कविता आज और अभीः मोर्चे पर


महीना अगस्त का
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महीना अगस्त का आते ही,
भरे हुए कारावास,
पानी की बूंद के लिए
तड़पते युवक,
हंटर की सड़ाक,
बेवक्त फांसी, लाठी चार्ज
व जलियांवाला बाग, जैसे
कई निर्मम कांड, मेरा
रोम-रोम रुला देते हैं।
कैसे पाई हमने आज़ादी
ये तो अब याद ही नहीं
परन्तु क्या कद्र पाई इसकी,
और कैसी समेटी हमने
आज़ादी की चुनरी, कितनी
बार हम मैला कर रहे हैं इसे
सवाल बनकर सताता है मुझे।
– शबनम शर्मा
अनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा,
तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र. – १७३०२१
मोब. – ०९८१६८३८९०९, ०९६३८५६९२३

मैं वह बम हूं
जो सड़क में जा धंसा था।

मुझे यूं ही धंसा देख
टीवी एंकर से लेकर
रेडियो रिपोर्टर बोले-
फ़ुस्स हो गया, बेचारा,
यहां-वहां का मारा
बेकार हो गया, था उस जहां का मारा
इस देश उस देश का सुन-सुन
मैं हैरान हुआ,
पर सड़क में धंसा बम था
और धंसा ही रह गया।

मैं सब सुन रहा था,
अपनी हस्ती को मस्ती से तौल रहा था-

अचानक किसी ने पूछा,-
‘तुम तो शक्तिशाली हो
दुनिया की हस्ती मिटाने की शक्ति से
खुद को क्यों कर बर्बाद किया
जमाने की ठोकरों में
अपनी शान को क्यों बदनाम किया…

मैंने फ़क्र से कहा-
फ़र्क नहीं पड़ा मुझे
विनाशकारी विध्वंसकारी तो था ही मैं
मुझे लक्ष्य साध भेजा था
गया भी तो था लक्ष्य की ओर
बस, उस घर की खिड़की पर पहुंचा ही था,
सामने देखा,
एक युवती नव जीव को जीवन दे रही थी
उसकी आहों से नई सांसें चल रही थी।
यह नज़ारा देख मैं कुछ ठिठका,
नई जिंदगी को देख
सच कहूं मानवता जग गई,
नहीं—-नहीं कुछ गलत कह गया
मानवता नहीं, बमता जग गई,
क्योंकि ऐसी मानवता तुम्हें मुबारक
फ़िर मैं तो एक बम हूं, ठीक हूं
जिसमें अभी किसी नव जीव की मौत
देखने की हिम्मत नहीं थी।

मैं चुपचाप पलटा और बड़ी
शान से इस सड़क में जा धंसा।

अरुणा घवाना,
देहली, भारत


कुछ छोटा नहीं, लघु नहीं
हर इनसान के पीछे परेशानियों का
जुलूस
अगुवा है फिर भी
मेरा दोस्त
मेरा पड़ोसी
और हर थकान से निचुड़ कर
निकलती हैं गोल हँसियाकार
तीन-चौथाई लेकिन ताज़ा आवाज़
मेरे घुटे गले में भी
फड़फड़ाती गाती रहती है कविता।
इंदु जैन
देहली, भारत

‘अपने लिए’

अपनी ही दुनिया में जीते हैं वे,
जब अपने लिए जीता है आदमी
तब न अपना न पराया दिखाई देता है उसे
स्वार्थ एवं स्वहित की सोचते हैं वे,
शोषक, शोषक ही होता है
चाहे जमींदार, सेठ-साहूकारों से हों
चाहे बुद्‌धिजीवि अध्यापकों द्‌वारा अपने ही छात्रों का हो
जब अपने लिए जीता है आदमी
पूरी दुनिया को नकारता है वह
इसके लिए न स्कूल-कॉलेज भी अपवाद हैं,
स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक के गुण्डे
इसके लिए बुद्‌धिजीवि अध्यापक भी अपवाद नहीं है।
वे भी अपने ही छात्रों को बढ़ावा देने की अपेक्षा
चूसते हैं उनकी बुद्‌धि के अंश-अंश को
अपनी ही धुन में ‘निजी बायोडाटा’ की सोचते हैं वे
अपने ही छात्रों के आलेख छापते हैं अपने नाम पर वे
आलेख तक तो बात ठीक है लेकिन किताबें भी अपवाद नहीं है।
अपनी ही धुन में देखते हैं वे
रोजी-रोटी के अभाव में तड़पते-व्याकुल अपने छात्र को
छात्रों की विवशता का लाभ उठाते हैं वे
महाविद्‌यालयों से लेकर विश्वविद्‌यालयों में विवशता का जहर
अपने ही छात्रों को पिलाते हैं वे,
छात्र, विवशता में तड़पते हुए भी अमृतरूपी रोजगार की सोचता है।
लेकिन सोचना होगा उन्हें भी
जो बुद्‌धि एवं निज की सोचते हैं
उन्हें भी स्वीकारना होगा परहित धर्म
निजहित से बढ कर है वह
सोचना होगा उन्हें भी दूसरों का भला, अपना भला
जब अपने लिए जीता है आदमी
खोता है दुनिया को वह
दुनिया को खोना अपने को खोना है।

