कहानी विशेषः जयदोल-अज्ञेय

लेफ्टिनेंट सागर ने अपना कीचड़ से सना चमड़े का दस्ताना उतार कर, ट्रक के दरवाजे पर पटकते हुए कहा,”गुरूंग, तुम गाड़ी के साथ ठहरो, हम कुछ बन्दोबस्त करेगा।”
गुरूंग सड़ाक से जूतों की एड़ियाँ चटका कर बोला,”ठीक ए सा’ब -”
साँझ हो रही थी। तीन दिन मूसलाधार बारिश के कारण नवगाँव में रुके रहने के बाद, दोपहर को थोड़ी देर के लिए आकाश खुला तो लेफ्टिनेंट सागर ने और देर करना ठीक न समझा। ठीक क्या न समझा, आगे जाने के लिए वह इतना उतावला हो रहा था कि उसने लोगों की चेतावनी को अनावश्यक सावधानी माना और यह सोच कर कि वह कम से कम शिवसागर तो जा ही रहेगा रात तक, वह चल पड़ा था।
जोरहाट पहुँचने तक ही शाम हो गई थी, पर उसे शिवसागर के मन्दिर देखने का इतना चाव था कि वह रुका नहीं, जल्दी से चाय पी कर आगे चल पड़ा। रात जोरहाट में रहे तो सबेरे चल कर सीधे डिबरूगढ़ जाना होगा, रात शिवसागर में रह कर सबेरे वह मन्दिर और ताल को देख सकेगा। शिवसागर, रूद्रसागर, जयसागर – कैसे सुन्दर नाम है। सागर कहलाते हैं तो बड़े-बड़े ताल होंगे — और प्रत्येक के किनारे पर बना हुआ मन्दिर कितना सुन्दर दीखता होगा असमिया लोग हैं भी बड़े साफ-सुथरे, उनके गाँव इतने स्वच्छ होते हैं तो मन्दिरों का क्या कहना
शिव-दोल, रूद्र-दोल, जय-दोल — सागर-तट के मन्दिर को दोल कहना कैसी सुन्दर कवि – कल्पना है। सचमुच जब ताल के जल में, मन्द-मन्द हवा से सिहरती चाँदनी में, मन्दिर की कुहासे-सी परछाई डोलती होगी, तब मन्दिर सचमुच सुन्दर हिंडोले-सा दीखता होगा इसी उत्साह को लिए वह बढ़ता जा रहा था — तीस-पैंतीस मील का क्या है — घण्टेभर की बात है।
लेकिन सात-एक मील बाकी थे कि गाड़ी कच्ची सड़क के कीचड़ में फँस गई। पहले तो स्टीयरिंग ऐसा मक्खन-सा नरम चला मानो गाड़ी नहीं, नाव की पतवार हो और नाव बड़े से भँवर में हचकोले खाती झूम रही हो; फिर लेफ्टिनेंट के सँभालते-सँभालते गाड़ी धीमी हो कर रूक गई, यद्यपि पहियों के घूमते रह कर कीचड़ उछालने की आवाज आती रही।
इसके लिए साधारणत: तैयार होकर ही ट्रक चलते थे। तुरन्त बेलचा निकाला गया, कीचड़ साफ करने की कोशिश हुई लेकिन कीचड़ गहरा और पतला था, बेलचे का नहीं, पम्प का काम था। फिर टायरों पर लोहे की जंजीरें चढ़ाई गईं। पहिये घूमने पर कहीं पकड़ने को कुछ मिले तो गाड़ी आगे ठिले — मगर चलने की कोशिश पर लीक गहरी कटती गई और ट्रक धँसता गया, यहाँ तक कि नीचे का गीयर-बक्स भी कीचड़ में डूबने को हो गया मानों इतना काफी न हो; तभी इंजन ने दो-चार बार फट्-फट्-फट् का शब्द किया और चुप हो गया — फिर स्टार्ट ही न हुआ।
अँधेरे में गुरूंग का मुँह दीखता था और लेफ्टिनेंट ने मन-ही-मन सन्तोष किया कि गुरूंग को उसका मुँह भी नहीं दीखता होगा गुरूंग गोरखा था और फौजी गोरखों की भाषा कम-से-कम भावना की दृष्टि से गूँगी होती है मगर आँखें या चेहरे की झुर्रियाँ सब समय गूँगी नहीं होतीं और इस समय अगर उनमें लेफ्टिनेंट सा’ब की भावुक उतावली पर विनोद का आभास भी दीख गया, तो दोनों में मूक वैमनस्य की एक दीवार खड़ी हो जाएगी।
