बहुत पिया है ज़हर तिमिर का
बहुत पिया है ज़हर तिमिर का, चलो मनाये जशन तिमिर का ..
मिटा तिमिर तो सुबह भी आई, हृदय से परखो नयन तिमिर का।
छुपा कहाँ ज़रा उसे तो ढ़ूँढो? हुआ कभी क्या पतन तिमिर का?
तम का घूँघट सुबह की किरणें, बहुत विशाल गगन तिमिर का।
शबे-नूरानी महकती दुल्हन, सुला के जागा चमन तिमिर का।
ज्योति-पुँज को हृदय से पूजो, तब पाओगे रतन तिमिर का।
तनिक नयन में झाँक के देखो, दर्द है कितना गहन तिमिर का।
तम की साँसों से मत पूछो, क्या उसने देखा रहन तिमिर का?
रोई बहुत कल चाँदनी आकर, देख लिया क्या रुदन तिमिर का।
आस निराश दो साहिल जैसे, बहती नदिया शयन तिमिर का।
चला वो मेरा साथी बनकर, शान से उड़ा परचम तिमिर का। ..
दियों की बाती सहज से बोली, चूम के देखो शिखर तिमिर का।
“कमल” की रौनक़ बयाँ तिमिर से, बहुत नशीला असर तिमिर का।
बहुत पिया है ज़हर तिमिर का .. चलो मनाये जशन तिमिर का ..
कमल किशोर राजपूत “कमल”, बैंगलुरू – भारत
इस क़लम से, उस क़लम की
——————–
इस क़लम से, उस क़लम की, बात होनी चाहिए,
जैसी भी हो, जैसे भी हो, बात होनी चाहिए।
आँख तेरी,, आँख मेरी, देखती है सब वही,
रूह जाने, रूह की, पहचान तो है इक वही,
सब दिलों के दर्दे की, इक ज़ात होनी चाहिए …
इस क़लम से, उस क़लम की, बात होनी चाहिए …
वो हमारा, हम हैं उसके, राज़ सबको है पता,
पास सबके है वही, फिर ढूँढ़ते किसका पता?
हो प्रेम का बंधन, विरह की मात होनी चाहिए …
इस क़लम से, उस क़लम की, बात होनी चाहिए …
चाहतों के,,,, इस शहर में,,,, रौशनी की है कमी,
कैसी है ये जंग जिसमें, सच किसी का कुछ नहीं,
चाँद, सूरज, तारों-सी सौग़ात होनी चाहिए …
इस क़लम से, उस क़लम की, बात होनी चाहिए,
साँस का संगीत सुर में, बज रहा इक ताल में,
ये ज़मीं, वो आसमाँ,, सब गा रहे सुर-ताल में,
एक ईश्वर, इक ख़ुदा, इक नात होनी चाहिए …
इस क़लम से, उस क़लम की, बात होनी चाहिए …
जैसी भी हो, जैसे भी हो, बात होनी चाहिए।
कमल किशोर राजपूत “कमल”, बैंगलुरू – भारत
दोष किसका था?
कल-जब हम बच्चे थे,
सीखा था हमने ,
संस्कारों का हर नया पुराना पाठ,
माता-पिता को आदर,
अपनों से स्नेह,अपनापन,
आज-हम सिखाते हैं अपने बच्चों को,
पारिवारिक विघटन,-दूरियां,-अकेलापन,
महत्वाकांक्षाओं की उंची और उंची ..उड़ान,
हम-‘अपने’सपनो के पंख लगा ‘उन्हें’ उतार देते हैं,
शून्य आकाश की नीरव शून्यता में,
-”उड़ो!..और ऊँचे!..उड़ते रहो!”