-डॉ.भाऊसाहेब नवनाथ नवले
पुणे, महाराष्ट्र


एक बड़े शहर में

एक बड़े शहर में माता-पिता और बेटे
अलग-अलग मकानों में रहते हैं
अलग-अलग होता है उनका जीवन
अलग-अलग होती हैं उनकी तकलीफें

वे एक दूसरे के जीवन में बहुत कम
हस्तक्षेप करते हैं
एक-दूसरे से अजनबियों की तरह
मिलते हैं
हालचाल पूछकर अलग हो जाते हैं

बेटे नहीं पिता जरूर सोचते हैं
काश वे बेटे के साथ रहते तो
थोड़ी हो जाती सहूलियत

एक ही शहर में रहते हुए माता-पिता
बूढ़े होते रहते हैं
और याद करते रहते हैं कि उन्होंने
पैदा किया था एक बेटा
जो सुख क्या दुख भी नहीं
देता है उन्हें।

-स्वप्निल श्रीवास्तव
लखनऊ, भारत

सुना है दीवारें भी सुना करती हैं, हाँ, आपने भी सुना होगा.
दीवारों के भी कान होते हैं, हाँ, दीवारों की आँखें भी होती हैं.
बड़े-बड़े सुनसान आलीशान महलोंनुमा बंगलों में तो कभी-कभी,
इन्हें गुनगुनाते,हँसते-हँसाते,चहचहाते,चुलबुलाते महसूस किया है.
लेकिन इंसानों की आहट पाते ही ख़ामोश पड़ जाती हैं ये दीवारें,
ऊँची-ऊँची,ठोस,बर्फीली पर्वत-श्रृंखलाओं में बैठे
किसी शांत मौनी-बाबा की सी.
चुपचाप, ख़ामोशी से किसी चिर-साधना में विलीन
रहा करती हैं. ये दीवारें…

उजड़े-पुराने किलों की चारदीवारियों में
तो अपनी पुरानी यादों में,
सुगबुगाती, आँहें भर-भर कर ,
उखड़ी-उखड़ी साँसों में जिया करती हैं,
ये दीवारें…

कभी गुफ्तगू करती हैं,
कभी छेड़तीं हैं एक दूसरे को व्यंग्य से,
कभी सहम सी जाती हैं कुछ
भयानक हादसों की परछाइयों से.
बंद कमरों के आगोश में
बहुत कुछ सहा है,भोगा है,देखा भी है,
पर ख़ामोशी की ज़ुबान ओढ़ कर,
किसी से कुछ कहे बगैर ही,
सुख- दुःख के अनगिनत राज़
दिल में संजो कर रखतीं हैं.
ये दीवारें…

गवाह हैं ये कुछ भयानक हादसों की,
पर कुछ राज़ भी हैं जो,
इन ख़ामोश दीवारों के लम्बे सायों में
उलझ कर रह गयें हैं.
काश! ये मूक दीवारें,
हम इंसानों के बीच भी कुछ बोल पातीं
काले धुऐं से गहराये ,
अनेकों सुनसान राज़ ख़ामोश है इनके आगोश में,
न जाने कितने सबूतों को
अपनी ख़ामोश ज़ुबान के आगोश में लपेटे बैठी हैं… केवल एक प्रतीक्षा में…कि…
कोई मसीहा तो समझे इनकी भाषा,
शायद ऐसी आस रखती हैं ,
ये दीवारें…

