कहानी समकालीनःरौशनी के नाम -पद्मा मिश्रा

पार्क की हरी घास पर अभी ओस की बूंदें मौजूद थीं हवा बिलकुल स्वच्छ और मन को ताजगी दे रही थी. ,विवेकजी धीरे से बेंच पर बैठ गए .बच्चे शोर मचाते कोई खेल खेल रहे थे तभी एक बाल आकर उनके पैरों से टकराई”अंकल, प्लीज ज़रा बाल दे दीजिये” ..वेबाल उठाने कोतत्पर हुए पर उनके हाथ हवा में यहाँ वहां भटकते रह गए ,बच्चों ने शायद उनकी मजबूरी समझ ली थी -”सारी अंकल ”कहकर वे सब अपने खेल में व्यस्त हो गए. गए.विवेक जी के चेहरे पर क्षणिक पीड़ा के भाव उभरे परउन्होंने तुरंत अपनी भावनाओं पर काबू पा लिया था ….हवा की शीतलता को महसूस करते हुए वे गीत गुनगुनाने लगे–”मेरा साजन है उस पार..ओ मेरे नाविक ,अबकी बार ले चल पार..”ये गीत हमेशा शुभी गुनगुनाया करती थी. अचानक उन्हें लगा जैसे वह अभी आकर उन्हें चौंका देगी” ..नमस्ते विवेक जी !..अकेले.. अकेले क्या कर रहे हैं?चलिए चलकर चाय पीते हैं, आजकी सुबह भी मीठी हो जायेगी”.
वातावरण को हल्का व खुशनुमा बनाने का शुभी का यह तरीका उन्हें बहुत पसंद था…जीवन में रंग भले ही न घुल पाए हों पर इस मिठास का अनुभव उन्हें जिन्दगी दे जाता था. अपनी अंधियारी ,स्याह, काली दुनिया में कोई रंग भी है इसका अहसास किसी ने नहीं करवाया था, माँ ने भी नहीं ..शायद अपने बेटे की अंधेरी दुनिया का भयावह सन्नाटा और बढ़ाना नहीं चाहती थीं. …जब सारे बच्चे खेलते, दौड़ते, भागते, तब माँ अपनी बांहों का सहारा दे साथ साथ दौडती. पिता का साया बचपन में ही छूट जाने से उनकी दुनिया बस माँ तक ही सिमट कर रह गयी थी. ….पर जब शुभी अपने एक प्रोजेक्ट पर काम करने उनके पास आई थी ,तबसे वे रंगों की दुनिया को भी पहचानने लगे थे.शुभी मनोविज्ञान की छात्रा थी,ब्रेल लिपि और नेत्रहीनो के लिए उसकी उपयोगिता व् संभावनाओं परकाम कर रही थी. ..विश्वविद्यालय ने उन्हें उसका निर्देशक नियुक्त किया था. ..वह परिश्रमी थी, आठ आठ घंटे टाइप करती,लिखती और कई विषयों पर उनसे जानकारी लेती ,बहस करती पर काम पूरा करके ही उठती. …….न जाने वह कब उनके जीवन का अनिवार्य अंग बन गयी थी. ..माँ कभी कभी कहती भी थीं की -”एक दिन शुभी चली जायेगी ,तब क्या होगा विवेक?’
जिस समय शुभी घर में पहली बार आई थी ,माँ ने उसे हास्टल जाने से रोक लिया था. ‘बेचारी अकेली लड़की माँ बाप से इतनी दूर वहां कैसे रहेगी?..विवेक!,.. तू कहे तो उसे यहीं रोक लूँ,मेरा मन भी लगा रहेगा”.
उसके परिवार को भी यह जान कर ख़ुशी हुई थी और वे निश्चिन्त हो वापस लौट गए थे.वह उनके साथ विश्विद्यालय जाती, उनकी कक्षाओं में पीछे बैठ कर उनका व्याख्यान सुनती, और कामन रूम में उन पर चर्चा भी करती थी. नियमित कक्षाओं में शामिल रहकर वह उनके छात्रों में भी लोकप्रिय हो गयी थी. …!
अपनीनेत्रहीनता का ग्लानिबोध अब उन्हें नहीं सताता था, जो दुनिया कभी नीरस..उदास,बोझिल सी लगती थी,वह अचानक सुन्दर प्रतीत होने लगी, शुभी की उत्साह और ऊर्जा भरी कवितायें सुन सुन कर. .शुभी कवितायें भी बहुत सुन्दर लिख लेती थी. अक्सर वह नई नई कवितायें उन्हें सुनाती तो उनके मन का उल्लास जैसे आकाश छूने लगता था. ..एक एक शब्द मानो उसके अंतस की गहराईयों से निकलता था. ..और सीधे सीधे वे भावनाएं उनसे जुड़ जाती थीं.-….