जब तक थक न जाएँ तुम्हारे पाँव,
तुम्हारी साँसों में टूट टूट बिखर जाये –
माता पिता का प्यार,दुलार,
तुम्हारा बचपन, संगी साथी की शरारतें,
और जब उठा न सकें तुम्हारे कंधे,
–हमारे सपनों का बोझ, ”-
”तब-झूल जाना फांसी के फंदों में,
किसी नदी नाले में डूबकर-
या रेल की पटरियों पर ..जिन्दा लाश की तरह-
माँ बाप की आँखों में आंसुवों का सैलाब देकर,
डुबो देना अपनी हताशा, निराशा, रंगीन प्यालों के बीच,
किसी खो गए अपनेपन की तलाश में –
अर्थहीन,अनजानी इंटरनेट की रंगीनियों में भटक जाना,
फिर तुम्हारे दिशाहीन भविष्य को तलाशते ,
एक प्रश्न फिर भी कौंधेगा –
”दोष किसका था?”
किसने सिखाया इन्हें –
अपने सपनो को रौंदने की कला,
समय अब भी शेष है मित्र!,
रोक लो इन्हें,
ये तुम्हारा आज,और कल का भविष्यत् हैं,
इन्हें खिलने दो ,मुस्कराने दो,
अपने सपनो. अपने अरमानो के वृन्तों पर,
इन्हें दीवारों पर टंगी तस्वीर नहीं,
अपने घर -आँगन की खुशियाँ बनने दो ”
पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर
हल्की हल्की सी ये जो बारिश है
भीगी भीगी सी किसकी ख्वाहिश है.
ये जो बादल हैं आसमानों में
यह मेरे सब्र की पैमाइश है.
बूंदें हर वक़्त दिल जलातीं हैं
जैसे क़ुदरत की कोई साज़िश है
नाम लेते ही दिल धड़कता है
दर्द की कितनी आज़माइश है.
उनको दिल में छुपा के रखते हैं
इश्क़ है ना कोई नुमाइश है
हल्की हल्की सी ये जो बारिश है
भीगी भीगी सी किसकी ख्वाहिश है।
डॉ रश्मि खुराना, लेस्टर, यूँ.के.
rkrashmi12@gmail.com
ज़िन्दगी
शाम का रंग तेरे चेहरे पे उतर आया है
नूर की बारिश है या किसी फ़रिश्ते का साया है
डूबते सूरज की लालिमा में देखो
फिर कौन कनाखियों में मुस्कुराया है
मुझसे माँगता है मेरे दर्द सारे
सरेशाम यह पैग़ाम किसका आया है
मेरी तन्हाई मेरी कसक पे न जा ऐ दोस्त
इसी टीस ने मेरी दुनिया को भरमाया है
मैं उठा लूँ दर्द जहाँ का अपने कांधों पे
इक दिया उल्फत का मैंने भी जलाया है।
डॉ रश्मि खुराना, लेस्टर, यूँ.के.
rkrashmi12@gmail.com
मन के अंध गह्वर में सोते
हर्षित उल्लसित तो कुछ कीच भरे
प्यास बुझाते बहलाते सहलाते
बहा ले जाते हैं दूर तलक
कितना मरु और कितना दलदल
कितने अवरोधक पर इस निर्झर के
आँखों के आगे ये रहते फैले पसरे
सोचें तो निबटें तो किस-किससे
कितना वैभव कितनी प्रगति है
दिखती बिखरी पर कितनी उदासी
हर शख्श अकेला ओढ़े बैठा मुखौटा
दूसरों से क्या ख़ुद तक से वफ़ादार नहीं
मीत नहीं, करुणा और सहानुभूति नहीं
हर अंतस् उदास हर आत्मा भटकती प्यासी
शैल अग्रवाल, बरमिंघम, यूँ.के.
उदासी
—-
महकें ना खिले
मुरझाए थे जो फूल
खड़े पर जाने कबसे
बगिया की छाती पर
आत्म घाती यह उदासी
परछांई-सी संग संग चलती
बसंत के सपने देखती आँखें
सीधा काम उलटा कर आती
हताशा की निराश जो बेटी
असफल कामनाएँ लेकर
सपनों के मलबे पर रोती
जिन्दगी को दुतकारती जाती
निकलो इस अँधेरे से बाहर
सूरज ने देखो बाहें फैलाई
चीर अँधेरा झाँकी है सुबह
इसका ही यह नाम पुकारती…
शैल अग्रवाल, बरमिंघम, यूँ.के.
