कविता आज और अभीः संस्कार और संस्कृति


गंगा…..
गंगा तुम क्या हो
मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी
कैसी कथा हो…
जो चिरकाल से
हमें पाल रही हो?

माई, तुम्हें नहीं पता
कौन आर्य है, कौन द्रविड़,
कौन बौद्ध है, कौन मुसलमाँ,
कौन सिक्ख है, कौन जैन,
पारसी या ईसाई भी तुम्हें नहीं पता…

शांत, अविचल, धवल,
श्वेत चन्द्र रेखा सी…
अनवरत सभ्यताओं को जन्म देती
माई तुम कौन हो?
कितने इतिहास समेटे हो?

सुना है,,,
यहाँ के जंगली, धर्महीन साधु
तुम्हें माँ कहते थे…
तुम्हारे पानी को अमृत समझते थे
कहते थे तुममें सारे पाप धुल जाते हैं
संसार की सबसे विस्तृत जैव श्रंखला
की तुम पोषक थीं…
योगी शिव ने तो तुम्हें सर्वोच्च शिखर
पर माना था।

पर,
गंगा,
हम नवीन, वैज्ञानिक व धार्मिक मानव
भला इन गाथाओं को सच क्यों माने?

आखिर तुम एक नदी ही तो हो…
निर्जीव, हाइड्रोजन व आक्सीजन का संयोग
जो पहाड़ से निकलता है और सागर में समाता है…

हाँ
और नहीं तो क्या,,,
सर्वविलयक, घुलनशील,
शरीर के सत्तर फीसदी हिस्से की तरह बहने वाली..
तुम भी संसार चक्र की एक इकाई ही तो हो।

लेकिन माँ…
तुम्हारे अंदर अद्भुत बैक्टरियोफैज कहाँ से आए?
जो विषाणुओं और किटाणुओं को देखते ही
आश्चर्यजनक गुणन करके उन्हे खत्म कर देते हैं…
सम्पूर्ण विश्व में सिर्फ तुम ही ऐसी नदी क्यों हो?

कैसे इतना कचरा ढोते हुए भी
तुम कुछ किलोमीटर के प्रवाह से ही
सर्वाधिक आक्सीजन पा लेती हो?
माँ,,,,,
सारे संसार की सबसे उपजाऊ जमीन
तुमने कैसे तैयार की?
तेरी जमीन पर पहुँच कर
सर्वभक्षी मानव अहिंसक क्यों हो जाता है?

माँ तुम्हारा कौन सा गुण था
जिसने अब तक तुम्हारी पोषक धरा को महामारियों से बचाया??
विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा बनाने वाली
तुम तो शुरू से अंत तक
साथ कुछ भी नहीं ले जाती…

पर्वतों का अपरदन करके लायी मिट्टी भी
सुंदरवन में छोड़ जाती हो…
जहां हर कण मे एक नया जीवन
जम्हाई लेता है…
धन्य हो माँ॥

माँ,,,
तुम्हारे पानी में ऐसा क्या था
जो अकबर का उद्दीग्न मन शांत करता था???
उसे धर्मों से दूर ले जाकर आत्मखोज की प्रेरणा देता था…
क्या था ऐसा जो कबीर और तुलसीदास को
अमर बना गया?
सूफी-साधु कैसे तुम्हारे आगोश में दुनिया से विरक्त हो जाते थे?
क्यों अंग्रेज़ तुम्हारे पानी को विलायत ले जाते थे?
तुम्हारे पानी में कुष्ठ क्यों नहीं पनपता,
क्यों कैंसर नहीं होता?
अबूझ गुण बता दो जिससे तुम्हारा पानी कभी खराब नहीं होता?

माँ
तुम अध्यात्म की देवी क्यों हो…
जो जंगल संसार को डराते हैं,
वो तुम्हारी धरा में क्यों जीव को बचाते हैं?
कैसे तुम्हारे आँचल में हिंसक जीव भी हमारे साथ खेल लेते थे?

बांधों के बनने से पहले
क्यों तुम्हारे इतिहास में भीषण बाढ़ नहीं है???
क्यों कोई अकाल नहीं है?