तभी सागर ने दस्तानें फेंक कर कहा, ”हम कुछ बन्दोबस्त करेगा” और फिच्च-फिच्च कीचड़ में जमा-जमा कर बूट रखता हुआ आगे चढ़ चला।”
कहने को तो उसने कह दिया, पर बन्दोबस्त वह क्या करेगा रात में? बादल फिर घिरने लगे; शिवसागर सात मील है तो दूसरे सागर भी तीन-चार मील तो होंगे और क्या जाने कोई बस्ती भी होगी कि नहीं; और जयसागर तो बड़े बीहड़ मैदान के बीच में हैं उसने पढ़ा था कि उस मैदान के बीच में ही रानी जयमती को यन्त्रणा दी गई थी कि वह अपने पति का पता बता दे। पाँच लाख आदमी उसे देखने इकठ्ठे हुए थे और कई दिनों तक रानी को सारी जनता के सामने सताया तथा अपमानित किया गया था।
एक बात हो सकती है कि पैदाल ही शिवसागर चला जाए। पर उस कीचड़ में फिच्च-फिच्च सात मील – उसी में भोर हो जायेगा, फिर तुरंत गाड़ी के लिए वापस जाना पड़ेगा फिर नहीं, वह बेकार है। दूसरी सूरत रात गाड़ी में ही सोया जा सकता है। पर गुरूंग? वह भूखा ही होगा कच्ची रसद तो होगी पर बनाएगा कैसे? सागर ने तो गहरा नाश्ता किया था, उसके पास बिस्कुट वगैरह भी है पर अफसरी का बड़ा कायदा है कि अपने मातहत को कम-से-कम खाना तो ठीक खिलाये शायद आस-पास कोई गाँव हो —
कीचड़ में कुछ पता न लगता था कि सड़क कितनी है और अगल-बगल का मैदान कितना। पहले तो दो-चार पेड़ भी किनारे-किनारे थे, पर अब वह भी नहीं, दोनों ओर सपाट सूना मैदान था और दूर के पेड़ भी ऐसे धुँधले हो गए थे कि भ्रम हो, कहीं चश्मे पर नमी की ही करामात तो नहीं है अब रास्ता जानने का एक ही तरीका था, जहाँ कीचड़ कम गहरा हो वही सड़क; इधर-उधर हटते ही पिंडलियाँ तक पानी में डूब जाती थीं और तब वह फिर धीरे-धीरे पैर से टटोल कर मध्य में आ जाता था।
यह क्या है? हाँ, पुल-सा है — यह रेलिंग हैं। मगर दो पुल है समकोण बनाते हुए क़्या दो रास्ते है? कौन-सा पकड़ें?
एक कुछ ऊँची जमीन की ओर जाता जान पड़ता था। ऊँचे पर कीचड़ कम होगा, इस बात का ही आकर्षण काफी था; फिर ऊँचाई पर से शायद कुछ दीख भी जाए। सागर उधर ही को चल पड़ा। पुल के पार ही सड़क एक ऊँची उठी हुई पटरी-सी बन गई, तनिक आगे इसमें कई मोड़ से आये, फिर जैसे धन-खेत में कहीं-कहीं कई-एक छोटे-छोटे खेत एक-साथ पड़ने पर उनकी मेड़ मानो एक-साथ ही कई ओर जाती जान पड़ती है, इसी तरह वह पटरी भी कई ओर को जाती-सी जान पड़ी। सागर मानो एक बिन्दु पर खड़ा है, जहाँ से कई रास्ते हैं, प्रत्येक के दोनों ओर जल मानो अथाह समुद्र में पटरियाँ बिछा दी गईं हों।
सागर ने एक बार चारों ओर नजर दौड़ाई। शून्य। उसने फिर आँखों की कोरें कस कर झाँक कर देखा, बादलों की रेखा में एक कुछ अधिक घनी-सी रेखा उसे दीखी बादल ऐसा समकोण नहीं हो सकता। नहीं, यह इमारत है सागर उसी ओर को बढ़ने लगा। रोशनी नहीं दीखती, पर शायद भीतर कोई हो —
पर ज्यों-ज्यों वह निकट आता गया उसकी आशा धुँधली पड़ती गई। वह असमिया घर नहीं हो सकता — इतने बड़े घर अब कहाँ हैं — फिर यहाँ, जहाँ बाँस और फूस के बासे ही हो सकते हैं, इंट के घर नहीं– अरे, यह तो कोई बड़ी इमारत है — क्या हो सकती है?