हाँ ऐसी ही आस रखती हैं…
ये दीवारें…
अगर कोई पढ़ पाता इनकी भाषा तो समझ पाता
कि वाकई में ये बोलती हैं, हाँ ये दीवारे बोलती हैं .
देश में आयोजित खेलों के घोटालों के राज़ खोलतीं हैं.
जी हाँ दीवारें बोलती हैं, जी हाँ दीवारें बोलती हैं.
दहेज़ के अभाव में जलती हुई बेटियों की
चीखों के राज़ खोलती हैं.और तो और,
नौकरशाहों, भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की भी
पोल खोलती हैं.
न्यायालयों में बिकने वाले अन्याय के राज़ खोलती हैं.
जी हाँ दीवारें बोलती हैं, हाँ ये दीवारें बोलती हैं.
कारगिल में शहीद जवानों की विधवाओं के
आँसुओं के राज़ खोलती हैं.
कौन कहता है कि ये दीवारें नहीं बोलतीं?
ये दीवारें ही तो हैं,
जो रेडियो में, टी.वी. पर और समाचार पत्रों में,
सफ़ेद कपड़ों में छिपे भ्रष्टाचारियों के राज़ खोल रहीं हैं.
आलीशान फ्लैटों की लूट-खसोटों के राज़ खोल रहीं हैं ,
जी हाँ दीवारें बोलतीं हैं, दीवारें बोलतीं हैं.
और इसी तरह बोलती रहेंगी,
बस ज़रुरत है तो समझने वालों की,
इनकी भाषा पढ़ने वालों की…
आज आज़ादी के पैंसठ वर्ष के बाद भी
अगर हम पढ़ नहीं पाए इन दीवारों की भाषा,
तो समझो व्यर्थ गया बलिदान
उन शहीदों का जो मिट गए और छोड़ गए,
हमें सांस लेने के लिए आज़ाद भारत में…
शील निगम, मुंबई

सच झूठ
गर झूठ आ मिले तो सच वहाँ रह पाता नहीं
इतिहास लिखवाया जाता है लिखा जाता नहीं

आंसुओं की नदी मिल गई है गंगा जमुना में
नफरत की यह कालिख कोई धो पाता नहीं

गलतियाँ सुधारने के नाम पर पलट जाते हैं लोग
बातें दोहरा दी जाती हैं और कुछ बदल पाता नहीं

जुम्मन काकी की सेवईं और सीता चाची का हलवा
क्यों अब ईद और दीवाली पे घर-घर आता नहीं

शैल अग्रवाल
सटन कोल्डफील्ड, यू.के.


शहर और लड़की
डाल पर चहकती हैं चिडि़या,
पेड़ों पर झूलती हैं लड़कियां
आसामान में उड़ान भरती है चिडि़या,
आकाश में नई मंजिलों की छूती हैं लड़कियां
कुल्हाड़े से केवल पेड़ ही नहीं कटते,
बसेरे भी उजड़ जाते हैं
चहचहाहट के संगीत के साथ
किलकिलारियां भी मद्वम हो जाती है
जंगल की हरियाली ही नहीं,
शहर की हरीतिमा भी खो जाती है
एक का उजड़ता है घरौदा
तो दूसरी के सपने बिसूर जाते हैं
एक की खो जाती है दिशा
तो दूसरी के सपने गुम हो जाते हैं
एक जीते जी शहर में,
अचानक क्फर्यू की मुर्दगी पसर जाती है
दूर कहीं पुलिस की जीप के बजते सायरन से
चिडि़या ही नहीं लड़कियां भी सहम जाती हैं
अपनी लाचार सिमटती दुनिया में और सिकुड़ जाती है
हौंसले हवा हो जाते हैं, दोनों के
ये किसकी नजर लगी है जंगल को
जो शहर के नाम पर उजाड़ा जा रहा है
जबकि शहर में जंगलराज छा रहा है
यह कैसा है सभ्यता का अतिचार
गमलों में बोनसाई लगाकर
खेतों में पापुलर पेड़ उगाकर
शहर में जंगल लग रहा है
जंगल में शहर बस रहा है
-नलिन चौहान, कच्छ, गुजरात

गांधी फिर कब आओगे ?

