साइकिल
दूर सुदूर गाँव
गाँव की पगडंडी
पर सड़क है पक्की
सीमेंट की डांबर की
रौंदती सड़क को
बेख़ौफ़ मोटरें
और बाईं ओर चल रहीं हैं
तीन साइकिलें
बेफिक्र बेपरवाह
कुछ गज की दूरी पर
ठीक उनके पीछे
तीन और साइकिलें
बेफिक्र बेपरवाह
दौड़ता है एक ट्रक
रंभाते हुए
चिल्लाते हुए
डराते हुए
सड़क के बीचोंबीच
बेख़ौफ़ है साइकिलें
न मुड़ती है पीछे
न देखती पलटकर
निडर सी बढ़ रही है
आगे और आगे
कंधे उसके सम्भाले हैं
एक भारी बस्ता
जिसमें सुग़बुगा रही है
सभ्यता
कुलबुला रही है
संस्कृति
दबी रही है वह
झुकी रही है
जिस बोझ से
सदियों से
पर रुकी नहीं है
चलती रही है
डगमगाती हुई
लड़खड़ाती हुई
गाँव की पगडंडी पर
सदियों से
पर अब नहीं
निकल चुकी है वह
डर के आगे के
जीत की ओर
नहीं रुकेगी
न पलटेगी पीछे
न देखेगी मुड़कर
न फँसेगी जाल में
उन रंभाते ट्रकों के
सरसराती मोटरों के
जो रोके उसे
फँसाए फिर से
और ले जाये सदियों पूर्व
उसी खंडहर में
जहां से निकल भागी है वह
इस साइकिल पर
सड़क के बीचोंबीच
दूर सुदूर गाँव में
डॉ आशा मिश्रा ‘मुक्ता’
संपर्क : शांडिल्य सार्त्रम, E-54, मधुरा नगर, हैदराबाद – 5000038
फोन : 9908855400
ईमेल : ashamukta@gmail.com
“सबसे उदास दिन”
सबसे उदास दिनों में भी
वह लडक़ी कभी-कभी
यूँ ही मुस्काती थी,
क्योंकि उसे रह-रह कर याद आ जाता था
दुनिया जिसे अब भी लड़की ही समझती है
वह सचमुच कभी हँसती-मुस्कराती
खिलदंड लड़की हुआ करती थी,
सबसे उदास दिनों में भी
उस लड़की को वह लड़का
रह- रह कर याद आता था
जो अक्सर कहा करता था
मैं तुम्हारे लिये चांद-तारे तोड़ लाऊंगा
और तुम्हे पाने के लिए
आकाश-पाताल एक कर दूंगा
ये और बात है कि इसी शहर में
रह रहे उस लड़के ने
अब उससे कोई वास्ता नहीं रखा,
सबसे उदास दिनों में भी वह लड़की,
खुद की उदासी से उकताकर
बनाव-श्रंगार करके अकारण
खुद को निहार भी लेती थी
तभी उसे एक टीस उठती थी
उसकी जिंदगी तो महज
एक चलती चाकी है
जिसे जीवन जीना नहीं
बल्कि काटना ही है ,
सबसे उदास दिनों में उस लड़की के
घरवालों ने ये भी उम्मीद की थी
वह उदास लड़की कहीं मर-खप जाती
तो बेहतर होता
क्योंकि उन्हें कहीं जवाब न देना पड़े
लड़की का घर आखिर क्यों नहीं बस पा रहा
सबसे उदास दिनों में भी वही लड़की
जो अपनी उदासी से जूझते -जूझते
और अपने से हारकर
मरने गई थी ट्रेन से कटकर
मगर रेल की पटरी पर काम चालू रहने से
उस दिन ट्रेन ही नहीं आई
तो इस तरह उस उदास लड़की का
सबसे उदास दिन भी
एक असफल इंतजार में ही बीता,
लेकिन उसी दिन उसे पता चला कि
उसी शहर की एक दूसरी रेल की पटरी पर
एक युवक ने आसानी से कटकर
अपनी जान दे दी थी,
लोग कहते हैं कि उस युवक ने असफल प्रेम में
एक सफल खुदकुशी पूरी कर ली थी,
सबसे उदास दिनों में उस लड़की को
इस बात की बड़ी कोफ्त हुआ करती थी
कि वह आखिर लड़की ही क्यों है
क्योंकि उसकी माँ अक्सर कहा करती थी