मानो उसके प्रश्न के उत्तर में ही सहसा आकाश में बादल कुछ फीका पड़ा और सहसा धुँधला-सा चाँद भी झलक गया। उसके अधूरे प्रकाश में सागर ने देखा — एक बड़ी-सी, ऊपर से चपटी-सी इमारत — मानो दुमंजिली बारादरी बरामदे से, जिसमें कई-एक महराबें; एक के बीच से मानो आकाश झाँक दिया…
सागर ठिठक कर क्षण-भर उसे देखता रहा। सहसा उसके भीतर कुछ जागा जिसने इमारत को पहचान लिया — यह तो अहोम राजाओं का क्रीड़ा भवन है — क्या नाम है? — रंग-महल, नहीं, हवा-महल — नहीं, ठीक याद नहीं आता, पर यह उस बड़े पठार के किनारे पर है जिसमें जयमती —
एकाएक हवा सनसना उठी। आस-पास के पानी में जहाँ-तहाँ नरसल के झोंप थे, झुक कर फुसफुसा उठे जैसे राजा के आने पर भृत्योंसेवकों में एक सिहरन दौड़ जाए एकाएक यह लक्ष्य कर के कि चाँद फिर छिपा जा रहा है, सागर ने घूमकर चीन्ह लेना चाहा कि ट्रक किधर कितनी दूर है, पर वह अभी यह भी तय नहीं कर सका था कि कहाँ क्षितिज है जिसके नीचे पठार है और ऊपर आकाश या मेघाली कि चाँद छिप गया और अगर उसने खूब अच्छी तरह आकार पहचान न रखा होता तो रंग-महल या हवा-महल भी खो जाता।
महल में छत होगी। वहाँ सूखा होगा। वहाँ आग भी जल सकती है। शायद बिस्तर लाकर सोया भी जा सकता है। ट्रक से तो यही अच्छा रहेगा — गाड़ी को तो कोई खतरा नहीं —
सागर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा।
रंग-महल बहुत बड़ा हो गया था। उसकी कुरसी ही इतनी ऊँची थी कि असमिया घर उसकी ओट छिप जाए। पक्के फर्श पर पैर पड़ते ही सागर ने अनुमान किया, तीस-पैंतीस सीढ़ियाँ होंगी सीढ़ियाँ चढ़ कर वह असली ड्योढ़ी तक पहुँचेगा।
ऊपर चढ़ते-चढ़ते हवा चीख उठी। कई मेहराबों से मानो उसने गुर्रा कर कहा, ”कौन हो तुम, इतनी रात गए मेरा एकान्त भंग करनेवाले?” विरोध के फूत्कार का यह थपेड़ा इतना सच्चा था कि सागर मानो फुसफुसा ही उठा, ”मैं — सागर, आसरा ढूँढ़ता हूँ — रैनबसेरा –”
पोपले मुँह का बूढ़ा जैसे खिसिया कर हँसे; वैसे ही हवा हँस उठी।
”ही –ही — ही — खी — खी –खी: – यह हवा-महल है, हवा-महल — अहोम राजा का लीलागार — अहोम राजा का — व्यसनी, विलासी, छहों इन्द्रियों से जीवन की लिसड़ी बोटी से छहों रसों को चूस कर उसे झँझोड़ कर फेंक देने वाले नृशंस लीलापिशाचों का — यहाँ आसरा — यहाँ बसेरा ही –ही — ही — खी — खी –खी:।”
सीढ़ियों की चोटी से मेहराबों के तले खड़े सागर ने नीचे और बाहर की ओर देखा। शून्य, महाशून्य; बादलों में बसी नमी और ज्वाला से प्लवन, वज्र और बिजली से भरा हुआ शून्य। क्या उसी की गुर्राहट हवा में हैं, या कि नीचे फैले नंगे पठार की, जिसके चूतड़ों पर दिन-भर सड़ पानी के कोड़ों की बौछार पड़ती रही है? उसी पठार का आक्रोश, सिसकन, रिरियाहट?
