दो बूंदें
शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !
आँखों से अलख जगाने को
आँखों से अलख जगाने को,
यह आज भैरवी आई है .
उषा-सी आँखों में कितनी,
मादकता भरी ललाई है .
कहता दिगन्त से मलय पवन
प्राची की लाज भरी चितवन-
है रात घूम आई मधुबन ,
यह आलस की अंगराई है .
लहरों में यह क्रीड़ा-चंचल,
सागर का उद्वेलित अंचल .
है पोंछ रहा आँखें छलछल,
किसने यह चोट लगाई है ?
मधुप गुनगुनाकर
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास,
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास,
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती,
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही ख़ाली करने वाले,
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं,
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की,
अरे खिल-खिलाकर हँसने वाली उन बातों की,
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया,
जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में,
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की,
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
लहर
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे
सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे
वसुधा के अंचल पर
वसुधा के अंचल पर
यह क्या कन- कन सा गया बिखर ?
जल-शिशु की चंचल क्रीड़ा- सा ,
जैसे सरसिज डाल पर .
लालसा निराशा में ढलमल
वेदना और सुख में विह्वल
यह या है रे मानव जीवन?
कितना है रहा निखर.
मिलने चलते अब दो कन,
आकर्षण – मय चुम्बन बन,
दल के नस-नस में बह जाती-
लघु-लघु धारा सुंदर.
हिलता-डुलता चन्चल दल,
ये सब कितने हैं रहे मचल?
कन-कन अनन्त अंबुधि बनते!
कब रूकती लीला निष्ठुर!
तब क्यों रे यह सब क्यों ?
यह रोष भरी लाली क्यों ?
गिरने दे नयनों से उज्जवल
आँसू के कन मनहर-
वसुधा के अंचल पर !
जयशंकर प्रसाद
भावों के कोमल चितेरे और छायावाद के तीन प्रमुख स्तंभों में से एक।