कविता धरोहरः केदार नाथ अग्रवाल

मांझी न बजाओ वंशी

मांझी न बजाओ वंशी, मेरा मन डोलता।
मेरा मन डोलता
जैसे जल डोलता।

जल का जहाज जैसे
पल पल डोलता
मांझी न बजाओ वंशी, मेरा मन डोलता।

मांझी न बजाओ वंशी
मेरा प्रन टूटता।
मेरा प्रन टूटता
जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे
वन वन टूटता।
मांझी न बजाओ वंशी, मेरा प्रन टूटता।

मांझी न बजाओ वंशी
मेरा तन झूमता।
मेरा तन झूमता है
तेरा तन झूमता,
मेरा तन तेरा तन
एक बन, झूमता,
मांझी न बजाओ वंशी, मेरा तन झूमता।

पहला पानी गिरा गगन से

पहला पानी गिरा गगन से
उमँड़ा आतुर प्यार,
हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार ।
भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,
भीगा अनभीगे अंगों की
अमराई का नेह
पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,
भीगी-भीगी बल खाती है
गैल-छैल की चाल ।
प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव,
भोग रहा है
द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव ।
रूप-सिंधु की
लहरें उठती,
खुल-खुल जाते अंग,
परस-परस
घुल-मिल जाते हैं
उनके-मेरे रंग ।

नाच-नाच
उठती है दामिने
चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर
वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर ।

मैं भीगा,
मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,
भावों की भाषा गाती है
जग जीवन का गान ।

हे मेरी तुम

हे मेरी तुम।
यह जो लाल गुलाब खिला है
खिला करेगा
यह जो रूप अपार हँसा है,
हँसा करेगा
यह जो प्रेम-पराग उड़ा है,
उड़ा करेगा
धरती का उर रूप-प्रेम-मधु
पिया करेगा।

हे मेरी तुम।
यह जो खंडित स्वप्न-मूर्ति है,
मुसकाएगी
रस के निर्झर, मधु की वर्षा,
बरसाएगी
जीवन का संगीत सुना कर,
इठलाएगी
धरती के ओठों में चुंबन
भर जाएगी।

हे मेरी तुम!
काली मिट्टी हल से जोतो,
बीज खिलाओ
खून पसीना पानी सींचो
प्यास बुझाओ
महाशक्ति की नमी फसल का,
अन्न उगाओ
धरती के जीवन-सत्ता की,
भूख मिटाओ।

बैठा हूँ इस केन किनारे!

बैठा हूँ इस केन किनारे!

दोनों हाथों में रेती है,
नीचे, अगल-बगल रेती है
होड़ राज्य-श्री से लेती है
मोद मुझे रेती देती है।

रेती पर ही पाँव पसारे
बैठा हूँ इस केन किनारे

धीरे-धीरे जल बहता है
सुख की मृदु थपकी लहता है
बड़ी मधुर कविता कहता है
नभ जिस पर बिंबित रहता है

मै भी उस पर तन-मन वारे
बैठा हूँ इस केन किनारे

प्रकृति-प्रिया की माँग चमकती
चटुल मछलियाँ उछल चमकतीं
बगुलों की प्रिय पात चमकती
चाँदी जैसी रेत दमकती

मैं भी उज्ज्वल भाग्य निखारे
बैठा हूँ इस केन किनारे

आओ बैठो इसी रेत पर

हे मेरी तुम
सब चलता है

लोकतंत्र में,
चाकू-जूता-मुक्का-मूसल
और बहाना।
हे मेरी तुम!
भूल-भटक कर भ्रम फैलाए,
गलत दिशा में
दौड़ रहा है बुरा ज़माना।
हे मेरी तुम!
खेल-खेल में खेल न जीते,
जीवन के दिन रीते बीते,
हारे बाजी लगातार हम,
अपनी गोट नहीं पक पाई,
मात मुहब्बत ने भी खाई।