इसी जगह, इसी मेहराब के नीचे खड़े कभी अधनंगे अहोम राज ने अपने गठीले शरीर को दर्प से अकड़ा कर, सितार की खूँटी की तरह उमेठ कर, बाँयें हाथ के अँगूठे को कमरबन्द में अटका कर, सीढ़ियों पर खड़े क्षत-शरीर राजकुमारों को देखा होगा, जैसे कोई साँड़ खसिया बैलों के झुण्ड को देखे, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी को उठा कर दाहिने भ्रू को तनिक-सा कुंचित करके, संकेत से आदेश किया होगा कि यन्त्रणा को और कड़ी होने दो।
लेफ्टिनेण्ट सागर की टाँगें मानो शिथिल हो गयीं। वह सीढ़ी पर बैठ गया, पैर उसने नीचे को लटका दिये, पीठ मेहराब के निचले हिस्से से टेक दी। उसका शरीर थक गया था दिन-भर स्टीयरिंग पर बैठे-बैठे और पौने दो सौ मील तक कीचड़ की सड़क में बनी लीकों पर आँखें जमाये रहने से आँखें भी ऐसे चुनचुना रही थीं मानो उनमें बहुत बारीक पिसी हुई रेत डाल दी गई हो — आँखें बन्द भी वह करना चाहे और बन्द करने में क्लेश भी हो — वह आँख खुली रखकर ही किसी तरह दीठ को समेट ले, या बन्द करके देखता रह सके, तो

अहोम राजा चूलिक-फा राजा में ईश्वर का अंश होता है, ऐसे अन्धविश्वास पालनेवाली अहोम जाति के लिए यह मानना स्वाभाविक ही था कि राजकुल का अक्षत-शरीर व्यक्ति ही राजा हो सकता है, जिसके शरीर में कोई क्षत है, उसमें देवत्व का अंश कैसे रह सकता है?
देवत्व — और क्षुण्ण? नहीं। ईश्वरत्व अक्षुण्ण ही होता है और राजा शरीर अक्षत
अहोम परम्परा के अनुसार कुल-घात के सेतु से पार होकर चूलिक-फा भी राजसिंहासन पर पहुँचा। लेकिन वह सेतु सदा के लिए खुला रहे, इसके लिए उसने एक अत्यन्त नृशंस उपाय सोचा। अक्षत-शरीर राजकुमार ही राजा हो सकते हैं, अत: सारे अक्षत-शरीर राजकुमार उसके प्रतिस्पर्धी और सम्भाव्य घातक हो सकते हैं। उनके निराकरण का उपाय यह है कि सब का एक-एक कान या छिगुनी कटवा ली जाए — हत्या भी न करनी पड़े, मार्ग के रोड़े भी हट जायें। लाठी न टूटे, साँप भी मरे नहीं पर उसके विषदन्त उखड़ जाएँ। क्षत-शरीर, कनकटे या छिगुनी-कटे राजकुमार राजा हो ही नहीं सकेंगे, तब उन्हें राज-घात का लोभ भी न सताएगा –
चूलिक-फा ने सेनापति को बुला कर गुप्त आज्ञा दी कि रात में चुपचाप राज-कुल के प्रत्येक व्यक्ति के कान (या छिगुनी) काट कर प्रात:काल दरबार में राज-चरणों में अर्पित किए जाएँ।
और प्रात:काल वहीं रंगमहल की सीढ़ियों पर, उसके चरणों में यह वीभत्स उपहार चढ़ाया गया होगा — और उसने उसी दर्प-भरी अवज्ञा में, होठों की तार-सी तनी पतली रेखा को तनिक मोड़-सी देकर, शब्द किया होगा, ‘हूँ’ और रक्त-सने थाल को पैर से तनिक-सा ठुकरा दिया होगा –
चूलिक-फा — निष्कंटक राजा – लेकिन नहीं यह तीर-सा कैसा साल गया? एक राजकुमार भाग गया –अक्षत –
लेफ्टिनेंट सागर मानो चूलिका-फा के चीत्कार को स्पष्ट सुन सका। अक्षत – भाग गया?
वहाँ सामने — लेफ्टिनेंट ने फिर आँखों को कस कर बादलों की दरार को भेदने की कोशिश की — वहाँ सामने कहीं नगा पर्वत श्रेणी है। वनवासी वीर नगा जातियों से अहोम राजाओं की कभी नहीं बनी –वे अपने पर्वतों के नंगे राजा थे, ये अपनी समतल भूमि के कौशेय पहन कर भी अधनंगे रहने वाले महाराजा, पीढ़ियों के युद्ध के बाद दोनों ने अपनी-अपनी सीमाएँ बाँध ली थीं और कोई किसी से छेड़-छाड़ नहीं करता था — केवल सीमा-प्रदेश पर पड़ने वाली नमक की झीलों के लिए युद्ध होता था क्योंकि नमक दोनों को चाहिए था। पर अहोम राजद्रोही नगा जातियों के सरदार के पास आश्रय पाए — असह्य है – असह्य –
हवा ने साँय-साँय कर के दाद दी असह्य। मानो चूलिक-फा के विवश क्रोध की लम्बी साँस सागर की देह को छू गई- यहीं खड़े होकर उसने वह सांस खींची होगी — उस मेहराब ही की इँट-इँट में तो उसके सुलगते वायु-कण बसे होंगे?
