कविता आज और अभीः जनवरी-फरवरी 22


जो नहीं दिखता दिल्ली से

बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से

आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

राष्ट्रपति-भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से
कहाँ दिखता है सारा देश

मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना

चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए

इमारतों से मेरा वादा था

उन इमारतों से मेरा वादा था,
मुझे बचा लेंगी वो,
या कि उनका मुझसे वादा था,
बारिशों के दिनों का,
उससे भी ज्यादा सर्दियों का,
कांपती हुई हमारी आत्माओं को,
ठिठुरती हुई रूहों को हमारी,
दौड़कर आती, आतुर निगाहों को,
थाम लेंगी इमारतें ये,
यहाँ किताबों की पढाई होती है,
बांचे और बेचे भी जाते हैं,
सपने यहाँ,
पन्ना दर पन्ना,
पढ़कर आना,
फिर वादा खिलाफी हुई यहाँ,
किताबो में घुसाई गयीं,
बाहर की बातें,
इनके, उनके, प्यार की बातें,
इज़हार की बातें,
इनकार की बातें,
बातें यहाँ, वहां होने ही,
खोने की,
सब डाली गयीं,
किताबो में,
बहकाया गया,
झुठलाया गया,
दगाबाजी की इन इमारतों ने।

सुशांत सुप्रिय, गाजियाबाद


क्लास अथवा शिक्षा सभागार
क्यूँ मेरी किताबों से दूर किये हैं,
दूर किये दे रहे हैं,
सवाल उनके, बवाल उनके,
प्रपंच उनके,
प्रहार उनके,
पहले दिन क्लास के,
स्कूल के,
जब एक बेहद खूबसूरत संगीत तिरता था,
धरती पर,
अम्बर में,
क्यूँ दूर किये देते हैं,
किताबों से मेरी,
लिखावट से उसकी,
खूबसूरत, लिखावट से उसकी,
छपाई से,
मेरी पेंसिल की रेखाओं से,
दुनिया की उस सबसे खूबसूरत लकीर से,
खीची गयी इन बेहद खूबसूरत अक्षरों के नीचे,
अक्षरों की बातों को उकेरती लकीर से,
या लाँघकर उसे,
प्रवेश कर इन अक्षरों में,
देकर मेरी ज़िन्दगी में दखल,
लेकर मेरे प्रेमी की आज्ञा,
होकर मेरे प्रेमी के साथ,
पूरी तरह निजी में मेरे,
कि निजी पर हक है उनका,
वो जो मेरे शिक्षक हैं,
पहले निजी पर करेंगे सवाल,
कि निजी है प्राथमिक,
शिक्षा द्वितीय
है,
पर निजी उनके लिए नहीं।

बापू ! तुम आज
यदि होते
तो देश की वर्तमान स्थिति
देखकर बहुत रोते
तुम्हारे सभी आदर्श
सभी मूल्य और सभी सिद्धांत
आज तुम्हारे ही
अनुयायियों के हाथों
क्षत विक्षत हो रहे हैं;
तुम्हारी सत्य, अहिंसा और
सत्याग्रह की प्रयोगशाला
आज, देश के अपराधियों द्वारा
हाई जैक कर ली गयी है;
कहने को तो गोड्से ने
तुम्हारा वध किया था
लेकिन तुम्हारा वध तो
तुम्हारे ही अनुयायियों द्वारा
हर जगह और हर दिन किया गया है;
तुम्हारी खादी, तुम्हारा चरखा
तुम्हारी टोपी, तुम्हारा स्वदेशी
सभी कुछ नीलाम हो चुका है;
तुम्हारा नाम और तुम्हारे नारे
अब केवल पद और कुर्सी
हथियाने के काम आ रहे हैं;
तुमने तो भारत की गरीबी देखकर
अपने कपड़ों तक का
त्याग कर दिया था
लेकिन आज तो
समूचे तंत्र ने ही
सर से लेकर पैर तक
रिश्वत, भ्रष्टाचार और बेशर्मी का
लबादा ओढ़ लिया है;
तुम्हारी छड़ी जो कभी
बेसहारों का सहारा थी
आज केवल सक्षम,
समर्थ और चतुर लोगों का
सहारा बन कर रह गयी है;
तुम्हारे ग्रामीण और कुटीर उद्योग
के विकास माडल की जगह
अब हाईफाई, वाईफाई और हाई टेक
मल्टीनेशनल माडल ने ले ली है;
तुम्हारे तीनों बन्दर आज
बिल्कुल विपरीत भूमिका में दिख रहे हैं
पहले बन्दर ने अपना स्थान
शासन तंत्र और न्याय व्यवस्था
में सुरक्षित कर लिया है
उसने कुछ भी गलत देखना
पूरी तरह बन्द कर दिया है;
दूसरे बन्दर ने अपना स्थान
नेता, मीडिया, और तथाकथित
बुद्धिजीवी वर्ग के हृदय और मस्तिष्क में
सुरक्षित कर लिया है
और किसी भी अन्याय, अत्याचार
और अनाचार के विरुद्ध
अपना मुँह पूरी तरह बन्द कर लिया है;
तीसरे बन्दर ने अपना स्थान
व्यवस्थापिका एवं प्रशासन तंत्र में
सुरक्षित कर लिया है
उसने अपने कान
पूरी तरह बन्द कर लिये हैं
जन सामान्य की कोई समस्या,
कोई परेशानी और किसी भी कष्ट की
आवाज उसे सुनायी नहीं देती;
हाँ, एक चौथा बन्दर
अब और प्रकट हो गया है
जो हर जगह, हर क्षेत्र में
सदैव सक्रिय और आगे रहता है,
उसके पास बड़े बड़े आश्वासन
बड़े बड़े वादे व अत्यंत आकर्षक
एवं मन लुभावन नारे हैं
भारी भरकम तर्क हैं,
उसके पास
हर एक समस्या का
समाधान है;
लेकिन, वो हर एक चीज को
केवल और केवल
अपने चश्मे से देखता है,
उसी की सहायता से बोलता है
और उसी की सहायता से सुनता है;
और वो चश्मा है थोक में वोट का
क्षेत्र, वर्ग, जातियों और संगठित
समुदायों के समीकरण साधने का
वो भी, किसी भी कीमत पर;
लोकतंत्र के हर एक स्तम्भ पर
उसकी अप्रतिम आभा
देदीप्यमान हो रही है
उसमें हर एक स्तम्भ को
शत-प्रतिशत प्रभावित करने की
अद्भुत क्षमता है;
इसका अपना दुर्ग अत्यंत शक्तिशाली है
जो पूरी तरह अभेद्य एवं अपराजेय है;
प्रतिघाती होने के बाबजूद इसमें
अद्भुत सम्मोहन एवं वशीकरण की शक्ति है
पर यह बन्दर किसी भी स्थिति में
तुम्हारे नाम का प्रयोग और
तुम्हारे नाम की माला जपना
कभी नहीं भूलता।
कभी नहीं भूलता।