”तुम जो कहो तो,’जीवन डगर को ,
फूलों का आँगन बनाती चलूँ मैं”,
तुम जो कहो तो सुमन डाल पर आज,
रंगों का जादू जगाती चलूँ मैं”…..और उनकी राहों में जिअसे फ़ूल ही फ़ूल बिखर जाते थे. उनकी खुशबूविवेक जी के मन प्राणों में बस जाती थी. पार्क में सुबह सुबह टहलते समय ..कभी वह अल्हड शिशु सी खिलखिला उठाती ..तो अचानक उनकी सफ़ेद छडी छोड़ चंचल हिरानी सी दौड़ पड़ती तब बाकी सारे बच्चे ,एनी साथी भी उसकी दौड़ में शामिल हो जाते,….फिर वह थक हार करहांफती हुई गरम चाय का एक कप उन्हें इस तरह प्रस्तुत करती जैसे अपनी सारी ऊर्जा, उत्साह सहेज कर उन्हें सस्नेह अर्पित कर रही हो. ..सच कहेंतो उसका अस्तित्व विवेक जी के जीवन में कल कल बहती नदी की शांत शीतल जल धारा की तरह था, जो अपने साथ सारी विषाद ,दुःख,दुश्चिंताओं,वेदनाओं कोबहा ले जाती और नदी की शुभ्र उज्ज्वलता उनके मन के तार तार को भिंगो जाती थी.शुभी अक्सर उनसे कहती-”विवेक सर जी, आप भी कवितायें लिखा करिए ..सच, सपनों ,कल्पनाओं की यह दुनिया बहुत अद्भुत होती है. ”
पर वह हमेशा हंस कर टाल जाते थे.क्या बताते उसे, उनकी दुनिया ने उन्हें सपने देखने की आजादी नहीं दी है, …रंगहीन जीवन के सपने ..उनकी कल्पना क्या संभव है कभी?”
उस नितांत अकेलेपन में शुभी मानो ईश्वर का वरदान बन करआई थी ..उनके ब्रेल में टाइप किये ,बिखरे पृष्ठों को रैक पर सहेज कर रखती शुभी कभी सहयोगी मित्र बन जाती तो कभी आग्रह करके भरपेट भोजन करवा परितृप्ति का अहसास करवाती शुभी में उन्हें माँ नजर आती, कभी उनकी लापरवाही या गलतियों पर मीठी डांट लगातीहुई शुभी उनकी गुरु,पथ प्रदर्शिका भी होती .कभी कभी तो निश्छल बच्चों सा हठ करअपने बात भी मनवा लिया करती थी…वह उनकी मित्र भी थी, गुरु भी..शिष्या तो वह थी ही, …न जाने कितने रिश्ते नातों को एक साथ जीती हुई शुभी के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे विवेक जी. शुभी और विवेक के इस लगाव को देखकर कभी माँ ने ही कहा था -”विवेक …यदि शुभी तुम्हारे जीवन में आ जाए तो …”
”नहीं माँ, ”विवेक ने तुरंत माँ की बात काट दी. –”शुभी के प्रति मेरी कोमल भावनाओं में जो पवित्रता है, ,उसे दूषित न होनेदो माँ. …उसके स्नेह के ये मुस्काते फ़ूल मेरी नियति से जुड़ कर कहीं मुरझा न जाएँ …उसे उनके वृन्तों पर ..उनकी दुनिया में ही खिलने दो..मुस्कराने दो. ..उसकी पावनता दूर से ही सही ..मुझे जिंदगी देती रहेगी. ”
..अपना प्रोजेक्ट पूरा कर शुभी लौट गयी अपनी दुनिया में वापस. दुर्गा पूजा में पुनः आने का वादा करके. जाते जाते एक सुन्दर सी कविता भी लिख कर रखने की फरमाईश भी. माँ ने बेटी की तरह उसे ढेरों उपहार दिए, ..साड़ियाँ, चूड़ियां,गणेश जी की प्यारी सी मूर्ति भी दी. पर उसके जाने के बाद अपने अकेलेपन और जीवन में पसर गयी शून्यताको भरने की तलाश उन्हें पार्क में खींच लाती थी….जहां शुभी की स्मृतियाँ उनके साथ साथ चलती थीं. ….पर उसके साथ गुजारे इस वर्षभर के साथ ने जो ऊर्जा, जिजीविषा उसे प्रदान की थी, …उसने विवेक को जीवन भर का सुख़ .आनंद और परित्रुष्टि भी प्रदान कर दी थी. …………….