लेकिन जाएगा कहाँ – उसकी वधू तो है? वह जानेगी उसका पति कहाँ है, उसे जानना होगा – जयमती अहोम राज्य की अद्वितीय सुन्दरी — जनता की लाडली — होने दो – चूलिक-फा राजा है, वह शत्रुविहीन निष्कण्टक राज्य करना चाहता है – जयमती को पति का पता देना होगा — उसे पकड़वाना होगा — चूलिक-फा उसका प्राण नहीं चाहता, केवल एक कान चाहता है, या एक छिगुनी — चाहें बायें हाथ की भी छिगुनी – क्यों नहीं बतायेगी जयमती? वह प्रजा है; प्रजा की हड्डी-बोटी पर भी राजा का अधिकार है –
बहुत ही छोटे एक क्षण के लिए चाँद झलक गया। सागर ने देखा, सामने खुला, आकारहीन, दिशाहीन, मानातीत निरा विस्तार; जिसमें नरसलों की सायँ-सायँ, हवा का असंख्य कराहटों के साथ रोना, उसे घेरे हुए मेहराबों की क्रुद्ध साँपों की-सी फुँफकार चाँद फिर छिप गया और पानी की नयी बौछार के साथ सागर ने आँखें बन्द कर लीं असंख्य सहमी हुई कराहें और पानी की मार ऐसे जैसे नंगे चूतड़ों पर स-दिया प्रान्त के लचीले बेतों की सड़ाक-सड़ाक। स-दिया अर्थात शव-दिया? कब किसका शव वहाँ मिलता था याद नहीं आता, पर था शव जरूर — किसका शव नहीं, जयमती का नहीं। वह तो — वह तो उन पाँच लाख बेबस देखने वालों के सामने एक लकड़ी के मंचपर खड़ी है, अपनी ही अस्पृश्य लज्जा में, अभेद्य मौन में, अटूट संकल्प और दुर्दमनीय स्पर्द्धा में लिपटी हुई; सात दिन की भूखी-प्यासी, घाम और रक्त की कीच से लथपथ, लेकिन शेषनाग के माथे में ठुकी हुई कोली की भाँति अडिग, आकाश को छूने वाली प्रात:शिखा-सी निष्कम्प लेकिन यह क्या? सागर तिलमिला कर उठ बैठा। मानों अँधेरे में भुतही-सी दीख पड़नेवाली वह लाखों की भीड़ भी काँप कर फिर जड़ हो गई — जयमती के गले से एक बड़ी तीखी करूण चीख निकल कर भारी वायु-मण्डल को भेद गई — जैसे किसी थुलथुल कछुए के पेट को मछेरे की बर्छी सागर ने बड़े जोर से मुठि्ठयाँ भींच ली क्या जयमती टूट गई? नहीं, यह नहीं हो सकता, नरसलों की तरह बिना रीढ़ के गिरती-पड़ती इस लाख जनता के बीच वही तो देवदारू-सी तनी खड़ी है, मानवता की ज्योति:शलाका सहसा उसके पीछे से एक दृप्त, रूखी, अवज्ञा-भरी हँसी से पीतल की तरह झनझनाते स्वर ने कहा, ”मैं राजा हूँ -”
सागर ने चौक कर मुड़ कर देखा –सुनहला, रेशमी वस्त्र, रेशमी उत्तरीय, सोने की कंठी और बड़े-बड़े अनगढ़ पन्नों की माला पहने भी अधनंगा एक व्यक्ति उसकी और ऐसी दया-भरी अवज्ञा से देख रहा था, जैसे कोई राह किनारे के कृमि-कीट को देखे। उसका सुगठित शरीर, छेनी से तराशी हुई चिकनी मांस-पेशियाँ, दर्प-स्फीत नासाएँ, तेल से चमक रही थीं, आँखों की कोर में लाली थी जो अपनी अलग अलग बात कहती थी — मैं मद भी हो सकती हूँ, गर्व भी, विलास-लोलुपता भी और निरी नृशंस नर-रक्त-पिपासा भी सागर टुकुर-टुकुत देखता रह गया। न उड़ सका, न हिल सका। वह व्यक्ति फिर बोला, ”जयमती? हुँ: , जयमती – अँगूठे और तर्जनी की चुटकी बना कर उसने झटक दी, मानो हाथ का मैल कोई मसल कर फेंक दे। बिना क्रिया के भी वाक्य सार्थक होता है, कम-से-कम राजा का वाक्य सागर ने कहना चाहा, ”नृशंस- राक्षस- ” लेकिन उसकी आँखों की लाली में एक बाध्य करनेवाली प्रेरणा थी, सागर