लेकिन माँ,
कौतूहलवश बाहर से आए आक्रांताओं ने,
तुम्हारे जंगलियों को मार दिया
जंगलों,,, और उसमें बसने वाले जीवों को निगल लिया…

मानव को जिंदा रखने वाली माँ,
तुम तिल तिल कर, अब प्राण याचना कर रही हो…
टिहरी बांध से बंध कर…
नरौरा में परमाणु कचरा समेटती…
कानपुर के क्रोमियम से जूझती…
मिर्जापुर से लेकर बांग्लादेश तक
आर्सेनिक जैसे न जाने कितने खनिजों के जहर से लड़ती…
हर घाट में बने मंदिरों की गंदगी
और हमारी लाशों को ढोती
हम मूर्ख मानवों की बनाई
रासायनिक मूर्तियों के प्रवाह से विदीर्ण होती।

घरों से निकलता जहरीला झाग और मल-मूत्र
खेतों से बहकर आता डी०डी०टी० और पेस्टिसाइड
गाड़ियाँ धोते, तेल से भरे बदबू मारते नाले
फैक्ट्रियों से बहता हमारा रंगीन विकास…
मरी मछलियों से भरा उतराता रसायन…
आह….. सब सहती हो।

अब तो तुम्हें भूमि से काटती,
तुम्हारे मूक जानवरों को दबाती,
हमारी लंबी और चौड़ी सड़कें भी दौड़ेंगी
निगमानंद के प्राण लेने वाले
व्यवसायियों से….
आखिर कब तक जिंदा रह सकोगी माँ?

www.yadavrsingh.blogspot.com
yadav.rsingh@gmail.com
राम सिंह यादव
कानपुर, भारत

राम और हम

राम सा बनना
इतना कठिन भी नहीं है,
राम को जीना
असंभव भी नहीं है,
राम को जीवन में
उतारने के लिए
बस इतना ही तो करना है-
पिता की आज्ञा पालना है,
माता का आदर करना  है,
गुरु को मस्तक नवाना है,
भाईयों से प्रेम निभाना है,
सहज सरल बनना है,
अपना नहीं दूसरे का
गुणगान करना है,
बस इतना ही तो करना है-
नहीं करना है अभिमान,
रखना है वचन का मान,
रखना है निबल पर हाथ,
रहना है सच के साथ,
बुराइयों को देनी है मात,
नहीं करना है जात-पात.
बस इतना ही तो करना है-
राम के चरित्र को
पढते सुनते रहना है ,
रामचरित को
जीवन में उतारते रहना है,
बच्चों को यदि
राम सा बनाना है,
घर को पर्णकुटी
बनाना है,
बच्चों को रामचरित
सुनाना है,
बस , इतना ही तो करना है!
डा मीरा रामनिवास वर्मा


माँ सीता की आशंका या वेदना

जब से मैने उस रात यह स्वप्न देखा अनोखा सा,
स्वयं का दु:ख तब से लगने लगा कुछ ओछा सा।
वाल्मीकि-आश्रम में माँ सीता की वो वार्तालाप,
उनकी वह आशंका थी या वेदना भरा विलाप?!

कह रही थीं:
मधु, यदि लव-कुश की जगह बेटी पैदा होती,
तो उसके भविष्य की चिंता में मैं दिन रात रोती।
देवी-देवताओं द्वारा पूजे जाने वाले भगवान,
पति-रूप में मैंने पा लिये वही प्रभु श्री राम।
महलों का सुख छोड़ हँसी-ख़ुशी वनों में गई,
अग्नि-परीक्षा देते हुए भी मैंने उफ़ तक न की।
पर बेटी के लिए ऐसे वर के सपने न संजोती,
उसके भविष्य की चिंता में मैं दिन रात ही रोती।

मैं तो महान मिथिलादेश की राजकुमारी थी,
पिता जनक और माँ सुनयना की दुलारी थी।
अवध में मेरी ननद शांता को वो मान न मिला,
सोच में रहती बेटी को भी यदि संमान न मिला!
साँसों की माला के धागे में यूँही आँसू पिरोती,
उसके भविष्य की चिंता में मैं दिन रात ही रोती।

उसे जनकपुरी सा ननिहाल कहीं और न मिलता,
रघुवंश जैसे राजघराने का कोई जोड़ न मिलता।
नि:संदेह वह उन सभी के नयनों की होती ज्योति,
उसके क़दम क़दम पर बिखरे होते हीरे व मोती,
परन्तु प्रजा की उँगली उठने के भय से न सोती,
और उसके भविष्य की चिंता में मैं दिन रात रोती।

मैं चिंतित रहती कहीं बेटी को भी आराम न मिला,
पति होते हुए भी उनके चरणों में स्थान न मिला?!
अग्नि-परीक्षा दे-देकर आत्मविश्वास न खो बैठे,
निराधार लांछन सुन जीवन से निराश न हो बैठे।
क्या वह भी मेरी तरह यूँही दुखों का बोझ ढोती?
उसके भविष्य की चिंता में मैं दिन रात ही रोती।