गीत-
रेत पर हम लकीरें बनाते रहे
तुम बनायी लकीरें मिटाते रहे।
खेत में हम पसीने बहाते रहे
तुम पसीना वही बेच खाते रहे।
बन्धुता, मित्रता, भावना, कामना
है तुम्हारी अलग औ हमारी अलग
मूल्य, आदर्श ही हम निभाते रहे
तुम वहाँ भी सियासत मिलाते रहे।
लोकहित की जगह स्वार्थ के मंत्र को
साधते तुम रहे बस सदा तंत्र को
तंत्र को उंगलियों पर नचाते रहे
काम तुम सिर्फ अपना बनाते रहे।
दिव्यता से चली जो कहानी कभी
विश्व कल्याण की पथ प्रशस्तक बनी
तुम निशाँ तक उसी के मिटाते रहे
और लांछित उसी को कराते रहे।
स्वार्थ, परमार्थ में जंग है अब छिड़ी
शक्तियाँ आमने सामने आ भिड़ीं
शांति का राग हम गुनगुनाते रहे
युक्ति औ शक्ति तुम आजमाते रहे।

– डा0 अनिल शास्त्री ‘शरद्’
311 पार्क रोड देहरादून -248001
91-9259193530

नया विश्वकर्मा

तुम जो दो टके के विदूषक हो
तो हो
तुम्हारे विदूषक होने से मुझे क्या?
लेकिन तुमने अपना भाव
दो टका तय कर लिया है
यह चिन्ता जनक है!

विदूषक तो
और भी हैं जहान में
कोई हिन्दू आखेट रहा है अमेरिका में
कोई अहिन्दू खोज रहा है हिन्दुस्तान में
कोई एथेईस्ट बना देने पर तुला है चीन में
कोई नमक मिला रहा है चाँद में
लेकिन तुमने खेल खेल में
इतिहास को पलट दिया

तुमने मुगलो से मेरे मन की कटुता मिटा दी
अब मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं
धरोहरो को ध्वस्त करने में
तुमने उन्हें बहुत पीछे छोड़ दिया

सचमुच तुमने इतिहास को बदल दिया

दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी को
ठीक विदूषक समय में
जब शहंशाह गुजरी तोड़ी और
राग जय जयवन्ती में डूबा हो :
तुमने मुगलो, तातारों, शकों, हूणों, तुर्कों
पोर्तुगीजों, फ़्रान्सिसियों,अंग्रेजॊं
सबकी बर्बरता को परास्त कर दिया! और
उन से
हम भारतीयों की सदियों पुरानी शत्रुता की
गाँठ गला दी:
इनसे किसी के भी मन में क्लेश नहीं रहा !

वाह! मियाँ जी!

सबकी बर्बरता को परास्त कर दिया !
अब दुनिया की सबसे शक्तिशाली जाति हिन्दू!
गर्व करो! कहो – हमने सौ शिवलिंग तोड़े
मन्दिरों को ध्वस्त किया
हमने यवनों, मुगलों,बौद्धॊं, तुर्क -तातारों,
पोर्तुगीज़ों, फ्रांसिसियों
अंग्रेजों
सभी आक्रमण कारियों को बहुत पीछे छोड़ दिया

और अब जो पीछे छूट गया
उससे क्लेश कैसा
कौन सी शिक़ायत,
बेचारा! जो हार गया उस से
अब कौन सा
भाव भव्वदी ?

एक इन्सान एक विचार है
एक समाज एक तरह का आचरण है
विचार एक परम्परा है
उपनिषद का
अहम् ब्रह्मास्मि
हिन्दी में
मैं ही ब्रह्म हूँ
अरबी का
अनलहक़
इंगलीश का
यू आर द वर्ल्ड
एक ही विचार है
अहम् ब्रह्मास्मि..
तत् त्वमसि श्वेतकेतु…

तुम कितना जानते हो जी
इस भारत भूमि को?
मैं विश्व हूँ
सीख चुकी हिन्दुस्तानी जमात को
तुम किस जात में बिठाना चाहते हो?

तुम कितना जानते हो जी
इस नेशन इंडिया को?

इसीलिए कहता हूँ
यह चिन्ता जनक है!
यह हैरत अंगेज कारनामा है
हमारे कुर्ते पर संस्कृति का मलबा गिर रहा है
और हम जोक मार रहे हैं !

अनुपम
22,12,2018, विश्वनाथ गली, बनारस

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