।। सुनेत्रा…… तुम ही वसंत हो! ।।
तुम्हें याद कर रहा हूँ;
जैसे मैंने कभी नहीं याद किया चाँद को।
तुम्हें देख रहा हूँ;
जैसे मैंने कभी नहीं देखा तितलियों को।
तुम्हें सुन रहा हूँ;
जैसे मैंने कभी नहीं सुना बेग़म अख्तर को।
तुम्हें छू रहा हूँ;
जैसे मैंने कभी नहीं छुआ फूलों को।
मेरे पास तुम्हारा होना वसंत की पदचाप है।
कल भोर का सूरज माँगेगा तुमसे लाली,
कमलिनी के पुष्प खिलेंगे तुम्हारे ही रंग में,
कूकेगी कोयल तुम्हारा ही नाम,
ऋचाओं के अर्थ उलझ जाएंगे तुम्हारे बालों में,
चम्पा की गंध छुएगी तुम्हारा ललाट,
खिल उठेंगे खेत खलिहान,
चुपके से गुन गुनाएगी हवा तुम्हारा नाम।
तुम्हें याद कर रहा हूँ;
जैसे मैंने कभी नहीं याद किया वसंत को।
सुनेत्रे…… तुम ही वसंत हो!
____ राजेश्वर वशिष्ठ
॥ प्रेमपत्र ॥
मैंने एक प्रेमपत्र लिखा
आवारा बहती हवा पर
हवा के कदम लड़खड़ाए
और हवा ने अपनी दिशा बदल ली
मैंने एक प्रेमपत्र लिखा
आसमानमें लहराती लाल पतंग पर
पतंग कटी और एक बच्चे ने उसे
अपने घर की दीवार पर लटका दिया
मैंने एक प्रेमपत्र लिखा
कल कल बहती
सुरमई नदी के मीठे जल पर
और नदी जाकर समुद्र में समा गई
मैंने एक प्रेमपत्र लिखा
नागचम्पा के महकते पुष्प पर
और चिड़िया को दे दिया
चिड़िया उसे लेकर इधर उधर उड़ी
और किसी घने जंगल में छिप गई
मैंने एक प्रेमपत्र लिखा
बादलों से घिरे आसमान के शामियाने पर
और कड़कती बिजली ने
उसे पल भर में भस्म कर दिया
मैंने हार कर
अंतिम प्रेमपत्र गर्म आँसुओं से
अपनी आत्मा पर लिखा
और उसे अपने दुःख के हवाले कर दिया
सुनेत्रा,
यह वही पत्र है
जिसे अब तुम पढ़ रही हो!
-राजेश्वर वशिष्ठ
सोनचिड़ी आंगन में बोल गई है
शगुन शुभ हुआ है कि आयेंगे कंत
पीड़ा प्रतीक्षा की पायेगी अंत
नीम में मधुर मिसरी घोल गई है
कौंध गये सुखद सब बीते दिन-रैन
सुख की पलक में ही भर आए नैन
स्मृतियों की परत-परत खोल गई है
छोड़ उड़ी कचनार शेवंती फूल
प्रिया के प्रदेश की गंधायित धूल
ओस-बिंदु पाटल पर रोल गई है
घायल-सी सांसें और उलझे केश
देने को नयन में आंसू ही शेष
निर्धन के कोष सब टटोल गई है
सोनचिड़ी आंगन में बोल गई है।
– अज्ञात
किरन के नाम
सुबह-सुबह को भेंट गई शाम की चुभन,
उस किरन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
खुली जो आंख तो लगा कि रूप सो गया,
साथ जो रहा था आज वह भी खो गया।
देह-गंध यों मिली कि दे गई अगन,
उस अगन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
मन किराएदार था रच-बस गया कहीं,
तन किसी का सर्प जैसे डंस गया कहीं।
हम मिले तो साथ में थी सब कहीं थकन,
उस थकन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
मोड़ पर ही आयु के था वक्त रुक गया,
दूर चल रहा था पांव वह भी थक गया।
बांह में था याद की सिमटा हुआ सपन,
उस सपन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
– तारादत्त निर्विरोध
सुनो चारुशीला।
(दिवंगता पत्नी विजय नरेश पर लिखी कविता)
तुम अपनी दो आँखों से देखती हो एक दृश्य
दो हाथों से करती हो एक काम
दो पाँवों से
दो रास्तों पर नहीं एक ही पर चलती हो
सुनो चारुशिला !
एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है
नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे तो फिर क्या होंगे
अच्छा ज़रा सोचकर बताओ
कि एक मैं और तुम मिलकर कितने हुए
क्या कोई बता सकता है
कि तुम्हारे बिन मेरी एक वसंत ऋतु
कितने फूलों से बन सकती है
और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता
एक तारे से अपना आकाश
नरेश सक्सेना
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो
कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था
आज भीड़ें भा रही हैं
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो
गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम
गहरे धुँधलके में खड़े कितने डरे
कँपते थरथराते अंत तक क्यों मौन थे तुम
किस तिलस्मी शिकंजे के असर में थे
जिगर पत्थर, आँख पत्थर, जीभ पत्थर क्यों हुई थी
सच बताओ, उन क्षणों में कौन थे तुम
कल तुम्हें अभिमान अच्छा लग रहा था
आज भिक्षा भा रही है
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो ।
-नरेश सक्सेना
बोलो ,
बोलती क्यों नहीं
क्या बस मेरी ही गरज है सारी
नहीं, मैं कुछ नही कह सकती
आज भी तुम कुछ समझते ही नहीं
अपनी-अपनी ही थी मुहब्बत दोनों की
और अपने-अपने ही उलझ गए थे दर्द।
शैल अग्रवाल
खुशबू सा फैला वह और मुझमें समा गया।
अपनों की बात हुई तो फिर याद आ गया।।
फासले बहुत थे, अकेला ही आया और गया।
मीत नहीं था वक्त, बस हमें मीत बना गया।।
तारों सी छिटकी हैं यादें, मन में ना संजो लेना।
फफोले ही फफोले हैं, मरहम न दवा दे गया ।।
अजूबा है यह चाहत भी सिमटे तो महबूब लगे
बिखरे तो गले पड़ा बेवफ़ा जो दगा दे गया ।।
शैल अग्रवाल
चाहत बांधे
जिन्दगी को साधे
रेशे रेशे जकड़े
फिर भी मुक्ति नहीं
मन भ्रमर तो कैद वहीं
उसी कीच-कमल में …
शैल अग्रवाल
मेरे ह्रदय के खाली
स्टेटस पर…
तुम अपने अहसासों की
डाल दो पोस्ट…
मै करूँगा भरोसे का लाइक
स्नेह का कमेंट..
जहाँ करेंगे दोनों मिल कर
हम दोनों अपने
रिश्ते को शेयर…
पर रखना याद
कि…
हम और हमारे प्यार से
नफरत करने वाले को
करना जरुर…
टैग….
– अखिल जैन
ज्योति का जो दीप से ,
मोती का जो सीप से ,
वही रिश्ता , मेरा , तुम से !
प्रणय का जो मीत से ,
स्वरों का जो गीत से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
गुलाब का जो इत्र से ,
तूलिका का जो चित्र से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
सागर का जो नैय्या से ,
पीपल का जो छैय्याँ से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
पुष्प का जो पराग से ,
कुमकुम का जो सुहाग से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
नेह का जो नयन से ,
डाह का जो जलन से ,
वही रिश्ता मेरा , तुम से !
दीनता का शरण से
काल का जो मरण से
वही रिश्ता मेरा, तुमसे !
~ लावण्या शाह
केवल तुम—
तुम मेरी भावनाओं का खिलता कमल हो
हृदय बांसुरी में उमगती सी गजल हो
नयन में जलद से उमड़ते जो आंसू
तुम उनमें बसी कल्पना सी सजल हो
तुम मेरी भावनाओं का खिलता कमल हो
धरा से गगन तक जो सपने बिछाए
भरो रंग ऐसे जो सबसे नवल हो
सुरमयी साझ में गीत यूं गुनगुनाओ
जो गीतों की महफ़िल में सबसे विरल हो
तुम मेरी भावनाओं का खिलता कमल हो
घिरे बादलों की मधुर रिमझिमी में
कहो बात कोई जो सबसे अलग हो
तुम कहती रहो, और अपलक सुनूं मैं
यादों में डूबा हर एक पल हो
तुम मेरी भावनाओं का खिलता कमल हो
पद्मा मिश्रा
तुम कोई गीत लिखो
और मैं गाउँ
गीत माटी के ,गीत फसलों के
गीत सुबह -शाम,गोधूलि-विहान के ,
तुम कोई सूरज गढ़ो और मैं –
किरणों का परचम सजाऊँ
तुम कोई गीत लिखो
और मैं गाउँ,
तुम लिखो धूप -छाँह सी कोई कविता ,
और मैं शब्दों की रंगोली बनाऊँ ,
तुम कोई गीत लिखो
और मैं गाउँ-
मन की मंजूषा में -यादों के साये हैं ,
भूले -बिसरे नगमे बदल बन छाये हैं ,
जीवन के आंगन में तुम ,
पूनम का चाँद बनो और मैं –
आशाओं की चांदनी बिछाऊँ ,
तुम कोई गीत लिखो
और मैं गाउँ-
भावना के मंदिर में -देवता विराजे हैं ,
प्रिय की अभ्यर्थना में साज सभी साजे हैं ,
सूने मन मंदिर में तुम. आरती का दीप बनो ,
और मैं समर्पिता सी वर्तिका हो जाऊँ ,
तुम कोई गीत लिखो
और मैं गाउँ-
नदिया ने सीखा है केवल बहते जाना ,
लहरों की सरगम पर -सपने बुनते जाना ,
नैनों की गागर में -सागर सा प्यार लिए
बादल सा राग बनो और मैं –
मनुहारों की रागिनी सुनाऊँ –
तुम कोई गीत लिखो
और मैं गाउँ,
पद्मा मिश्रा
—नदी-सागर-और प्रेम ”
दूर रह कर भी नहीं जो टूटती है,
अनकही सी भावनाएं जोडती है,
प्रीति तो अहसास की कच्ची कली है,
जो कहानी धडकनों में सोचती है.
