहीं रूककर उसे देखने लगता है. बच्चे की आँखें देर तक बंद रहती है. उसके हाथ देर तक जुड़े रहते हैं. बच्चे के अंदर पूरी निष्ठा, पूरी भक्ति है……कोई दिखावा नहीं……कोई राजनीति नय….हड़बड़ी भी नहीं. बच्चा सर उठाकर एक बार उसकी ओर देखता है. साश्चर्य. किसी तरह का लालच नजर नहीं आता उसकी आँखों में.
अब वह बच्चा एक हाथ में झाड़ू, एक हाथ से अपनी पैंट थामे समाधि के नीचे झाड़ू लगा रहा है. वह धीरे -धीरे शांत होने लगता है. बीच-बीच में बच्चा फैले-बिखरे गीले पत्तों को भी समेट कर एक छोटी-सी टोकरी में रखता है. उसके हाथ और भी गंदे हो चुके हैं. वह अपने काम में मशगूल है. उसे एहसास हो रहा है, बच्चे का काम स्वतः स्फूर्त है. या फिर उसको यह काम दिया गया है.
जो भी हो…हय तो कुछो बात…कुछो दम….कुछो उम्मीद….कुछो असरा! उसकी काँपती लाठी में मजबूती आने लगती है. गौर करता है, उसकी टाँगें नहीं काँप रहीं हैं, उसकी धोती नहीं फॅंस रही है अब.
वह सीधा होकर बाउॅंड्री- वॉल के अंदर चला जाता है.
अनिता रश्मि
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