मोहनदास कमरचंद जी की,
देश प्रेम की आंधी थी।
पीछे देश खड़ा मर मिटने,
एसी हस्ती गांधी थी।
इसीलिये तैयार हुये,
नेहरू जाने को जेलो में।
मालूम था सिर दे देंगे
पीछे सब खेलों खेलों में।
मालूम था कि थे पटेल,
मौलाना किदवई जान लिये।
वल्लभ भाई के पीछे,
मिटने कितने अरमान लिये।
लिये जेब में घूम रहे,
फांसी की रस्सी भगत सिंह।
कितने मिटने को आतुर थे
बिस्मिल राजा, रणजीते सिंह।
सावरकर बन कर के मशाल
थे अंधकार में चमक रहे।
इतिहासो के पन्नों में
आजाद, गोखले दमक रहे।
कितने थे गफ्फार और,
कितने सुभाष की आंधी थी।
भूल समझाने में होगी
आजादी केवल गांधी थी।
कितनी लक्ष्मीबाई कितने
भीमराव से गांधी थे।
कितने मंगल पांडे शेखर
ब्रिटिश राज्य में आंधी थे।
मरने और मारने का
जज्बा था हक को पाने का।
सीने में थी देश भक्ति
होंठों पर उसको गाने का।
घर घर में थे रमन यहाँ
और घर घर में टैगोर यहाँ।
हर घर में थे बोस हरेक घर
आजादी का शोर यहाँ।
दर्शन का भंडार देश,
और थे शहीद भी गली गली।
राजा मोहन राय हरेक घर,
हरिशचन्द्र भी गली गली।
कई विवेकानन्द यहाँ थे
दर्शन और विज्ञान भरे।
कटने को आतुर शीशे में
न्याय और विज्ञान भरे।
थे कुरान ओर गीता पर शिर
साथ-साथ कटने वाले।
गुरूवाणी और बाइबिलो पर
एक साथ मरने वाले
कितने ही मर गये लिये
सपना अपनी आजादी का।
जला दिये कपड़े विदेश के
बाना पहना खादी का।
अंग्रेजो के खड़े सामने
हाथ नमक और नील लिये।
जंगल में स्वागत करने को
खड़े धनुष थे भील लिये।
पर गोपाला चारी को
माउन्टबेटन ने क्या सोंपा ?
भ्रष्ट प्रशासन जातिवाद का
छुरा पीठ पर एक घोंपा।
गांधी का वादा था शासन
अंतिम जन तक जायेगा
क्या मतलब था दमन प्रशासन
का उन तक ले जायेगा।
देश खींच ले आये नेता
रिश्वत के चैराहे पर।
स्वच्छ वोट की नदी पटक दी
देखा गन्दे नाले पर।
राष्ट्रपिता झूठे कर डाले
देश के इन नेताओ ने।
लिया खजाना लूट मंत्रियों
ने और नौकर शाहों ने।
डरते हैं इमानदार,
इस प्रजातंत्र में गांधी जी।
उन पर बेईमान करते हैं।
क्रूर प्रशासन गांधी जी।
चील भेडि़ये बेहद खुश,
लाशों की उनको कमी नहीं।
गेहँू दाल गगन पर हैं
दिल्ली के दिल में नमी नहीं।
वे रेशम खादी किधर गये।
हो गई कहां मलमल गायब ?
छोड़ गये खेतों को बच्चे
बन कर के छोटे साहब।
सतियों के जलने के बदले
जलती बहुयें सधवायें।
देश जलाते मंत्री नेता
बैठें है सब मंुह बायें।
हर दिन ट्रेनों की दुर्घटना
हर दिन हत्या बलात्कार।
हर दिन लूटमार और चोरी
हर कोने में चीत्कार।
हिन्दी कम्प्यूटर में गुम गई
गाली ही साहित्य बनी।
भाषाओं से प्रान्त बट गये
है आपस में तना तनी
किसकी रक्षा करते सैनिक
सीमा पर शहीद होकर।
वे जो देश बेचते हैं या
जो पग पग खाते ठोकर।
सच के अब प्रयोग बापू जी
बतलाओं क्या कर लेंगे।
सचमुच के सत्याग्रह पर तो
दुष्ट जान ही ले लेंगें।
किस किस मुद्दे पर सत्याग्रह
बतलाओं बापू करलों।
कई छेद है इस चादर में
किस किस को बापू ढकलें।
लगता है डर गये आप भी
अब भारत में आने से।
कैसा देश मिला हम सब को
आजादी के आने से।
आजादी के किस्से बापू
हुये किताबों से गायब
लोकसभा के भ्रष्ट प्रतिनिधि
नग है देश भक्त नायब।
कुछ तो लूट रहें हैं दुश्मन,
कुछ ये नेता गांधी जी।
दिया प्रशासन ने मौका
जनता को बिकने गांधी जी।
अंधकार में कोई किरण
न तुम हो न इतिहास बचा।
यहाँ बचे हर जगह लुटेरे,
नहीं हास परिहास बचा
धीरे धीरे मरती जनता
धीरे धीरे देश यहाँ।
इन हालातों में क्या गांधी
बच पायेगा देश यहाँ।
डा. कौशल किशोर श्रीवास्तव
छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश, भारत।