प्यार की गाथा , नदी है जिन्दगी की,
धार बन बहती रही हैं भावनाएं,
मन का सागर पा सके न दो किनारे,
लहर संग ढलती रही हैं कामनाएं.
साथ चलना है हमें सागर किनारे,
पर लहर के साथ हम बहने न पायें
मिल न पायें हम,भले ही युग युगों तक,
रास्ते विश्वास के मिटने न पायें.
कल कभी तुम साथ आओ या न आओ,
मै अकेली ही चलूंगी कर्म पथ पर,
बस यही अहसास हो संबल हमारा ,
तुम हमेशा ही मेरे अहसास में हो…….!
कह उठा सागर ‘समर्पण हूँ तुम्हारा,
दूर हो, फिर भी मगर -हर सांस में हो.
—-पद्मा मिश्रा जमशेदपुर झारखण्ड
सखि, बसंत कब आता है,,
हृदय-आँगन जब पुष्प खिले हो,
मन बसंत तब आता है ।
होठों पे मुस्कान सजे जब,
तन बसंत तब छाता है ।
सखि बसंत तब आता है।
जब बिरहन को प्रीत मिली हो,
मन बसंत तब आता है।
जब माँ का आँचल महका हो ,
तन बसंत तब छाता है।
सखि बसंत तब आता है।
जब प्यासे को जल मिल जाए,
मन बसंत तब आता है ।
जब कोई भूखा ना सोए,
तन बसंत तब छाता है।
सखि बसंत तब आता है।
जब बारिश हो प्रेम-प्रीत की,
मन बसंत तब छाता है।
एक दूजे के गले मिलें जब,
तन बसंत तब छाता है।
सखि बसंत तब आता है।
यूँ तो “इन्दु” मौसम बदले ,
ॠतु बसंत तब आता है ।
जब मानव मानव बन जाए,
मन बसंत तब छाता है ।
सखि बसंत तब आता है।
इंदु झुनझुनवाला
गीत बसंती तब गाऊँगी ।
राम राज की बात करू ना ,
भाई-भाई का थाल बजे ना ,
अपनी-अपनी जेब न होगी
रिश्तों में जब सेंध न होगी ।
डोली खाली ना जावेगी ,
माँग सभी की भर जावेगी,
राग बसंती तब गाऊँगी ।
लाठी जिसकी भैंस न होगी ,
गीदड भभकी तैस न होगी ।
कोई जब परतंत्र न होगा ,
भवँरा पर स्वछंद न होगा
तितली निर्भय मँडरावेगी,
बिल्ली शेर न बन पावेगी ।
राग बसंती तब गाऊँगी ।
डाल डाल पर तोता मैना ,
झूला झूले मिलाके नैना ,
ऊँच-नीच का भेद ना होगा,
जात-पात विभेद न होगा।
ग॔गा पावन हो जावेगी,
प्यास सभी की मिट जावेगी ।
राग बसंती तब गाऊँगी ।
अपनी बोली अपनी भाषा ,
हिन्दी है जन-जन की आशा।
अपना पहनावा चमकेगा।
अपना खान-पान महकेगा ।
भारत माँ जब मुस्काएगी ,
खुद पर गर्व मैं कर पाऊँगी ।
गीत बसंती तब गाँऊगी ।
विश्व गुरू का सपन सलोना ,
धरती के सीने बोऊँगी ।
हरियाली से धरा सजेगी,
फसल प्रेम प्रीत की होगी ।
योगी-भोगी कृष्ण की तानें,
गोपी बन संग जब नाचूँगी ।
गीत बसंती तब गाऊँगी ।
सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम्,
कहे विश्व , हर दिल हरषेगा ।
जय भारत, जय भारतवासी ,
नारों से ये गगन सजेगा।
प्राणों में बाँसुरी बजेगी ।
रंग केसरिया फहराऊँगी।
राग बसंती तब गाऊँगी।
आओ रंग ले तन संग मन भी,
जीवन होली, रंगों वाली ।
कहीं बिखेरे प्रेम-प्रीत ये ,
कहीं शहादत वीरों वाली ।
जीवन होली रंगों वाली ।
सारे रंग इन्हीं में सिमटे,
हर रंगो की बनकर प्याली।
लिपटे तीन रंग मे जीवन ,
होती मृत्यु पर मतवाली ।
खेली होली जीवन वाली ।
जीवन होली रंगों वाली ।
आज तो दूजा गीत ना भाए,
पंक्ति एक ही गीतों वाली।
भारत माँ के लाल सो रहे,
हम सबकी करके रखवाली।
खेली होली वीरों वाली ।
जीवन होली रंगों वाली ।
रंग “इन्दु” भी चोल बासंती,
देश प्रेम मे रंगने वाली।
कभी नहीं कम होने देंगे
तिरंगे की शान निराली ।
खेली होली कसमों वाली ।
जीवन होली रंगों वाली।
इंदु झुनझुनवाला
बंगलौर, भारत
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