ने उसकी दृष्टि का अनुसरण करते हुए देखा, जयमती सचमुच लड़खड़ा गई थी। चीखने के बाद उसका शरीर ढीला होकर लटक गया था, कोड़ों की मार रुक गई थी, जनता साँस रोके सुन रही थी सागर ने भी साँस रोक ली। तब मानो स्तब्धता में उसे अधिक स्पष्ट दीखने लगा, जयमती के सामने एक नगा बाँका खड़ा था, सिर पर कलगी, गले में लकड़ी के मुँड़ों की माला, मुँह पर रंग की व्याघ्रोपम रेखाएँ, कमर के घास की चटाई की कौपीन, हाथ में बर्छी। और वह जयमती से कुछ कह रहा था।
सागर के पीछे एक दर्प-स्फीत स्वर फिर बोला, ”चूलिक-फा के विधान में हस्तक्षेप करनेवाला यह ढीठ नगा कौन है? पर सहसा उस नंगे व्यक्ति का स्वर सुनाई पड़ने लगा और सब चुप हो गए।
”जयमती, तुम्हारा साहस धन्य है। जनता तुम्हें देवी मानती है। पर और अपमान क्यों सहो? राजा का बल अपार है — कुमार का पता बता दो और मुक्ति पाओ -”
अब की बार रानी चीखी नहीं। शिथिल-शरीर, फिर एक बार कराह कर रह गई।
नगा वीर फिर बोला, ”चुलिक-फा केवल अपनी रक्षा चाहता है, कुमार के प्राण नहीं। एक कान दे देने में क्या है? या छिगुनी? उतना तो भी खेल में या मल्ल-युद्ध में भी जा सकता है।”
रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया।
”चूलिक-फा डरपोक है, डर नृशंस होता है। पर तुम कुमार का पता बता कर अपनी मान-रक्षा और पति की प्राण-रक्षा कर सकती हो।”
सागर ने पीछे सुना, ”हुँ:,” और मुड़ कर देखा, उस व्यक्ति के चेहरे पर एक क्रूर कुटिल मुसकान खेल रही है।
सागर ने उद्धत होकर कहा, ”हुँ: क्या?”
वह व्यक्ति तन कर खड़ा हो गया, थोड़ी देर सागर की ओर देखता रहा, मानो सोच रहा हो, इसे क्या वह उत्तर दे? फिर और भी कुटिल ओठों के बीच से बोला, ”मैं चूलिक-फा, डरपोक! अभी जानेगा। पर अभी तो मेरे काम की कह रहा है –”
नगा वीर जयमती के और निकट जाकर धीरे-धीरे कुछ कहने लगा।
चूलिक फा ने भौं सिकोड़ कर कहा क्या फुसफुसा रहा है?
सागर ने आगे झुक कर सुन लिया।
”जयमती, कुमार तो अपने मित्र नगा सरदार के पास सुरक्षित है। चूलिक तो उसे तो उसे पकड़ ही नहीं सकता, तुम पता बता कर अपनी रक्षा क्यों न करो? देखो, तुम्हारी कोमल देह –”
आवेश में सागर खड़ा हो गया, क्योंकि उस कोमल देह में एक बिजली-सी दौड़ गई और उसने तन कर, सहसा नगा वीर की ओर उन्मुख होकर कहा, ”कायर, नपुंसक तुम नगा कैसे हुए? कुमार तो अमर है, कीड़ा चूलिक-फा उन्हें कैसे छुएगा? मगर क्या लोग कहेंगे, कुमार की रानी जयमती ने देह की यन्त्रणा से घबड़ा कर उसका पता बता दिया? हट जाओ, अपना कलंकी मुँह मेरे सामने से दूर करो – ”
जनता में तीव्र सिहरन दौड़ गई। नरसल बड़ी जोर से काँप गए; गँदले पानी में एक हलचल उठी जिसके लहराते गोल वृत्त फैले कि फैलते ही गए; हवा फँुककार उठी, बड़े जोर की गड़गड़ाहट हुई। मेघ और काले हो गए — यह निरी रात है कि महानिशा, कि यन्त्रणा की रात — सातवीं रात, कि नवीं रात? और जयमती क्या अब बोल भी सकती है, क्या यह उसके दृढ़ संकल्प का मौन है, कि अशक्तता का? और यह वही भीड़ है कि नयी भीड़, वही नगा वीर, कि दूसरा कोई, कि भीड़ में कई नगे बिखरे है
चूलिक-फा ने कटु स्वर में कहा, ”फिर आया वह नंगा?”