विदेश की वादियों में
जहां मेरा भारत बहुत याद आता है ।
खुला है , भीड़ कम है ,
तहजीब है , सफाई भी बहुत है ,
ट्रैफिक हर तरह से जिम्मेदारी निभाता है ,
सड़क पर कारें काम हैं , बाइक – स्कुटियां नहीं है ,
पैदल चलने वालों का सम्मान है ,
बेटियां सुरक्षित हैं , बुजुर्गों का सम्मान है ,
बच्चे अपना काम खुद करते हैं ,
शोर कैसा भी हो , नहीं है ,
कर्मकांड भी नदारत हैं ,
नदियां , झीलें और तालाब सुरक्षित और साफ हैं ,
धूल – मिट्टी तो ढूंढनी पड़ती है ,
घंटों कहीं भी बैठ कर कुदरत की करीबी के करीब होना आसान है ,
न आवारा पशु , न आवारे बच्चे ,
कुछ भी नहीं है
चमकती हुई गालियां हैं ,
फिर भी सात समुंदर पार मेरा देश मुझे
मुझे हर पल याद आता है ।
वो संगत , वो सुबह की नमस्ते ,
वो कैसे हो जी की पुकार ,
वो दूध लाने के लिए जाते हुए लोग ,
वो दोस्त से मिलने या हाल – चाल जानने की कशिश ,
वो सारा दिन एक साथ बैठकर गुजारने का आनंद ,
वो बीमार को उसके घर जाकर देखने की लालसा ,
वो हर बात पर अपनी राय रखने की ख्वाइश ,
वो खुली हुई दुकानें और घेरे हुए फुटपाथ ,
वो भागते – दौड़ते बच्चे ,
वो टूटे – टूटे से रास्ते ,
कभी धूप , कभी बारिश , कभी आंधी , कभी ठंडी ठंडी सी हवा ,
सब कुछ बहुत याद आता है ।
मुझे सात समुंदर पार मेरा भारत बहुत याद आता है ।

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
साहिबाबाद, भारत ।

सच एक तैनात सिपाही
जीवन के हर मोर्चे पर डटा
छोड़े ना यह साथ हमारा
प्रिय की तरह अंतस में बसा,
एक अहसास यह चैतन्य
और कर्तव्य भरा विश्वास भी—
फिर कैसी लड़ाई यह
अंधेरे और रौशनी की
ताकत से जिसकी रूबरू
हम सभी कभी न कभी-
क्यों अक्सर ही
घायल और अकेला
दिखने लग जाता
उगता जो अंतस में
जलते एक सूरज-सा
अंधियारा दूर करता पल में
क्यों अगले पल ही झूठ के
बादलों से ढक जाता
एक अकेला जिसका है
रूप अनूप
बहरूपिया नजर आने लगता।
सत्यमेव जयते एक नारा था
सनातन और विश्वास भरा…
क्यों आज बेबस
हारता चला जाता….
वह जो मोर्चे पर बेखौफ डटा
वह जो झूठ से अकेला ही लड़ा
वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है सारे गूँगे अभ्यासों की,
वह मेरी संरचना का क्रम है,
वह मेरे जीवन का संचित श्रम है,
बस इतनी ही तो मैं हूँ,
इतना ही तो मेरा प्रण है,
साथ इसका कभी ना छूटे
चाहे जितनी कठिन रहे
यह डगर पनघट की…
शैल अग्रवाल
सटन कोल्डफील्ड, यू.के.

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