कि वह अगर लड़का होती तो शायद
कर्ज में डूबे अपने किसान पिता को
फांसी लगाने से बचा सकती थी,
सबसे उदास दिनों में वह लड़की
उदासी में अचानक खिलखिलाकर हँसती भी थी,
उसके चेहरे को चंद्रमुखी कहने वाले कवि ने
न सिर्फ उसकी देह बल्कि आत्मा को भी
नोच और निचोड़ डाला था,
इसीलिए अब उसे अपनी उदासी
प्रिय औऱ स्थायी लगती थी
और उसे अपने तन-मन से जुड़ी
उपमाओं और अलंकारों से वितृष्णा होती थी,
सबसे उदास दिन सबसे खास दिन नहीं होते
क्योंकि जब हर दिन उदासी भरे ही होते हैं
तो उदासी खास बात नहीं
बल्कि दिनचर्या हो जाती है
और सबसे उदास दिनों के बाद
उदासी घटने भी तो लगती है ।
-दिलीप कुमार
पीड़ा से चीखता, जा रहा है शहर।
खून है श्वेत क्यों, रिस रहा है शहर।
चाहतें, खेत-खलिहान सब हो हरे,
दे दुहाई मगर, सो रहा है शहर।
हर कोई तंग है, जंग स्वारथ की है,
तन्हा जीते हुए, मर रहा हे शहर।
कहने को तो सभी हैं, मनुज ही यहाँ ,
पर मनुजता कहाँ, सह रहा है शहर ।
अपने ही गाँव में, लुट रही है कली,
ज॔गली जानवर, बन रहा है शहर।
द्रौपदी है पुकारे, दुःशासन खडे,
कान्हा को खोजता, फिर रहा है शहर।
खून के आँसू रोए धरा और गगन,
हैरां ईश्वर खड़ा, रो रहा है शहर।
वो जो खेले थे होली, हुए थे फना,
अब कहाँ वो जवां, लुट रहा है शहर।
मेरे सारे ठिकाने, कहाँ खो गए,
रो रही भारती, कह रहा है शहर।
‘इन्दु’ बादल से खुद को लगा ढाँपने,
रोशनी की तलब, बुन रहा है शहर।
इन्दु झुनझुनवाला
अपदस्थ
धर्म धैर्य और शील
जब लालच करे ताण्डव
और झूठ और षड्यंत्र
बन गए वकील
अपदस्थ
आस और हिम्मत
स्नेह विश्वास
जब कामुकता
कृष्ण बनकर खड़ी
बजाती बाँसुरी
हरती जाती चीर
अपदस्थ
समाज और संस्कृति
जब पत्थर के देवता
महलों में जा बिराजते
नित छप्पन भोग लगाते
और सड़कों पर भटकते
जाने कितने भूखे ही मासूम…
कठपुतलियों के देश में
कैसी आजादी और कैसा उत्सव
लुटा नुचा लहराए माँ का आंचल
नहीं पूजनीय देवी और संगिनी
परिवार समाज का आधार नहीं
गरिमा और सम्मान नहीं कहीं
देह का ही सारा लेन देन
होते नित पाशविक बलात्कार
और पूजते मंदिरों देवी बनाकर
विश्व-गुरु होने का दम भरते
करते कैसी बड़ी-बड़ी बातें
सदियों से चली आ रही
वही स्थिति आज भी तो
भूल किसकी, गलती किसकी
मौन हैं सब, आवाज नहीं आती
चीजें नहीं बदलती
वक्त के साथ उड़ जाते हैं बस रंग
कठपुतिलयों के देश में…
शैल अग्रवाल
उमंग और जोश भरे मेरे देश ने
अभी-अभी तो तनकर चलना सीखा
मत तोड़ो इस आत्मविश्वास को
साजिश और गद्दारी से,
आपसी वैमनस्य और लड़ाई से
शर्मनाक कुकर्मों के कीच-भरे धब्बों से
कि गर्दन तक ऊँची करना मुश्किल हो जाए
जयचंदों की ढपली फिर से अपनी राग सुना जाए
आन बान और शान से लहराए स्वाभिमान हमारा
विश्व बन्धुत्व के धवल भाल पर तिलक बन चमकें
जिम्मेदारी यह भी तो हमारी ही
हम सब की ही अब तो…
शैल अग्रवाल
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