हे मेरी तुम!
आओ बैठो इसी रेत पर,
हमने-तुमने जिस पर चल कर
उमर गँवाई।

आये हो तो उमड़ घुमड़ कर, नीचे आकर
और निकट से इन धनहा खेतों के ऊपर
अनुकंपा का झला मार कर जी उँड़ेल कर
झम झम झम झम बरसो,

गिरे दौंगरा गद गद गद गद
लिये हौसला झड़ी न टूटे,
भरे खेत, उफनायें, लहरें
हरसें, हहरें,

रोपे धान बढ़ें बल पायें, पौष पाएँ
हरी भरी खेती हो जाए, सुख सरसाए।

वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
दूध-भरे जुंडी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्‍न से बहुत प्‍यार है ।

वह चिड़िया जो-
कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्‍यार है ।

वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्‍यार है ।

रेत मैं हूँ जमुन जल तुम
रेत मैं हॅूं–जमुन जल तुम।
मुझे तुमने
हृदय तल से ढँक लिया है
और अपना कर लिया है

अब मुझे क्‍या रात–क्‍या दिन
क्‍या प्रलय–क्‍या पुनर्जीवन।
रेत मैं हॅूं –जमुन जल तुम।
मुझे तुमने
सरस रस से कर दिया है
छाप दुख-दव हर लिया है
अब मुझे क्‍या शोक-क्‍या दुख
मिल रहा है सुख–महासुख

प्राण में जो मेरा बहुत मेरा है

प्राण में जो मेरा बहुत मेरा है
शब्‍दातीत- अर्थातीत मेरा है
प्रेयसी। वह तेरा बहुत तेरा है
न काल का, न दिक् का वहॉं घेरा है।

हम मिलते हैं बिना मिले ही
हे मेरी तुम।
हम मिलते हैं
बिना मिले ही
मिलने के एहसास में
जैसे दुख के भीतर
सुख की दबी याद में।

हे मेरी तुम।
हम जीते हैं
बिना जिये ही
जीने के एहसास में
जैसे फल के भीतर
फल के पके स्‍वाद में।

भुक्‍खड़ शाहंशाह हूँ

हे मेरी तुम।
गठरीचोरों की दुनिया में
मैंने गठरी नहीं चुरायी
इसीलिए कंगाल हूँ,

भुक्‍खड़ शाहंशाह हूँ,
और तुम्‍हारा यार हूँ,
तुमसे पाता प्‍यार हूँ।

बार-बार प्‍यार दो

ऑंख से उठाओ और बॉंह से
सँवार देा
अंतरंग मेरा रूप रंग से
उबार लो
बार बार चूमो और बार बार
प्‍यार दो।

मैं पहाड़ हूँ

मैं पहाड़ हूँ
और तुम
मेरी गोद में बह रही नदी हो।

ओस-बूंद कहती है; लिख दूं
नव-गुलाब पर मन की बात।
कवि कहता है : मैं भी लिख दूं
प्रिय शब्दों में मन की बात॥
ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ
नव-गुलाब हो गया मलीन।
पर कवि ने लिख दिया ओस से
नव-गुलाब पर काव्य नवीन॥

***

केदार नाथ अग्रवाल
(1-4-2011 से 22-6-200)

सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार,मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार,हिंदी संस्थान पुरस्कार,साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित केदारनाथ अग्रवाल का जन्म अत्तर प्रदेश के बांदा जिले के कमसिन गाँव में हुआ था। आपके पिता स्वयं एक कवि थे। आपने इलाहाबाद विश्विद्यालय से स्नातक तक शिक्षा पाई ।
प्रकृति और मानव मन की कोमल भावनाओं के चितेरे केदारनाथ अग्रवाल जी की कविताएँ भावनाओं की तीव्रता से ओतप्रोत तो हैं ही एक सामाजिक सरोकार से भी भरी हैं और मिट्टी की सुगंध लिए हुए हैं। फलतः अपना विशेष प्रभाव छोड़ती हैं और आपको हिन्दी की मुख्य धारा के प्रमुख कवियों में ले जाती हैं।

सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net

error: Content is protected !!