कविता धरोहरः रघुबीर सहाय


कमरा
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हम दो जने थे जागते
ऐसा लगा जैसे कि यह कमरा
रेलगाड़ी का एक डिब्बा हो
समय और अंधकार में यात्रा करता हुआ
चला जाता हो
और अकेला होता तो
लगता कि कोई प्रिय पात्र बीमार है
जिसके सिरहाने मैं बैठा जागता हूँ।

आज फिर शुरू हुआ जीवन
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आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा

जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया

आज एक छोटी-सी बच्ची आई,किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ ।

औरत का जीवन
कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा


तोड़ो
तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्‍थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती का हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्‍यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने

तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये ऊसर बंजर तोड़ो
ये चरती परती तोड़ो
सब खेत बनाकर छोड़ो
मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को
हम इसको क्‍या कर डालें इस अपने मन की खीज को?
गोड़ो गोड़ो गोड़ो

आने वाला कल
मुझे याद नहीं रहता है वह क्षण
जब सहसा एक नई ताकत मिल जाती है
कोई एक छोटा-सा सच पकडा जाने से
वह क्षण एक और बडे सच में खो जाता है
मुझे एक अधिक बडे अनुभव की खोज में छोडकर।

निश्चय ही जो बडे अनुभव को पाए बिना सब जानते हैं
खुश हैं
मैं रोज-रोज थकता जाता हूँ और मुझे कोई इच्छा नहीं
अपने को बदलने की कीमत इस थकान को देकर चुकाने की।

इसे मेरे पास ही रहने दो
याद यह दिलाएगी कि जब मैं बदलता हूँ
एक बदलती हुई हालत का हिस्सा ही होता हूँ
अद्वितीय अपने में किन्तु सर्वसामान्य।

हर थका चेहरा तुम गौर से देखना
उसमें वह छिपा कहीं होगा गया कल
और आनेवाला कल भी वहीं कहीं होगा।

जल भरे बर्तन में झाँकें
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आओ, जल भरे बर्तन में झाँकें
साँस से पानी में डोल उठेंगी दोनों छायाएँ
चौंककर हम अलग-अलग हो जाएंगे
जैसे अब, तब भी मिलाएंगे आँखें, आओ
पैठी हुई जल में छाया साथ-साथ भींगे
झुके हुए ऊपर दिल की ध़ड़कन-सी काँपे
करती हुई इंगित कभी हाँ के कभी ना के

आओ, जल भरे बर्तन में झाँकें।

पहले बदलो
उसने पहले मेरा हाल पूछा
फिर एकाएक विषय बदलकर कहा
आजकल का समाज देखते हुए
मैं चाहता हूँ कि तुम बदलो

फिर कहा कि अभी तक तुम अयोग्य
साबित हुए हो

इसलिए बदलो,
फिर कहा पहले तुम अपने को बदलकर दिखाओ
तब मैं तुमसे बात करूँगा।

रघुबीर सहाय
जन्मः 09 दिसम्बर 1929
निधनः 30 दिसम्बर 1990
कुछ प्रमुख कृतियाँ
दूसरा सप्तक, सीढियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो, हँसो, जल्दी हँसो, लोग भूल गये हैं, कुछ पते कुछ चिठ्ठियाँ, एक समय था।

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