उसके लिए-
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वो जानता – कहाँ सजाना मुझे
शब्द एक मैं उसके लिये –
नित नए भावों में सजा मुझे
कविता अपनी निखार रहा ।
तलाश कर रहा वह – एक नयी धुन
स्वर एक मैं, उसके लिये –
साज पर अपने तरंगों में सजा
कविता में प्राण नए फूंक रहा ।
देखा है मैंने उसे – खींचते आड़ी तिरछी रेखाएं
रंग एक मैं, उसके लिए –
तूली पर अपनी सजा
सपनों को आकार इन्द्रधनुषी दे रहा ।
लहरों सा बार बार भेजता मुझे
कभी सीपी देकर, तो कभी मोती
सब कुछ किनारे धर बेकल सा मैं
बार बार लौट – समा जाता उसमें ।
अनिल शास्त्री शरद
देहरादून, भारत
शून्य ही तो सब
मैं फूलों को छूता भर हूँ
बस छूता भर हूँ
बहुत हुआ तो सूंघ लेता हूँ
बड़े आहिस्ते से
तोड़ने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।
मैं आकाश को देखता हूँ
बस देखता भर हूँ
बहुत हुआ तो खो जाता हुँ
बड़े आहिस्ते से
अंतरिक्ष युद्ध की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।
मैं नदी को सुनता हूँ
बस सुनता भर हूँ
बहुत हुआ तो जल क्रीड़ा करता हूँ
बड़े आहिस्ते से
उनको बांधने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।
मैं लोगों को देखता हुँ
सुनता हूँ
छू भी लेता हूँ
यही महसूस होता है
वे लोग भाग रहे हैं
एक दूसरे को धकियाते हुए ।
उनके लिए
कोई फूल, आकाश या नदी
कोई मायने नहीं रखता
उनके पैरों तले
हर दिन कुचला जाता है
फूल, आकाश और नदी
ऐसे में
मैं जब तलाशता हूँ उन्हें
सिवा शून्य के कुछ भी तो नहीं मिलता ।
मोतीलाल
राउरकेला, भारत
जिसे अब तक लिखा नहीं
प्रेम लिखना है
आओ मेरे होंठ पर एक वर्ण आंक दो
समंदर नहीं लिखना पहाड़ नहीं लिखना
गांव की वह नदी लिखनी है
जो अब सूखने के कगार पर है
आओ मेरी देह पर बारिश की बूंद की तरह झरो
अन्न नहीं लिखना खेत नहीं लिखना
किसान लिखना है
जिसके घर का चुल्हा चार दिन से उदास
मृत्यु ही जिसके लिए एक आत्मीय आगोश
आओ मेरी त्वाचा पर जीवन की तरह बहो
छन्द नहीं लिखना गीत नहीं लिखना
दुख लिखना है
जो इस देश की मिट्टी में ठहर गया है कहीं
आओ मेरी स्याही में चुपचाप घुल जाओ पिघल कर
कविता नहीं
एक स्त्री का नाम लिखना है अपने नाम के उपर
और सदियों से खड़े
इतिहास के एक पवित्र किले को ध्वस्त कर देना है
आओ मेरे हृदय में मशाल की तरह जलो
अंत में
एक लंबी चिट्ठी लिखनी है
अपने गांव अपने पितरों के नाम
आओ मेरे खुरदरे-कांपते हाथ गहो
और मेरी शक्ल में तुम
तुम भी लिखो वह
जिसे अब तक लिखा नहीं
किसी इतिहासकार कवि दार्शनिक या किसी ने भी
वह
जो किसी भी काम से अधिक जरूरी।
विमलेश त्रिपाठी
बिस्मिल्लाह ख़ान
क्या दशाश्वमेध घाट की पैड़ी पर
मेरे संगीत का कोई टुकड़ा अब भी गिरा हुआ होगा?
क्या मेरा कोई सुर कोमल रिखभ या शुद्ध मध्यम
अब भी गंगा की धारा में चमकता होगा?
बालाजी के कानों में क्या अब भी गूंजती होगी
मेरी तोड़ी या बैरागी भैरव?
क्या बनारस की गलियों में बह रही होगी मेरी कजरी
देहाती किशोरी की तरह उमगती हुई ?