ज़िन्दगी
—–
प्यार, उपकार.
मान अपमान
वैभव और तिरस्कार
चन्द हाथों का
सुविधा अनुसार
व्यापार ही तो अब जिन्दगी
पर प्यासों की यह प्यास
पतझर की हो जैसे आस
जैसे रेत बिखरी सूखी
दो बूँद की आस लिए
दरकती ही जाए धरती
सोख लेगी यह सब
तन और मन…
सूखा एक कंकाल
बेहाल जब जिन्दगी
-शैल अग्रवाल, बरमिंघम, यूँ.के.
हरी घास सी बिछी देह ने बदल दिए मौसम,
शब्द चलने लगे,
जुलाहों के करघे की तरह,और
बुनने लगे तागा तागा,कि,
वक़्त से पहले तय नहीं होता कभी,
वह जो होना है और जो सोचा था
बदकार आँख ने चुनी फरिश्ताना अदा,
प्रेम के लिए ख़रीदा,
सुनहरा चमकता पिंजरा,और देखा,
दो पत्तियों के बीच से रिसता प्रेम,कि
आँख को दरकार थी नये चश्मे की
बदल रही थी दुनिया तेज़ी से ,
कब्रिस्तानी सिसकी ने बोझिल किया,
हवा को मगर,
थके दिल ने फिर भी तलब की जगह
बालिश्त भर और, घुटने सीधे करने को
बेआवाज़ शख्स के मुह से निकली,
तलब की बेसाख्ता कराह,
वक़्त ने चूम लिया,
उसकी नाक की नोक पे ठहरे सूरज को |
दीपक अरोड़ा
उनको लगता है कि मैं शृंगार नहीं करती,
यह बस तसव्वर है उनका,
मैं तो हर रंग के सांचे में हूँ ढलती।
कभी बेटी, बहन, माँ, प्रियतमा या सखी बनकर,
प्यार और दुलार का शृंगार करती हूँ हर रूप में।
बड़े से छोटों की बातें, बिना कहे ही सुन लेती हूँ,
मुस्कान की चादर में दर्द और तन्हाई ढक लेती हूँ।
और उनको लगता है कि मैं शृंगार नहीं करती।
मेरी आँखों की नमी वो भाँप न पाए,
अश्रु की बूंदों को हंसी में छिपा लेती हूँ।
भले हों दिल में कितने ही उमड़तें तूफ़ान
चेहरे को हमेशा मुस्कान के शृंगार से सजा लेती हूँ,
और उनको लगता है कि मैं शृंगार नहीं करती।
माँ को तसल्ली देने के लिए
हजार बहाने बना लेती हूँ,
उनके हर सवाल का जवाब,
पकवानों और दावतों के चरव्यूह में घुमा देती हूँ।
और उनको लगता है कि मैं शृंगार नहीं करती।
गमों की परछाइयों को
कहकहों में छुपा लेती हूँ,
दर्द की पोटली को दिल के कोने में छिपा,
जीवन के हर रंग से खुद को रंग लेती हूँ।
और फिर भी,
उनको लगता है कि मैं शृंगार नहीं करती।
शृंगार तो केवल आभूषणों का नहीं होता,
यह तो हर दिन, हर भूमिका में,
खुद को ढालने का हुनर है।
जीवन के हर रिश्ते में खुद को समर्पित कर,
मैं शृंगार करती हूँ, बस वो देख नहीं पाते।
और
उनको लगता है कि मैं शृंगार नहीं करती।
वंदना “रूही” खुराना
अंतर
——-
मनुष्य और गिद्ध में
बस थोड़ा ही तो
फर्क होता है
गिद्ध गिद्ध होता है जन्मजात
और
मानव पहले-पहल
चिड़िया-सा कोमल
दिल के साथ होता है पैदा
फिर धीरे-धीरे
बड़े होते जाते
डैनों के साथ
गिद्ध में परिवर्तित
हो जाता है कभी-कभी।
-अनिता रश्मि, राँची, झारखंड
विषादग्रस्त की अनकही
—————-
ये जानता हूँ मैं सबके जैसा नहीं हूँ माँ ,
तुमको फ़ख़र हो जिस पे वैसा नहीं हूँ माँ !