नगा वीर ने पुकार कर कहा, ”जयमती – रानी जयमती – ”
रानी हिली-डुली नहीं।
वीर फिर बोला, ”रानी – मैं उसी नगा सरदार का दूत हूँ, जिसके यहाँ कुमार ने शरण ली है। मेरी बात सुनो।”
रानी का शरीर काँप गया। वह एक टक आँखों से उसे देखने लगी, कुछ बोली नहीं। सकी नहीं।
”तुम कुमार का पता दे दो। सरदार उसकी रक्षा करेंगे। वह सुरक्षित है।”
रानी की आँखों में कुछ घना हो आया। बड़े कष्ट से उसने कहा, ”नीच – ”एक बार उसने ओठों पर जीभ फेरी, कुछ और बोलना चाहा, पर सकी नहीं।
चूलिक-फा ने वहीं से आदेश दिया, ”पानी दो इसे — बोलने दो – ”
किसी ने रानी के ओठों की ओर पानी बढ़ाया। वह थोड़ी देर मिट्टी के कसोरे की ओर वितृष्ण दृष्टि से देखती रही, फिर उसने आँख भर कर नगा युवक की ओर देखा, फिर एक घूँट पी लिया। तभी चूलिक-फा ने कहा, ”बस, एक-एक घूँट, अधिक नहीं – ”
रानी ने एक बार दृष्टि चारों ओर लाख-लाख जनता की ओर दौड़ाई। फिर आँखें नगा युवक पर गड़ा कर बोली, ”कुमार सुरक्षित है। और कुमार की यह लाख-लाख प्रजा — जो उनके लिए आँखें बिछाये है — एक नेता के लिए, जिसके पीछे चल कर आततायी का राज्य उलट दे — जो एक आदर्श माँगती है — मैं उसकी आशा तोड़ दूँ — उसे हरा दूँ — कुमार को हरा दूँ?”
वह लक्षण भर चुप हुई। चूलिक-फा ने एक बार आँख दौड़ा कर सारी भीड़ को देख लिया। उसकी आँख कहीं टिकी नहीं मानो उस भीड़ में उसे टिकने लायक कुछ नहीं मिला, जैसे रेंगते कीड़ों पर दीठ नहीं जमती।
नगा ने कहा, ”प्रजा तो राजा चूलिक-फा की है न?”
रानी ने फिर उसे स्थिर दृष्टि से देखा। फिर धीरे-धीरे कहा, ”चूलिक-” और फिर कुछ ऐसे भाव से अधूरा छोड़ दिया कि उसके उच्चारण से मुँह दूषित हो जाएगा। फिर कहा, ”यह प्रजा कुमार की है — जा कर नगा सरदार से कहना कि कुमार — वह फिर रुक गई। पर तू — तू नगा नहीं, तू तो उस — उस गिद्ध की प्रजा है — जा उसके गन्दे पंजे को चाट –
रानी की आँखें चूलिक-फा की ओर मुड़ी पर उसकी दीठ ने उसे छुआ नहीं, जैसे किसी गिलगिली चीज की और आँखें चढ़ाने में भी घिन आती है नगा ने मुसकरा कर कहा, ”कहाँ है मेरा राजा – ” चूलिक-फा ने वहीं से पुकार कर कहा, ”मैं यह हूँ — अहोम राज्य का एकछत्र शासक – ” नगा युवक सहसा उसके पास चला आया।
सागर ने देखा, भीड़ का रंग बदल गया है। वैसा ही अन्धकार, वैसा ही अथाह प्रसार, पर उसमें जैसे कहीं व्यवस्था, भीड़ में जगह-जगह नगा दर्शक बिखरे, पर बिखरेपन में भी एक माप नगा ने पास से कहा, ”मेरे राजा – ”
एकाएक बड़े जोर की गड़गड़ाहट हुई। सागर खड़ा हो गया उसने आँखें फाड़ कर देखा, नगा युवक सहसा बर्छी के सहारे कई-एक सीढ़ियाँ फाँद कर चूलिक-फा के पास पहुँच गया है, बर्छी सीढ़ी की इँटों की दरार में फँसी रह गई है, पर नगा चूलिक-फा को धक्के से गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ गया है; उधर जनता में एक बिजली कड़क गई है, ”कुमार की जय – ”किसीने फाँद कर मंच पर चढ़ कर कोड़ा लिए जल्लादों को गिरा दिया है, किसीने अपना-अंग-वस्त्र जयमती पर डाला है और कोई उसके बन्धन की रस्सी टटोल रहा है।