मेरी शहनाइयों का कोई मज़हब नहीं था
सुबह की इबादत या शाम की नमाज़
वे एक जैसी कशिश से बजती थीं
सुबह-सुबह मैं उनसे ही कहता था बिस्मिल्लाह
फिर याद आता था अरे अपना भी तो है यही नाम —बिस्मिल्लाह
याद नहीं कहाँ-कहाँ गया मैं ईरान-तूरान अमेरिका-यूरोप
हर कहीं बनारस और गंगा को खोजता हुआ
मज़हब और मौसीकी के बीच संगत कराता हुआ
मैंने कहा कैसे बस जाऊं आपके अमेरिका में
जहां न गंगा है न बनारस न गंगा-जमुनी तहजीब
जिन्होंने मुझसे कहा इस्लाम में मौसिकी हराम है
उन्हें शहनाई पर बजा कर सुनाया राग भैरव में अल्लाह
और कर दिया हैरान
वह सुर ही है जिससे आदमी पहुंचता है उस तक
जिसे खुदा कहो या ईश्वर कहो या अल्लाह
अरे अगर इस्लाम में है मौसिक़ी हराम
तो कैसे पैदा हुए पचासों उस्ताद
जिनके नाम से शुरू हुए हिन्दुस्तानी संगीत के घराने तमाम
अब्दुल करीम, अब्दुल वहीद, अल्लादिया, अलाउद्दीन,
मंजी, भूरजी, रजब अली, अली अकबर, विलायत, अमीर खान, अमजद
कहाँ तक गिनाएं नाम
मेरी निगाहों के सामने बदलने लगा था बनारस
भूमंडलीकरण एक प्लाटिक का नाम था
जो जम रहा था जटिल तानों जैसी गलियों में
एक बेसुरापन छा रहा था हर जगह
यह बनारस बाज़ के खामोश होने का दौर था
कत्थक के थमने और ठुमरी की लय के टूटने का दौर
टूटी ही रही मेरे नाम की सड़क मेरे नाम की तख्ती
एक शोर उठा बनारस अब क्योतो बन रहा है
और उसके साथ गिरे हुए मलवे में दबने लगी सुबहे-बनारस
एक दिन इसी क्योतो में मेरी शहनाइयां नीलाम हुई
उन्हें मेरे अपने ही पोते नज़रे हसन ने चुराया
और सिर्फ एक महंगा मोबाइल खरीदने की खातिर
बेच दिया फकत 17000 रुपये में
उनकी चांदी गला दी गयी लकड़ी जला दी गयी
उनके सुर हुए सुपुर्दे-ख़ाक
अच्छा हुआ इस बीच मैं रुखसत हो गया
बनारस अब कहाँ थी मेरे रहने की जगह.
– मंगलेश डबराल
इस तरह एक धुन
एक बात जो होते-होते रह गई थी
एक गीत का हर्फ
जो हवा में गुम गया था कहीं
वह आज मिल गया एक जंगल में
फूल की तरह खिला हुआ
उसने मुझे देख मुस्कुरा दिया
और इस तरह फिर से
एक नई धुन पूरे जंगल में बज उठी।
लेकिन तुम
पेड़ पेड़ ही रहें
मिट्टी मिट्टी ही रहे
चूल्हे की आग आग की तरह ही
अन्न की गंध अन्न की तरह
हवा की तरह हवा
पानी पानी की तरह ही रहे
और समय के साथ
बदलना अगर बहुत जरूरी
तो सब कुछ बदले
लेकिन तुम ‘तुम’ की तरह
और
मैं ‘मैं’ की तरह ही रहे।
विमलेश त्रिपाठी
औरत को गढ़ना पड़ता है …
औरतें होती है
नदिया सी
तरल पदार्थ की तरह
जन्म से ही
हर सांचे में रम
जाती है …
और पुरुष होते है
पत्थर से
ठोस पदार्थ की तरह ,
औरत को गढ़ना पड़ता है
छेनी- हथौड़ा ले कर
इनको
अपने सांचे के अनुरूप …
एक अनगढ़ को
गढने की नाकाम
कोशिशों में ,
ये औरतें सारी उम्र
लहुलुहान करती रहती
अपनी उँगलियाँ और
कभी अपनी आत्मा भी …
उपासना सियाग ( अबोहर ,पंजाब )
pn — 8054238498
बल्व
सुनते हैं तुम बिजली बहुत खाते हो
तुमसे तो टयूब लाइट भली
तुम्हारी विदाई का समय आ गया है
मगर किस दुनिया से, हमारी दुनिया
तो तुम्हीं से रोशन है, दरिद्रता
और तुम्हारी रोशनी का रंग
अब भी एक सा है पीला
फिर तुम तो बिजली खाकर,
रोशनी लौटा देते हो, जो खाकर
मनुष्यता और संघर्ष बेहिसाब
भर रहे अंधेरा,
दुनिया से उनकी विदाई
तो हो जाये पहले तय
ं
लगता है तुम हमारे ही लिये जन्में
क्या दुनिया में फैली गरीबी को
थामस एल्वा एडिसन पहचानते थे
पवन करण
थाली
इस थाली में जो भी रख दो
खप जाएगा
चमचम – चमचम इस थाली में
सतत सुरंगे
थामें इसको गैरिक छलिया
साधु नंगे
तेज़ अंगुलियों वाले कर हैं
इनके लम्बे
इनके हाथों जो लग जाए
नप जाएगा
ये ही हैं थाली के मालिक
इनकी हर संस्था सदस्य है
इनके सब कर्मों से वाक़िफ़
ऊपर का पर्दा मोटा है
भीतर झांकों सब दिख जाता
फिर भी ये चलते उतने युँ
स्पर्श को मन कंप जाएगा
दिल्ली से बाहर वाले भी इनके चीन्हें
इनके सारे कागज़ – पत्तर हलके झीने
ज़ेबे इनकी लम्बी बोझल भारी भरकम
हिंदी मान के ख़ून नहीं ये रंग पसीने
इनकेछल का मुद्दा कल तक
हो इनकी गपशप जाएगा
इनकी थाली में जो भी रख दो
खप जाएगा
सतेन्द्र श्रीवास्तव