कविता आज और अभीः समय का धर्म ?

चला आया कौन अब
करने किसका आखेट
करुण मन द्रवित भ्रमित
छुपा बैठा है बहरूपिया
ताक लगाए जाल बिछाए
कांपता थरथराता यह
निशाना अब किस पर साधे
सभी अपने यहाँ, नहीं पराए?
-शैल अग्रवाल

मैं गलत था,
लहरें गहराई नहीं जानती
ऊपर-ऊपर उठती गिरती हैं!
उसकी खामोशी सूखे पत्तों की खरखराहटें हैं

जितनी बार लिखता हूँ रेत पर कोई काव्य
आकर मिटा जाती है शोर करती हुई –
“कुछ नहीं पता तुम्हें, मुझसे भी छोटी है कहानी तुम्हारी”

लौट आता हूँ अवाक्
जहाँ प्रार्थना के दीप जल रहे थे
छायादार वृक्ष के नीचे बैठे कुछ लोग
झुके हुए थे इबादत में किसी डर की वजह से
आस्थावान नहीं लग रहे थे उनके चेहरे
हिल रहे थे कुछ होंठ , बुदबुदा रहे थे कुछ शायद अपनी आँखें भींचे

मुझे लगा, जैसे हर कोई बेमन
मौत के लिए खुद को तैयार कर रहा हो!

सुशील कुमार

सरहदें हैं
मन मुटावों की
शिकवों-गिलों की
तैनात है जहां
अपने-अपने अहम्
पैनी निगाहों के साथ

मगर हवाओं में खुशबू सी
सूरज के उजियारे सी
खलिश रुकी कहाँ
अपनापन थमा कहाँ

अपनी-अपनी सरहदों में
कैद हैं हम..
कुछ खलिश लिए
और कुछ अपनापन भी.
जितेन्द्र दबे ( ओबर , डूरु

असली माँ माटी है हमारी
जिसने खेतों को हरा किया
धरती की छाती ने ही हमें
पाल-पोस कर बड़ा किया।

हम खेले इसके सीने पर
अन्न उगा इस पर खाया
कितना सहती है धरती
चैन न इसको मिल पाया।

हर दिन तमाम आतंकी
देश में अब पैदा होते हैं
कितने ही मासूम यहाँ
अपना जीवन खो देते हैं।

बर्बादी और हत्याएं
अत्याचार और व्यभिचार
कपट और लूट-पाट
और हर जगह भ्रष्टाचार।

कहाँ खो गये दिन वह
कहाँ गया वह देश महान
हम धरती को दुख न दें
हम सब हैं उसकी संतान।

शन्नो अग्रवाल

शहर, गाँव जहां भी जाओ
आतंक ने किया जीना दूभर
अब खूबसूरत वादियों में भी
सबको जाने से लगता है डर।

कश्मीर को हम कहते हैं स्वर्ग
फिर वहां कैसा धर्म और वर्ग
मानवता ही हो सबका धर्म
और कभी न हो उसका उत्सर्ग।

यदि सबके लहू का रंग एक है
फिर क्यों रंगते हो उससे हाथ
नफरत की दीवारें गिराकर
मिलजुल कर सब रहो साथ।

यदि धरती को रखना है पाक
तो धर्म और वर्ग की करो न बात
जब दुनिया से मिटेगा आतंक
तभी आयेगा एक नया प्रभात।

शन्नो अग्रवाल. आस्ट्रेलिया

आक्रोश में सब धुआँ-धुँआ
सिवाय भय के कुछ नहीं था वहाँ
भय था और थी घुटन
बेबसी अपने ही वतन में
एक अनोखी ही पूछताछ की
धर्म जाति और क्रूर पहचान की
मानो भंग हो चुकी थी सारी शुचिता
वह भी बन्दूक की नोक पर
साक्ष वह उजड़ते विश्वास और ईमान का
जिबह हुआ इनसानों का
निरीह जानवरों की तरह ही देखते रहे सब…

कहीं कायर सा दुबका भेड़िया
शिकार की तलाश में लपका झपटा
शौर्य नहीं, धर्म नहीं, धूर्त ही तो थी चाल
उंचे देवदार और चिनार के वृक्षों में छुपा सन्नाटा
कलकल बहती नदी के
गोल मटोल पत्थरों में अब शेष बस क्रंदन
धर्म, संस्कृति, खूबसूरती कुछ भी तो नहीं शेष
बस एक मंथन- इनसानियत और भाईचारा कहाँ
सभ्यता तो निश्चय ही नहीं सिवाय पथभ्रष्ट धर्म के
गोली मारने से पहले
जिसके हाथ जा पहुंचे थे
भय से कांपते इनसान की पतलून तक
-शैल अग्रवाल

वे सड़कें बना रहे हैं..
गर्म तपती भट्ठियों सी ,तप्त सड़कों पर.
कोलतार की धार गिराते ,
मजदूरों के झुलस रहे हैं पाँव.
पर तपती धरती पर, गिट्टियां बिछाते,
मानो स्नेह का लेप लगा रहे हैं।
वे सड़कें बना रहे हैं. ।
गर्म जलते टायरों का ,फैलता है धुंआ ,आग उगलता,।
जला रहा है उनके-तन को, मन को,पूरे वजूद को,
इस आग के बीच बरसते,पसीने की धार को पोंछ,
वे फिर अपने काम में लीन हो जाते हैं,।
वे सड़कें बना रहे हैं.।
एक आग उनके तन को तपिश देती है .
और एक आग जलती है.,पेट की आग,भूख की आग.,
जो उन्हें मजबूर करती है.
नंगे पाँव गर्म पत्थरों को काटने,बिछानेऔर खुद भी ,
इस ज्वाला में पिघलने के लिए,।
फिर भी वे मुस्करा रहे हैं।
वे सड़कें बना रहे हैं,।
जानते वे,- रौंद कर निकलेंगे ,
कितने पांव ,कितने दर्द सह कर भी ,
मुस्कराएगी सड़क,
फिर भी ,वे हंसकर ,दूरियों को पाटते,कहते,-
”हम इंसानियत का पुल बना रहे हैं”।
वे सड़कें बना रहे हैं. ।
और जब थक हार कर ,बीती दुपहरी, सेंकते वे बाटियाँ,
खिलखिलाते ,बांटते दुःख दर्द अपना,
वे राग ,विरहा, फाग ,चैती गा रहे हैं,
वे सड़कें बना रहे हैं…
-पद्मा मिश्रा

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