पर चूलिक-फा और नगा सागर मन्त्र-मुग्ध-सा खड़ा था; उसकी दीठ चूलिक-फा पर जमी थी सहसा उसने देखा, नगा तो निहत्था है, पर नीचे पड़े चूलिक-फा के हाथ में एक चन्द्रकार डाओ है जो वह नगा के कान के पीछे साध रहा है — नगा को ध्यान नहीं है; मगर चूलिक-फा की आँखों में पहचान है कि नगा और कोई नहीं, स्वयं कुमार है; और वह डाओ साध रहा है कुमार छाती पर है, पर मर जाएगा या क्षत भी हो गया तो चूलिक-फा ही मर गया तो भी अगर कुमार क्षत हो गया तो — सागर उछला। वह चूलिक-फा का हाथ पकड़ लेगा — डाओ छीन लेगा।
पर वह असावधानी से उछला था, उसका कीचड़-सना बूट सीढ़ी पर फिसल गया और वह लुढ़कता-पुढ़कता नीचे जा गिरा।
अब? चूलिक-फा का हाथ सध गया है, डाओ पर उसकी पकड़ कड़ी हो गई है, अब —
लेफ्टिनेन्ट सागर ने वहीं पड़े-पड़े कमर से रिवाल्वर खींचा और शिस्त लेकर दाग दिया धाँय –
धुआँ हो गया। हटेगा तो दीखेगा – पर धुआँ हटता क्यों नहीं? आग लग गई — रंग-महल जल रहा है, लपटें इधर-उधर दौड़ रही है। क्या चूलिक-फा जल गया? — और कुमार — क्या यह कुमार की जयध्वनि है? कि जयमती की यह अद्भुत, रोमांचकारी गँूज, जिसमें मानो वह डूबा जा रहा है, डूबा जा रहा है — नहीं, उसे सँभलना होगा।
लेफ्टिनेन्ट सागर सहसा जाग कर उठ बैठा। एक बार हक्का-बक्का होकर चारों ओर देखा, फिर उसकी बिखरी चेतना केन्द्रित हो गई। दूर से दो ट्रकों की दो जोड़ी बत्तियाँ पूरे प्रकाश से जगमगा रही थीं, और एक से सर्च-लाइट इधर-उधर भटकती हुई रंग-महल की सीढ़ियों को क्षण-क्षण ऐसे चमका देती थी मानो बादलों से पृथ्वी तक किसी वज्रदेवता के उतारने का मार्ग खुल जाता है। दोनों ट्रकों के हार्न पूरे जोर से बजाये जा रहे थे।
बौछार से भीगा हुआ बदन झाड़ कर लेफ्टिनेन्ट सागर उठ खड़ा हुआ। क्या वह रंग-महल की सीढ़ियों पर सो गया था? एक बार आँखें दौड़ा कर उसने मेहराब को देखा, चाँद निकल आया था, मेहराब की इँटें दीख रही थीं। फिर धीरे-धीरे उतरने लगा।
नीचे से आवाज आई, ”सा’ब, दूसरा गाड़ी आ गया, टो कर के ले जाएगा – ”
सागर ने मुँह उठा कर सामने देखा, और देखता रह गया। दूर चौरस ताल चमक रहा था, जिसके किनारे पर मन्दिर भागते बादलों के बीच में काँपता हुआ, मानो शुभ्र चाँदनी से ढका हुआ हिंडोला — क्या एक रानी के अभिमान का प्रतीक, जिसने राजा को बचाया, या एक नारी के साहस का, जिसने पुरूष का पथ-प्रदर्शन किया; या कि मानव मात्र की अदम्य स्वातंत्र प्रेरणा का अभीत, अजेय, जय-दोल?

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