कुछ कर न पाया अद्भुत, कि तुमको मान हो
हासिल न कुछ किया ,जो तुम्हारी शान हो ,
कुछ छीन लिया रब ने ,क्यों मैं पिछड़ गया ?
ये राज़ मेरा जीवन ,नाकाम कर गया।
कुछ सबसे कम हूँ फिर भी तेरा ही अंश हूँ माँ
तुमको फ़ख़र हो जिसपे वैसा नहीं हूँ माँ !
शायद कभी मैं तुमको वो सुख कभी न दूँ
जो मिलता है जननी को , तुष्टि न दे सकूँ।
फिर भी मैं कोशिशें तो करता रहूँगा माँ
जग हो न संग चाहे ,तेरे संग होऊंगा माँ।
तेरी आँखों के उजाले ,मेरे दिए हैं माँ ,
तुमको फ़ख़र हो जिसपे वैसा नहीं हूँ माँ !
मैं चाहता था मैं भी ,कुछ नाम कर सकूँ
जिससे तुम्हें ख़ुशी हो, वो काम कर सकूँ ,
मुझे घात जो मिला है, उसे किसको दोष दूँ ?
कमियाँ बसी जो मुझ में, उन्हें कैसे दूर करूँ ?
फिर भी तू चाहे मुझको ये जानता हूँ माँ
तेरे भरोसे जीवन मैं काटता हूँ माँ !
ये जानता हूँ मैं सबके जैसा नहीं हूँ माँ ,
तुमको फ़ख़र हो जिसपे वैसा नहीं हूँ माँ !
-सुनीता राजीव, देहली भारत
भारत / संदीप तोमर
मुझे ठीक ठीक याद है
बचपन में सुना था कि
एक राजा दशरथ के पुत्र भरत हुए
और एक दुष्यंत पुत्र
दुष्यंत पुत्र की वीरता का आलम भी सुनता आया
बचपन में शेर के दांत गिने थे उन्होंने
कहा गया-उनके नाम से ही ये देश भारत है
वीरता का अपना इतिहास हो सकता है लेकिन
मेरे लिए सबसे महान शब्द “भारत”
और इसकी सार्थकता इस बात में है कि
इसमें पला-बढ़ा किसान पुत्र
कौनसा गणित सीखना चाहता है
उसके लिए विज्ञान के मायने क्या हैं
और मजदूर की संस्कृति क्या है
जो महल, अट्टालिका और मेहराव बनाकर
बूढा हो जाता है पुस्त-दर-पुस्त
और बुझा नहीं पाता पेट की भूख
उसके लिए पेट एकमात्र समस्या है
जिसकी भूख मिटाने के लिए
वह बेच देता है अपना तन
और कई बार गर्भस्त शिशु भी
उनके लिए जीना ही संस्कृति है
और मौत का अर्थ है
भूख से निजात पाना
जब भी कोई भारत की परम्परा की दुहाई देता है
और बात करता है” राष्ट्रवाद” की
तो मेरा मन कहता है —
उसके कान में पिघला शीशा डाल दूँ
उसे दिखाऊँ
वह भारत, जहाँ
एक कटोरा भात के लिए, बच्ची
दम तोड़ देती है, और विरोध में लिखने पर
पाश या फिर गौरी लंकेश को मार
विचारो की हत्या का षड्यंत्र रचा जाता है;
जाने कैसे लिखा गया होगा इसका इतिहास जहाँ
इसका सम्बन्ध किसी दुष्यन्त से रहा होगा
वह दुष्यंत जो मनोरंजन के बाद
भूल जाता है वन में रचाई शादी ही,
भारत का मूल अर्थ खोजना होगा
खेतों में बहते पसीने में
मजदूर के पेट की भूख में या फिर
गर्भवती शकु की चींख में
हरिहर झा
मेलबोर्न, आस्ट्रेलिया