उसके भविष्य की चिंता में मैं दिन रात ही रोती।

मधु शर्मा
बर्मिंघम,
टेलिफ़ोन: 0121 743 3404

स्त्री कठपुतलियाँ

क्या कहा तुमने,,,
स्त्री कठपुतलियां,,,?
भला कैसे?
क्या अन्तर है पुरूष स्त्री में,,?
हाँ माना शारिरिक अन्तर है,,,
मानसिक भी,,,
एक में तन की ताकत,
एक में शक्ति मन की।
पर कठपुतली स्त्री??
दोनों के पास दिल दिमाग तो है ही न,,,!
फिर ,,,
विहँसती सी बोली वो,,,
समस्या यहीं तो जन्म लेती है,,,
दिल और दिमाग हैं दोंनो के पास,,,
काश , स्त्री के पास नहीं होते!

कैसी बातें कर रही हो तुम?
ये अपराध है सोचना भी।
अपराध ?
और 
उसे कठपुतली बनाकर रखना 
रखने की चाहना करना,,
ना रख पाओ तो प्रताडित करना,,,
ये अपराध नहीं?

पुरूष हो ना तुम भी! 
उतरना गहरे,,,
तलाशना,,,
कहीं तुम भी नहीं कर रहे ये अपराध,,,?
इन्दु झुनझुनवाला
बैंगलुरु, भारत


वेदना और संवेदना
मां बेटी हैं एक ही परिवार की
वेदना से जन्मी है भारती
संवेदना पर टिकी संस्कृति

मिथुन-रत् पंछियों पर
बधिक ने जब साधा निशाना
तो पीड़ित ऋषि की वेदना ने
महा ग्रंथ रच डाला

साधता जब लक्ष जीवन
दूसरों की पीड़ा में
रह जाता न छोटा न कोई बड़ा
सतत इस साधना में

जब दुष्कर्म नहीं था
घूँघट और पर्दा नहीं था
नारी दासी नहीं सहचरी थी
स्वच्छ धरा और स्वच्छ गगन थे

विचरते थे उन्मुक्त देव-किन्नर
सज्जनों के हित धरा पर आ जाते ईश्वर
पशु पक्षी सब पीते थे पानी
एक ही घाट पर वैमनस्य तजकर

फिर यह घटा-घोप करता
युग क्यों हमने खुद पर थोपा
कैसे घुली जहरीली हवा
उन्मुक्त पवन में

किसकी नक़ल करते-करते
भटके कहाँ और कब हम…
कैसे खा गए धोखा
सहज निश्छल मानव मन में

मृत संवेदना आज नये युग की
छूती नहीं किसी की वेदना अब
निर्बल का शिकार करें बाहु-बली
मैं ठीक, मेरे ठीक तो सब ठीक ही
विचारधारा नई यही तो पल रही
स्वार्थ भरे आधुनिक जग में

पर यह तो हमारे संस्कार नहीं
सर्व-हिताय संस्कृति नहीं
विनाश के कगार पर खड़ी
प्रथ्वी निराश अंधे गह्वर में

गुरु ही न गुरुत्व संभालेगा
तो कैसे हम खड़े रह पायेंगे
ताजी हवा को तरस जाएँगे
सभी इस प्रदूषण में

ठहर कर अब सोचने की बात है
जगने और जगाने की बात है
अप्पो दीप भव की प्रार्थना को
प्रेरणा बना लो गहन तमस में…

शैल अग्रवाल
बरमिंघम, यूँ.के.


मनुज धर्म

वो अनगिन हाथ
जो उलझे रहे ताउम्र
ऐसे सारहीन कामों में
जिनका कतई योग न था
इस दृश्यमान दुनिया की
कतिपय बेहतरी में
मसलन : हत्याएं ,लूटपाट ,
आतंक ,नरसंहार , ध्वंस- विध्वंस आदि इत्यादि।
उठो !
उन हाथों को खींचकर लाओ
भीतर तक किसी के दुःख में शामिल बनाते
प्रेम में आकंठ डूबी इस पृथ्वी पर
और—;
रोप दो उन्हें खेतों की मेङ पर
रोशनी की तरह : एक रक्त – बीज
उठो! उठो!
मोङ दो
मुंह प्रचंड धारा का
एक नये सपने की दिशा में
शायद—;
वक्त के इस मोड़ पर
यही होगा
तुम्हारा शाश्वत मनुज– धर्म।

विजय सिंह नहाटा
जोधपुर

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