धूप ज्यादा गर्म महसूस होने लगी थी, विवेक जी ने अपनी छडी उठाई और टहलते हुए पार्क से बाहर आ गए. बाँई तरफ वाली दुकान से घर के लिए दूध और ब्रेड लिया, तो दस कदम चलने के बाद, घर के पास सब्जी खरीदी, फिर दांये मुद कर पच्चीस कदम चलने के बाद घर आगये. …ये सारी जानकारियाँ शुभी ने दी थीं उन्हें. कदमों को गिन गिन कर गंतव्य तक पहुंचना भी उसी ने सिखाया था. ..कहने को ये सब छोटी बातें थीं. पर ये ही जिंदगी को उर्जावान, और जीने योग्य बनाती हैं. यदि ये समझ न आई होती तो उनकी जिंदगी सिर्फ शून्य और वीरान होती….रेगिस्तान की तरह..जहां जिंदगी चलती तो है ,पर धुल भरी आँधियों में लुकती छुपती सी.
माँ को आवाज लगाई और हाथ का सामान उन्हें सौंप दिया, वह कुछ थकी हुई लगीं, यंत्रवत चाय लाकर वह चुपचाप बैठ गयी थीं.
”क्या बात है माँ?..आज बहुत उदास लगती हैं,तबियत तो ठीक है?”
हाँ, मैं बिलकुल ठीक हूँ. पर न जाने क्यों आज रह रह कर शुभी की याद आ रही है. ”
”वह भी आपको याद कराती होगी, इसीलिये..चिंता मत करो माँ.”कह कर विवेक कालेज की तैयारियों में व्यस्त हो गए…शाम को लौटे तो एक पत्र मिला आसाम के मिलेट्री हास्पिटल से. किसी डॉ.गौतम का पत्र था. उन्हें आश्चर्य हुआ, वह उन्हें कैसे जानते हैं?…….पत्र खोला तो एक अप्रत्याशित ख़ुशी मिली ,किसी मित्र ने अपनी आँखें उन्हें दान की थीं, और उन्हें तत्काल बुलाया गया था. …आशंकित मन तमाम सवालों के जवाब ढूंढ़ रहा था. ..पर वे सारे प्रश्न अनुत्तरित रहे…उसी शाम ट्रेन पकड़ माँ के साथ वे आसाम आ गए. ,वहां पर मिलेट्री की गाडी उन्हें लेने के लिए आईथी…और ससम्मान उन्हें गंतव्य तक पहुंचा कर लौट गयी. .वे समझ नहीं पा रहे थे की इतनी दूर भला कोई उन्हें कैसे जानता है?..इतना सम्मान देकर उन्हें बुलाना ..,कौन?
अगले ही क्षण दा० अन्दर आ गए-”हेलो डॉ. विवेक!..मैं डॉ. गौतम मजुमदार.. शुभ्रा का पति. ”
विवेक और माँ जी की खुशियों को जैसे पंख लग गए –”कहाँ है शुभी?..उसे देखने को तो आँखें तरस गईं. ”
गौतम बिलकुल शांत रहे, जब कोई आवाज नहीं आई तो विवेक नेपूछा -”आप बोलते क्यों नहीं?क्या यह भी शुभी की कोई शरारत है?..”
”नहीं विवेक जी,शुभी अब इस दुनिया में नहीं रही.. परसों रात वह एक सड़क हादसे में घायल हो गयी .घायल अवस्था में ही उसने अपनी आँखें आपको देने की इच्छा प्रकट की ..अपने सबसे प्रिय ,आदरणीय विवेक जी को अपनी आँखों से दुनिया दिखा पाने का सपना …मुझे सौंप कर.”
माँ स्वयं को नहीं संभाल पा रही थीं. विवेक जी के बहते हुए आंसू पोंछते हुए डॉ. गौतम उन्हें आपरेशन थियेटर में ले गए. …..
आज पांचवां दिन है आसाम में, विवेक जी की आँखें ,उनकी रोशनी उनकी दुनिया ..आज सबकुछ उनके पास है, ..पर जो रोशनी उनके उजालों में रंग घोल सकती थी, ,..वही नहीं रही…अपनी कलम को हाथों में थाम विवेक जी ने शुभी से किया अपना वादा पूरा करते हुए ..एक कविता लिखने की कोशिश की.—-”रोशनी के नाम..
”वो रोशनी जो तुमने मुझे दी ,
उजाले की तरह छा गए हो तुम,
पर नहीं हो तुम मेरे आसपास कहीं भी,
ये रंग बिरंगी दुनिया, ये फ़ूल,ये धरती,..
लगता है जैसे तुम यहीं कहीं हो …
मेरे साथ साथ, रौशनी बन कर …’दोस्ती ‘की”…..उनकी आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे, यह उनकी पहली और आखिरी कविता थी अपनी —”रौशनी ”के नाम.


-पद्मा मिश्रा
जमशेद पुर, भारत

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