कविता धरोहरः राम राज्य – तुलसी दास


राम राज्य

राम राज बैठे त्रैलोका- हरषित भए गए सब सोका ।
बयरु न कर काहू सन कोई- राम प्रताप विषमता खोई।।

बरनाश्रम निज निज धरम, निरत बेद पथ लोग ।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहिं भय सोक न रोग।।

दैहिक दैविक भौतिक तापा- राम राज नहिं काहुहि व्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीति- चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।

अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा- सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा।
नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना- नहिं कोउ अबुध धन लच्छन हीना।।

सब निर्दम्भ धर्मरत पुनी- नर अरु नारि चतुर सब गुनी।
सब गुनग्य पण्डित सब ग्यानी- सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।

सब उदार सब पर उपकारी- बिप्र चरन सेवक नर नारी।
एकनारि ब्रत रत सब झारी- ते मन बच क्रम पति हितकारी।।

दण्ड जतिन्ह कर भेद जहँ, नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहिं सुनिश्र अस, रामराज्य के आस।।

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन- रहहिं एक संग गज पंचानन।
खग मृग सहज बयरु बिसराई- सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।

कूजहिं खग मृग नाना बृन्दा- अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
सीतल सुरभि पवन बह मन्दा- गुंजत अलि लै चलि मकरन्दा।।

लता बिटप मागें मधु चवहिं- मन भावतों धेनु पय स्रवहीं।
ससि स्पन्न सदा रह धरनी- त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी।।

प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी- जगदातमा भूप जग जानी।
सरिता सकल बहहिं बर बारि- सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।

सागर निज मरजादा रहहिं- डारहिं रत्न तटहिं नर लहहिं।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा – अति प्रसन्न सदिसा बिभागा।।

बिधु महि पूरमयूखन्हि, रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल, रामचन्द्र के राज।।

जेहि बिधि कृपासिन्धु सुख मानइ- सोइ कर श्री सेवा विधि जानइ।
कौसल्यादि सासु गृह माहीं- सेवइ सबन्हि मान मन नाहीं।।

सेवहिं सानुकूल सब भाई – राम चरन रति अति अधकाई।
प्रभु मुख बिलोकत रहहिं- कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीति- नाना भाँति सिखावहिं नीती।
हरषित रहहिं नगर के लोगा- करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन- बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन।
बेद पुरान बसिष्ठ बखानहिं- सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं।।

अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं- देखि सकल जननि सुख भरहिं।
भरत शत्रुहन दोनउ भाई- सहित पवनसुत उपवन जाई।।

चारु चित्रशाला गृह, गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि, ते मन लेहिं चुराइ।

सुमन बाटिका सबहिं लगाई- बिबिध भाँति करि जतन बनाईं।
लता ललित बहु जाति सुहाई- फूलहि सदा बसंत कि नाईं।।

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर- मारुत त्रिबिधि सदा बह सुन्दर।
नाना खग बालकन्हि जिआए- बोलत मधुर उड़ात सुहाए।।

मोर हंस सारस पारावत- भवननि पर सोभा अति पावत।
जहँतहँ देखहिं निज परछाहीं- बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं।।

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक- कहहु राम रघुपति जन पालक।
राज दुआर सकल बिधि चारु- बीथीं चौहट रुचिर बजारू।।

बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिन गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की सम्पदा किमि गाइए।।

बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुन्दर नारि नर सिसु जरठ जे।।

उत्तर दिशि सरजू बह, निर्मल जल गंभीर।
बांधे घाट मनोहर, स्वल्प पंक नहिं तीर।।

दूरि फराक रुचिर सो घाटा- जहाँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना, तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।।

राजघाट सब बिधि सुन्दर बर- मज्जहि तहाँ बरन चारिउ नर।
तीर तीर देवन्ह के मन्दिर- चहुँ दिसि तिन्ह के उपवन सुन्दर।।

कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी- बसहिं ज्ञानरत मुनि सन्यासी।
जहँ तहँ तुलसी बृन्द सुहाए- बहु प्रकार सब मुनिन्ह लगाए।।

पुर सोभा कछु बरन न जाई- बाहेर नगर परम रुचिराई।
देखत पुरी अकिल अघ भागा- बन उपवन बापिका तड़ागा।।

जब ते राम प्रताप खगेसा- उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका- बहुतेन्ह सुख बहु तन-मन सोका।।

जिन्हहि सोक ते कहऊँ बखानी- प्रथम अविद्या निसा नसानी।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने- काम क्रोध कैरव सकुचाने।।

बिबिध कर्म गुन काल सुभाउ- ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।
मत्सर मान मोह मद चोरा- इन्हे कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।

धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना- ए पंकज बिकसे बिधि नाना।
सुख संतोष बिराग बिबेका-बिगत सोक ए कोक अनेका।।

यह प्रताप रबि जाकें, उर जब करइ प्रकास।
पिछले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास।।
उत्तर कांडः राम चरित मानस
-संत तुलसी दास

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